Sunday, July 31, 2022

प्रेमचंद : कलम से रुपहले परदे तक

 (मुन्शी प्रेमचंद की 142वी जयंती पर विशेष, पीपल्स समाचार पत्र के संपादकीय पर भी प्रकाशित)


     सिनेमा की शक्ति को सब पहचानते हैं, परन्तु साहित्यिक अहंकार और संकुचित सोच के कारण, इस नये माध्यम को आत्मसात करने से घबराते हैं - वे ये भूल जाते हैं कि सम्यक्-सांस्कृतिक परिवर्तन के लिए शक्तिशाली माध्यमों की जरूरत होती है                                             - कमलेश्वर



      आज से तकरीबन दो दशक पहले प्रसिद्ध साहित्येकार और पटकथा लेखक कमलेश्वर की ये युक्ति, वर्तमान दौर में सिनेमा और साहित्य के रिश्ते को भी बतलाती है और दोनों माध्यमों के बीच उपस्थित अंतर्द्वंद का भी चित्रण करती है। सिनेमा और साहित्य दोनों ही शिक्षा, जागरुकता और मनोरंजन के माध्यम है बस फर्क ये है कि सिनेमा संप्रेषण का एक नव्योत्तर माध्यम है और साहित्य एक पारंपरिक माध्यम। हर नवीन माध्यम को, पुरातन माध्यम के समर्थकों से आलोचना झेलनी ही पड़ती हैं तो वहीं आधुनिक माध्यम, प्राचीन माध्यम को हासिये पर धकेलता हुआ आगे बढ़ता है। लेकिन इन आलोचनाओं और प्रतिस्पर्धाओं के बावजूद दोनों माध्यम अपनी-अपनी उपयोगिता को बरकरार रखते हुए तथा एकदूसरे पर अपना-अपना प्रभाव छोड़ते हुए आगे बढ़ते हैं।

     सिनेमा ने भी अपनी विकास यात्रा के लिये साहित्य का अवलंबन लिया और उसे अपने में समाहित अंतर्वस्तु, साहित्य की चौखट पे ही मिली। जब साहित्य पर सिनेमा की ये घुसपैठ शुरु हुई तो साहित्यकार भला कहाँ चुप रहने वाले थे और आलोचना के इस दौर में खुद मुंशी प्रेमचंद ने ही सिनेमा पर निराशवादी प्रतिक्रिया व्यक्त की- साहित्य ऊंचे भाव, पवित्र भाव अथवा सुंदरम् को सामने लाता है। पारसी ड्रामे, होली, कजरी, बारहमासी चित्रपट आदि साहित्य नहीं हैं क्योंकि इन्हें सुरूचि से कोई प्रयोजन नहीं है। सिनेमा में वही तमाशे खूब चलते हैं जिनमें निम्न भावनाओं की विशेष तृप्ति हो। साहित्य दूध होने का दावेदार है, जबकि सिनेमा ताड़ी या शराब की भूख को शांत करता है। साहित्य जनरूचि का पथ-प्रदर्शक होता है, उसका अनुगामी नहीं, सिनेमा जनरूचि के पीछे चलता है।

      शुरुआती दौर में सिनेमा की आलोचना करने वाला यही उपन्यास सम्राट, सिनेमा का सर्वाधिक लोकप्रिय साहित्यकार बना। हिन्दी साहित्य में सबसे ज्यादा फ़िल्में प्रेमचंद की रचनाओं पर ही बनी और ये स्वाभाविक भी है क्योंकि प्रेमचंद-सा ख्यातिप्राप्त और प्रासांगिक रचनाकार दूसरा कोई हिन्दी साहित्य में हुआ भी नहीं है। जब बंबई में बोलती फ़िल्मों का दौर शुरु हुआ तो प्रेमचंद ने खुद बंबई का रुख किया, पर इस माया नगरी और व्यवसायिक फिल्म इंडस्ट्री में वे असफल ही हुए। मोहन भावनानी की कंपनी अजंता सिनेटोन के प्रस्ताव पर 1934 में आठ हजार रुपए सालाना के अच्छे-खासे अनुबंध पर वे मुंबई पहुंचे। प्रेमचंद की कहानी पर मोहन भावनानी ने 1934 में ‘मजदूर  बनाई। प्रेमचंद का क्रांतिकारी तेवर उसमें इतना प्रभावी था कि फिल्म सेंसर के हत्थे चढ़ गई। मुंबई प्रांत; पंजाब/लाहौर; फिर दिल्ली- फिल्म पर प्रतिबंध लगते गए। उसमें श्रमिक अशांतिका खतरा देखा गया। फिल्म की विधा तब नई थी, समाज में फिल्म का असर तब निरक्षर समुदाय तक भी पुरजोर पहुंचता था। अंतत: ‘मजदूर ‘ सेंसर से पास हुई, पर चली नहीं। हां, उसके असर के बारे में कहते हैं कि प्रेमचंद ने अपने सरस्वती प्रेस के मजदूरों को जागृतकर दिया था। वहां के श्रमिकों में असंतोष भड़क गया। साहित्य की तरह सिनेमा में भी प्रेमचंद का आगाज़ क्रांतिकारी ढंग से हुआ। इस फिल्म में न सिर्फ मुंशीजी ने संवाद लिखे, बल्कि एक संक्षिप्त किरदार भी निभाया। सिल्वर स्क्रीन पर यह संभवतः प्रेमचंद की इकलौती प्रस्तुति थी।  

     इस फिल्म की असफलता के बाद प्रेमचंद का संचार की इस विधा से मोहभंग हो गया। उन्होंने कहा- मैं जिन इरादों से आया था, उनमें से एक भी पूरा होता नजर नहीं आता। ये प्रोड्यूसर जिस ढंग की कहानियां बनाते आए हैं, उसकी लीक से जौ भर भी नहीं हट सकते। वल्गैरिटीको ये एंटरटेनमेंट बैल्यूकहते हैं।अभी वह ज़माना बहुत दूर है, जब सिनेमा और साहित्य का एक रूप होगा। लोक-रुचि जब इतनी परिष्कृत हो जायगी कि वह नीचे ले जाने वाली चीज़ों से घृणा करेगी, तभी सिनेमा में साहित्य की सुरुचि दिखाई पड़ सकती है1934 में ही प्रेमचंद के उपन्यास सेवासदन  (जो पहले उर्दू में 'बाजारे-हुस्न' नाम से लिखा गया था) पर नानूभाई वकील ने फिल्म बनाई। यह फिल्म बिना प्रेमचंद की मर्जी के उनकी रचना से खिलवाड़ करके प्रस्तुत हुई थी। प्रेमचंद उससे उखड़ गए थे। हिंदी साहित्य में लेखक और फिल्मकार की तकरार की कहानी वहीं से प्रारंभ हुई मानी जा सकती है। हालांकि कुछ साल बाद इसी उपन्यास पर तमिल में के. सुब्रमण्यम ने जब फिल्म बनाई, तो प्रेमचंद उससे शायद संतुष्ट हुए हों, क्योंकि यह एक सफल फिल्म थी। अगले वर्ष उनके उपन्यास नवजीवन  पर फिल्म बनी, यह भी एक सार्थक फिल्म मानी गई। सिनेमा में उपन्यास सम्राट के सक्रिय योगदान की कहानी बस यही तक थी। 1936 में उनका निधन हो गया। लेकिन उनके साहित्य का दामन सिनेमा ने कभी नहीं छोड़ा।

     निधन के बाद उनकी कहानी पर स्वामी फिल्म बनी जो कि  औरत की फितरत और तिरिया-चरित्र नामक कहानियों पर आधारित थी। इसके अलावा उनकी प्रसिद्ध कहानी दो बैलों की कथा पर भी 1959 में कृष्ण चोपड़ा के निर्देशन में हीरा-मोती नामक फिल्म बनी। जिसकी काफी सराहना हुई।

     साठ के दशक में सिनेमा को प्रेमचंद की रचनाओं पे कुछ नायाब कृतियाँ देखने को मिली। उनके लोकप्रिय उपन्यास गोदान और गबन पर इसी नाम से 1963 और 1966 में फिल्में प्रदर्शित हुई। गोदान का निर्देशन त्रिलोक जेटली ने किया था। इस फिल्म में राजकुमार और महमूद जैसे निष्णांत कलाकारों ने अभिनय किया। गोदान की लोकप्रियता का आलम यह रहा कि दूरदर्शन ने इस उपन्यास पर 26 एपिसोड के एक धारावाहिक का भी निर्माण किया जिसका निर्देशन गुलजार द्वारा किया गया। गोदान के अलावा गबन भी हिन्दी सिनेमा की एक चर्चित फिल्म है जिसका निर्देशन ऋषिकेष मुखर्जी द्वारा किया गया तथा इसमें सुनील दत्त, साधना और मुमताज जैसे कलाकारों ने मुख्य भुमिका अदा की।

     हिन्दी सिनेमा के इतर क्षेत्रीय सिनेमा में भी प्रेमचंद एक चर्चित साहित्यिक हस्ती रहे। प्रायः विभिन्न साहित्यिक कृतियों पर फिल्म निर्माण के लिये पहचाने जाने वाले भारतीय सिनेमा के वरिष्ठतम, सुप्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजीत रे ने, प्रेमचंद की कहानी सद्गति पर इसी नाम से फिल्म का निर्माण किया। जिसे राष्ट्रीय अवार्ड से नवाजा गया। बंगाली सिनेमा के अलावा 1977 में मृणाल सेन ने प्रेमचंद की कहानी कफ़न पर आधारित ओका ऊरी कथा नाम से एक तेलुगु फ़िल्म बनाई, जिसको सर्वश्रेष्ठ तेलुगु फ़िल्म का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।

     सिनेमा के अध्यापक की तरह जाने वाले सत्यजीत रे ने हिन्दी में सिर्फ एक फिल्म का निर्माण किया- शतरंज के खिलाड़ी। ये भी प्रेमचंद की कहानी पर ही आधारित थी। कहा जाता है प्रेमचंद के अंतरंग को जितने अच्छे से सत्यजीत रॉय ने समझा है उतना कोई और फिल्मकार नहीं समझ पाया। प्रेमचंद की कथाओं के भावों और संवेदनाओं को पूर्ण न्याय के साथ रॉय ने अपनी फिल्मों में प्रस्तुत किया है।

     इन तमाम फिल्मों और कई टेली धारावाहिकों के अलावा, आज भी प्रेमचंद के साहित्य का अकूट भंडार फिल्मकारों को कई कथानक उपलब्ध करा सकता है। ये साहित्य आज भी सिनेमा से अछूता है। इस साहित्य पर सामाजिक सोद्देश्यता से भरपूर सार्थक सिनेमा का निर्माण किया जा सकता है किंतु आज के इस सायबर युग में किसे फुरसत है जो प्रेमचंद के साहित्य को टटोले। यही वजह है कि हमारा सिनेमा, विदेशी और दक्षिण भारतीय फिल्मों के मोहपाश में उलझा हुआ है। उन मसाला फिल्मों का ही हिन्दी कलेवर तैयार कर हमारे फिल्मकार महान् निर्देशक होने का राग आलापे हुए हैं और अच्छी कथाएं न मिलने का रोना रो रहे हैं। सिनेमा की गरिमा को आसमानी ऊंचाई देने के लिये हमें सार्थक साहित्य की शरण में जाना ही होगा और इस रास्ते में हमारी मुलाकात प्रेमचंद से न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता।

                                      

Friday, April 16, 2021

लगेगी आग तो आएंगे घर कई जद में....

 महाभारत में एक प्रसंग है जहां यक्ष द्वारा युधिष्ठिर से जो अनेक प्रश्न पूछे गए उनमें आखिरी था-

दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?

जिसपर युधिष्ठिर ने जवाब दिया-

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।

शेषाः स्थावरमिच्छन्ति किमाश्चर्यमतः परम्॥

 (अर्थात-हर रोज आंखों के सामने कितने ही प्राणियों की मृत्यु हो जाती है यह देखते हुए भी इंसान अमरता के सपने देखता है। विश्व मे इससे महान आश्चर्य और क्या होगा?)

 


इसी यक्ष प्रश्न को आधार लेके अटल बिहारी वाजपेयी ने कविता लिखी थी-


जो कल थे,

वे आज नहीं हैं।

जो आज हैं,

वे कल नहीं होंगे।

होने, न होने का क्रम,

इसी तरह चलता रहेगा,

हम हैं, हम रहेंगे,

यह भ्रम भी सदा पलता रहेगा।


अपने सामने मौत का मचा यह तांडव देखके भी हृदय में कोई कौंध नहीं उठती, वैराग्य नही जगता। मसलन, सद्विचार के अनेक कारण मिलने पर भी सम्यक परिणमन नही होता। सोचें, हम क्यों चाहते हैं कि ये महामारी दूर हो? ताकि हम फिर से अतृप्त वासनाओं, कामनाओं, अपने अहम, काम-क्रोध व मोह को जी सकें। महत्वाकांक्षाओं के नाम पे अपने स्वार्थ व लालच को पूरा कर सकें। 

क्या है ये जो इस महान विपदा में भी लोगों को 'रेमडेसिवीर' की कालाबाज़ारी करने, 100 की दाल 120में बेचने, जिंदगियों को ताक पे रखके नेताओं को चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करता है। वास्तव में ये जो भी है न ये कोरोना से भी खतरनाक वायरस है।

कोरोना देर सबेर चला जायेगा पर ये स्वार्थ, लालच, अहंकार, वासनाओं और अतृप्त इच्छाओं का वायरस आखिर कब जाएगा? क्या बनेगी इसके लिए भी कोई वैक्सीन?

आचार्य पूज्यपाद 'इष्टोपदेश' में लिखते हैं-

विपत्तिमात्मनो मूढ़ः परेषामिव नेक्षते।

दह्यमान- मृगाकीर्णवनांतर- तरुस्थवत्।।

(यानि जंगल मे लगी आग की ज्वाला से जल रहे मृगों से आच्छादित वन के मध्य खड़े पेड़ पर बैठे मनुष्य की तरह मूर्ख प्राणी अन्य की विपत्ति/मृत्यु तो देखता है पर अपनी विपत्ति की सुध नहीं लेता।)

ये विपत्ति भी एक ऐसा ही मेगा अलार्म है जो हमें उस नींद से जगा रहा है जिसके आगोश में हम खुद को इतना बड़ा समझ बैठे हैं कि 'कोई और' व 'कुछ और' नज़र ही नहीं आता। बस अब फिर कहीं हम इसे Snooze करके न सो जाएं।

अहमद फ़राज़ लिखते हैं-

मैं आज ज़द पे अगर हूँ, तो ख़ुश-गुमान न हो।

चराग़ सब के बुझेंगे, हवा किसी की नहीं।।


~अंकुर


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Monday, September 23, 2019

महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना : 150वी जयंती विशेष

(गांधी जी की 150वी जयंती वर्ष में प्रकाशित हो रही एक पत्रिका के विशेषांक के लिए लेख तैयार किया है इसलिए ब्लॉग के पाठकों के लिए जरूरत से ज्यादा लम्बा है। अतः स्वयं की रिस्क पे ही प्रवेश करें। यदि पूरा पढ़ते हैं तो यकीन मानिए कुछ तो नया प्रमेय अवश्य प्राप्त करेंगे।)


कुछ महापुरुष तटस्थ होकर चिंतन करते हैं और अन्वीक्षण, चिंतन, मनन, विश्लेषण, संश्लेषण आदि के आधार पर नई व्यवस्था की कल्पना करते हैं तथा नये मूल्यों, नये आदर्शों तथा नई आस्थाओं का सृजन करते हैं। नई व्यवस्था देने वाले ऐसे तटस्थ चिन्तक धन्य होते हैं क्योंकि केवल आलोचना करते रहना तो सरल है किन्तु उपाय बताना कठिन है। मार्क्स ने कुछ उपाय बताये और लेनिन ने उन्हें मूर्त रूप दिया। रूसो, लास्की आदि ने भी उपाय बताये, उन्हें साकार करना अन्य जन पर निर्भर रहा। किन्तु कुछ महापुरुष इससे और भी आगे गये। उन्होने केवल उपाय नहीं बताया बल्कि स्वयं एकनिष्ठा से उस पर आचरण करने के लिये जुट गये। महात्मा गांधी ने जो समझा वही कहा, और जो कहा वही किया। उनके विचार, कथनी और करनी एक ही थे। उनमें अपनी बात कहने और आचरण करने का साहस था। उनका जीवन अपने सुझाये हुये उपायों एवं आदर्शों के आधार पर विहित प्रयोगों और अनुभवों की सजीव श्रृंख्ला है। महात्मा गांधी काल के प्रवाह के साथ नहीं बहे, वे युग प्रवर्तक हो गये। इसी ने गांधी को महान और अलौकिक पुरुष सिद्ध किया।



महात्मा गांधी को लेकर प्रस्तुत उपरोक्त चिंतन उनके जीवन के व्यवहारिक पक्ष को प्रदर्शित करने के साथ साथ उनकी आंतरिक वृत्ति को भी उजागर करने का एक जरिया है। महात्मा गांधी की इसी आंतरिक और बाह्य वृत्ति के साम्य के चलते अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना भी मुश्किल होगा कि महात्मा गांधी की तरह हाड़ मांस का कोई ऐसा भी मानव धरती पर जन्मा था। आज गांधी जी के जन्म के करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद भी महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और उनके सिद्धांतों की जरुरत यह बताती है कि महात्मा गांधी जितना भौतिक रूप में सामने नजर आये उससे कई गहरे वह आंतरिक स्तर पर समझने लायक हैं। बापू के भौतिक जीवन में उनकी आध्यात्मिक चेतना की सुगंध है। इसलिये महात्मा गांधी को समझने के लिये राजनीतिक लिबास में बैठे आध्यात्मिक व्यक्तित्व को समझना जरुरी है।

अहिंसा, सत्याग्रह, खादी, स्वदेशी, अनशन, ब्रह्मचर्य, स्वावलंबन, स्वच्छता, समता, अपरिग्रह जैसे सिद्धांत और प्रतीकों को गांधी के जीवन में साकार होते देखा जा सकता है और आदर्श को अपने जीवन का यथार्थ बनाने के कारण ही वे महात्मा कहलाये। हालांकि बापू के साथ महात्मा शब्द का प्रयोग हमें उनसे दूर होने का अहसास कराता है और कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि वे महात्मा थे इसलिये ऐसा कर पाये लेकिन हमें यह समझना होगा कि वे भी हमारी तरह ही एक आम आदमी थे, उनमें भी एक आम इंसान की ही तरह कमिया और विसंगतियां थीं लेकिन अपनी उन कमियों को समझ कर, उन्हें दूर कर महान् आध्यात्मिक सिद्धांतों को जिस तरह से उन्होंने जी कर दिखाया उसी ने उन्हें महात्मा बनाया।

उनकी इस आध्यात्मिक चेतना का जो आधार है उसी पर उन्होंने प्रतिबद्धत्ता के साथ गमन किया और वही दर्शन गांधी दर्शन के नाम से जाना गया। इससे कोई ये न समझे कि गांधी ने किसी दर्शन का प्रवर्तन किया हो, बल्कि वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। वे कहते थे कि जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, कि अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है। लेकिन समझने लायक बात यह है कि गांधी की राम पर दृढ़ आस्था होने के बावजूद, गांधी के राम किसी पर थोपे नहीं जाते थे। उनमें अपनी आस्तिकता को लेकर कोई हठ नहीं था बल्कि वे जितना सम्मान अपनी आस्तिकता से करते थे उतना ही किसी अन्य की नास्तिकता भी उनके लिये सम्माननीय थी। यह बल महज धार्मिक होने से नहीं आ सकता बल्कि इसके लिये कोई सघन और गहन आध्यात्मिक चेतना चाहिये। गांधी के लिये राम महज वंदनीय नहीं थे बल्कि राम उनके लिये अनुमोदनीय व अनुकरणीय थे यही वजह है कि राम की सहजता, समता, निराभिमानिता, उदारता, सत्यनिष्ठा जैसे गुणों को उन्होंने अपने जीवन में साकार करने की चेष्टा की।

महात्मा गांधी की दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। वही सत्य, वही शिव और सुंदर है। जो सुंदर है उसे शिवमय होना चाहिए। उन्होंने यह माना है कि सदा से मनुष्य अपने शरीर को, अपने भोग को, अपने स्वार्थ को, अपने अहंकार को, अपने पेट को और अपने प्रजनन को प्रमुखता प्रदान करता रहा है। पर जहाँ ये प्रवृतियाँ मनुष्य में हैं, जिनसे वह प्रभावित होता है। वहीं उसी मनुष्य में उत्सर्ग और त्याग, प्रेम और उदारता, नि:स्वार्थता तथा व्यष्टि को समष्टि में लय करके अहंभाव का सर्वथा त्याग करने की और विराट में लय हो जाने की दैवीय भावना भी प्रवर्तमान है। इन भावों का उद्बोधन तथा उन्नयन दानव पर देव की विजय का साधन है। इसी में अनैतिकता का पराभव और अजेय नैतिकता की जीत गर्भित है।

महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना और उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते हैं कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। स्वार्थ, दंभ, लोलुपता, अहंकार, भोग की प्रवृत्ति, तृप्ति के लिए किए गए शोषण, प्रभुता तथा अधिकार और अपने को ही सारे सुखों, संपदाओं और वैभव तथा ऐश्वर्य का दावेदार समझने की प्रवृत्ति उनकी दृष्टि में वे पशुभाव हैं जो मनुष्य को पशुता, अमानवता और अनैतिकता की ओर ले जाते हैं। उनकी अहिंसा केवल आदर्श तक ही परिमित नहीं है। वे उसे ही लक्ष्य की संसिद्धि के लिए शक्तिमय साधन के रूप में भी देखते हैं। अहिंसा को पशुता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करने और उसे अजेय तथा अमोघ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में गांधी जी की प्रतिभा अपनी अभूतपूर्व अभिनवता प्रदर्शित करती है। उनकी अहिंसा केवल जीवहिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परम शक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। अन्याय और अनीति के सम्मुख मस्तक झुकाना पाप है। पशुता को प्रश्रय मत दो पशुता के सामने सिर न झुकाओ, अनीति और पशुता का सामना अनैतिकता और पशुता के द्वारा मत करो क्योंकि वह पशुता पर पशुता की विजय होगी। पशुता पर देवत्व की विजय तब होगी जब नैतिक और शुभ अस्त्रों से अनैतिक और दानव भाव की पराजय हो। शस्त्र से शस्त्र का, हिंसा से हिंसा का, क्रोध से क्रोध का पराभव नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसा निष्क्रिय नहीं सक्रिय है। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई सत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है।

उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी अहिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। शस्त्र का सहारा लेकर अहिंसक वीर की आत्मा का दलन करने में कोई सत्ता, साम्राज्य अथवा शक्ति समर्थ नहीं हो सकती। अहिंसा नैतिकता पर आश्रित है, अत: सत्य है और सत्य ही सदा विजयी होगा। इस प्रकार संसार के सामने अहिंसा के रूप में उन्होंने उज्वल, महान और नैतिक पथ निर्मित किया। जिसने मनुष्यसमाज और जगत को गतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की। वे उन समस्त मान्यताओं, धारणाओं और दृष्टियों के प्रतिवाद हैं जिनका आधार भौतिकवाद है। वे प्रतीक हैं उन समस्त भावों के जो मनुष्य को पशुता की ओर नहीं, देवत्व की ओर बढ़ने की दिशा का संकेत करते हैं।

गांधी जी की एकांत प्रियता उनकी आध्यात्मिक उन्नत्ति को समझने का एक अहम् जरिया है वे कहते हैं अकेलापन कई बार अपने आप से अनेक सार्थक बातें करता है, वैसी सार्थकता भीड़ में या भीड़ के चिंतन में नहीं मिलती। जो व्यक्ति आत्मिक तौर पर कमजोर है वह हमेशा भीड़ का आग्रही होता है उसे महफिलों की तलाश होती है पर गांधी एकांत में आत्मचिंतन और स्वयं को समझने के प्रयास में तल्लीन रहा करते थे। बापू कहते थे   जो कला आत्‍मा को आत्‍मदर्शन की शिक्षा नहीं देती, वह कला नहीं है। उनकी नजर में वे सभी प्रतिभाएं और कौशल अर्थहीन हैं जो आध्यात्मिक यात्रा पर न ले जा सकें। वे भौतिक उड़ान को महत्व न देते हुये अंतर की गहराई में उतरने को तवज्जो दिया करते थे। अपने जीवन को ही अपना संदेश कहना और मौन को ही सर्वोत्तम भाषण बताना यह सिद्ध करता है कि महात्मा गांधी खुद को भौतिक तौर पर जाहिर करना कतई नहीं चाहते थे बल्कि वे उस व्यक्ति को ही वरीयता देते थे जो उनके आंतरिक व्यक्तित्व, उनकी आध्यात्मिक गहराई को समझ सके।

महात्मा गांधी निरपेक्ष, आडंबरहीन और सहज जीवन जीने के हिमायती थे। वे इच्छा को सभी विसंगतियों का मूल मानते थे। बापू कहते थे कि- इच्‍छा से दुख आता है, इच्‍छा से भय आता है, जो इच्‍छाओं से मुक्‍त है वह न दुख जानता है और न ही भय। उन्होंने आत्मबल को दुनिया के हर बल की तुलना में अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि   दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं; सत्य, दया और आत्मबल पर टिका हुआ है।

महात्मा गांधी साध्य से अधिक साधन पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि यदि साध्य पवित्र और मानवीय है तो साधन भी वैसा ही शुद्ध, वैसा ही पुनीत और वैसा ही मानवीय होना चाहिए। हम देखते हैं कि साध्य और साधन की समान पवित्रता पर बल देना और उसका आश्रय ग्रहण करना उनकी साधना रही है। उनके इन मौलिक विचारों ने मानव समाज के विकास के इतिहास में एक अत्यंत उज्वल ओर पवित्र अध्याय की रचना की है। गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम, महावीर का अपिरग्रह और अहिंसा एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँचे-ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरुषों की समस्त उच्चता गांधी जी में निहित दिखाई देती हैं।

उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी, इसी कारण संत स्वभाव के बावजूद उनमें राजनीतिक सक्रियता भी देखने को मिली। आध्यात्मिक समाजवाद के पक्षधर महात्मा ने इतिहास की आध्यात्मिक व्याख्या की है। यह उतना ही पुराना है जितना पुराना व्यक्ति की चेतना में धर्म का उदय। उन्होंने केवल बाह्य क्रियाकलापों या भौतिकवाद को सभ्यता-संस्कृति का वाहक नहीं माना बल्कि गहन आंतरिक विकास पर बल दिया।

रचनात्मक संघर्ष में असीम विश्वास रखने वाले गांधीजी मानते थे कि जो जितना रचनात्मक होगा स्वतः ही उसमें उतनी संघर्षशीलता के गुण आएंगे। स्वतंत्र राष्ट्र ही दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ मिलकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना फलीभूत कर सकेंगे। वो स्वराज के साथ अहिंसक वैश्वीकरण के पक्षधर थे जिससे दुनिया में स्वस्थ, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हो। गांधीजी मानते थे कि पश्चिमी समाजवाद, अधिनायकतंत्र है जो एक दर्शन से ज्यादा कुछ नहीं। जबकि गांधी जी के जीवन में दर्शन से ज्यादा आध्यात्मिक चेतना का महत्व था। वास्तव में उनकी आध्यात्मिक चेतना ही उनका दर्शन माना गया।

वरिष्ठ लेखक शंभुनाथ शुक्ल आध्यात्मिक चेतना के संदर्भ में गांधी और स्वामी विवेकानंद की तुलना करते हुये लिखते हैं- भारतीय चेतना का मुख्य आधार अध्यात्म है। अध्यात्म जीवन से हटा लीजिए तो जो बचेगा वह न्यायसंगत नहीं होगा, समाज के लिए हितकर नहीं होगा और हमारी चेतना को नष्ट कर देने वाला होगा। भारतीय मिथकों और महाकाव्यों में जो भी नायक है, वह चेतना से युक्त है। उसमें सत्यनिष्ठा है, वचनबद्धता है और समर्पण है। अगर मनुष्य इनसे हीन है तो वह देखने में मनुष्य भले हो लेकिन मनुष्यता उसके अंदर नहीं होगी। ज्यादा दूर नहीं जाएं तो आप पाएंगे कि स्वामी विवेकानंद और मोहनदास करमचंद गांधी दो ऐसे लोग हुए हैं जिनकी आत्माएं अध्यात्म चेतना से युक्त थीं। यह अलग बात है कि एक धर्म की तरफ गया और दूसरा राजनीति में। इसीलिए स्वामी विवेकानंद कर्मयोगी कहलाए व गांधी जी महात्मा। इस कड़ी में और भी तमाम लोग हैं लेकिन यहां उन्हीं महापुरुषों को लिया गया है जिन्होंने अपनी अध्यात्म चेतना के बूते देश में क्रांति का बिगुल बजाया। देश अगर स्वतंत्र हुआ तो गांधी जी की आत्मनिष्ठा और आध्यात्मिक चेतना के चलते और समस्त भारतीय समाज में यूरोप के सामने जिस तरह की हीन भावना थी, उससे मुक्त कराया तो स्वामी विवेकानंद ने।

इस तरह के देखते हैं कि गांधी जी के समूचे आचार, विचार और व्यवहार में उनकी आध्यात्मिक चेतना निहित थी। उनका धार्मिक विश्वास भी आध्यात्मिक चेतना के आधार पर खड़ा था। गांधी जी को समझने के लिये यह स्पष्टतः समझ लेना होगा कि गांधीवाद के नीचे धर्म की एक ठोस बुनियाद है, जिसके बारे में उनका मानना था कि इसके संस्कार उन्हें अपनी माता से मिले। गांधी जी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि सार्वजनिक जीवन के आरंभ से ही उन्होंने जो कुछ कहा और किया है, उसके पीछे एक धार्मिक आध्यात्मिक चेतना और धार्मिक उद्देश्य रहा है। राजनीतिक जीवन में भी उनके धार्मिक विचार, उनके राजनीतिक आचरण के लिये पथ-प्रदर्शक बने रहे। वे स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनका कहना था कि मेरा धर्म तो वह है जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है। जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट संबंध में बाँध देता है और जो सदैव पाक-साफ करता है। गांधी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम करना सिखाता है। न्याय तथा शांति की स्थापना के लिये खुद के बलिदान की प्रेरणा देता है। उनकी निगाह में धर्म निर्बल का बल तथा सबल का मार्गदर्शक है।

महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना से निकले सिद्धांतों में कितना बल था इसका प्रमाण हमें बीसवीं शताब्दी में दुनिया के कई अन्य महान् नेताओं मे देखने को मिला जिन्होंने गांधी के ही सत्याग्रह और अहिंसा को अपना हथियार बनाया। 20वीं शताब्दी के प्रभावशाली लोगों में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मिखाइल गोर्बाचोव, अल्बर्ट श्वाइत्ज़र, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग (जू.), आंग सान सू की, पोलैंड के लेख वालेसा आदि ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने-अपने देश में गांधी की विचारधारा का उपयोग किया और अहिंसा को अपना हथियार बनाकर अपने इलाकों, देशों में परिवर्तन लाए। यह प्रमाण है इस बात का कि गांधी के बाद और भारत के बाहर भी अहिंसा के ज़रिये अन्याय के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी गई और उसमें विजय भी प्राप्त हुई।

गांधी जी अपने में इन आध्यात्मिक संस्कारों के सृजन का अहम् श्रेय श्रीमद् राजचन्द्र जी को देते हैं जो उस वक्त के शताब्धानी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध थे और अनासक्त व एक योगी की भांति जीवन जीने के लिये जाने जाते थे। गांधी जी को सर्वप्रथम गीता पढ़ने की प्रेरणा भी उन्हीं ने दी थी और श्रीमद् भगवत् गीता का गांधी जी की आध्यात्मिक चेतना पर गहरा असर पड़ा। गीता के कई श्लोकों को उन्होंने न सिर्फ कंठस्थ किया बल्कि किसी भी विषम परिस्थिति में उसके सहारे संबल प्राप्त किया। अपनी आत्मकथा में गांधी जी एक श्लोक उद्धृत करते हैं-


ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः, कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।

अर्थात्- विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।

उक्त श्लोक का स्मरण यह दिखाता है कि इस श्लोक में कहे गये कथ्य का किस तरह उनके जीवन में प्रभाव था और यही उनकी अनासक्तता और आध्यात्मिक चेतना के विकसित करने में सहायीभूत रहा है।

गांधी जी अपने को अध्यात्म में रमा मानते थे पर उनका अध्यात्म उनकी शख्सियत और उनकी दैनिक जिंदगी में पूरी तरह रच बस गया था। वह खुद को यानी आदमी को अहिंसा और सत्य के आदर्श का अभ्यासी या उसके पथ का यात्री मानते थे। वे सत्य और अहिंसा को अभिन्न मानकर चलते थे। उनका समीकरण था अपने प्रति सच्चाई अहिंसा से ही आती है। उनकी मानें तो अहं केंद्रित आत्मबोध छिछला होता है, जो क्षणिक सुख से जुडा होता है। इसकी जगह वे आत्मसमर्पण या कहें अहं को विगलित करने को कहा करते हैं। अपने ऊपर ओढ़ी गई तरह तरह की झूठी पहचानों को उतारने को कहते हैं। जातिगत अन्याय, संप्रदायवाद, अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को उन्होंने रचनात्मक ढंग से दुत्कारा है। उनका मानना था अहम् को खोकर ही वास्तविक आत्मबोध हो सकता है, इस बात को उन्होंने हिंदू के रूढ़िगत अर्थ से उबार कर चरितार्थ किया। वे व्यक्ति की अवधारणा को हमेशा समाज में उसकी भूमिका और उससे जुड़े दायित्वों के साथ ही देखते थे।

महात्मा गांधी की धार्मिक आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि देखने के लिये सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के साथ का यह वाक्या समझना बहुत जरुरी है- कंटेपररी इंडियन फिलॉस्फी’ के लिए राधाकृष्णन ने गांधी से तीन सवाल पूछे थे- (1) आपका धर्म क्या है, (2) आप धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए और (3) सामाजिक जीवन पर इसका क्या असर रहा है? प्रश्नों की प्रकृति से ही संकेत मिलते हैं राधाकृष्णन ने गांधी को धर्म-विश्वासी मानकर सवाल किए। गांधी जी के उत्तर इसके अनुकूल ही थे।

गांधी जी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा 'मैं धर्म से हिंदू हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का श्रेष्ठतम शामिल है।  दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया- 'मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते प्रवृत्त हुआ। यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरू किया है क्योंकि ईश्वर को लोग नकार सकते हैं लेकिन सत्य को नकारा नहीं जा सकता। यहां तक कि मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है। हम सब सत्य की कौंध हैं, इस कौंध का सकल-समग्र- यानी अज्ञात सत्य, ही ईश्वर है। मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट पहुंचता हूं.'

और, तीसरे प्रश्न के उत्तर में गांधी जी ने सत्य यानी ईश्वर से जुड़ी अपनी राजनीति का खुलासा किया। गांधीजी ने कहा- 'ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निःस्व करना पड़ता है। सत्य का साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है, इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है।'

अपनी किताब ‘अकाल-पुरुष गांधी’ में साहित्यकार जैनेंद्र ने महात्मा के बारे में लिखा है कि 'गांधी जी ने एक बार कहा था कि मेरा सबकुछ ले लो मैं रहूंगा। हाथ काट लो, आंख और कान ना रहें तब भी रहूंगा। सिर जाए तब भी कुछ पल रह जाऊं, पर ईश्वर गया कि तब तो मैं उसी दम मरा हुआ ही हूं।'

जैनेंद्र ने गांधी जी की इस बात का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा कि—‘राजनीति और धर्म में भेद है, विग्रह भी है लेकिन गांधीजी उन दोनों के अभेद हैं और संग्रह हैं। वह जीवित उदाहरण हैं इस सत्य के कि जीवन संयुक्त, समग्र और सिद्ध है तो वहां जहां वह निस्व (निःस्वार्थ) है। इस मूल निष्ठा को पाकर फिर गांधीजी का बस एक प्रयत्न रहा है वह यह कि अपने समूचेपन और तन को लेकर उस निष्ठा से तत्सम हो जायें। इस तरह दुनिया में रहकर गांधी जी सदा परीक्षा में हैं और उनके हाथों में राजनीति भी सदा परीक्षा में ही है।

महात्मा गांधी 20वीं शताब्दी के दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक और आध्यात्मिक नेताओं में से एक माने जाते हैं। वे पूरी दुनिया में शांति, प्रेम, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, मौलिक शुद्धता और करुणा तथा इन उपकरणों के सफल प्रयोगकर्त्ता के रूप में याद किये जाते हैं, जिसके बल पर उन्होंने उपनिवेशवादी सरकार के खिलाफ पूरे देश को एकजुट कर आज़ादी की अलख जगाई। गांधी ने अपने जीवन के समस्त अनुभवों का प्रयोग भारत को आज़ाद कराने में किया। वास्तव में गांधी का आध्यात्मिक चेतना, भारत की आध्यात्मिक चेतना की ही प्रतिछाया है। इस देश की आध्यात्मिक विरासत ही गांधी जी में साकार होते देखी गई है। उनका कहना था कि भारत की हर चीज़ मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएँ रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिये जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है। 

भारत यानी भाव, राग और ताल का समन्वय। भाव का संबंध मन से है, राग का वचन से है और ताल का संबंध तन से है। गांधी जी इसी भारत के समन्वय या एक्य के प्रतीक थे। जिनके मन, वचन और तन अर्थात् काया की चेष्टाएं एक सम थीं और यही उनकी आध्यात्मिक चेतना की संजीवनी थी। इस आध्यात्मिक चेतना का ही असर उनके जीवन के समस्त दर्शन और सिद्धांतों में दिखा और वही आध्यात्मिक चेतना अपने विभिन्न रूपों में आज गांधी जी के जन्म के डेढ़सौ वर्ष बाद भी पूरी निष्ठा के साथ पूजी जा रही है।

Thursday, May 9, 2019

तुमसे ही इतना सीखा...क्या तुम्हें सिखा दूं मैं !!! (सफ़र साल भर का)

प्रिय तत्वार्थ,


व्यस्तताओं, असंख्य अनुभवों एवं नित नये-नये अहसासात से लवरेज़ बीता एक वर्ष कैसे बीता और हवा के तेज झोंके के मानिंद साल के 365 रोज़ कैसे उड़ गये...  पता ही न चला। इस एक वर्ष में कुछ ऐसे जज्बात ज़ेहन की जमीं पर चस्पा हुए जो कई किताबों, फिल्मों या व्याख्यानों को पढ़-देख-सुन भी समझ पाना मुमकिन नहीं था। गुजिश्ता वर्ष में मिली तालीम के अध्यापक तुम्हीं हो, जिसने बताया कि खुद की महत्वाकांक्षाओं का बौना होना क्या होता है... जिसने बताया त्याग, समर्पण और वात्सल्य की समृद्ध परंपरा के बारे में जो हमें अपने पूर्वजों से मिलती चली आ रही है। तुम्हारे लिये ये मेरा दूसरा ख़त है इसे भी तुम अरसे बाद ही समझ सकोगे पर जो तुम्हें देखकर मेैं अभी कहना चाहता हूँ उसके लिये मैंअरसे का इंतजार नहीं कर सकता क्योंकि फिर ये अहसास ऐसे न रह सकेंगे जो अभी हैं।

तुम्हें बढ़ता हुआ देख, बहुत कुछ सिखाने को जी चाहता है लेकिन यकीन मानो तुम्हारी अपनी उत्प्रेरणाओं से जो कुछ भी तुम सीख रहे हो और सहज ही जो कुछ हमें सिखा रहे हो उसके आगे कुछ भी तुम्हें सिखाना मुझे खुद के बौनेपन का अहसास कराता है। दिल तो यही कहता है कि बालत्व के कुछ गुणों को तुम हमेशा बनाये रखो जिन्हें देख हमें बारंबार उन गुणों के चलते तुमपे प्रेम आता है। उम्र और शरीर से बड़े हो जाने के बाद भी कई असल बढ़प्पन के वे गुण हम सब लोगों में नजर नहीं आते जो इस निश्छल, निष्काम बचपन में तुम धारण किये हुए हो। पता नहीं वक्त के साथ इनमें से कितने गुणों को संजोकर तुम आगे ले जा सकोगे।

अपने कार्यक्षेत्र से लौटकर घर पहुंचने पर तुम्हारी मासूम मुस्कान को देख सारी थकान चली जाती है इतनी निस्पृह मुस्कानें आखिर बड़े लोगों की दुनिया में दिखती ही कहां है यहां तो मुस्कुराहटों के पीछे लालसाएं छिपी हैं न जाने कौन सी मुस्कान हमें छलने का चक्रव्यूह है हम समझ ही नहीं पाते। चोट खाकर अपने दर्द को क्षण में भुला देना और किसी नये नजारे या खिलौने में खुद को व्यस्त कर फिर ताजगी से भर जाने का हुुनर तुम में ही हो सकता है। इंसान बड़ा होकर ग़म से रीतना ही नहीं सीख पाता, अरसे पहले मिली चोटों के ज़ख्म भर जाने के बरसों बाद भी उनके ग़म से व्यक्ति भरा रहता है। कहो तो जरा ये अदा तुममे आई कहां से।

तुमपे अपना सर्वस्व लुटाके ही ये सीख पाया कि हमारे माता-पिता क्या कुछ हमारे लिये करते हैं। रातों में रतजगे होने के बाद भी तरोताजा सुबह तभी हो सकती है जब कोई निरपेक्ष प्रेम की ऊष्मा हमें मिली हो। बार-बार गिरके सतत् प्रयास करना क्या होता है भला बता सकता है कोई ज्ञान का पुरोधा हमें। अक्सर, सैद्धांतिक बातों में ही होने वाले बड़े-बड़े उपदेशों को व्यवहारिक जीवन में चरितार्थ होते देखा जा सकता है बचपन में। भले उन सैद्धांतिक बातों का कखग भी शाब्दिक तौर पर न समझते हो तुम। इस अंतः स्फूर्त प्रेरणा को जीवन के आगामी सोपानों पर जाने कहां गंवा देते हैं हम; जो बचपन में चलने, दौड़ने, बोलने और नित नया सीखने की सर्वोत्तम उत्प्रेरणा है। पहली करवट, पहला कदम, पहले लफ्ज़... और जाने क्या-क्या जो कुछ पहला तुम्हारे जीवन में अब तक हुआ वो आगे की तमाम उपलब्धियों से बड़ा है। इस पहला कर पाने की स्वप्रेरणा को यदि तुम कायम रख सके तो विश्वास मानो जमाने द्वारा तय किये गये सफलता के शिखर बौने नज़र आयेंगे तुम्हें।

तुम किसी धर्म, संप्रदाय या दार्शनिक ग्रंथों में बंधकर कुछ सीखने के मोहताज नहीं। मुझे तो लगता है कि इस निश्छल बचपन को देख ही शायद धर्मग्रंथों के उद्गार लिखे गये होंगे। मोह, माया, काम, क्रोध, अभिमान या लोभ की वृत्तियां हममें जमाने की तालीम मिलने के बाद पनपती हैं बचपन तो स्वतः इन दुर्दांत वृत्तियों से रिक्त ही होता है। तुम जब हंसना चाहते हो तो हंसते हो, जब रोना चाहते हो तो रोते हो पर हम सब ऐसे नहीं है हम आंसूओं और मुस्कुराहटों के साथ आंखमिचोली करते हैं। झूठा मुस्कुराते हैं, आंसू छुपाते हैं और खुद को मजबूत दिखाने के मिथ्या अभिनय करते हैं पर तुम हमें हमसे भी ज्यादा मजबूत नजर आते हो क्योंकि तुम निडर होकर हर जोखिम लेने के लिये तत्पर होते हो। वे जोखिम ही तुम्हें सिखाते हैं तथा और भी बड़ा बनाते हैं।

इस वर्ष भर के सफर में हमने बदलती हुई तुम्हारी अदायें देखीं, कुछ सीखने के बाद उन अदाओं में निरंतर आये बदलाव को देखा और उस हर छोटी-छोटी सीखते हुए बदलने की अदा ने तुम पर बारंबार हमें फिदा किया। ये सीखने की वृत्ति बनाये रखना, जो अभी नैसर्गिक तौर पर तुम में विद्यमान है। अपने आसपास की छोटी छोटी चीज़ों का आनंद लेने की कला हम बड़े होकर गंवा देते हैं पर अभी तुम ऐसे नहीं हो। छोटी-छोटी चीज़ों में खुशियां तलाशना बहुत बड़ा हुनर है पर ये भी उम्र के पड़ाव हमसे छीन लेते हैं। पौधों की पत्तियां, फूलों, मिट्टी, पानी और जानवरों के प्रति वर्तने वाला तुम्हारा प्रेम बड़ा अद्भुत है। हम बड़े होकर इन सबके प्रति निष्ठुर हो जाते हैं इन सबके प्रति प्रेम बनाये रखना, क्योंकि इन सबने तुम्हें बचपन में बहुत हंसने के मौके दिये हैं।

इस गुजरे वर्ष में तुमने शब्दों को कम समझा पर मुस्कानों को बखूब समझा। किसी की एक मुस्कुराहट और उसका सतत दीदार तुम्हें उसके करीब लाने के लिये काफी रही और चेहरे को पढ़ने के इस हुनर ने ही तुम्हें संबंधों को विस्तार देने में मदद की। इन संबंधों में तुम्हारा कोई छल नहीं था न कोई लालच। संबंध गर इसी तरह तुम गढ़ते रहे तो रिश्तों में कभी बिखराव नहीं देखोगे। काश ये चीज़ हम तुम से सीख सकते, क्योंकि यहां अपने अहंकार को पुष्ट करते हुए ही हम संबंध रखते हैं और उन संबंधों में बेइंतहा लालसाएं होती हैं। ज़रा सी गलतियों पर रिश्ते बिखर जाते हैं पर तुम गलतियों को मुस्कुराहटों से बौना समझते हो। तुम्हें संभालने में गर हमसे कोई गलती हुई और उस कारण तु्म्हें चोट मिली तब भी तुमने हमारी मुस्कुराहट और प्रेम के आगे उस गलती को भुला दिया। दूसरों से माफी मांगने में पीछे मत रहना और माफ करने के लिये भी तत्पर रहना। इससे तुम अपने चित्त को कभी भारी न होने दोगे... और दिलोदिमाग के हल्केपन के साथ निष्चिंत जी सकोगे जैसे अभी जी रहे हो... बेफिक्र, बेखौफ और बिंदास।

याद रखना तुम्हारे साथ तुम्हारे चाचा का बेटा, तु्म्हारा भाई श्रद्धान भी कम या कुछ ज्यादा सीखते हुए बढ़ रहा है अमूमन महीने भर के अंतराल से तुम दोनों का हमारे परिवार में आने से कई चुनौतियों का सामना हमने किया। हो सकता है किसी को कम या ज्यादा सुविधाएं भी मिली हों लेकिन ज़ेहन में किसी के प्रति कम या ज्यादा लगाव हो ऐसा नहीं है। इस साथ को बनाये रखना... चुंकि तुम बड़े हो इसलिये इस रिश्ते में तुम बढ़प्पन दिखाना। ज्यादा देना, कम लेना। विपत्तियों में तुम आगे रहना और उपलब्धियों में अपने भाई को आगे करना। आज से बीस वर्ष बाद ऐसा प्रेम तुम्हें अपने आसपास देखने मिले इसकी मोहताजगी मत रखना... प्रेरणा लेने से बेहतर है खुद एक प्रेरणा बन जाना।

और तो बहुत कुछ अपने पिछले खत में मैं कह चुका हूं उसे यहां भी जानना। कहने को अब भी बहुत है पर कम कहा ज्यादा समझना। उम्मीदें बहुत हैंं जो हर पिता को होती हैं पर हमें पता है तुम अपनी योग्यता अनुसार ही बढ़ोगे। हमारी अपेक्षाएं और कर्तत्व का अहंकार एक भ्रम है.... पर इस ख़याली सुख से कुछ मुस्कानें हम भी चुनौतियों के बीच पा लेते हैं इसलिये असल से बेहतर ये भ्रम जान पड़ते हैं। तुम बढ़ो और खुद को खुद से गढ़ो इसी आशीष के साथ... जीवन के पहले वर्ष का सफल सफ़र मुबारक हो।

Monday, April 15, 2019

मेरी प्रथम पच्चीसी : पंद्रहवीं किस्त

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(*जीवन की पहली पच्चीसी बयां करने के क्रम में आने वाली 31 जुलाई को ज़िंदगी के 31 बसंत पूरे कर लूंगा। वर्ष 2013 में 31 जुलाई को ही स्वांतसुखाय शुरु की गई जीवन की इस श्रंख्ला को करीब छह वर्ष का वक्त गुज़र गया...पर पच्चीसी का ये सफ़र अब भी जारी है। शुरुआत में सोचा नहीं था कि इतना वक्त लग जायेगा और इन बीते वर्षों में हुए कई तरह के अच्छे-बुरे बदलावों के साथ ज़ेहनी ऊहापोह ने इसे इतने लंबे वक्त तक खींच दिया...कुछ मेरा ही आलस, तो कुछ व्यस्तताओं से श्रृंख्ला लंबे समय अवरुद्ध रही। खैर, आगे बढ़ते हैं उम्मीद है पच्चीसी जल्द अपने अंतिम पड़ाव पर पहुंचेगी)

गतांक से आगे....

मास्टर डिग्री ख़त्म होने के बाद अब दिलोदिमाग की निगाहें एक अदद नौकरी की तलाश कर रही थी...साथ पढ़ाई करने वाले दोस्त-यारों में से कई आजीविका से लग गये थे और ज़िंदगी के अगले पड़ाव में प्रविष्ट हो गये थे तो कई दोस्त मेरी ही तरह बीच भंवर में फंसे थे और बस तब यही दोस्त सहानुभूति और गम का सहारा हुआ करते थे। एक-दूसरे से मिल, बात कर हम आपस में एक दूसरे का संबल बनने की निरर्थक कोशिश करते थे। ये ऐसा दौर होता है जब दीन न होने के बावजूद हम स्वयं को सबसे ज्यादा दीन-हीन महसूस करते हैं। मसलन, एक चाय के लिये पैसे देने पर भी ऐसा महसूस होता था कि हम मानो बाप के पैसे में ऐश कर रहे हों, जो कि एक नैतिक, चारित्रवंत पुत्र को निश्चित ही आत्मग्लानि से भरने के लिये काफी होता है। घर-परिवार के लोग उम्मीद संजोये ये सोचा करते हैं कि बेटा उज्जवल भविष्य की नई इबारत गढ़ रहा है लेकिन उनसे दूर कुछ खुद की जरुरतें और कुछ विलासिता में होने वाले खर्चे ज़ेहन को तोड़े डाल रहे थे। बेसब्री का दौर भी होता है ये, जब हम तुरत-फुरत में ही किसी बड़े पद, मोटी तनख्वाह और सामाजिक प्रतिष्ठा को झट से पाने का ख्वाब पाल लेते हैं लेकिन ये तमाम चीज़ें मिलने में वक़्त लगता है, ये वक़्त गुजरने के बाद ही पता लगता है।

बहरहाल, कुछ छुट-मुट कोशिशों के बाद भी नौकरी न लगी तो अचानक आगे की पढ़ाई करने का प्रस्ताव हाथ लगा.. जब कुछ करने को न था तो सोचा पढ़ ही लिया जाये। और ये बंदा अपने एक अदद दोस्त को साथ लिये पहुंच गया मध्यप्रदेश की व्यवसायिक राजधानी इंदौर, जहाँ देवी अहिल्याबाई विश्वविद्यालय से जनसंचार में एम.फिल करने की ठानी। यहाँ एक औपचारिक इंट्रेंस टेस्ट दिया और हो गया एडमिशन। ये फैसला बाइ च्वाइस नहीं, बल्कि बाइ चांस लेना पड़ा लेकिन मैं अपने संगी साथियों में यही बताता था कि ये मेरी पसंद का फैसला है और हेकड़ी बघारते हुए कहता कि नौकरी करने के लिये तो ज़िंदगी पड़ी है पर पढ़ाई करने का वक़्त दोबारा लौटकर नहीं आ सकता। ये बात प्रथम दृष्टया भली जान पड़ती है लेकिन मैं इसे सिर्फ खुद को विशेष बताने के लिये प्रयोग करता क्युंकि असल में तो मैं एक उच्छिष्ट भोगी था जिसने नौकरी न मिल सकने पर पढ़ने का मजबूरी वश मन बनाया था।

इंदौर में जिस वर्ष (2009) एमफिल शुरु की उस वर्ष समूचे मध्यप्रदेश के विश्वविद्यालयों में प्राध्यापकों की हड़ताल का दौर था लिहाजा प्रथम सत्र के शुरुआती तीन महीने कोई अकादमिक डेवलमेंट नहीं हुआ। इन तीन महीनों में न तो अगले सफर पर ही मैंने कुछ कदम बढ़ाये थे और न ही पिछला पड़ाव ही ज़ेहन से छूटने का नाम ले रहा था तो बड़ी त्रिशंकु जैसी हालत थी। ऐसे में जवानी के जुनून, महत्वाकांक्षाओं का सैलाब और फैसलों में नियमित तौर पर वर्तने वाले कन्फ्युसिंग रवैये के चलते दिल बड़ा बेचैन रहा करता। आज जब उस उम्र के कुछ युवाओं से मिलता हूूूँ तो उन्हें भी ऐसे ही परेशान होते देखता हूँ। अपने अनुभव से उन्हें कुछ समझाना भी चाहता हूँ लेकिन ये जानता हूँ कि किसी के समझाने से इस दौर की ऊहापोह दूर नहीं होती, बल्कि भविष्य में गुजरते वक्त, होती गलतियों और बढ़ते अनुभवों से ही ये सब समझ में आता है।

इंदौर में क्लासेस जब शुरु हुईं तो उन्हें रस्मी तौर पर अटेंड करता लेकिन किसी से दिली जुड़ान न हो पा रहा था क्युंकि पुराने दरख़्तों से दिल अब भी चिपटा हुआ था। इस वक़्त में कुछ सुकून था तो वो अपने पुराने कुछ दोस्तों से आये दिन फोन पर होने वाली अतीत की जुगाली ही थी और इसी खालीपन के दौर में पल्लवित हो रही प्रेम की कोंपल भी एक और खुशी का जरिया रही। वहीं अपने फ्लैट पर साथी बने तीन अन्य रूममेट्स के साथ होने वाली तफरी और विचारों का विरेचन नये रिश्ते गढ़ रहा था इन तीन साथियों में से दो मेरे जयपुर में अध्ययन के दौरान के सीनियर थे जिनसे पहचान तो थी पर उस वक्त ये रिश्ता और गहरा बना।

वक़्त अपनी रफ़्तार से गुजर रहा था एमफिल का प्रथम सत्र भी गुजरा। चुंकि दूसरे सत्र में सिर्फ डिजर्टेशन बनाने की जिम्मेदारी थी तो नियमित कॉलेज जाने की कोई बाध्यता नहीं थी इसलिये अब वापस अपने ज़ेहनी रिश्ते वाले शहर भोपाल लौट आया था और यदा-कदा ही इंदौर जाना होता। इस खाली वक़्त में कुछ किताबें पढ़ने, लिखने और अपने चंद दोस्तों के बीच थोड़ा-बहुत ज्ञान पेलने के अलावा कोई खास काम नहीं था। इस वक़्त में एक बार फिर नौकरी के लिये हाथ-पैर मारे पर 6-7 हजार मासिक वेतन वाली नौकरियों तक में कहीं सिलेक्शन न हो सका। इस हताशा के वक़्त में हम अपने आसपास कुछ फ़जूल के ख़याली किले बना लेते हैं तब न हम किसी से मिलना चाहते हैं, न किसी जगह जाना चाहते हैं बस अपने ही सेफ ज़ोन में रहते हुुए खुद की घुटन को महसूस करते हैं क्युंकि महफिल़ों में अक्सर पूछा जाने वाला सवाल- "और क्या चल रहा है?" इसका हमारे पास कोई अदद जवाब नहीं होता। और हम तन्हाईंयों से ही अपना वास्ता जोड़े रखने में खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। इस तरह अमूमन 2010 का पूरा वर्ष, यूं ही 'बिना कुछ अच्छा या बिना कुछ ज्यादा बुरा' हुए बगैर ही गुजरा।

कोई खास काम-धंधा न होने से मिला खालीपन प्रेम के पल्लवन का सबसे मुफीद वक़्त होता है और इस वक्त जो भी कोई अपोजिट जेंडर का शख़्स आपके परिचय में सबसे करीब होता है उससे आप दिल लगा बैठते हैं। कई मामलों में व्यस्तताएं प्रेम विच्छेदन की वजह बनती हैं तो खालीपन, मुफलिसी और बेचारगी उसी प्रेम के खाद-पानी बन जाते हैं। इस ख़ाकसार के साथ भी कुछ ऐसा ही हो रहा था... लौटूंगा उस ज़ेहनी दास्तां को लेकर, बिना किसी व्यक्ति-विशेष को निशाना बनाये, सिर्फ अपने जज़्बात लिये। इंतजार कीजिये अगली किस्त का....