Thursday, May 5, 2016

मेरी प्रथम पच्चीसी : चौदहवीं किस्त

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(जीवन के पहले पच्चीस वर्षों को लिखने के लिये तकरीबन ढाई साल पहले प्रवृत्त हुआ था पर अब तक जीवन के बीसवें पड़ाव तक ही बमुश्किल पहुंचा हूँ। अतीत के गलियारे में न कुछ छोड़ने का मन करता है न कुछ अधुरा लिखने को...काम हाथ में लिया है तो अधिकतम बयां करने की कोशिश भी है। लेकिन पेशेगत व्यस्तताएं, रचनात्मक अभिरुचियों के लिये फुरसत नहीं देती। इसलिये कथानक विलंब से आगे बढ़ रहा है...लेकिन खुशी है कि बढ़ रहा है। देर से  ही सही काम हाथ में लिया है तो पूरा करूंगा जरूर।)

गतांक से आगे....

कॉलेज टूर से लौटने के बाद बस उन दस दिनों की खुमारी ही छाई हुई थी। जो एक दिव्य दर्शन रिश्तों को लेकर हमने उस कॉलेज टूर के बाद जाना था वो इस वाक्य में कुछ इस तरह बयां हुआ था कि "इस टूर से पहले जिन्हें हम सिर्फ जानते थे उनके करीब आ गये और जिनके करीब थे उन्हें जान गये।" रिश्तों के नये ताने-बाने इस शैक्षणिक भ्रमण के बाद बुने गये थे। जिनमें से कई आज भी कायम है...और उन रिश्तों के दरमियां झूमता है बस वही एजुकेशन टूर। 

खैर, यदि उन यादों में उलझ गया तो इस किस्त में उससे ही बाहर नहीं निकल पाउंगा क्योंकि ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा और यादगार दस दिन थे वे। लेकिन पच्चीसी को वहां ठहराना अभीष्ट नहीं है सो बढ़ता हूँ आगे। कॉलेज के तीसरे सेमेस्टर की परीक्षा देने के बाद चौथे सेमेस्टर का अधिकतम वक्त कैंपस सिलेक्शन और कहीं जॉब या इंटर्नशिप की तलाश में ही ज़ाया होता है सो हम भी अपने इस अनजान भविष्य की तलाश में उन्हीं अहसासों से दो-चार हुए, जिनसे प्रायः हर युवा होता है। किसी एक कैंपस में सिलेक्ट नहीं हुए तो लगा कि दुनिया ही लुट गई...किसी इंटरव्यु में जलालत का सामना करना पड़ा तो आत्मविश्वास सरक के धरती के क्रोड में समा गया। जिन दोस्तों की जॉब लगती उनसे बरबस ही ईर्ष्या होती। धीरे-धीरे कॉलेज लाइफ की तत्कालीन खुशियां किसी अनजान भविष्य की खोज में स्वाहा होने लगीं। 

देखादेखी हमने भी किसी चैनल की तलाश शुरु कर दी जो या तो हमें नौकरी दे या कम स कम इंटर्नशिप करने का ही मौका दे दे...और ये खोज पूरी हुई रायपुर के जी चौबीस घंटे न्यूज चैनल में जाकर, जो वर्तमान में आईबीसी-24 कहलाता है। हम नौ दोस्तों में से सिर्फ पांच लोग ही इंटर्नशिप में चयनित हुए..भाग्य से मैं इन पांच में शामिल था। जिन दोस्तों को नहीं चुना गया उन्हें लेकर काफी दुख था..दुख का कारण ये नहीं कि उनके करियर को दिशा नहीं मिल पाई बल्कि उसके पीछे मेरा स्वार्थ था कि सिर्फ यही शाकाहारी और मेरी फितरत वाले दोस्त थे...और अब जबकि ये साथ नहीं होंगे तो मुझे मन मार के किसी अनचाहे मित्र के साथ गुजर-बसर करनी होगी। दुख का एक कारण ये भी था कि जिन दोस्तों का सिलेक्शन नहीं हुआ वे जबरदस्ती मुझे अपने साथ इस इंटरव्यु के लिये लाये थे और यहाँ आकर मैंने उनका ही स्थान छीन लिया। करियर को आकार देने में ऐसे कई कठोर फैसले हमें लगातार ताउम्र करने होते हैं जहाँ लौकिक महत्वाकांक्षाओं की आग में कई मर्तबा ज़ेहनी अहसासों और रिश्तों को हमें होम करना पड़ता है।

तब ये भी लगा कि जब इंटर्नशिप के लिये इतनी मशक्कत है तो एक अदद नौकरी के लिये कितना भटकना पड़ेगा। जिन सपनों को लेकर इस रास्ते पर मैं निकला था उसके संघर्ष की दास्तां अब शुरु हो रही थी। हम अपने वाञ्छित भविष्य को जितना आसान और स्वर्णिम समझ उसके सपने देखा करते हैं उसका रास्ता कभी भी उतना दिलकश नहीं होता। ख्यालों में खूबसूरत दिखने वाली चीज़ों की असलियत उनके नजदीक आने पर ही पता चलती हैं। मीडिया, जिसके ग्लैमर से आकृष्ट हो इस क्षेत्र में आने का मन बनाया था उसके निष्ठुर यथार्थ ने विचलित कर दिया। असंवेदनशीलता और गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने भावनाशून्य प्रवृत्ति का आविर्भाव कर दिया। चुंकि मैं अपने पारिवारिक और धार्मिक संस्कारों से बंधा हुआ था इसलिये अपने दायरों को लांघने की हिम्मत तथा रुचि कभी नहीं हुई। सहकर्मियों-साथियों को धूंए में अपना तनाव उड़ाते और मयखानों में अपना ग़म मिटाते देखता तो हरबार लगता कि क्यों एक सीधी-सादी शांत ज़िंदगी छोड़ मैं इस रास्ते पर आगे बढ़ रहा हूं।

ग्रामीण पृष्ठभुमि, छोटी सी दुनिया, परिवार-दोस्त सब छूट रहे थे...और अब लगातार मिल रही बेतरतीब सूचनाएं, संवेदनाओं को ख़त्म कर रही थीं। इस तरह के माहौल में काम कर बेशक हम वैश्विक हो जाते हैं पर अपनी ज़मीन से उखड़ हमारी हालत त्रिशंकु की भांति हो जाती है। जहाँ दुनिया तो हमारे दिमाग में होती है पर हम किसी के दिल में नहीं रह जाते। जिन्होंने हमें अपने दिलों में आसरा दे रखा था...वो हमारी बौद्धिक व्यापकता के समक्ष बौना जान पड़ता है। 

कहते हैं पहला कदम सोच समझ कर उठाइये क्योंकि दूसरा कदम अंधा होता है...अब जबकि पहला कदम तकरीबन उठ चुका था। तो पीछे मुढ़ना भी मुश्किल था और आगे जाने से डर लग रहा था। इसलिये खुद को वक्त के प्रवाह के हवाले कर बस बहते जाने का मन बना लिया...इस प्रवाह में आज भी बह ही रहे हैं। पहुंंचना कहाँ है ये भी खुद नहीं जानते...अब वक्त ही सारी नियति निर्धारित कर रहा है। वैसे असल में हर इंसान की नियति स्वतः वक्त पर ही निर्भर होती है किंतु हर कोई अपना कर्तत्व का अभिमान लिये ये समझता रहता है कि ये मैंने किया। इंसान बड़ा स्वार्थी है जब कभी भी इसके मनमाफिक चीज़ें घटती हैं तो खुद के हुनर को जिम्मेदार मानता है और जब चीज़ें प्रतिकूल होती हैं तो किस्मत या भगवान को उसका जिम्मा दे देता है।

उस पैंतालीस दिन की इंटर्नशिप का एक-एक दिन काटना बड़ा मुश्किल हो रहा था। इस बीच मन मारके और ऑफिस के दबाव में काम भी बहुत किया। मसलन आज जो पत्रकारिता मैं कर रहा हूँ उसकी असल नर्सरी वो संस्थान ही था जहां पहली बार लेखन किया, संपादन किया और रिपोर्टिंग भी की। जैसा कि मैं लगातार बताता आ रहा हूँ कि अपने धार्मिक आग्रहों से भी मैं गहरे तक बंधा था तो उनके चलते खाने-पीने का भी अदद इंतजाम मेरे लिये न हो सका। न तो मुझे बिना प्याज-लहसुन और जमींकंद वाला भोजन ही नसीब हो पाता था और न ही दिन रहते मैं घर पहुंच पाता था जिससे कभी एक टाइम खाकर तो कभी पूरा दिन फलों या चाय-बिस्किट पर ही गुजारना पड़ा। भूखे पेट इंसान कुछ ज्यादा ही बेचैन होता है...इस बेचैनी की कई वजहों में से एक वजह उपयुक्त खुराक न मिल पाना भी थी। इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि पैंतालीस दिन बाद जब मैं रायपुर से लौटा तो पूरा नौ किलो वजन उस दरमियां कम हो चुका था। मीडिया के प्रति पहली बार में ही बेहद नकारात्मक नजरिया बना। 

इंटर्नशिप के दौरान ही मुझे जॉब ऑफर की गई। 2008-09 के आर्थिक मंदी के दौर में नौकरी का मिलना किसी स्वप्न से कम नहीं था। यकीनन बहुत खुशी हुई। मैं बड़ा और बाजार संकरा नजर आने लगा। अपने हुनर पर बेइंतहा गुमान हुआ और लगा अब तो सारा जहाँ मेरे लिये ही बाहें फैला कर खड़ा है। लेकिन इस खुशी से बड़ी खुशी उस वक्त मेरे लिये वापस अपने शहर लौटना था। इसलिये जॉब के ऑफर को अपने चौथे सेमेस्टर के एक्साम के बाद करने की रुचि व्यक्त कर मैं वापस अपने वतन आने को लेकर ही ज्यादा चिंतित था। अपने घर, अपने दोस्तों के बीच, अपने उसी कॉलेज के माहौल में एक बार फिर ज़िंदगी को जीने...मैं लौटना चाहता था। इसलिये जब रायपुर छोड़ मैं भोपाल पहुंचा तो मुझे याद नहीं आता कि इतनी खुशी मुझे तब से पहले कभी अपने शहर लौटने की हुई हो।

इंटर्नशिप से लौट कॉलेज के बचे हुए दो महीनों को पूरी शिद्दत से जिया। चुंकि नौकरी लगने की बात दोस्तों में फैल चुकी थी इसलिये सभी का मुझे देखने का नजरिया भी बदल गया था...इसलिये कुछ कुछ एलीट ग्रुप वाला होने का अहसास होता था। मौज, मस्ती, हुडदंगी, किस्से, कहानी और पार्टी-शार्टी के बीच उन दो महीनों का समय भी बीत गया। एक बार फिर दोस्तों की विदाई सामने थी। ग़म के बादल फिर पसर गये थे...साल में एक बार मिलने के वादे, फोन-ऑरकुट-ई मेल के जरिये टच में रहने के वादे और न जाने क्या-क्या...पर वक्त की सीड़न और ज़िंदगी के भौतिक परिवर्तन आंतरिक हालातों को भी बदल देते हैं। रिश्तों का रेशा...कमजोर होते होते टूट जाता है...मुलाकातें फिर खयालों में ही होती है।

वक्त की करवट पलों में बदल जाती है, दिन तो बहुत दूर की बात है। इन दो महीनों में अहंकार का हिरण भी समय की दहाड़ पा कहीं छुप गया। जब पता चला कि जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ चैनल में सत्ता परिवर्तन हो गया है और अब जिस बॉस की छत्रछाया में मुझे जॉब ऑफर की गई थी वो वहां से जा चुके हैं लिहाजा अब..जबकि वो इंसान ही नहीं रहा तो उसका किया वादा कैसे रह सकता था। जिस चैनल में बादशाहों की तरह इंटर्नशिप की थी..जब वही चैनल कॉलेज में कैंपस सिलेक्शन के लिये आया तो इस हुनर के अहंकारी प्राणी का उस कैंपस में सिलेक्शन न हो सका और अपने से कमतर समझे जाने वाले कई दोस्त उस कैंपस में सिलेक्ट हो रायपुर जा पहुंचे। तन्हाई...और ग़म का एक जलजला आया। मैं वहां नौकरी नहीं करता तो मुझे यकीनन कोई परेशानी नहीं होती...लेकिन मैं वहां नहीं हूँ और मेरी जगह मेरे साथ के ही किसी और ने वहां डेरा जमा लिया है ये चीज़ खासी तड़पाने वाली थी। 

एक मर्तबा लगा कि ज़िंदगी में सब कुछ लुट गया...और अब सारे रास्ते बंद हो गये। एक लंबे समय के लिये ठहराव सा आ गया। कॉलेज ख़त्म हो गया था..दोस्त जा चुके थे। आगे का कोई रास्ता समझ नहीं आ रहा था...हाथ में न कोई नौकरी थी और न कोई लक्ष्य। अतीत की यादें और भविष्य के डरावनी कल्पनाओं में वर्तमान जख्मी हो रहा था...वक्त अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था पर मैं वहीं जड़ चुका था......ज़िंदगी के सफर में समय ने एक ऐसे चौराहे पर ला पटका था जहाँ से आगे का कोई भी रास्ता नजर नहीं आ रहा था। 

बहरहाल, वक्त बीता और वक्त ने ही खुद भविष्य का रास्ता मुकर्रर कर दिया। जिसकी दास्तां के साथ लौटूंगा जल्द....फिलहाल और ज्यादा विस्तार भय से रुकता हूं यहीं.......................

जारी................

Wednesday, May 4, 2016

कालीन के नीचे छिपी सार्थकता के "फैन" बनाम चौंधियाती सफलता का "सन्नाटा"

बीती तीन मई को हिन्दी सिनेमा ने अपने एक सौ तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। एक सौ तीन वर्ष के हिन्दी सिनेमा में सफलता का प्रतिशत भी महज तीन ही होगा और सार्थक फिल्में भी बमुश्किल तीन फीसदी ही होंगी। इनमें ऐसी फिल्में जो सफल और सार्थक दोनों ही हों वे तो एक-आध प्रतिशत ही ढूंढने से मिल पायेंगी। लेकिन इन एक-दो फीसदी फिल्मों में ही सिनेमा की श्वांसे हैं और इन्हीं की दम पर सार्थक सिनेमा का हिरण व्यवसायिकता के जंगल में दौड़ पा रहा है।

सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के कहा करते थे कि "यकीनन सिनेमा मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम हैं लेकिन इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और सामाजिक सरोकार के लिये भी किया जा सकता है" पर आज इस सिनेमा की सफलता और उद्देश्यों को नापने का एक मात्र जरिया इसकी व्यवसायिकता है। फिल्में रिलीज होने के कुछ घंटों बाद ही ये अटकलें शुरु हो जाती हैं कि अमुक फिल्म सौ करोड़ कमा पायेगी या नहीं...और कुछ घंटों बाद ही फिल्म की कमाई के ब्यौरों के आधार पर उसे सफल या असफल करार दे दिया जाता है। व्यवसायिकता के इस व्यामोह ने सिनेमा से कलापक्ष को बाहर निकाल फेंका है और उसे महज एक दुकान में तब्दील कर दिया है।

पिछले दो-तीन हफ्तों में रिलीज़ हुई कुछ फिल्में इस बात का बखूब उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जय गंगाजल, फैन, बाग़ी जैसी फ़िल्में अपनी चमक का झूठा आभामंडल रचकर पहले तीन दिन में तीस-चालीस करोड़ का व्यवसाय करती हैं और अपनी भव्यता के फरेब़ में दर्शक को ठगती है जिससे दर्शक कालीन के नीचे खामोशी से श्वांस ले रहीं कई सार्थक फिल्में देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। यही वजह है कि अलीगढ़, जुबान, निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में दर्शकों के अभाव में एक सप्ताह भी सिनेमाघरों में टिकी नहीं रह पाती। बड़े बजट की सितारा सज्जित फिल्मों से इन सार्थक फिल्मों को इस मायने में भी नुकसान है कि प्रायः मल्टीप्लेक्स में बड़ी बजट फिल्मों के साथ लगी इन ऑफबीट फिल्मों के लिये सिनेमाघरों में टिकट दरें कम नहीं की जातीं और इन्हें भी बहुसितारा-बड़ी फिल्मों की टिकट दरों पर ही देखना होता है। जिससे आम दर्शक डेढ़ सौ, दो सौ रुपये खर्च कर इन फिल्मों को देखने का रिस्क नहीं लेना चाहता।

ऐसा सिर्फ इस वर्ष की इन कुछेक फिल्मों के साथ ही नहीं हुआ है इससे पहले भी डोर, उड़ान, दसविदानिया, चलो दिल्ली, लंचबॉक्स, इंग्लिश-विंग्लिश, बीए पास, क्वीन, मसान जैसी फिल्मों को भी अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली। मजेदार बात ये भी है कि उपरोक्त वर्णित इन फिल्मों की सफलता के बाद इनके निर्देशकों को फिल्म इंडस्ट्री ने नोटिस किया...इन फिल्मों को कई अवार्ड समारोहों में सराहा गया... बाद में इन तमाम फिल्मों के निर्देशकों को उनकी अगली फिल्म के लिये पिछली फिल्मों के दम पर बड़ा स्टार्ट मिला लेकिन उनमें से कई फिल्में एक बार फिर दर्शकों की उम्मीदों पर खरी न उतर सकीं। इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा कि पहले वाली फिल्मों की सार्थकता को गौढ़ कर इन निर्देशकों ने अपनी अगली फिल्म को मसाला मनोरंजन के साथ पेश किया। इस व्यावसायिकता के आग्रह ने भले इन फिल्मों पर रुपयों की बरसात करवाई हो पर सार्थकता का पिपासु दर्शक एक बार फिर छला गया। इसके उदाहरण हमने बीते वर्ष काफी देखे जब पिछली फिल्मों से उम्मीद जगाने वाले निर्देशकों ने ऑल द बेस्ट, शानदार, बॉम्बे वेलवेट जैसे डिब्बों का निर्माण किया।

ये सारा दुख हालिया रिलीज़ 'निल बटे सन्नाटा' फिल्म में सूने पड़े सिनेमाघरों को देख पैदा हुआ है। बॉलीवुड की मौलिकता और इसके अपने खालिश अंदाज की प्रतिनिधि ये फिल्म, विदेशी फैक्ट्री के चुराये मसाला मनोरंजन "बाग़ी" से कमाई के मामले में पिछड़ गई। इस फिल्म को कई शहरों में सिनेमाघर ही नसीब नहीं हुए और जहाँ नसीब हुए भी वहां इसे दो-तीन दिन में ही या तो अपने शो कम करने पड़े या बाहर ही निकल जाना पड़ा। इस तरह से इन ऑफबीट फिल्मों का व्यवसायिकता में पिछड़ जाना कई दूसरे मायनों में भी घातक होता है। इससे इनके निर्देशक हतोत्साहित होते हैं और निर्माता भी ऐसी फिल्मों पर दाव नहीं खेलना चाहते। जिससे हम सिनेमा में सार्थक परंपरा को पनपने से पहले ही ख़त्म कर देते हैं।

बहरहाल, इस तमाम नकारात्मकता के बावजूद वे लोग बधाई के पात्र हैं जो इस रचनात्मकता के लिये अवकाश रखते हैं। 'निल बटे सन्नाटा' आज से सालों बाद भी हिन्दी सिनेमा का एक अहम् दस्तावेज माना जायेगा जबकि 'फैन' या 'बाग़ी' पर वक्त की धूल ज़रूर जमा होगी। नवोदित निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी में अपार संभावना हैं उम्मीद करेंगे कि वे इस सार्थकता को आगे भी लेकर जायें। इस फिल्म के निर्माता और रांझणा, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों के निर्देशक आनंद एल राय को भी बधाई जिन्होंने ऐसी फिल्म के निर्माण में सहयोग किया। साथ ही स्वरा भास्कर, रत्ना पाठक, पंकज त्रिपाठी को भी उनके शानदार अभिनय के लिये बधाई तथा ऐसी फिल्म के चुनाव के लिये साधुवाद।

एक बात समझना बहुत जरुरी है कि भारतीय सिनेमा प्रेम रतन धन पायो, दिलवाले, फैन या सिंह इस किंग टाइप अरबी क्लब (सौ करोड़ का क्लब) की फिल्मों से जीवंत नहीं रह सकता...इसे मसान, लंचबॉक्स और निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में ही ऑक्सीजन देती हैं और यही इसे जिंदा रखे हुए हैं।

Tuesday, May 3, 2016

''ये हौसला कैसे झुके'' को मिली अखबारों की सुर्खियां।

करीब एक वर्ष पहले विमोचित हुई मेरी पहली पुस्तक "ये हौसला कैसे झुक" को बीते वर्ष में आप सबका खासा प्यार मिला है। इससे जुड़ी खबरों को बीते वर्षों में कई अखबारों ने प्रकाशित किया जो आपके साथ साझा कर रहा हूं।













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Saturday, April 9, 2016

दूरदर्शन मध्यप्रदेश पर मेरे द्वारा किये गये कुछ कार्यक्रम।

दूरदर्शन मध्यप्रदेश (DD MP) के लिये कुछ सजीव और रिकॉर्डेड कार्यक्रम करने का अवसर प्राप्त हुआ है जिनमें से कुछ लिंक आपके साथ साझा कर रहा हूँ।

1- भोपाल गैस काण्ड की इकतीसवीं बरसी पर लाइव चर्चा।

2- बसंत पंचमी के अवसर पर लाइव चर्चा।


3- मध्यप्रदेश में हुए किसान महासम्मेलन पर लाइव चर्चा।


4- अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिलासशक्तिकरण पर चर्चा।


5- शिक्षा के व्यवसायीकरण को लेकर सजीव चर्चा।


6- होली और सामाजिक सरोकार विषय पर सजीव चर्चा।


7- विश्व सूफी सम्मेलन के वैश्विक मायनों पर सजीव चर्चा।


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Tuesday, January 26, 2016

एक झलक जेल की.....

जेलों को लेकर लोगों की अक्सर नकारात्मक धारणा होती है..आईये हम आपको दिखाते हैं जेल की एक दूसरी तस्वीर जो आपको जेल के देखने के नजरिये में निश्चित ही बदलाव लायेगी। डीडी न्यूज में प्रसारित मेरी इस रिपोर्ट को आपसे साझा कर रहा हूं..देखिय एक झलक।



Saturday, January 23, 2016

पैसे और प्रतिभा का सर्वोत्तम उपयोग...कि वो दूसरों के काम आये : एयरलिफ्ट

इन्फोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक में एक बेहद सुंदर बात कही है कि 'इस पूरे विश्व में आप अपने पैसे और हुनर का उपयोग दूसरों की मदद करने से बेहतर किसी दूसरी जगह नहीं कर सकते।' यदि आप दूसरों के मुकाबले ज्यादा भाग्यशाली है तथा पद, प्रतिष्ठा, पैसे और प्रतिभा में दूसरों से आगे हैं तो ये सब आपको सिर्फ और सिर्फ ऐसे उन तमाम लोगों के काम आने के लिये मिले हैं जो अपेक्षाकृत आपसे कम किस्मतवाले और कम संसाधन संपन्न है। सामर्थ्य होने के बाद प्राप्त जिम्मेदारी और सेवा की अनुभूति क्या होती है ये जानना है तो एयरलिफ्ट देखिये। 1990 में इराक और कुवैत युद्ध के दौरान हुए दुनिया के सबसे बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन पर आधारित इस फिल्म में यकीनन कई काल्पनिक घटनाओं और पात्रों का समावेश किया है लेकिन जिस उद्देश्य और कथ्य को लेकर ये फिल्म आगे बढ़ती है वो सिनेमा माध्यम की सार्थकता और सशक्तता को अभिव्यक्त करती है।

हम अपने घरों में बैठ जब कभी भी सरकार द्वारा चलाये गये ऐसे रेस्क्यु ऑपरेशन के बारे में पढ़ते हैं या संकट में घिरे प्रवासी भारतीयों की खबरें टीवी पर देखते हैं तो कभी भी उन हालातों की गंभीरता को महसूस नहीं कर पाते लेकिन निर्देशक  राजा कृष्ण मेनन ने जिस संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म के दृश्यों को पिरोया है और उनमें जिस तरह से सिनेमाई बिम्बों का प्रयोग किया है वो हमें इन हालातों में फंसे होने का सा अहसास कराते हैं। एक तरह से देखा जाये तो यथार्थपरक घटनाओं पर बनी फिल्मों में ज्यादा नाटकीयता भरने की संभावना निर्देशक के पास नहीं होती...क्योंकि इन फिल्मों का क्लाइमेक्स पहले से जाहिर होता है। ऐसे में कॉन्फ्लिक्ट और रिसोल्युशन को दिखाने के लिये नूतन बिम्बों का इस्तेमाल ही निर्देशकीय कौशल को दिखाता है। फिल्म के अाखिरी मिनटों में प्रस्तुत दृश्य में जब रेस्क्यु कैंप के बाहर निर्धारित भारतीय प्रतिनिधि द्वारा भारतीय तिरंगे को लहराया जाता है तो यह दृश्य दर्शकों में चरम आवेश और राष्ट्रभावना का संचार करता है...इस दृश्य को ही क्लाइमेक्स और इसे ही फिल्म के कॉन्फ्लिक्ट का रिसोल्युशन निर्देशक ने बना दिया है। 

फिल्म में प्रस्तुत पात्र  रंजीत कात्याल सहित कई दूसरे लोगों के यथार्थ में होने पर निश्चित ही कई सवाल खड़े हो सकते हैं। यकीनन निर्देशक ने इन पात्रों को कल्पना की जमीं पर ही रूपांकित किया है और घटना के सिनेमाई प्रस्तुतिकरण के लिये इतनी आजादी हर निर्देशक के पास होती है लेकिन करीब 1 लाख 70 हजार लोगों को मुसीबत से निकालने वाले इतने बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन के दौरान असल में कोई  हीरो न रहा हो  ऐसा नहीं हो सकता। जरुरी नहीं कि वो रंजीत कात्याल जैसा कोई बिजनेसमेन हो या कोहली जैसा कोई सरकारी बाबू। लेकिन कोई न कोई इन जैसा जरूर रहा होगा जिसने बिना किसी सम्मान या पहचान की चाह के अपनी लायकात, पद या सामर्थ्य का उपयोग सेवा, समर्पण और हालातों से निपटने में किया होगा। 59 दिन तक 500 से ज्यादा फ्लाइट्स से लोगों के निकालने वाले इस मिशन में उन पायलट्स, एयर कमांडोस और उन फ्लाइट्स में सवार क्रू मेंबर की भूमिका को क्या कम कर आंका जा सकता है जो उन मुश्किल हालातों के बावजूद इस रेस्क्यु ऑपरेशन में शरीक़़ हुए थे। वास्तव में दूसरों के लिये कुछ कर गुजरने के भाव रखने वाले, ऐसे लोगों की वजह से ही ये दुनिया रहने लायक है।

निर्देशक राजा कृष्ण मोहन इस फिल्म के बाद ख्यात फिल्मकारों की श्रेणी में शुमार हो जायेंगे। इससे पहले  'बस यूं ही' और 'बारह आना' जैसी दो फिल्में ही उन्होंने बनाई है। लेकिन इस फिल्म के जरिये निर्माता निखिल आडवाणी और सह निर्माता अक्षय कुमार ने उन पर विश्वास जताकर अद्बुत काम किया है। फिल्म में कहीं भी बॉलीवुडनुमा अतिरेक नहीं है...न अनावश्यक संवाद ठुंसे गये हैं न हीं एक्शन दृश्य। ऐसी कहानियों में गीत-संगीत की जरुरत नहीं होती जैसा हमने 'बेबी' फिल्म में देखा था लेकिन इस फिल्म में गानों का प्रयोग कहीं भी फिल्म की गति को बाधा नहीं पहुंचाता और वे पार्श्व में घटना को आगे बढ़ाते ही प्रतीत होते हैं। युद्ध के दृश्यों को काफी जीवंतता के साथ फिल्माया गया है। अपना वतन, अपनी जमीं और अपने लोगों के बीच रहने का सुख क्या होता है इस महसूसियत को प्रस्तुत करने में निर्देशक ने स्क्रीन के हर हिस्से का इस्तेमाल किया है। गोया कि सिनेमेटोग्राफर ने स्क्रीनप्ले के अनुरूप पात्रों के ज़ेहन में उतरकर निर्देशकीय उद्देश्यों को परदे पर उतारा है। 

वहीं यदि अभिनय की बात की जाये तो ये अक्षय कुमार के सर्वोत्तम अभिनय में से एक है और इसे वे अपने करियर की श्रेष्ठ फिल्मों में सबसे ऊपर रखना पसंद करेंगे। अक्षय ने अपने करियर में बिना किसी बड़े बैनर से जुड़कर जो नाम स्थापित किया है वो काबिले तारीफ है। नये और कम प्रतिष्ठित फिल्मकारों के साथ काम करने की परंपरा को अक्षय ने 'एयरलिफ्ट' में भी निभाया है। यही वजह है कि पचास से भी कम सफलता प्रतिशत के बावजूद अक्षय इतने सालों बाद भी आज खुद को इंडस्ट्री में बनाये हुए हैं। अक्षय के अलावा अौर जो दूसरे कलाकार हैं उन्होंने भी अपने-अपने हिस्से के किरदार को पूरी ईमानदारी से अभिनीत किया है। बाकी कथानक को प्रगट करना इस पोस्ट का उद्देश्य नहीं है उसके लिये तो फिल्म को ही देखा जाना चाहिये।

लिजलिजी भावुकता, फूहड़ हास्य और अतार्किक अतिरेकपूर्ण एक्शन फिल्मी कचरे के परे संदेशपरक तथा संवेदनशील सिनेमा के शौकीन लोगों के लिये 'एयरलिफ्ट' एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जिसे सिर्फ देखे नहीं, पढ़े जाने की आवश्यकता है।

Tuesday, January 19, 2016

मेरी प्रथम पच्चीसी : तेरहवीं किस्त

(पिछली किस्त पढ़ने के लिये क्लिक करें- पहली किस्त, दूसरी किस्ततीसरी किस्तचौथी किस्त, पांचवी किस्तछठवी किस्तसातवी किस्तआठवी किस्त, नौवी किस्तदसवी किस्तग्यारहवी किस्त, बारहवी किस्त)

(पुनः लंबे विलंब के बाद अरसे पहले शुरु की अपने जीवन की इस श्रंख्ला के अगले पड़ाव को लिखने के लिये उद्धृत हूँ। जीवन की तथाकथित व्यस्तताएं हमसे उन्हीं चीज़ों से वक्त छीन लेती हैं जिन्हें हम वाकई करना चाहते हैं। लिखना और पढ़ना जीवन की सबसे जरुरी चीज़ें हैं मेरे लिये..यही मेरा मनोरंजन है और यही ताजगी का असल स्त्रोत किंतु महत्वाकांक्षा के नाम पर लोभी हो करियर के लिबास में दरअसल एक बोझा ढोना मजबूरी बन जाता है और फिर इस अर्थ संचय के लिये किये गये प्रयत्नों से हमारी रचनात्मक शक्ति क्षीण होती चली जाती है...बहरहाल इस दर्शन को पिलाना मेरा उद्देश्य नहीं है। सीधे आगे बढ़ता हूँ...जीवन के पहले पच्चीस बसंतों में से अब तक बीसवे वर्ष के पड़ाव तक पहुंच गया हूं...अब अगले वर्षों की दास्तां बताता हूँ... )

गतांक से आगे...

2008। मेरे लिये यही वो वर्ष था जिसने यौवन की दहलीज पर कदम रखते एक नवयुवा को हर वो अनुभव दिया जिसका स्वपन हर उन्मादी पुरुष अपने जीवनकाल में देखता है। हायर सेकेण्डरी उत्तीर्ण कर कॉलेज या युनिवर्सिटी में अध्ययन करने का आकांक्षी युवा ख़यालों में ऐसे ही किसी दौर को चाहता है..बस यूँ समझ लीजिये ये कौमार्य का ऐसा ही कोई दौर था। मौज या ऐश करने की सबकी भिन्न परिभाषाएं हो सकती हैं...उन परिभाषाओं के पैमानों पर मेरे ये अनुभव भी कम या ज्यादा रूप से कुछ-कुछ उसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं...लेकिन एक बात स्पष्ट कर दूं कि मेरे मौज की उत्तंग तरंगों ने कभी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया। मैं ये नहीं कहता कि इसमें सिर्फ मेरी इच्छाशक्ति या संस्कारों की प्रबलता थी बल्कि यूं कहिये इच्छाशक्ति के साथ मेरी किस्मत भी अच्छी थी जिसकी वजह से कभी मैंने अपने दायरे नहीं लांघे..और यही वजह है कि आज भी मैं पूरे गुरूर के साथ अपने चरित्र को निहार सकता हूँ। कॉलेज लाइफ के अनेक अनुभवों से गुजरने के बावजूद भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझे 'कॉलेज की हवा लग गई'।

खैर, महिला सहपाठियों से मित्रता बढ़ी, ग्रुप्स बने और घूमना-फिरना, पार्टी जैसे उन्मत्ता के कई रंग चढ़े। युनिवर्सिटी में हुए खेलों और कई अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार प्राप्त किये तो विद्यार्थियों के एक अलग एलीट ग्रुप में शामिल हुआ। विद्यार्थी जीवन में अक्सर वर्तने वाले अस्तित्व के संकट से मुक्त हुआ। खुद की पहचान पाई। सहपाठी और सहपाठिनों ने खुद से पहल कर मित्रता करना शुरु की। निगाहें, आसपास के दायरे में ही कोई हमसफर तलाशने लगीं। प्रेम के पल्लवन के अहसास जागे। इस उम्र में प्रेम के नाम पर किसी विपरीत लिंग के प्रति जो छटपटाहट होती है उसमें वास्तव मेंं शारीरिक परिवर्तन और एक कथित प्रेस्टीज का मुद्दा ही मुख्य होता है। या यूं कहें कि हमारे सिनेमा-साहित्य और समाज ने एक ऐसी परिपाटी का निर्माण किया है जिसमें कॉलेज और युनिवर्सिटी में बिताये जाने वाले लम्हों को 'प्रेम का काबा-काशी' साबित कर दिया है। किताबों में मुरझाये गुलाब के फूल, सिकुड़े से प्रेम पत्र और अब झटपट मोहब्बत के प्रतीक बने व्हाट्सएप्प-फेसबुक के मैसेज या ईमेल कॉलेज के आवश्यक पाठ्यक्रम का हिस्सा माने जाते हैं। बस इसी जरुरी पाठ्यक्रम के कुछ चैप्टर पढ़ने की उत्कंठा अपने हृदय में भी बसा करती थी और तलाशते थे किसी ऐसे कंधे को जिस पर सिर रखकर रोया जा सके या अपनी उपलब्धियों का गुमान उसकी निगाहों में देखा जा सके। 

जो सीरियसली वाली मोहब्बत या देवदासी फितूर होता है वो प्रेम के आगाज के वक्त नहीं होता। शुरु में तो अक्सर टाइमपास और प्रेस्टीज मजबूत करने की भावना ही प्रबल होती है किंतु आगाज़ चाहे जिस भी भावना से हो पर प्रेम जब परवान चढ़ता है तो क़त्ल करके ही दम लेता है...प्रेम का आगाज़ चाहे जैसा भी हो किंतु अंजाम कुछ भी नहीं। ये शुरु होकर सिर्फ रास्तों में ही रहता है...मंजिल पे पहुंचने का भ्रम तो हो सकता है पर मंजिल प्रेम में है ही नहीं और जिसे हमने मंजिल मान रखा है वहाँ दरअसल चाहे जो भी हो पर प्रेम कतई नहीं।

ऐसी ही किसी लालसा से हम भी तलाशा करते थे...अहसासों के सिलेबस में पूछे गये कुछ मनचले सवालों के नोट्स।  लेकिन वो कहते हैं न प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाये...बस तो ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ और चाहने से क्या होता है प्रेम का पुष्प जब पल्लवित होना हो तभी होता है आपके ढूंढे से इसकी ओर-छोर-कोर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। और जैसा कि मैं इस पच्चीसी की नौंवी किस्त में बता चुका हूँ कि कम उम्र में ही साहित्य की देशी और सांस्कृतिक परंपरा से रुबरु होने के कारण प्रेम का कोई कुत्सित रूप मुझे गंवारा नहीं था...मैं तो धर्मवीर भारती की नायिका सुधा, कालिदास की शकुंतला और शरदचंद्र की परिणीता को ही तलाशा करता था कॉलेज के गलियारों में। जो तब तो न मिल सकी...क्योंकि कालचक्र पर इस घटना का आविर्भाव तब तक न होना ही लिखा था...इसलिये प्रेम सरीके दिखने वाले छुटमुट सायों की छांव से दो-चार होकर वापस लौट आये...प्रेम की दास्तां सुनने के लिये अभी कुछ किस्तों का इंतजार और करना होगा।

कॉलेज का ये वर्ष यौवन के खुशनुमा अहसासों की वजहों से कुछ जल्द ही बीत रहा था...इसी वर्ष में कॉलेज का एजुकेशन ट्रिप गोवा, मुंबई, पुणे की यात्रा पर गया। एजुकेशन के नाम पर जाने वाले ये ट्रिप जिंदगी की सबसे खूबसूरत यात्राएं होती हैं। जिनमें तथाकथित महाविद्यालयीन शिक्षा के अतिरिक्त सब कुछ होता है...लेकिन ये बिना किताबी तालीम के भी जिंदगी के कई अहम् पाठ हमें सिखा देते हैं। अपनी इस यात्रा का वर्णन मैंने अपने इसी ब्लॉग पर लिखे जिंदगी का सफ़र और सफ़र में ज़िंदगी नामक पोस्ट में किया है...विस्ताररुचि वाले वहां  से पढ़ सकते हैं। इस यात्रा के सालों बाद अब भी कभी वे संस्मरण आंखों के सामने झूलते हैं तो उस दौर में वापस लौटने को जी चाहता है...उन्हीं रिश्तों, उन्हीं बचकाने अहसासों और उन यारों की महफिलों में होने वाली ऊटपटांग हरकतों का दीदार करने को जी चाहता है। लेकिन........ख़यालों में तो रिवर्स गियर हो सकता है पर ज़िंदगी में नहीं। 

बहरहाल, उन घटनाओं के साथ लौटूंगा जल्द....एक मर्तबा फिर अपनी यादों को रिवर्स कर। और चुराने की कोशिश करूंगा इसी वर्तमान में अतीत के गुजारे खट्टे-मीठे लम्हों को...अगली किस्त में। फिलहाल रुकता हूँ।

जारी....................

Wednesday, January 13, 2016

यादें-2015

वर्ष 2015 के मध्यप्रदेश के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर दूरदर्शन के खास कार्यक्रम में चर्चा.....