Friday, December 13, 2013

महानता का पैमाना- लोकप्रियता, पैसा, प्रतिभा, चरित्र या कुछ और ???

बात शुरु करता हूँ एक बचपन में पढ़े नीति श्लोक से..जो संभवतः मैंने छठी कक्षा में पढ़ा था- नरस्य भरणम् रूपम्, रूपस्य भरणम् गुणः..गुणस्य भरणम् ज्ञानं, ज्ञानस्य भरणम् क्षमा। इस श्लोक की अंतिम पंक्ति में प्रयुक्त क्षमा शब्द को सबसे अंत में रखा गया है और इसे मनुष्य का सर्वोत्तम आभूषण कहा गया है..और यहाँ प्रयुक्त क्षमा शब्द का मतलब महज किसी को माफ कर देने तक सीमित नहीं है बल्कि ये बेहद व्यापक है और इसमें संपूर्ण चारित्रिक गुणवत्ता का समावेश किया गया है। एक अन्य पंक्ति भी कुछ इसी तरह की याद आ रही है कि "प्रतिभा इंसान को महान् बनाती है और चरित्र महान् बनाये रखता है" और इससे मिलती जुलती एक अन्य कहावत कुछ इस तरह है कि "आप  सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा कीजिये आपकी प्रतिष्ठा आपकी रक्षा स्वयमेव कर लेगी" इत्यादि...यहाँ इन सब महानतम् सदवाक्यों को याद करने का प्रयोजन सिर्फ इतना है क्योंकि वर्तमान सामाजिक परिदृष्य पे कुछ कहना चाहता हूँ....

संत आसाराम, तहलका के संपादक तरुण तेजपाल, जस्टिस गांगुली और हाल ही में एक आला अफसर का नाम भी एक दुर्दांत आरोप में उछल रहा है...ये तमाम वे नाम है जो समाज के बहुप्रतिष्ठित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और इन्हें समाज बौद्धिक, नैतिक, या धार्मिक नज़रिये से उच्चता के शिखर पे देखता है...पर समाज में अपनी प्रतिष्ठा, पेशा, पद व आयु जैसे असल यथार्थ को नकार इन्होंने अपने ज़मीर को बेहद सस्ता साबित कर, न सिर्फ स्वयं की प्रतिष्ठा के साथ खिलवाड़ किया है बल्कि उन लाखों अनुसरणकर्ताओं की आस्था को भी धोखा दिया है जो इन्हें रोल मॉडल मान बैठी थी। इनके इस चारित्रिक पतन की पैरवी करते भी कुछ लोग देखने को मिल जाते हैं जो कहते हैं कि इनके व्यक्तिगत जीवन को इनके सामाजिक कार्यों से न जोड़ा जाये..पर समझ नहीं आता कि आखिर कैसे हम किसी के व्यक्तित्व को बाहर निकाल उसके कृतित्व का आकलन कर सकते हैं। समाज द्वारा किसी व्यक्ति विशेष को यदि असीम प्रतिष्ठा दी जाती है तो फिर वो इंसान सार्वजनिक हो जाता है..ऐसे में उसके लिये व्यक्तिगत मामला नाम की कोई चीज़ ही नहीं रह जाती। उसका हर कृत्य समाज की धारा को प्रभावित करता है...समाज द्वारा मिले सम्मान के बदले उसे कई सामाजिक उत्तरदायित्वों का निर्वहन करना आवश्यक है..ऐसे में महिला उत्पीड़न, बलात्कार जैसे मामले तो नितांत ओछे स्तर के कृत्य कहे जायेंगे।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि समाज का विशाल जनसैलाब यदि किसी का अनुयायी बन जाता है, मीडिया किसी को अथाह प्रसिद्धि दे देती है, असीम दौलत से कोई दुनिया की किसी भी वस्तु को अपने हक में कर सकता है या बौद्धिक चातु्र्य अथवा अपने हुनर से कोई किसी का दिल जीत लेता है तो क्या मात्र इतना करने भर से किसी को महानता के शिखर पे स्थापित कर देना चाहिये। दूसरी तरफ एक आम इंसान है जो ईमानदारी से बमुश्किल अपने घर का खर्च चला रहा है, मंदिर-मस्जिद-गुरद्वारे की सीख को अपने हृदय से चमेटे हुए नैतिकता का दामन थामा है, अपनी पत्नी-बच्चों के छोटे से परिवार में ही पूर्ण संतुष्ट है...लेकिन हालातों के थपेड़े लगातार खा रहा है, उसे अपने मोहल्ले के ही पूरे लोगों द्वारा नहीं पहचाना जाता, उसकी कही बातों से कोई हेडलाइंस नहीं बनती पर सद्शास्त्रों में लिखी बातों, सत्य, अहिंसा, सदाचार पर एक विश्वास दृढता से बनाये हुये हैं और इसी तरह जीवन जीते हुये एक दिन वो मर भी जाता है...अब इन विभिन्न प्रवृत्ति के लोगों में से महानता का तमगा किसके सिर पे जाना चाहिये। अगर भारतीय संस्कृति के वेद-पुराणों से महानता का पैमाना तलाशा जाये तो वहाँ सिर्फ और सिर्फ सद्चरित्रता को ही ये तमगा हासिल होगा..इस त्याग प्रधान संस्कृति में कभी पद-पैसा और प्रतिष्ठा को नहीं पूजा गया है..यहाँ सिर्फ सदाचरण की माला फेरी गई है..और सिर्फ भारतीय संस्कृति की ही क्यों बात करें सुकरात, प्लेटो, अरस्तु जैसे पाश्चात्य चिंतक भी सदाचरण की महत्ता को ही स्वीकार करेंगे बाकि चीज़ें उनके लिये भी गौढ़ ही रहेंगी।

ऐसे में सर्वाधिक दुविधा की परिस्थिति एक आम जनमानस के सामने आ गई है कि वो किसकी उपासना करे..और प्रतिष्ठा, पैसा, प्रतिभा और चरित्र में से किसके लिये प्रयत्न करें क्योंकि उत्तम चरित्र से संपन्न इंसान कदाचित् किसी इक्का-दुक्का इंसान से यदा-कदा ये तारीफ पा सकता है कि अमुक व्यक्ति भला इंसान है पर इस दुनिया में तवज्जो भले इंसान को नहीं बड़े इंसान को मिलती है और यहाँ बड़ा बनने के लिये पैसा-प्रतिष्ठा और प्रतिभा होना ज़रूरी है..इन चीज़ों के होने को ही शक्ति का स्त्रोत माना गया है। तो फिर भला कौन अपने साथ चरित्र का झुनझुना लेके बैठने वाला है। आज की नवसंस्कृति उस भौतिक चाकचिक्य के प्रति ही लालायित है और तमाम नैतिक मानदंड हासिये पे फेंक दिये गये हैं..और इसी के चलते वो आज लिव इन रिलेशन, होमो सैक्स जैसे अधिकारों की मांग कर रहा है और मल्टी सेक्सुअल रिलेशन उसके लिये खुली सोच का प्रतीक है। भले आज लोग ये चाहें कि बुद्ध, महावीर, गाँधी पैदा हों पर साथ ही सब ये भी चाहते हैं कि हमारे घर में नहीं पड़ोसी के घर में ही ये शख्सियत जन्में। अपने घर में उन्हें बडा़ उद्योगकर्मी बेटा, विदेश की किसी मल्टीनेशनल कंपनी में कार्यरत मोटी तनख्वाह वाला दामाद, आईएस, डॉक्टर, इंजीनियर ही चाहिये लेकिन कोई भी इन गुणों के साथ एक अदद अच्छे इंसान की मांग नहीं करता। उल्टा यहां तो कहा जाता है कि अय्याशी करने के लिये ही ये तमाम बड़े ओहदे हैं..और इन लोगों का ही अय्याशी, भौंडेपन और छद्मआधुनिकता पर सच्चा अधिकार है।

दरअसल, ये हम सबके चिंतन औऱ चिंता के अहम् मुद्दे है कि इस समाज की भीषण विसंगति की पराकाष्ठा इससे बढ़कर और क्या होगी कि यहां एक बड़ा धर्मगुरू, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ का पहरी एक संपादक और अच्छे-बुरे का निर्णय देने वाला एक न्यायाधीष ही सदाचार से परांड्गमुख हो गये है तो फिर किसके समक्ष अब गुहार लगाई जाये और किससे शिकायत की जाये...आलम यही है कि चिंगारी कोई भड़के तो सावन उसे बुझाये पर जो सावन आग लगाये उसे कौन बुझाये...यहाँ तो समाज के खिवैया ही नौका को मझदार में पटके दे रहे हैं।

Saturday, November 16, 2013

सचिन! एक चिट्ठी तुम्हारे लिये....

क्रिकेट के भगवान के नाम से संबोधित किये जाने वाले, प्रिय सचिन! पिछले पाँच-छह सालों से आपके क्रिकेटीय करियर में हम आखिरी शब्द सुनते आ रहे हैं..यथा- सचिन का आखिरी इंग्लैँड दौरा, आखिरी आस्ट्रेलिया दौरा, आखिरी वर्ल्डकप, आखिरी वनडे, आखिरी आईपीएल, आखिरी ट्वेंटी-ट्वेंटी आदि। लेकिन इन तमाम आखिरी शब्दों से बहुत ज्यादा अलग है ये सुनना और फिर देखना भी कि सचिन का क्रिकेट में आखिरी दिन। आँखों में आँसू। आपके भी और आपके चाहने वाले लाखों दर्शकों के मन में भी..और ये हों भी क्यों न? हम किसी स्कूल-कॉलेज में बमुश्किल दो-पाँच साल बिताने के बाद विदा होते हैं तो रो पड़ते हैं..और फिर आपके लिये तो क्रिकेट वो फलसफा था जिसे आपने अपनी जिंदगी का लगभग आधा हिस्सा दिया है। आपका पहला प्यार, आपकी गर्लफ्रेंड और असल मायनों में आपकी अर्धांगिनी भी बस क्रिकेट ही तो था..तो फिर कैसे कोई इसे एकदम से छूट जाने पर भावुक न हो..आपके मानसिक धरातल पर इसे छोड़ने की तैयारी तो काफी पहले से होगी लेकिन मानसिक तौर पे की गई समस्त तैयारियां कई बार भौतिक ज़मीन पर नाकाम ही साबित होती हैं और ये बखूब आपके चेहरे से ज़ाया हो रहा था। ठीक वैसे ही जैसे कि दो विरुद्ध सांस्कृतिक परिवेश के प्रेमी-युगल चाहे कितनी भी मानसिक तौर पे संबंध विच्छेद करने की तैयारी कर लें पर संबंध टूटने पे निकली आह को दबाना और अचानक पैदा हुआ खालीपन भरना आसान नहीं होता। आखिर आप कैसे इस अचानक छूटे हुए संबंध की टीस को कम कर पायेंगे..क्योंकि भले ये दुनिया और ये मीडिया आपको भगवान की हजार उपमा देदे पर सच तो यही है न कि आप भी आम इंसानों की तरह भावनाओं का एक पुतला, एक अदद इंसान ही हैं।

आपके क्रिकेटीय सफर में बनाये गये उन तमाम रिकार्डस् का ज़िक्र मैं नहीं करूंगा जिनकी बदौलत आप मास्टर-ब्लॉस्टर और भगवान कहलाते हैं...क्योंकि आपका नाम ले देना ही रिकॉर्डस् का ज़िक्र कर देना है और मैंने कभी महज़ आपके उन जादूई आंकड़ों के कारण आपका सम्मान नहीं किया..आपकी कद्र मैंने हमेशा उस एक अच्छे इंसान के रूप में की है जो असीम लोकप्रियता, अगाध सम्मान और बेइंतहा चाहने वालों को पाने के बावजूद कभी अपने लक्ष्य, अपने ध्येय,  अपनी विनम्रता और मानवीयता से नहीं डिगा और आपकी ये भलमनसाहत विदाई के वक्त व्यक्त किये गये आपके वक्तव्य से भी बखूब प्रकट हुई। हाँ ये बात सत्य है कि उस नन्ही उम्र में जबकि मैं क्रिकेट का 'क' भी नहीं जानता था तब मेरे लिये क्रिकेट का मतलब आप ही थे। जिस वक्त आपने अपने करियर की शुरुआत की उस वक्त तो मैंने अपना होश ही नहीं संभाला था..मेरे लिये तो आपके करियर के  बढ़ते जाने का मतलब ही मेरे जीवन का वृंद्धिगत होना रहा है। इसलिय मैं अपनी अदनी सी बौद्धिकता से क्या आपके सूर्य समान विशाल क्रिकेटीय करियर को दीपक दिखाने की गुस्ताखी करूं। हाँ एक चीज़ को ज़रूर बयां करना चाहुँगा क्योंकि उसे मैं समझ सकता हूँ कि आपने इस क्रिकेटीय जीवन के लिये किस बहुमूल्य चीज़ का त्याग किया है- और वो है अपना बचपन और अपनी बिंदास जवानी।

जिस नादान उम्र में बच्चे छोटी-छोटी सी ज़िद और गुडडे-गुड़ियों के खेल में ही मशरूफ रहते हैं तब आपके हाथ में बल्ला था..जिस उम्र में नितांत मनमौजीपन होता है तब आप सुवह-शाम क्रिकेट के मैदान पे पसीना बहाया करते थे। जिस उम्र में जवानी की दहलीज़ पे कदम रखता एक युवा कॉलेज की अल्हड़ मस्तियों में डूबा रहता है, गर्लफ्रेंड, दोस्तों के साथ मस्ती, पार्टी और बंजारेपन की रंगीनियों में रंगा रहता है उस उम्र में आप देश का प्रतिनिधित्व कर रहे थे..और एक बड़ी भारी जिम्मेदारी को अपने कंधों पर उठाये हुए थे। जिंदगी के ये छोटे-छोटे मगर बेहद अहम् जज्बातों के साथ कॉम्प्रोमाइज़ करना कभी भी किसी इंसान के लिये आसान नहीं होता..लेकिन आपने अपनी जिंदगी के इस दौर में अपना सर्वस्व क्रिकेट को सौंप दिया था..और आपके इसी समर्पण, एकाग्रता और इच्छाशक्ति का ही परिणाम है कि आज आपको वो सब मिला जिसकी उम्मीद किसी इंसान को स्वप्न में भी नहीं होती। लेकिन एक अहम् बात ये भी है कि जो अकूट दौलत, सम्मान और यश आपको मिला है आपने कभी भी उसे नहीं चाहा..आपने तो बस एक क्रिकेट को चाहा और अपने लक्ष्य के प्रति किये गये शिद्दत से समर्पण ने आपको वो सब दिया जिसे देख लोग बौराये फिरते हैं। आपकी इस क्रिकेटीय निष्ठा को ही हमारा सैल्युट है अगर ये निष्ठा हर इंसान के पास आ जाये तो दुनिया में ऐसी कोई भी मंजिल नहीं जिसे लोग हासिल न कर पाये। वास्तव में कमी हममें ही होती है और हम अक्सर दोष बाहरी चीज़ों को देते हैं। हमें मंज़िल की चमक दिखाई देती है और हम उस मंजिल की चकाचौंध को ही पसंद करते हैं पर कभी भी हमें रास्तों का संघर्ष नज़र नहीं आता यही कारण है कि हमारी निष्ठा उस संघर्ष, उन प्रयासों में नहीं होती..जिन प्रयासों से अभीष्ट मंजिल की प्राप्ति होती है।

एक बात और कि मैंने कभी आपको भगवान की तरह नहीं माना..आप मेंरे लिये अपनी तमाम क्षमताओं का सदुपयोग करने वाले एक अच्छे इंसान ही रहे हैं..यही वजह है कि जब आप अच्छा नहीं खेलते थे तो आपके लिये भला-बुरा भी बहुत बोला है...लेकिन जब भी अच्छा खेले हैं तो आपको सिर-आंखों पे बैठाया है। आपको खेलते देखना मुझे जितना पसंद था उतना ही पसंद आपको सुनना भी है..क्योंकि आपकी मासुमियत और छलरहित इंसानियत आपके शब्दों से बखूब बयाँ होती है। एक अफसोस ज़रूर है कि कभी आपको सीधे मैदान पर जाकर खेलते हुए नहीं देख पाया..2006 की चैंपियंस ट्राफी के जिस इकलौत मैच को मैंने मैदान में जाकर देखा है उसमें आप किसी कारण वश नहीं खेले थे। इसलिये ये मलाल हमेशा रहेगा। लेकिन आपकी ऐसी असंख्य यादें हैं जिन्हें मैं आने वाली पीढ़ियों को सुनाउंगा और उन्हें सुनाते वक्त गर्व से हमारा सीना चौड़ा भी रहेगा कि हमने सचिन को क्रिकेट खेलते देखा है।

आपके जाने के बाद का खालीपन कुछ वक्त तो रहेगा लेकिन फिर ये भी भर जायेगा क्योंकि यही दुनिया की रीत है 'द शो मस्ट गो ऑन'। आपके बनाये रिकॉर्ड्स भी एक एक कर टूटेंगे क्योंकि रिकॉर्ड्स की फितरत ही ये होती है..लेकिन कोई टूटा हुआ रिकॉर्ड और आपकी जगह लेने वाले शख्स के आ जाने के बावजूद कभी आपका कद छोटा होने वाला नहीं है...आज क्रिकेटीय जगत में जो गम पसरा है वो भी इस कारण है कि आपने जो खुशियां दी है उनकी कोई सीमा नहीं रही है और खुशियां जितनी ऊंचाई पे जाकर नीचे उतरती हैं ग़म को भी उतना ही गहरा बना जाती हैं..समय के सहलाने वाले हाथ सारे ग़म भर देते हैं लेकिन उस ग़म से पैदा हुआ खालीपन तो जाते जाते ही जायेगा। सचिन! आप क्रिकेट का मैदान छोड़ सकते हैं हमारे दिल की ज़मीं नहीं........

Tuesday, November 12, 2013

सिनेमा के व्यवसायिक दलदल में चंद सार्थकता के कमल

सिनेमाघरों में चैन्नई एक्सप्रेस जैसी बेतुकी और ग्रांड मस्ती जैसी फूहड़ फ़िल्म की व्यवसायिक कामयाबी के बाद...इन दिनों क्रिश-3 जैसी औसत सुपरहीरोनुमा फिल्म जमकर बॉक्स ऑफिस पे पैसा कूट रही है..इसी फेहरिस्त में धूम-3 टाइप मसाला फिल्म प्रदर्शन के इंतजार में है और मौजूदा लहर को देखकर कयास लगाना मुश्किल नहीं कि ये भी सौ करोड़ के मायावी क्लब में शामिल होने वाली फिल्म साबित होगी...जिस सौ करोड़ के आंकड़े को ही इन दिनों सफलता और सार्थकता का पर्याय माना जाने लगा है। प्रायः हर फिल्मकार इसी सौ करोड़ी जंजाल को आदर्श मान सिनेमा निर्माण कर रहा है।

दरअसल ये आज या कल का ही जंतर नहीं है इस सौ करोड़ी सन्निपात से हमारे फिल्मकार लगभग पिछले एक दशक से ग्रसित हैं और इस व्यवसायिक चकाचौंध ने उनसे सार्थकता के आग्रह को छीन लिया है यही वजह है कि दिग्गज फिल्मकार अपनी समस्त समय, शक्ति और बुद्धि का प्रयोग मात्र उस मसाला मनोरंजन के निर्माण मे कर रहे हैं जो उनकी काँखों से रुपयों की सरिताएं प्रवाहित करवा सकें। इस व्यवसायिक चमक के चलते ही उन्होंने सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के की वो उक्ति भी विस्मरा दी है जिसमे फाल्के साहब ने कहा था कि 'य़द्यपि सिनेमा मनोरंजन का सशक्त माध्यम है लेकिन इसका उत्तम प्रयोग समाज में ज्ञानवर्धन और जागरुकता के लिये भी किया जा सकता है' फिल्मकारों के व्यवसायिक मोह के कारण तमाम उत्तरदायित्व की भावनाएं हासिये में फेंक दी गई हैं और भौतिकवादिता की हवस के चलते हॉलीवुड और दक्षिण भारतीय मसाला फिल्मों की नकल से भी अब कोई गुरेज़ नहीं रहा है। इन फिल्मों के पहले भी सलमान खान को सितारा बनाने वाली दबंग, वांटेड, बॉडीगार्ड जैसी फिल्में और राउडी राठौर, गोलमाल रिटर्न्स, सिंघम, हाउसफुल टाइप फिल्में इसी व्यवसायिकता के दलदल को गहरा बना चुकी हैं। लेकिन इस सबके बावजूद गुजश्ता दशक को हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम दशक माना जा रहा है...इसका कारण है व्यवसायिकता के दलदल में खिले हुए चंद सार्थक एवं विविध मुद्दों पे बनी फिल्मों के खुशबुदार कमल, जो हिन्दी सिनेमा की गरिमा को अंतर्राष्ट्रीय मंच पे जिंदा रखे हुए हैं।

इस समझने के लिये ज्यादा पीछे जाने की ज़रूरत नहीं है इरफान ख़ान स्टारर लंचबॉक्स और राजकुमार यादव अभिनीत शाहिद, उन फिल्मों के उदाहरण हैं जो हिन्दी सिनेमा की सार्थकता को बयां करती हैं। लेकिन अफसोस होता है जब दबंग और चैन्नई एक्सप्रेस जैसी फिल्में हाउसफुल जाती हैं और इन सार्थक फिल्मों पे सिनेमाघरों में सीटें खाली पड़ी रहती हैं। जनता की ये प्रवृत्ति इस बात को बयाँ करती है कि हमारा रवैया ज़बरदस्त ढंग से बेहुदा तमाशे पे ताली बजाने वाला ही बना हुआ है भले ही हम कितनी ही बौद्धिकता की जुगाली लोगों के सामने करते नज़र आये। अपने मनोरंजन चुनने के लिये हम हमेशा अतार्किकता, सतही भावनाओं और अश्लीलता को ही आदर्श मानकर चलते हैं। ऐसा नहीं है कि मुख्यधारा के परे हास्यात्मक मनोरंजन देखने को नहीं मिलता बल्कि कई ऑफबीट फिल्में बेहद इंटेलीजेंस पूर्ण सिचुएशनल कॉमेडी एवं आला दर्जे के विट (हास्य जो संवादों से पैदा होता है) के माध्यम से उत्तमोत्तम हास्य पैदा करती हैं। इन मनोरंजक फिल्मों की कॉमेडी किसी अतार्किक, बेढंगी उछलकूदों में आधारित नहीं बल्कि हमारे आसपास की ज़िंदगी से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। इसका बखूब दर्शन हमनें विकी डोनर, खोसला का घोसला, भेजा फ्राय, चलो दिल्ली, दो दूनी चार जैसी फिल्मों में किया है।


इन हास्यात्मक फिल्मों के अलावा कई ऐसी भी फिल्में रही हैं जो संवेदनाओं एवं वैचारिकता की चासनी में इस कदर डूबी होती है कि उनका आस्वादन करते वक्त अपने ज़हन को छुईमुई सा बना लेना होता है..मानो रुह का थोड़ा भी कड़क मिज़ाज इनके संपूर्ण जायके को मटियामेट करके रख देगा। इकबाल, डोर, उड़ान, शिप ऑफ थीसिस, दसविदानिया और मि.एंड मिसेज अय्यर कुछ इसी श्रेणी की फिल्में हैं। आतंकवाद, गरीबी, बेवशी, बेरोजगारी, सांप्रदायिकता जैसे मुद्दों पर भी सिनेमा की इस दूसरी पंक्ति की धारा ने शानदार इंटेलेक्चुअल मनोरंजन पैदा किया है। ए वेडनेसडे, आमिर, मुंबई मेरी जान, फिराक़, ये मेरा इंडिया, द नेमसेक, पीपली लाइव, धर्म और फंस गए रे ओबामा जैसी कुछ फिल्में हिन्दी सिनेमा को सैल्युट मारने को मजबूर करती हैं। विविध विषयों पर बनी इन तमाम फिल्मों को देख ये यकीन करना मुश्किल होता है कि सामान्य से दिखने वाले इन विषयों पर इस कद़र मनोरंजन गढ़ा जा सकता है। पिछले वर्ष प्रदर्शित होने वाली ओह मॉय गॉड और इंग्लिश-विंग्लिश का ज़िक्र करना भी इस कड़ी में बेहद आवश्यक है।

इन सरल-सहज विषयों के अलावा कुछ फिल्में ऐसी भी हैं जो ग्रे शेड या कालीन के नीचे के स्याह पक्ष को उजागर करती नज़र आती है देखने में बेहद उलझी हुई और जटिल फिल्में मालुम होती हैं इनका प्रस्तुतिकरण भी अतिरेकपूर्ण जान पड़ता है..लेकिन इस सबके बावजूद ये व्यवसायिक मसाला फिल्मों से पूर्णतः भिन्न प्रकृति की होती हैं और इन फिल्मों पर भी व्यवसायिकता के परे कलापक्ष ही मजबूती से जाहिर होता है। अनुराग कश्यप, दिबाकर बनर्जी, मणिरत्नम इसी कोटि की फ़िल्में बनाने वाले फिल्मकार रहे हैं और ब्लैक फ्राइडे, गैंग्स ऑफ वासेपुर, अब तक छप्पन, मद्रास कैफे, शंघाई, हजारों ख्वाहिशें ऐसी, मैट्रो, गुलाल, कहानी जैसी फिल्में ऑफबीट सिनेमा के इस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती हैं।

बहरहाल, इस व्यवसायिकता के दलदल में यदा-कदा नज़र आने वाले ये सार्थकता के कमल राहत पहुंचाते हैं और कमसकम मेरे सिनेमाई प्रेम को जीवित रखे हुए हैं अन्यथा चैन्नई एक्सप्रेस, ग्रांडमस्ती, दबंग टाइप फिल्में कई बार मेरा सिनेमा से मोहभंग कर चुकी हैं। खुशी की बात ये भी है कि इस तरह नवीन व छुपे हुए विषयों पे प्रायः नई उम्र के फिल्मकार फिल्में बना रहे हैं और स्थापित फिल्मकारों को मूंह चिढ़ा रहे हैं जो बॉक्स ऑफिस का प्रयोग धन कूटने के लिये ही करते हैं। फिल्मों के साथ-साथ अब फिल्मकारों में भी विविधता है अन्यथा पहले हम ऑफबीट फिल्मों के लिये महज श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, मणिकौल जैसे निर्देशकों पर ही आश्रित थे। ऊपर वर्णित इन फिल्मों ने ही हिन्दी सिनेमा को विश्व मंच पर अगले पायदान पे पहुंचा दिया है...हालांकि कुछ मुख्यधारा की फिल्में भी मनोरंजन के साथ सार्थक प्रयास कर रही है जिनमें थ्री इडियट्स, जब वी मेट, लगे रहो मुन्नाभाई, लगान, रंग दे बसंती, भाग मिल्खा भाग प्रमुख हैं किंतु उनकी संख्या भी बहुत कम है। मुख्यधारा की सार्थक फिल्मों के परे ऑफबीट सार्थक फिल्मों का ज़िक्र इसलिये भी ज़रूरी हो जाता है कि अक्सर ये फिल्में अनदेखी ही रह जाती हैं जबकि मैनस्ट्रीम सिनेमा को तो बहुलता में दर्शकवर्ग मिल ही जाता है।

खैर, आज अपने कंप्यूटर में एक बेहद छोटे बैनर की ऐसी ही गुमनाम फिल्म सड्डा अड्डा देखने के कारण..अनायास ही मेरे मन में इन सार्थक मगर गुमनाम फिल्मों के प्रति कुछ लिखने का खयाल आया..जिस वजह से ये लेख लिखने की प्रेरणा मिली। एक बात ज़रूर है कि इस तरह के सिनेमा से आने वाली महक से व्यवसायिक प्रयासो पे आने वाली खुन्नस कुछ कम जरुर होती है.....


Monday, October 21, 2013

ज़िंदगी का सफ़र और सफ़र में जिंदगी

एक हिंदी फ़िल्म का संवाद है कि "ये न सोचो ज़िंदगी में कितने पल हैं बल्कि ये सोचो कि हर पल में कितनी ज़िंदगी हैं।" मैं भी अपनी ज़िदगी के एक ऐसे ही सफ़र से आपको वाकिफ कराना चाहता हूँ..जिस सफ़र के पल-पल में हमने कई जिंदगियों को जिया था। आप सोच सकते हैं कि इस वैचारिक, दार्शनिक, निबंधनुमा ब्लॉग में अपना संस्मरण ठोकने की क्या ज़रूरत है और इससे किसी को क्या मतलब? लेकिन मतलब है..और इसकी ज़रूरत तब समझ आ सकती है जब आप मेरी जगह आकर सोचें। हिन्दी के एक कवि ने कहा है- "मैं जो लिखता हूँ वो व्यर्थ नहीं है..हूँ जहाँ खड़ा वहाँ ग़र तुम आ जाओ तो कह न सकोगे कि इसका कोई अर्थ नहीं है।" कुछ ऐसा ही यहाँ जानना...

दरअसल, आज के ही दिन हमारे कॉलेज के शैक्षणिक भ्रमण को पूरे पाँच साल पूरे हुए..सुबह जब सोकर उठा तो कुछ दोस्तों का फोन आया और उन्होंने अनायास ही उस भ्रमण की यादें ताज़ा कर दी..वे दोस्त भी उस टूर पे मेरे साथ थे। हालांकि आज वे अपने-अपने ग्रहस्थ जीवन में प्रविष्ट हो चुके हैं लेकिन वो सफ़र उनके लिये भी बेहद ख़ास था जिस वजह से वो आज भी उन यादों की जुगाली कर, कुछ प्रसन्न हो लेते हैं..क्योंकि वर्तमान का यथार्थ निश्चित ही बड़ा निर्मम हैं ऐसे में अतीत की जुगाली ही कुछ राहत देने वाली साबित होती है। हालांकि मैंने काफी पहले अपने उस सफ़र के बारे में लिखने का सोचा था लेकिन किन्हीं कारणों से नहीं लिख पाया..वो सोच अब जाकर साकार हो रही है। यद्यपि उन यादों को जिस तरह से मैं महसूस कर सकता हूँ उस तरह से व्यक्त नहीं कर पाउंगा..पर कोशिश ज़रूर करना चाहूँगा।

माखनलाल चतुर्वेदी विश्वविद्यालय में मास्टर डिग्री के तृतीय सेमेस्टर के दौरान, शुरुआत से ही एजुकेशनल टूर को लेकर चहलकदमी शुरु हो गई थी..ऐसा लगता था कि इस सेमेस्टर का बस एक ही लक्ष्य हो और वो है- एजुकेशनल टूर। ख़ासे उतार-चढ़ाव और मिन्नतों के बाद हमें टूर पे जाने की अनुमति मिली और तुरत-फुरत में रिज़र्वेशन किये- भोपाल टू पुणे-मुंबई और गोवा। जैसे-तैसे ज़ल्दबाजी में रिज़र्वेशन तो कर लिये किंतु असली विवादों का जन्म शुरु हुआ..जब एक हफ्ते पहले तक न कहीं ठरहने के बंदोबस्त किये थे..न कहीं खाने के और न ही घूमने के। दरअसल इस टूर पे जाने का निर्णय सिर्फ हम विद्यार्थियों का था और इसी वजह से कॉलेज का तो महज नाम भर ही था..लेकिन जैसा कि होता है कि साथ में कुछ लड़कियाँ भी थी और लड़कियों के पैरेंटस् भला पूरी जाँच-पड़ताल किये बगैर कैसे जाने दे सकते थे। तो जब उन लड़कियों के पैरेंट्स के फोन हमारे विभागाध्यक्ष के पास आये तब उन्होंने हम रिज़र्वेशन करने वालों से टूर का सारे ब्यौरा माँग लिया लेकिन हमारे पास महज रिज़र्वेशन टिकट के अलावा और कुछ नहीं था। यहाँ तक कि हमारे साथ कॉर्डिनेटर के तौर पे कौन सी फैकल्टी जायेगी इसका भी कोई ठिकाना न था..

फिर क्या आनन-फानन में हमारे विभागाध्यक्ष डॉ श्रीकांत सिंह खुद तैयार हुए..एक टूर ऑपरेटर द्वारा टूर प्लान किया गया..और जब ये प्लॉन तय हुआ तो कुल खर्चे में आने वाली राशि भी बढ़ गई और इस बढ़ी हुई राशि को देख..स्टूडेंट्स के नाम वापस लेने की, लड़ने-झगड़ने, आपसी बहस का बेहद यादगार सिलसिला शुरु हुआ..एक वक्त ऐसा भी आया कि टूर के महज दो दिन पहले इस भ्रमण के रद्द होने की नौबत आ गई..आगे जो हुआ वो सब मैं नहीं बताना चाहूँगा बस ये समझ लीजिये कि टूर हुआ..कुछ जाने वाले लोग नहीं जा पाये और कुछ न जाने वाले लोग रातों-रात हमारे साथ हो लिये। जिनमें मेरे मित्र प्रशांत झा और अरविंद मिश्रा तो ऐसे थे जो हमें छोड़ने स्टेशन आये थे पर श्रीकांत सर के कहने पे तुरत-फुरत में अपने 3-4 कपड़े पैक कर ट्रेन विदआउट टिकट ही हमारे साथ हो लिये..हमारे इस कारवाँ में कुल छब्बीस लोग थे जिनमें सौरभ जैन, प्रशांत कुमार, मयंक, मौली, मीनू, जयवर्धन, मकरंद, सौरभ मिश्रा, गुलशन, पूजा मिश्रा, सिम्मी, रोहिणी, लिज़ी वर्गीस, पूजा वर्णवाल, प्रशांत झा, अरविंद, हिमांशु वाजपेयी, सचीन्द्र भैया, प्रतीति, प्रियंका, हितेश शर्मा, पंकज, रमाशंकर और मैं..साथ ही श्रीकांत सर और एक आलोक नाम का टूर ऑपरेटर।

विवादों के बाद शुरु हुए इस टूर को लेकर सब खुश थे और सबकी हसरत थी बस जी लेने की..कुछ ने सोचा कि इसमें शायद कुछ प्यार मोहब्बत की पींगे फूटे, तो कुछ चाहते थे कि फुलटू हुल्लड़बाजी हो..क्योंकि आनेवाला कल शुरुआत में तो अच्छा होगा पर बाद में उतना ही उबाऊ और कष्ट देने वाला साबित होगा..जी हाँ मैं इंसान के प्रोफेशनल लाइफ की बात कर रहा हूँ। कहते हैं जवानी में यादें बोई जाती हैं, बुढ़ापे में फसल लहलहाती है और बचपन उन जंगली पौधों की तरह है जिनकी यादें अपने आप उग आती हैं। यादें घुसपैठिया होती हैं, आतताई भी होती हैं और संजीवनी की तरह मन के वीराने में लहलहाती भी हैं..जिनका हल्का-हल्का रस यदा कदा मुस्कुराहट देता रहता है। हमारा ये भ्रमण भी कुछ ऐसा ही था यही कारण है कि पाँच साल बाद भी मैं इसकी जुगाली कर रहा हूँ। 

इस सफ़र को देखने के हर किसी के अपने-अपने नज़रिये हो सकते हैं पर इस सफ़र के खुशनुमा होने का कारण सिर्फ दोस्तों का साथ और जिंदगी के बाकी तनावों से यहाँ तनाव का कम होना मानता हूँ। यहाँ तनाव न हो ऐसी बात नहीं है, परेशानियों से पूर्णतः विरहित इंसान दुनिया में हो ही नहीं सकता। सफ़र के खूबसूरत नज़ारों में भी हमें खुश करने की दम नहीं थी क्योंकि खुशी के पैमाने, अचेतन बाहरी नज़ारों से नहीं, बल्कि चेतन दोस्तों के साथ से तय होते हैं।


बहरहाल, इस टूर पे खिटपिट, लड़ाई-झगड़े भी खूब हुए लेकिन वे भी सुहानी याद बन गये..और लड़ने-झगड़ने वाले लोग भी कालांतर में गहरे दोस्त बन गये..चाहे मकरंद-प्रशांत, सौरभ-लिजी या मैं और पंकज ही क्यों न हों। संगीत के प्रति मेरा प्रेम भी इस टूर पे पैदा हुआ..सफ़र के दौरान मेरे मोबाइल पे बजने वाला क्लासिक-रोमांटिक गानों का तराना, हमारा सबसे बड़ा मनोरंजक हुआ करता था..हालांकि वो महंगा फोन, उस तंगी के दौर में मुंबई स्टेशन पे मुझसे खो गया..और वो एक दिन सिर्फ उदासी ने मेरा दामन थामे रखा..दुख इस बात का भी था कि कई खूबसूरत फोटोस् के ज़रिये कुछ यादें भी उस फोन के साथ हमसे दूर चली गई।

यादें इतनी है कि मैं उन्हें बयाँ नहीं कर सकता..वे सारी चीजें यूं तो थी बड़ी ही छोटी-छोटी..किंतु उनमें बला की ताजगी थी..चाहे पुणे के होटल में मस्ती हो, होटल के बाहर विभिन्न गेम्स खेलना हो, मुंबई समु्द्र में बोट वाले से झगड़ा हो, रेस्टोरेंट में वेज-नॉनवेज को लेकर झगड़ा हो, गोआ में धारा-144 लगने से दिन भर होटल के अंदर भूखे-प्यासे पड़े रहना हो, लिजी-सचीन्द्र भैया की लड़ाई, अरविंद-प्रशांत की मस्ती, सौरभ मिश्रा-मकरंद के गाने या हमारे साथ गई तीन विशेष तितलियों के नाज नखरे और न जाने क्या-क्या...ये सब तो उन्हें ही समझ में आ सकता है जो उस टूर में हमारे साथ हुआ करते थे।

हमारे विभागाध्यक्ष श्रीकांत सर का सपोर्ट और उनके व्यक्तित्व का एक कोमल पहलु भी हमें इस दौरान देखने को मिला जिसे हम कभी नहीं भूल सकते...अंत में इस टूर को एक सैद्धांतिक बात के साथ ख़त्म करूंगा..ये बात भी इस भ्रमण के दौरान अनायास ही ईज़ाद हुई थी कि "इस भ्रमण के बाद जिनको हम बस जानते थे उनके करीब आ गये और जिनके करीब थे उन्हें अच्छे से जान गये".......

Tuesday, October 15, 2013

मेरी प्रथम पच्चीसी : चौथी किस्त


(अपने जीवन की अब तक की यात्रा का विवरण दे रहा हूँ..पिछली किस्तों में जीवन के उन पलों को पिरोने की कोशिश की है जिनकी बेहद धुंधली सी यादें, ज़हन में यदा कदा खलबली मचाये रहती हैं। अब आने वाली किस्तें जिंदगी के अपेक्षाकृत समझदारी भरे वर्षों को प्रस्तुत करेंगी। यद्यपि समझदारी एक ऐसी चीज़ है जिसके कोई मानक निर्धारित नहीं किये जा सकते और इंसान 60-70 की उम्र में भी समझदार बनने के जतन करता रहता है। लेकिन फिर भी औपचारिक बातें, झूठी मुस्कान और तथाकथित शिष्टाचार को अपनाने का हुनर यदि आपमें आ गया है तो आप समझदार हो चुके हैं..और अब मैं भी कुछ ऐसा ही समझदार बनता जा रहा था)

गतांक से आगे-

उस दौर में कक्षा आठ की बोर्ड परीक्षा हुआ करती थी..आज के समय में ये बोर्ड परीक्षा शब्द कितने मायने रखता है मुझे नहीं पता..पर उस वक्त किसी परीक्षा की गंभीरता बताने के लिये अक्सर ये जुमले बोले जाते थे कि 'भैया, बोर्ड एक्साम है लटक मत जाना'। हालांकि पाँचवी कक्षा भी बोर्ड ही हुआ करती थी लेकिन कक्षा आठ के बोर्ड होने के मायने थोड़े अलग ही थे। मैं भी कक्षा आठ में था..परीक्षा की गंभीरता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि मुझे तीन-तीन ट्युशन क्लासेस अटेंड करने जाना होता था। इस वक्त तो सरकार के सर्व साक्षरता मिशन के अंतर्गत ये नियम बना दिया गया है कि कक्षा आठ तक किसी को फेल नहीं किया जा सकता..लेकिन तब ऐसा नहीं था मेरे घर और पड़ोस के कुछ भैया लोगों को इस क्लास में फेल होने का अनुभव था और उनका रिसल्ट हमारे माँ-बाप एक नज़ीर की तरह प्रस्तुत किया करते थे कि पढ़ोगे नहीं तो फलां-फलां भैया जैसे हो जाओगे। अब उस वक्त की मनः स्थिति को आखिर कैसे बयां करें कि वो मामुली सी आठवी की कक्षा किसी आईआईटी-जी और क्लैट जैसे एक्साम से कम नहीं जान पड़ती थी। सुबह पाँच बजे से मम्मी का पढ़ने के लिये उठा देना और लगातार सामने बैठ के पहरेदारी करना..ऐसा लगता था कि दुनिया का सबसे बड़ा कष्ट शायद यही है और हम ये सोचा करते कि बस एक बार ये आठवी पास हो जाये फिर तो ज़िंदगी में ऐश ही ऐश हैं..पर हमें तब क्या पता था कि लाइफ में आगे तो और बड़ी सर्कस है...जहाँ भोगोगे नहीं तो कुचल दिये जाओगे। भले हमें ये पता हो न हो कि इस तरह भागकर हमें आखिर पहुँचना कहाँ है..किंतु इस रेस में दौड़ते रहना ज़रूरी है। सुवह उठकर इन तकलीफों के अलावा एक सुखद चीज़ का अनुभव भी मिलता था और वो है खसखस-बादाम का हलुआ। जिसे हमारी माँ महज़ इसलिये खिलाया करती थी ताकि उनका बेटा भी इसे खाकर आइंस्टीन-न्यूटन जैसा बुद्धिमान बन सके। पता नहीं उनकी इस आशा पे आज हम कितना ख़रा उतर पाये....

लेकिन उन दिनों को आज भी मैं याद करता हूँ तो बड़ी ताजगी का अनुभव होता है...एक के बाद एक अलग-अलग कोचिंग क्लासेस अटेंड करने जाना। सर्दियों की सौंधी-सौंधी धूप में छत पे घूम-घूमकर किताबों का रट्टा लगाना..और नित नई-नई किंतु आसमानी उम्मीदों के साथ एक्साम देने जाना। सब कुछ बड़ा ही रोमांचक होता है..और प्रायः सभी इस उम्र से गुजरने वाले बालकों को इस अनुभूति से दो-चार होना पड़ता है। आज भले ही नवपीढ़ी अधिक साइंटिफिक और मॉडर्न हो गई हैं लेकिन उन आठवी-दसवी कक्षाओं की अनुभूतियां जस की तस हैं भले उनके लिबास कुछ बदल गए हैं। आज महत्वकांक्षाओं के पंख कुछ ज्यादा ही ऊंची उड़ान भरना चाहते हैं पर हमारी महत्वकांक्षाएं बस अपनी क्लास में टॉप करने तक सीमित थी..आज बच्चों को ये पता है कि उन्हें इस पढ़ाई से डॉक्टर, इंजीनियर या आईएएस बनना है हमें बस इतना पता था कि पढ़ने से बड़े आदमी बनते हैं..अब ये बड़ा आदमी कौन होता है ये तो आज तक समझ नहीं आया। लेकिन फिर भी अपनी इस युवावय में कोशिश यही बनी हुई है कि बड़े आदमी बनना है..आज इंसान की कीमत का सर्टिफिकेट यही 'बड़ा आदमी' होना हो गया है। एक ज़माने में व्यक्ति का परिचय ये कहकर दिया जाता था कि 'फलां इंसां भला आदमी है' पर आज लोगों की कीमत के मायने इस वाक्य से ज़ाया होते हैं कि 'फलां इंसा बड़ा आदमी हैं'। खैर जो भी हो उस कच्ची उम्र की वो नन्ही महत्वकांक्षाएं और उनके लिये की जाने वाली वो नादान कोशिशें बड़ी खूबसूरत हुआ करती थी जिनके लिये बारबार बच्चा बनने को जी चाहता है।

एक्साम के बाद वाली छुट्टियाँ भला किसे पसंद न आती होंगी...आज के इस फास्ट कल्चर के बीच समर वेकेशन के मायने काफी अलग हो गये हैं और अब इन छुट्टियों में भी तरह-तरह के समर कैंप, डांस-पैंटिंग-कराटे जैसी क्लासेस बच्चों के मत्थे मड़ दी जाती हैं पर पहले छुट्टियों का मतलब सिर्फ मामा-नानी का घर हुआ करता था। तपती दोपहर में नानी के हाथों बनी सत्तु, सिवैया या तरबूज जैसे जायकों से दिल और दिमाग को ठंडक पहुंचायी जाती थी। वही रात में गली-मोहल्लों के दोस्तों के साथ तरह-तरह के खेल खेले जाते थे।

मेरे बचपन के उस दौर में कंप्यूटर और अन्य थ्रीडी गेम्स की दस्तक नहीं हुई थी लेकिन विडियो गेम हालिया लांच हुआ था और बच्चों का उसपे जमकर भूत सवार रहा करता था। लगभग 1500 रुपये की कीमत वाले इस विडियो गेम की पहुंच भी अधिकतर घरों में नहीं थी और प्रायः हर छोटे कस्बे और नगरों में कई छोटी-छोटी दुकानें खुल गई थी जहाँ 4 रुपये प्रतिघंटे की दर से विडियो गेम खिलाया जाता था जिसमें भी कोन्ट्रा खेलने का चार्ज 5 रुपये प्रतिघंटे हुआ करता था..और बच्चों की लंबी-लंबी वैटिंग इन दुकानों में लगा करती थी। कोन्ट्रा, मारियो और निन्जा जैसे गैम्स काफी पापुलर थे..और गली-मोहल्ले के बच्चे इन गेम्स में अपनी-अपनी महारत का बखान बड़े चटकारे लेकर किया करते थे। यदि कोई साथी कोन्ट्रा की आठों स्टेज पार कर लेता या मारियो की तीसरी स्टेज में सीढ़ी से उतरती बतख से अपनी लाइफ बढ़ा लेता तो हमें लगता था कि मानो ओलंपिक में गोल्ड मेडल जीत आया हो। ये सारे वाक़ये उसे ही समझ में आ सकते हैं जिसने इन गेम्स का लुत्फ़ उठाया हो।

उन गर्मियों की छुट्टियों के मायने हमारे लिये सिर्फ मस्तियां ही हुआ करती थी..कोई विशेष हुनर हासिल करने की जद्दोज़हद तो रहा ही नहीं करती थी। एक जो बड़ा फर्क तब और आज के वक्त में समझ आता है वो यही है कि पहले प्रसन्नता के लिये अधिक से अधिक जतन किये जाते थे पर आज सफलता के लिये सारी कोशिशें हैं। नानी का वो कच्चा घर, टूटा छज्जा और मिट्टी का बरामदा आज के इन आलीशान, संगमरमरी बंगलों से कई बेहतर और सुकून देने वाला था..उस टूटी खाट पे बड़ी चैन की नींद आती थी पर आज इन डल्लब के गद्दों पे भी अक्सर नींद कम और करवटें ज्यादा रहती हैं। वो चूल्हे की बनी रोटियां और चावल की खिचड़ी जिस तरह क्षुधा को तृप्त करती थी वो ताकत आज के पिज्जा, वर्गर और चाइनीज़ में कतई नहीं। बर्फ के गोले सा जायका, टॉप एंड टाउन और दिनशॉज की आइस्क्रीम में नहीं और न ही मॉल्स के फूड कोर्ट में वो लजीज़ स्वाद मिलता है जैसा तब रास्ते में बिकने वाले बुढ़िया के बाल और ठेले से जामुन खरीद के खाने में मिलता था।

हो सकता है तब ऐसा सिर्फ इसलिये हो क्योंकि हमारी दुनिया और समझ सीमित थी..पर उस सीमित दायरे सी प्रसन्नता क्या किसी वैश्वीकरण की व्यापकता से हासिल हो सकती है। बाहर से विस्तृत होकर भी हम अंदर से तो सिकुड़ ही रहे है..मोहल्ले की गलियाँ तो चौड़ी हो गई पर दिलों की तंगी कैसे दूर होगी?

जारी.........

Friday, October 11, 2013

नारी के प्रति हमारे नज़रिये का आत्मावलोकन

आज सारा विश्व कन्या शिशु दिवस या गर्ल चाइल्ड डे मना रहा है। सन् 2011 से सैंकड़ो दिवसों की तरह संयुक्त राष्ट्र के द्वारा अब एक और दिन को मनाया जाने लगा है। लेकिन आज एक यक्ष प्रश्न हम सब के सामने है कि समाज में नारी की स्थिति सुधारने के उद्देश्य से शुरु हुआ ये दिवस भी कहीं महज़ सेमिनार और चर्चाओं तक ही तो सीमित नहीं रह जायेगा। या फिर असल में ये समाज में सदियों से व्याप्त नारी के प्रति निर्मित दकियानूसी दृष्टिकोण के बदलने में अपनी भूमिका निभाएगा। इन सवालों के जवाब तो हमें वक्त आने पर ही मिलेंगे लेकिन कम से कम अभी हम नारी के प्रति व्याप्त समाज के वर्तमान दृष्टिकोण का तो आत्मावलोकन कर ही सकते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने कहा था समाज रुपी गरुड़ के स्त्री और पुरुष दो पंख होते हैं। यदि एक पंख सबल तथा दूसरा दुर्बल हो तो उसमें गगन को छूने की शक्ति कैसे निर्मित होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्त्री-पुरुष एक ही गाड़ी के दो पहिये हैं। यदि एक भी पहिया कमजोर होगा तो गाड़ी आगे बढ़ेगी कैसे? लेकिन इतिहास गवाह है कि हमारे समाज का नारी के प्रति रवैया हमेशा भेदभावपूर्ण रहा है। नारी को जन्म से लेकर मरण तक समाज की दूसरी पंक्ति की शख्सियत बनकर जीना होता है। हमने सामाजिक ढांचे को कुछ इस कदर गढ़ा है जहाँ नारी खुद माहौल से ये सीख लेती है कि उसकी हस्ती हमेशा पुरुष के बाद ही है..और पुरुष के कारण ही उसका अस्तित्व है। अपने में आई इस हीन भावना का ही फल है कि वो कभी खुद को समतुल्य बनाने के लिये अपनी आवाज बुलंद नहीं करती और न ही कभी अपने साथ हो रहे इस दोहरे बर्ताव पर कोई शिकायत करती नजर आती। अगर ये समाज कदाचित् नारी की प्रशंसा करता भी है तो सिर्फ उसकी भूमिकाओं जैसे-माँ, पत्नी, बहिन या बेटी के रूप में ही प्रशंसा करता है किंतु कभी उसकी एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के रूप में प्रशंसा नहीं की गई है।

कहने को हम आज ये जमकर राग आलाप रहे हैं कि आज नारी सशक्त हो रही है। उसकी उन्नति के लिये कई योजनाएं और कार्यक्रम आयोजित हो रहे है। हमने महिला के अधिकारों व कानूनी अधिकारों की रक्षा हेतु वर्ष 1990 में संसद के एक अधिनियम द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग की स्थापना की। स्थानीय स्तर पर महिला की भागीदारी बढ़ाने हेतु पंचायती राज और नगरपालिकाओं में 33 प्रतिशत आरक्षण दिया। महिलाओं में आत्मविश्वास पैदा करने के लिये केंद्र सरकार ने देश के प्रत्येक राज्य में महिला समाख्या सोसायटी का भी गठन किया। वर्ष 2001 को महिला सशक्तिकरण वर्ष के रूप में मनाया। लेकिन विडम्बना ये रही कि इन तमाम घोषणाओं के बाद इस पर कुछ विशेष कार्य नहीं हुआ। अगर कुछ हुआ भी है तो इस बात को मानना बड़ा मुश्किल है क्योंकि आज भी महिला अपनी परिस्थिति को ही अपने नियंत्रण में नहीं रख पा रही। कभी-कभी तो ये लगता है कि सशक्तिकरण की बात करना कहीं महिलाओं की तात्कालिक सनक तो नहीं है?
      
भारत की कुल जनसंख्या में लगभग 48 प्रतिशत हिस्सेदारी रखने वाली महिला का जीवन बहुत कठिन और यातनापूर्ण बनकर रह गया है। आंकड़ो में यदि इस स्थिति को देखा जाये तो प्रत्येक 1000 पुरुषों पर 941 महिला हैं जिनका शैक्षणिक विकास प्रतिशत मात्र 54.16 है। भारतीय संसद में ये दस प्रतिशत भी नहीं है, प्रशासकीय-प्रबंधकीय व व्यवसायिक पदों पर मात्र 2.3 प्रतिशत और अन्य तकनीकी क्षेत्रों में मात्र 20 प्रतिशत प्रतिनिधित्व ही है। ये आंकड़े साफ बता रहे हैं कि महिला वर्ग को किस तरह से समाज की विभिन्न गतिविधियों में हाशिये पर रखा जा रहा है। समाज में कन्या का जन्म मानो अभिशाप माना जाता है यही वजह है कि कन्या भ्रूण हत्या के मामले पिछले कई वर्षों से तेजी से बढ़ रहे हैं। पुत्र को परिवार की संपत्ति और पुत्री को दायित्व के रूप में समझने की मानसिकता सदियों पुरानी है। इस मानसिकता का ही प्रतिफल है कि समाज में बाल-विवाह, स्त्री अशिक्षा, दहेजप्रथा जैसी विसंगतियाँ नज़र आती हैं और नारी के विकास के समस्त वादे झूठे साबित होते हैं। अरस्तु का कहना था कि किसी भी राष्ट्र की स्त्रियों की उन्नति या अवनति पर ही उस राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर है। भारत जैसे राष्ट्र में जहाँ हमने अपने देश को भी भारत माँ कहा है, माँ भारती के उच्चारण के साथ हम गौरव का अनुभव करते हैं। ऐसे परिदृश्य में नारी अबला बनी है, अपनी प्रतिकूलता और दुर्दशा पर आँसू बहा रही है। ये राष्ट्र के कष्टदायक हालात को बयाँ करता है।
      
दरअसल आज सरकार या समाज की योजनाओं से ज्यादा ज़रुरी हर एक व्यक्ति की सोच में आमूलचूल परिवर्तन का आना है। हमें तमाम पुरातन मान्यताओं से ऊपर उठकर इस सदियों पुराने भेदभाव को ख़त्म करने के लिये दृढ़ संकल्पित होने की ज़रूरत है। नारी की शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार और अन्य अधिकारों में व्याप्त सभी तरह के पक्षपात को दूर करने की ज़रूरत है। कहते हैं कि यदि आप एक पुरुष को शिक्षित करते हैं तो मात्र वह पुरुष ही शिक्षित होता है परन्तु एक महिला को शिक्षित करते हैँ तो पीढ़ियां दर पीढ़ियां शिक्षित हो जाती हैं। अतः ज़रूरी ये भी है कि इधर-उधर दृष्टिपात करने की अपेक्षा ये उचित होगा कि महिलाएं स्वयं प्रेरणा से स्वसंगठित होकर आत्मशक्ति के आधार पर सशक्तिकरण की नवीन परिकल्पना की सूत्रधार बनें। इस काम के लिये परम्परावादी व्यवस्था को बदलना होगा, तस्वीर तभी बदलेगी। व्यवस्था को बदलने के लिये संपन्न महिलाओं को, संसाधनों से युक्त महिलाओं को समाज में आगे आकर असहाय, गरीब, अशिक्षित और पीड़ित महिलाओं की रक्षा करनी होगी। वास्तव में सशक्तिकरण का यही स्वरूप ही वास्तविक रूप में भारतीय समाज को नई दिशा दे सकेगा।
      
अगर हम चाहतें है कि देश को कई कल्पना चावला, सानिया मिर्जा, सायना नेहवाल, सुष्मा स्वराज या किरण बेदी जैसी सशक्त महिलायें मिले तो इसके लिये आवश्यक है कि समाज की मनःस्थिति को जड़ से परिवर्तित किया जाये। समाज में स्थित भेदभाव पूर्ण मानसिकता को प्राथमिक स्तर से दूर किया जाये और इसकी शुरुआत हर एक परिवार तथा हर एक व्यक्ति की सोच में बदलाव से ही संभव है। व्यक्तिविशेष की सोच में आये बदलाव से ही एक संतुलित समाज का निर्माण किया जा सकता है। एक ऐसा समाज जहाँ स्त्री-पुरुष एक दूसरे के पूरक या एक दूसरे पर आश्रित नहीं होंगे बल्कि एक दूसरे के कदम से कदम मिला, सहयोगी बन समाज के उत्थान की दिशा में कार्य कर सकेंगे।

      
ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि महिला के प्रति दया या करुणा वाली सोच विकसित कर महिला के कल्याण के लिये हमें कार्य नहीं करना है बल्कि एक संतुलित और समानता वाला नज़रिया निर्मित कर महिला के विकास की ओर कदम बढ़ाना है क्योंकि कल्याण तात्कालिक और पराश्रित होता है जबकि विकास जीवंत और स्वाश्रित।

Tuesday, October 8, 2013

मेरे लिये 'द्रविड़' और 'सचिन' की विदाई के मायने..

चैंपियंस लीग T-20 का फाइनल मैच बरबस ही बेहद भावुक और अतीत की जुगाली के लिये मजबूर करने वाला बन गया। कहने को तो ये महज राजस्थान रॉयल्स और मुम्बई इंडियंस के बीच, 15 करोड़ की इनामी राशि वाली एक प्रतिस्पर्धा की जंग थी..किंतु इसके साथ ही ये मैच, दो महान् अंतर्राष्ट्रीय क्रिकटरों के एकसाथ मैदान पे खेलने का आखिरी लम्हा भी था। बस इसी वजह से इस मैच का परिणाम, एक भारतीय दर्शक होने के नाते बहुत ज्यादा मायने नहीं रखता। दरअसल ये दो खिलाड़ियों की नहीं बल्कि क्रिकेट की दो प्रवृत्तियों की विदाई का वक्त था..और साथ ही ये पल मुझे इस बात का भी अहसास करा रहे थे कि मेरा बचपन अब वाकई ख़त्म हो चुका है..और ज़िंदगी के नये दौर में प्रविष्ट हो चुका हूँ।

संभवतः 1998 का उत्तरार्ध होगा, जबसे मैंने क्रिकेट देखना शुरु किया था क्योंकि इससे पहले तक दूरदर्शन पे मेरे पसंदीदा कार्यक्रमों की जगह यदि क्रिकेट आता था तो बड़ी चिड़ छूटती थी। उम्र महज़ दस साल..और इस उम्र में क्रिकेट के गहन शास्त्रीय ज्ञान होने का तो सवाल ही नहीं उठता। इसलिये क्रिकेट से ज्यादा खिलाड़ियों को देखा करते थे...अजय जड़ेजा, अजहरुद्दीन, सचिन, सौरव, राहुल, श्रीनाथ और कुंबले वाला दौर था..एक-एक कर सब विदा होते रहे, पर इन सबकी विदाई से कभी वो अहसास नहीं जागा जो अब पैदा हुआ है...क्योंकि तब तक हमेशा दिल को ये पता होता था कि सचिन, सौरव और राहुल तो है न। फिर इन सितारों ने भी एक-एक कर क्रिकेट के अलग-अलग फॉरमेट को अलविदा कहना शुरु कर दिया..तब थोड़ी टीस मन में पैदा हुई पर ये सुकून था कि ये आईपीएल जैसी प्रतिस्पर्धा में तो शिरकत करेंगे ही..पर अब इनकी इस बचे-खुचे क्रिकेट से भी विदाई हो रही है..और साथ ही बचपन की वो तमाम यादें, अब मस्तिष्क में आ ऊहापोह मचा रही है जो इन क्रिकेट सितारों से जुड़ी हुई हैं...इन यादों में कई ख़ुशी के पल हैं तो कई ग़म के भी। कई बार इन सितारों को सिर-आँखों पे बैठाया है तो कई बार इन्हें जमके गरियाया भी है। क्रिकेट कभी सचिन और द्रविड़ के बगैर भी हो सकता है ऐसा तो कभी स्वपन में भी ख़याल नहीं आता था।

1999 के वर्ल्डकप का वो पल..जिस वक्त टीम को अगले दौर में पहुँचने के लिये एक अदद जीत की सख्त ज़रूरत थी, तब सचिन अपने पिता के देहांत के बाद इंग्लैण्ड लौटके केन्या के खिलाफ बेहतरीन शतक लगाते हैं और टीम को जिताके अगले दौर में लेके जाते हैं..ऐसा लगता है मानों सचिन के करीब जाके उसके मस्तक को चूम लिया जाये। इस मैच में दूसरे छोर पे राहुल द्रविड़ ही खड़े थे और उन्होंने भी इस मैच में शतक लगाया था, यही नहीं इसके अगले मैच में गांगुली के साथ भी त्रिशतकीय साझेदारी में राहुल ने अपने करियर का उच्चतम स्कोर बनाया था। 2001 का कोलकाता टेस्ट भला किसे याद न होगा जिसमें वीवीएस लक्ष्मण के साथ रिकॉर्ड साझेदारी में द्रविड़ ने एक संयमित जीवटता के साथ बल्लेबाजी की थी और आस्ट्रेलिया के लगातार 16 टेस्ट विजय रथ को रोका था। ऐसी दर्जनों यादें इन दो महारथियों के साथ जुड़ी हुई हैं। 2003 के आस्ट्रेलिया दौरे में सचिन के आस्ट्रेलिया के खिलाफ लगातार तीन बार शून्य पे आउट होना.. जिस वक्त सारे देश में उनके रिटायरमेंट की नसीहतें दी जा रही थी लेकिन उसके बाद लाजवाब 241 रन की पारी जिसने सारे धुरंधरों की बोलती बंद कर दी थी। 2003 का वर्ल्डकप, 1998 का टाइटन कप तो सचिन की चर्चा के बगैर हमेशा ही अधूरा रहेगा। इसी तरह टेस्ट क्रिकेट में द वॉल के नाम से मशहूर द्रविड़ की उबाऊ मगर दमदार पारियाँ हर भारतीय क्रिकेटप्रेमी का सीना फ़क्र से ऊंचा करने वाली रही हैं।

मुझे अच्छी तरह याद है जब 2001 में अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट रैकिंग में टॉप थ्री में सौरव, सचिन और द्रविड़ विराजमान रहा करते थे..और इसी वक्त गेंदबाजी में टॉप 20 में तक कोई नहीं था। उस दौर में भारतीय टीम की कमज़ोर कड़ी गेंदबाजी ही हुआ करती थी और इसी वजह से टीम को कई मैंचों में हारना पड़ता था..लेकिन तब भी सिर्फ इन तीनों की बल्लेबाजी देखने के लिये हम मैच देखा करते थे..और इन तीनों के आउट होने के बाद, इन्हें भला-बुरा कह टीवी बंद कर दिया कर देते थे क्योंकि हमने इन्हें एक आम इंसान मानना बंद कर दिया था और इनमें कोई दैवीय कल्पना हम कर बैठे थे। ऐसे में गर हमारा देव ही उम्मीदों पे ख़रा न उतरे तो गुस्सा आना स्वाभाविक था। स्कूल से बंक मारना, सड़कों पे घंटो किसी दुकान पे खड़े-खड़े मैच देखना या इनकी बल्लेबाजी देखने के लिये खाने-पीने की सुरत भी भूल जाना..ये सारी चीज़ें इन सितारों की वजह से थी।

युवराज, सहवाग, जहीर, हरभजन जैसे सितारे जब शैशव अवस्था में अपनी क्रिकेटीय पारी की शुरुआत कर रहे थे तब ये पुरोधा शिखर पे स्थापित थे...और युवराज, धोनी, सहवाग की चमक के काल में भी हम हमेशा सचिन, द्रविड़ के रिकॉर्ड बनने की दुआ किया करते थे। उस नाजुक उम्र में ये सितारे, महज खिलाड़ी नहीं बल्कि घर-मोहल्ले के सदस्य जैसे लगा करते थे...और अब जबकि इनकी विदाई होते देख रहे हैं तो दिल को ये यकीन करना मुश्किल हो रहा है कि अब टेस्ट क्रिकेट में लड़खड़ाती पारी को संभालने कौन संकटमोचन आयेगा..या किसके स्क्वैयर ड्राइव या स्वीप शॉट देख के हम तालियाँ बजायेंगे। यद्यपि ये सच है कि किसी के जाने से कुछ नहीं रुकता..और शो चलता रहता है। कल इनके भी रिकॉर्ड टूटेंगे, कल कोई इनसे भी बेहतर खेलने वाला आएगा और नये सितारों की चमक में ये पुराने सितारे धूमिल हो जायेंगे..लेकिन मेरे या मेरी पीढ़ी के उन तमाम दर्शकों के लिये अब किसी भी क्रिकेटर की चमक, चाहत पैदा नहीं करेगी क्योंकि हमारे ज़हन में ये सितारे अपनी चौंधियाती आभा और रोशन छवि बिखेरे हुए हैं..अंतस का एक हिस्सा इनकी विदाई के साथ ही मुरझा जायेगा क्योंकि हृदय के उस हिस्से ने सिर्फ इन्हें ही चाहा है..हमारे लिये क्रिकेट की परिभाषा सचिन और द्रविड़ से अलग हो ही नहीं सकती। 

अंत में दो पंक्ति याद कर अपनी बात ख़त्म करूंगा..
तुम्हारे जाने से, अब एक वरक् पलट जायेगा।
वो एक आसमाँ, कहीं से सरक जायेगा।।

Saturday, October 5, 2013

वर्चुअल विश्व की हरियाली बनाम यथार्थ की कड़वाहट

'मेरे फेसबुक में 1000 मित्र हैं', 'मेरी नई DP को 200 लोगों ने लाइक किया', 'वी चैट पे मेरी 15 महिला मित्र हैं' या 'ट्विटर पे मुझे 2000 से ज्यादा लोग फॉलो करते हैं' ये कुछ संवाद हैं जिन्हें आजकी जनरेशन बड़े ही चटकारे लेकर प्रस्तुत करती है...अपनी ज़िंदगी का अधिकतम वक्त शायद इसी 'आभासी दुनिया(Virtual World)' में खर्च हो रहा है...आज हमारी मोहब्बत, बुजुर्गों के लिये इज्जत, देशभक्ति, विद्वत्ता या भोगआकांक्षायें सब कुछ आभासी विश्व की चरणवंदना कर रहा है। गोयाकि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; हमारे तमाम पुरुषार्थ आभासी हो चुके हैं। वर्चुअल विश्व ही हमारे ग़म की वजह है और यही खुशी का कारण।


अब पारंपरिक पुस्तकालयों में भीड़ नहीं लगा करती...कोयल या गोरैया का गुनगुनाना सुकून नहीं देता, बगिया में खिले हुए फूलों या आसमाँ के तारों को देख हमें कोई कविता नहीं सूझती..पर्वत की नीरवता, नदी की कलकल या बारिश की फुहारें; रुह को ठंडक नहीं पहुंचाती...शाम को बूढ़े नीम के नीचे बुजुर्गों की महफिलें नहीं जमा करती और न ही दादी-नानी की कहानियाँ हमारे शिक्षा के स्त्रोत होते हैं...गाँव की सड़कों पे घूमता अल्हड़ बहरूपिया या बंदर को नचाता मदारी, अब मस्ती का पैमाना नहीं रहे हैं..और न ही अब बच्चे राष्ट्रीय त्यौहारों पे, अपनी स्कूल ड्रेस की शर्ट वाली जेब में तिरंगा लगाये प्रभात फेरी में हिस्सा लेते दिखाते हैं। जिंदगी के सारे मनोभावों पे वर्चुअल विश्व का एकछत्र साम्राज्य है।

बड़ा आश्चर्य होता है जब कभी-कभी मैं लेट नाइट अपने शोधकार्य की थीसिस पे काम करने के बाद कुछ देर को अपना फेसबुक अकाउंट चैक करता हूँ (क्योंकि कुछ हद तक मैं भी इसका गुलाम सा बन बैठा हूँ) और सैंकड़ो लोगों को ऑनलाइन पाता हूँ। ये सारे नाइटराइडर्स किसी नए शख्स को ऑनलाइन देख, झट से उसके इस्तकबाल में लग जाते हैं..मानो वे पलक-पांवड़े बिछाके वाट ही जोह रहे हो किसी अनजान से गुटरगू करने की। आज ऑफिस में काम करते वक्त, कॉलेज में स्टडी करते वक्त या किसी सुहाने सफर के दौरान भी लोग; पलभर के लिये इस सायबर संजाल से खुद को दूर नहीं कर पाते..और इस आभासी विश्व से दूरी, उन्हें श्वांस बगैर ज़िंदगी सी जान पड़ती है और लगता है मानो रग़ों में से लहू सूख रहा हो। असल परेशानी इन सोशल नेटवर्किंग साइट्स का प्रयोग करने की या अनजाने लोगों से मित्रता बढ़ाने की नहीं..बल्कि परेशानी ये है कि इस आभासी विश्व के चलते हम अपने यथार्थ से कोसों दूर जा रहे हैं और अब हमारे लंच या डिनर के वक्त डाइनिंग टेबिल पे, प्रायः परिजनों के समक्ष खामोशी पसरी रहती है और फेसबुक, ट्विटर, वाट्सएप या वीचैट पे हम अपनी मिलनसारिता दिखाते रहते हैं।

यथार्थ हमें बेहद कड़वा और उबाऊ लगने लगा है..और इस यथार्थ में हम न किसी तरह का कोई फीडबैक देते हैं और न ही कोई फीडबैक पाना ही चाहते हैं। मानो हमारा अस्तित्व अब सिर्फ वर्चुअली ही रह गया है और असल ज़िंदगी में हम मर चुके हैं। लंदन, अमेरिका, कनाडा, जापान में बैठे लोग हमारे दोस्त है जिन्हें न हम कभी मिले हैं और न ही जिन्हें हम ठीक से जानते हैं लेकिन हमारे पड़ोस में रहने वाले अधेड़ उम्र के ताऊ या घर के सामने गूँजने वाली नन्ही किलकारी से हम अनजान है..और हर रोज़ जिनका दीदार तो हम कर रहे हैं पर उनका हाल जानने के लिये हमारे पास वक्त नहीं है। कभी-कभी समझ नहीं आता कि वर्चुअल विश्व के इस फैलाव के बाद इंसान का स्वभाव अंतर्मुखी हुआ है या फिर बहिर्मुखी...क्योंकि जितनी बातें हमें फेसबुक स्टेटस अपडेट करते वक्त, किसी फोटो पे कमेंट करते वक्त या अजनबियों से चैट करते वक्त आती हैं क्या उतनी बातें हमें अपने यथार्थ जीवन में भी आती है...हमारी बातों या हमारे व्यक्तित्व का आकलन अब वर्चुअल विश्व के लाइक्स और कमेंट्स ही तय करते हैं।

इस वर्चुअल विश्व पे हम अपने खाने-पीने, घूमने-फिरने, यहाँ तक की हगने-मूतने तक की अपडेट्स लगातार देते रहते हैं पर अफसोस घर में हमारे माँ-बाप को ही हमारे घर से बाहर रहने का सही कारण मालूम नहीं होता। अब प्यार में ब्रेकअप होने पर हम हमारे ज़िगरी दोस्त का कंधा नहीं तलाशा करते..बल्कि इस नितांत वैयक्तिक चीज़ के लिये भी हमें आभासी विश्व की प्रतिक्रिया की ज़रूरत है। सेना पे शहीद हुए जवान को श्रद्धांजलि देना हो या शिरडी वाले सांई के प्रति भक्ति प्रदर्शित करना हो..यहाँ भी हम महज एक फोटो पे लाइक या कमेंट कर, खुद के देशभक्त और श्रद्धालु होने का प्रमाण प्रस्तुत कर देते हैं। हमारी राजनीतिक समझ, देश की समस्याओं पे हमारी बौद्धिक जुगाली या मोहब्बत के बड़े-बड़े शैक्षिक पाठ; सब कुछ एक स्टेटस या कमेंट्स तक सिमट गये हैं..और यथार्थ की समूह वार्ताएं जाने कहाँ गुम हो गई हैं।

निश्चित ही सोशल नेटवर्किंग साइट्स ने सूचनाओं को एक लोकतांत्रिक स्वरूप दिया है जो कि लोकतंत्र और समाजवाद के लिये एक अहम् कदम है..पर इस आभासी दुनिया के चलते हमारी बौद्धिकता और भावनाएं बड़ी भ्रामक और मिथ्या हो गई है..जिसके कारण भले हम सूचनाओं को एक लोकतांत्रिक स्वरूप प्रदान कर रहे हैं पर सच्चे अर्थों में लोकतंत्र और समाजवाद को ही नहीं समझ पा रहे हैं क्योंकि लोक और समाज का साकार स्वरूप हमें कड़वा लगता है और उसके आभास में हमें हरियाली नज़र आती है।

आज विज्ञान के आविष्कारों ने हमें वर्चुअली जीना तो सिखा दिया है..अब मुझे डर है कि कहीं हमारी मौत और उस मृत्यु का मातम भी इसी तरह वर्चुअली तो नहीं हो जाएगा। अन्यथा इंटरनेट पे ही हम मरेंगे..इस पे ही कहीँ दफना दिये या जला दिये जाएंगे..और किसी वर्चुअल 3D फॉरमेट में बहती हुई गंगाजी की इमेज में हमारी वर्चुअल अस्थियां सिरा दी जाएंगी।