Friday, June 30, 2023

अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतुहली सन...

प्रसिद्ध जैन आचार्य अमृतचंद्र उक्त पंक्ति में कहबराहे हैं कि मौत की कीमत पे भी तत्त्व के यानि विश्व के वास्तविक स्वरूप के समझने के कौतुहली बनो। अच्छा! भला कौन की ऐसी बुद्धि फिर गई जो अव्यक्त के कौतूहल में व्यक्त की कद्र न करें, मौत की कीमत पे कोई किसी का कौतुहली होता भी है?


होता है, अमूमन हर रोज होता है, अनेक बार होता है। हालिया उदाहरण देखिए - दो दो करोड़ से ज्यादा खर्च करके सिर्फ टाइटैनिक का मलबा देखने और फोटोग्राफी करने के मंतव्य से अपनी जान गवा बैठे 5 अरबपति। गहन सोच में डालने वाली खबर है, सिर्फ पढ़कर छोड़ने लायक नहीं, अज्ञान जन्य मानवीय प्रवृत्ति की गहन पड़ताल करने वाली खबर। आखिरी समय उनका समय कैसा पीड़ा, संक्लेश परिणामों वाला रहा होगा कोई सोच भी नही सकता।

और अब "ओसीएन गेट" पनडुब्बी में सवार सभी अरबपति मृत घोषित कर दिए गए। उनके पास चाहे कितना ही पैसा था पर आखिरी समय में केवल "जीवित रहने" और धरती पर वापस आने की प्रार्थना रही होगी। मौत की कीमत पे भी अव्यक्त के कौतूहल में इन्होंने व्यक्त की कद्र कहाँ की? अमुक को जानने की इच्छा, अमुक को भोगने की इच्छा, हममें से न जाने किन किन को, किस किस का कौतुहली बनाती है... मौत की कीमत पर भी। 

हमारा पर्यटन, हमारा रोजगार, हमारे शौक, हमारा एडवेंचर, हमारे संबंध और... न जाने क्या क्या? ऐसी जाने कितनी चीजें हैं... जो सिर्फ कौतूहलवश की जा रही हैं बिना किसी खास प्रयोजन या हासिल के।

ऐसे में यदि आचार्य विश्व के सर्वोत्कृष्ट हासिल के लिए, मौत की कीमत पे भी तत्त्व के, जड़-चेतन के, स्व-पर के समझने का कौतुहली होने का उपदेश दे रहे हैं तो इसमें क्या बड़ी बात! ये जीवन उस तत्व को समझने में चला भी गया तो कुछ खास नहीं खोया... पर इस कौतूहल में यदि कुछ पा गए तो समझना अनादि भव संतति/संसार चक्र में जो न पा सके, वो अमूल्य अब मिल गया।

जीवन अपने आप में कितना अनमोल है, इसे महत्व दें, इसके लिए आभारी रहें। मिले हुए संसाधनों का सदुपयोग करें, पर प्रीति एकमात्र शुद्धात्मा से ही करें आपके पास ज्यादा समय, शक्ति, बुद्धि व धन हो तो व्यवहार में अधिकतम प्रभावना/वात्सल्य/सेवा आदि में यथायोग्य प्रवृतें; पर श्रद्धान तो इन्हें भी बंध का या दुख का कारण मानने का ही रखें और कौतुहली तो एक निज ज्ञायकभाव/अपने आत्मस्वभाव/ अपने वास्तविक स्वरूप को समझने के ही रहें।

ओसीएन गेट पनडुब्बी में सवार लोगों से Ocean Gate कंपनी पहले ही एफिडेविट ले चुकी थी कि अगर इस 8 घंटे के हैरतंगेज टूर में जान चली जाती है तो उसका कोई क्लेम नही होगा। सोचकर ही रोंगटे खड़े होते है के यह कैसा हैरतंगेज काम था जो लगभग एक सदी पहले डूब चुके टाइटैनिक जहाज का मलबा मात्र देखने का प्रोग्राम था। इस कौतूहल में क्या बौद्धिकता रही है कोई यदि बता दें तो मैं जरूर समझना चाहूंगा।

सोचकर देखो उस जगह पर हजार से ज्यादा लोग पहले ही कई साल पहले अपनी जान गंवा चुके हैं  और अब यह लोग भी उन्हीं दिवंगतों की लिस्ट में कुछ संख्याओं का इजाफा करने वाले बन गए, महज एक नंबर। मृतकों का नंबर।

बताईए! इस सहज प्राप्त कौतूहल की ऊर्जा का किस दिशा में उपयोग लाभकारी है... ज्ञान के या स्व के कौतुहली होने में या ज्ञेयनिष्ठ होकर जगत के कौतुहली होने में?🤔

~अंकुर

Friday, June 2, 2023

तारण स्वामी को मैं विश्वपटल पर नहीं ले गया, तारण स्वामी मुझे विश्व पटल पर ले गए....

 (लंबी पोस्ट - SOAS तक तारण स्वामी के जाने की कहानी)

और आखिर! एक लंबी जद्दोजेहद, कसमकस, मानसिक और शारीरिक तैयारी तथा मन की उहापोह, संशय को विराम मिला। करीब तीन महीने पहले उठाए एक अति महत्वाकांक्षी कदम को आराम मिला।  और अब मैं वापस आ रहा हूं। सफर में समय बहुत है तो कुछ चीजें लिखकर ही सही पर याद करना जरूरी है।


सच कहूं तो सब होता गया, एक प्रवाह था उसमे मैं बहता गया और जो भवितव्यता में पहले से ही घटने योग्य नियत घटना थी वो घट गई। मैं इसका साक्षी ही रहा। कर्तत्व का ये अभिमान कि - मैने तारण स्वामी को वैश्विक मंच दिया, ये महज अपने गाल बजाने के अतिरिक्त कुछ नहीं। सच्चाई ये है कि चूंकि मेरे पत्र में तारण स्वामी का नाम जुड़ा था और इस विषय तथा नाम में आयोजक प्रायोजकों का कौतूहल था तो यही मानो कि तारण स्वामी ही मुझे विश्वपटल पर ले गए।

रास्ते खुद बनते गए, कांटे खुद छटते गए। लेकिन इस रास्ते को सरल बनाने में अनेक लोगों का प्रत्यक्ष परोक्ष योगदान है जिनका नाम लिए बिना चीजों को पूरा कर देना बेमानी होगा।

लंदन की किसी pure soul संगोष्ठी के बारे में अक्टूबर २०२२ में पहली बार सुना तो था कि अप्रैल में कुछ बड़ा होने जा रहा है। पर खुद की भागीदारी का ख्याल जरा भी जेहन में नहीं था। इसका बीजांकुर हुआ जनवरी २०२३ के विदिशा शिविर में जब आ. कन्छेदीलाल जी अंकल और आ.सरस जी भाईसाहब ने इसमें भागीदारी के लिए प्रोत्साहित किया। मन में पहली बार विचार कौंधा, और वहां से आते ही लंदन संपर्क साधा पर पता चला कि रजिस्ट्रेशन 1 महीने पहले ही बंद हो गए हैं। बात आई, गई हो गई। 

करीब 10- 12 दिन बाद SOAS के HEAD पीटर फ्लूगल का व्हाट्सएप आया, जिन्हें मुंबई के निखिल मेहता से मेरा नंबर मिला और उन्होंने मेरे 2021 में तारण स्वामी पर एक शोध पत्रिका प्राकृत विद्या में प्रकाशित आर्टिकल को इंग्लिश में अनुवाद कर भेजने को कहा। स्वबुद्धि और प्रयास से इसे अनुवादित किया तथा इसमें मेरी बहिन स्वप्निल, विपिन जी भोपाल, पंडित हेमचंद जी, मनमोहन जी आदि कई लोगों ने कम या ज्यादा उचित सुधार बता कर इसे दुरुस्त बनाने में मेरी सहायता की।

ये शोध पत्र पीटर को पसंद आया और उन्होंने इसे अपने एक्सिबिशन में रखने के साथ ही इसे प्रस्तुत करने की अनुशंसा की। रिसर्च कॉन्फ्रेंस में 15 अप्रैल के सभी स्लॉट बुक थे लेकिन 16 अप्रैल को एक स्लॉट खाली था। इत्तेफाकन पीटर की अनुशंसा से मुझे इस स्लॉट में प्रस्तुतिकरण के लिए आमंत्रण प्राप्त हुआ।

अभी तक सब हल्के में था पर अब असली कसमकस शुरू हुई। पहली बार परदेश जाना, पहली बार अंग्रेजी में प्रस्तुतिकरण देना, पासपोर्ट, वीजा, व्यय आदि के आर्ंजमेंट्स और न जाने क्या क्या। कई मौके आए जब मन पीछे हटने लगा, लेकिन हर बार कोई न कोई मानो जामवंत बनकर आ जाता और हौसला दे जाता कि जाना तो है ही, जो होगा देखा जायेगा। 

फिर ऐसे कई जामवंत मिलते गए जिन्होंने समंदर पार उड़ने की ताकत दी। हालांकि कई अवसर ऐसे भी बने जब हौसला चूर चूर हो गया पर वो चंद ही थे, हौसला देने वाले कई थे। इन सबका नाम लूंगा तो एक क्रम पड़ेगा पर इनमे से किसी का भी प्रोत्साहन क्रम में आगे पीछे करने लायक नहीं है। आ. श्रीमंत सेठ अशोक कुमार जी, आ. रतनचंद जी दादा जी (मंत्री जी निसई), आ. सुधीर जी सहयोगी, आ. केशव जी, प्रोफ.प्रह्लाद जी, मनोहरलाल जी CA, संयम जी भोपाल, अजय अंकल अलकापुरी, प्रतिस्थाचार्य श्री रतनलाल जी मौसा जी, मनीषा दीदी छिंदवाड़ा, वर्धमान जी छिंदवाड़ा और न जाने कितने ही लोग इसमें परोक्ष रूप से शामिल रहे, जिनका नाम मुझे शायद पता भी न लगा हो पर वे भी मेरी लंदन में व्यवस्था जमाने में लगे थे। यदि किसी का नाम न लिख पाऊं तो मुझे यकीन है कि वे मेरे इस अज्ञान को नादानी समझ माफ कर देंगे। 

इस यात्रा को चर्चित बनाने में भी अनेक लोगों ने भूमिका निभाई जिनमें दीपक जी छिंदवाड़ा, विनीत माहेश्वरी रायसेन, प्रवीण जी पत्रिका, वंदना जी भास्कर, अभिषेक शास्त्री मड़देवरा, तन्मय खनियाधाना, चैतन्य बक्सवाहा, सत्येंद्र खरे आदि अनेक नाम है जिनके चलते, बिना किसी से कुछ गुजारिश किए ही ये यात्रा अखबार और चैनलों के ध्यानाकर्षण की वजह बनी। और इससे तारण स्वामी का नाम भी हाईलाइट हुआ। 

मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, स्वास्थ्य मंत्री डॉ प्रभुराम चौधरी, खेलमंत्री यशोधरा राजे सिंधिया, कैबिनेट मंत्री बृजेंद्र सिंह यादव आदि अनेक मंत्री, नेताओं तथा माखनलाल चतुर्वेदी यूनिवर्सिटी के कुलपति प्रोफ. के जी सुरेश, मेरे पीएचडी के गाइड डॉ संजीव गुप्ता आदि शिक्षाविदों की शुभकामनाएं मिलीं। प्रोत्साहन बढ़ता गया और इस मुकाम तक पहुंचने का जज्बा प्रबल हुआ।

मेरा परिवार जिनमे मेरे मम्मी-पापा, भाई अर्पित व अर्पण, पत्नी निर्जरा भी हर परिस्थिति में साथ रहे। तथा दोनो बच्चे तत्वार्थ एवं अनवद्या जिन्हें आए दिन कई कई बार अपने पापा से दूर ही रहना पड़ता है पर उनकी समझ और साथ भी अवचनीय है। 

इसके अलावा भी परिवार के कई सदस्य और समाज जनों की शुभेच्छाओं ने संबल और प्रोत्साहन दोनो दिया। सब सहजता से होता चला गया। लंदन पहुंचकर मानो लगा ही नहीं कि ये पराया मुल्क है। वहां भी गौरव जी - रिचा दी, स्वप्निल - शशांक, सौरभ जी -काजल भाभी, हेतल बेन -मिलाप भाई जैसे घर जैसे ही लोग मिले जिन्होंने सारी मुश्किलें मानो खत्म कर दीं। अहमदाबाद में अभिषेक जी सिलवानी और साक्षी भाभी की मौजूदगी ने वीजा की प्रक्रिया को मेरे लिए आसान बनाया।

मेरे ऑफिस के कलीग पंकज शर्मा, श्रीकांत सुकुमार, आदित्य श्रीवास्तव, महेश मेवाड़ा, प्रबुद्धरंजन आदि ने भी कार्यालयीन दायित्वों से मुक्त रखा। कई मित्र जिनमे विवेक पिडावा, सौरभ जैन, प्रशांत झा, नितिन सेमारी, निपुण, नितिन खड़ेरी, सचिन जी आदि के सतत उत्साह वर्धन ने हर उस वक्त ताकत दी जब मैं अपने कदम पीछे खींच चुका था। 

देश से बाहर मेरे सफर के साथी अच्युत और जिनेश ने मुझे भरपूर आत्मविश्वास दिया कि ये प्रयास जरूर सफल होगा। और यकीन मानिए सोचे हुए से भी बेहतर प्रतिसाद तारण स्वामी के इस प्रस्तुतिकरण को मिला। लोगों ने तारण स्वामी को और जानने की ख्वाहिश व्यक्त की, उन्हें वैश्विक दर्शन जगत में अकादमिक स्तर पर ले जाने को कहा। उन पर और अधिक काम किए जाने की अपेक्षा की।

तथा मेरे जीवन निर्माण के दो अहम शिक्षा संस्थान पहला पंडित टोडरमल स्मारक जैन सिद्धांत महाविद्यालय, जयपुर और दूसरा माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि, भोपाल ये समझो इनके कारण ही आज मैं वो हो सका जो आज मैं हूं।

अंततः बस यही एक बात कहना है कि तारण स्वामी अब जब देश से बाहर  कौतूहल का विषय बने हैं तो हम भी अपना दिल बड़ा रखें। उन रिवाजों में तारण स्वामी सीमित नहीं है जिनमे हमने उन्हें अरसे से सीमित कर रखा है। तारण स्वामी तो उस चेतना का नाम है जिन्हें जानने की आज पूरे विश्व को जरूरत है। महान आचार्यों की परंपरा से हम खुद जुड़े, तथा जैन दर्शन की व्यापकता को समझें और समूचे जैन समाज को ही नहीं बल्कि विश्व को तारण स्वामी की व्यापकता तक पहुंचने दें।

आपस में लड़ें न, कोई कलेश न रखें, राग द्वेष को न बढ़ाएं। आत्मानुभूति और समता का मार्ग अपने लिए और जगत के प्रत्येक जीव के लिए खोलें। क्योंकि कल्चरल जैनिज्म अलग अलग दिख सकता है पर थियोरोटिकल या प्रैक्टिकल जैनिज्म अलग नहीं है। तारण स्वामी उस प्रैक्टिकल जैनिज्म के ही प्रवर्तक थे, ठीक वैसे ही जैसे हमारे अनंत अरहन्त, आचार्य, उपाध्याय और साधु परमेष्ठी रहे हैं सिद्धत्व का शंखनाद करने वाले और अप्पा सो परमप्पा का गीत गुनगुनाने वाले। 

सभी राग द्वेष मुक्त हो आराधना के मार्ग में लगें ऐसी भावना।के साथ🙏

इत्यलम।

~अंकुर शास्त्री, भोपाल

अखबारों की सुर्खियों में लंदन में आयोजित Pure Soul संगोष्ठी।






































SOAS, युनिवर्सिटी ऑफ लंदन में आयोजित कॉन्फ्रेंस Pure Soul में शोधपत्र प्रस्तुतिकरण की झलकियां।