Monday, June 21, 2010

छत की अहमियत...(father's day special)


माँ को धरा का दर्जा दिया जाता है, और हमने भी सदा से धरती की पूजा की है। बेशक धरती की कीमत को आंकना आसान नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद छत की अहमियत कभी कम नहीं हो जाती। इस बात को शायद वो इन्सान अच्छे से समझ पायेगा जिसके सर पे छत नहीं होती। उस सुकून को बयां करने वाले शब्द नहीं है जो पिता की छाया में मिलता है। हम कई बार सोचते हैं कि चरम तनाव, चिंता कि स्थितियां हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती..यदि इसके तह में जाकर देखें तो वो पिता है जो ढाल बनकर इन सारी विपदाओं से हमें बचा रहे होते हैं।

पिता कि मज़बूरी है कि वो अपने बच्चों को बस दूर से चाह सकता है क्योंकि संवेदनाओं को जाहिर करने वाला सबसे बड़ा हथियार आंसूओ का वो सहारा नहीं ले सकता। बच्चे भी अपने मन की बात बस मां से बताते हैं, उसी के गले से लिपट के अपना प्यार इज़हार करते हैं। इस सारी स्थिति में पिता बस दूर से इन दृश्यों को निहारकर राहत महसूस करता है। पुरुष को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तेज आवाज और गुस्से का सहारा ही लेना पड़ता है, वह रोता नहीं, नरमी नहीं दिखाता...इसलिए बच्चों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करने की छटपटाहट उसे बेचैन किये रहती है। मजबूरन उसे बच्चों को सोते हुए निहारना ही चैन देता है। हमारी सफलता पर हम मां के गले लिपटकर ख़ुशी का इजहार करते हैं पर हमारा मुंह मीठा करने सबसे पहले मिठाई का डिब्बा पिता लेकर आते हैं।

पिता-पुत्र जीवन भर असंवाद की स्थिति में रहते हैं, फिर भी बिना कुछ कहे जाने कैसे पिता को अपने पुत्र की जरूरतों का ख्याल रहता है...बेटे के बड़े होते ही उसे साइकल दिलाना हो, मोबाइल या बाइक दिलाना हो या ATM में पैसे ख़त्म होने से पहले ही रुपये आ जाना हो सब कुछ बिना कहे ही हो जाता है। अपने सपने और अपनी जरूरतों का गला घोंटकर बस बच्चों कि परवरिश ही जिस इन्सान का एक मात्र उद्देश्य होता है वो है पिता। वो हमसे कभी नहीं कहते कि स्कूल कि फीस कैसे भरी या घर के खर्चे कैसे पूरे किये, या लेपटोप दिलाने के पैसे कहाँ से आये...वे नहीं कहते कि अब उनके घुटनों में दर्द होने लगा है, जल्दी थकान हो जाती है या ब्लड प्रेशर या सुगर बढ गयी है....नहीं, परिस्थितियों के बादलों से बरसी चिंता कि किसी बौछार को ये छत हम तक नहीं पहुँचने देती।

पिता बस पिता होता है उसकी तुलना किसी से नहीं है...अलग-अलग स्टेटस से लोग एक इन्सान के स्तर पर तो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर पितृत्व के स्तर पे नहीं। एक करोडपति बिजनसमेन या एक झुग्गी के गरीब पिता की पितृत्व सम्बन्धी भावनाओं की ईमानदारी में कोई अंतर नहीं होता, उसके इजहार में भले फर्क हो। हर पुत्र के लिए उसका पिता ही सबसे बड़ा हीरो है, उस एक इन्सान के कारण ही बेफिक्री है, अय्याशी है, मस्ती है। पुत्र के लिए पिता का डर भी बड़ा इत्मिनान भरा होता है,एक अंकुश होता है। प्रायः पिता की हर बात उसे एक बंधन लगती है, पर उस बंधन में भी गजब का मजा होता है।

इन सब में पिता को क्या मिलता है...आत्मसंतोष का अद्भुत आनंद। पुत्र के बचपन से जवानी तक की दहलीज पर पहुचने की यादें मुस्कराहट देती है। बेटे की सफलताये खुद की लगती है। बेटे से मिली हार खुशनसीबी बन जाती है।
आश्चर्य होता है कैसे एक इन्सान खुद को किसी के लिए इतना समर्पित कर देता है? कैसे पूरा जीवन किसी और के जीवन को पूर्णता देने में बीत जाता है? सच कहा है- कि भगवान इन्सान को देखने हर जगह नहीं हो सकता था शायद इसलिए उसने मां-बाप को बनाया।

लेकिन दुःख होता है कि नासमझ इन्सान के सबसे बड़े हीरो यही मां-बाप समझदार इन्सान के लिए बोझ बन जाते हैं। अपने बुढ़ापे के दिन काटने के लिए उन्हें आश्रम तलाशना होता है। हमारे दोस्तों और नए सगे-सम्बन्धियों के सामने वे आउट-डेटेड नज़र आते हैं। ऑरकुट और फेसबुक पर सैंकड़ो दोस्तों का हाल जानने का समय है हमारे पास, पर इतना समय नहीं कि पिता की कमर दर्द या मां की दवा के बारे में पूंछ सके। बुढ़ापे के कठिन दौर में जहाँ सबसे ज्यादा अपनेपन की जरुरत होती है वहां यही बूढ़ा बाप किसी फर्नीचर की तरह पड़ा रहता है। और विशेष तो क्या कहूँ, अपनी संवेदनाओं को झंकृत करने के लिए अमिताभ की फिल्म "बागबान" और राजेश खन्ना की "अवतार" देखिये।
अंत में बागबान के एक संवाद के साथ विश्व के सभी पिताओं के चरणों में नमन करता हूँ "मां-बाप कोई सीढ़ी की तरह नहीं होते कि एक कदम रखा और आगे बढ़ गए, मां-बाप का जीवन में होना एक पेड़ कि तरह होता है, जो उस वृक्ष कि जड़ होते हैं उसी पर सारा वृक्ष विकसित होता है...और जड़ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। "

Sunday, June 6, 2010

रणवीर के लिए "राजनीति" के मायने.


बॉक्स ऑफिस पर जून का पहला हफ्ता प्रकाश झा की "राजनीति" के रंग में सराबोर है। बड़े सितारे, भव्य दृश्य, बड़े-बड़े पोस्टर्स, आकर्षक ट्रेलर्स, जमकर प्रचार ने इस फिल्म को बहुप्रतीक्षित बना दिया था। हफ्ते की शुरुआत में सिनेमाघरों में जमकर बरसी भीड़ इसे सुपरहिट भी करा देगी। फिल्म से जुड़े हर शख्स के लिए मानसून खुशियाँ लेकर आएगा। खैर, फिल्म की विशेष समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है काफी टिप्पणियाँ फिल्म के सम्बन्ध में की जा चुकी है। मै इस फिल्म के मायने रणवीर के लिए क्या होंगे इस पर विमर्श करना चाहूँगा...

लगातार चौथी हिट रणवीर की झोली में गिरी है इससे वे अपने समकालीन कई सितारों से बहुत ऊपर चले गए है और अपने से ४-५ साल सीनियर शाहिद और विवेक ओबेराय जैसे दूसरे सितारों को भी टक्कर दी है। बड़ी बात ये है कि वे प्रथम पंक्ति के नायक हैं, अरशद वारसी और तुषार कपूर जैसे द्वितीय पंक्ति के नहीं। "सांवरियां" जैसी भव्य फ्लॉप फिल्म से शुरुआत करने वाले रणवीर का उछलना कई फिल्म विश्लेषकों और इंडस्ट्री के लिए एक अनापेक्षित घटना की तरह है। लेकिन रणवीर ने नदी की पतली धार की तरह बालीवुड के इस मायावी संजाल में अपनी जगह बना ली। खुद के करियर को भी उन्होंने "राजनीति" के समरप्रताप की तरह सूझबूझ से दिशा दी।

"राजनीति" में बहुसितारा नायकों की भीड़ में वे ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं। गोया कि महाभारत का अर्जुन भी वे हैं और कृष्ण भी वे हैं। जो शतरंज कि विसात पर सारे मोहरे खुद की रणनीति से आगे बढाता है। प्रकाश झा ने भी हिम्मत का काम किया जो अजय देवगन और नाना पाटेकर जैसे निष्णांत कलाकारों के बीच रणवीर को ये भूमिका दी। ऐसा नहीं है कि इसे रणवीर से बेहतर कोई नहीं निभा सकता था, लेकिन रणवीर ने भी झा के विश्वास के साथ न्याय किया। एक पढ़े-लिखे जोशीले महत्वाकांक्षी युवा के रूप में वे फब रहे थे।

"राजनीति" कई बुझते सितारों के लिए एक नयी रोशनी देगी जिनमे अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी शामिल है तो वही रणवीर के लिए ये नए पंख देने वाली फिल्म साबित होगी। जिसके दम पर वे हिंदी सिनेमा के विशाल आकाश में उड़ान भर सकेंगे। रणवीर को खुद की किस्मत का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो उन्हें इतने बेहतर अवसर मुहैया करा रही है। इससे वे सारी फिल्म इंडस्ट्री के लिए 'एप्पल आई' बन गये हैं। "वेक अप सिड" में एक गैर ज़िम्मेदार युवा की भूमिका, "रोकेट सिंह" में हुनरमंद सेल्समेन और अब "राजनीति" के समरप्रताप सिंह...ये सारी अलग-२ भूमिकाएं उन्हें एक हरफनमौला अदाकार साबित कर रही है। हालाँकि मैं रणवीर की किस्मत की बात करके उनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहा हूँ। वे प्रतिभा शाली है, और अमेरिका के एक फिल्म संस्थान से विधिवत 'मेथड एक्टिंग' का अध्ययन प्राप्त है। मै सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि कई बार अच्छी प्रतिभाओं को सही अवसर नहीं मिल पाते, ऐसा रणवीर के साथ नहीं है।

जिस तरह से रणवीर आगे बढ रहे हैं उसे देख लगता है कि १-२ साल में वे सितारा श्रेणी में आ जायेंगे जहाँ आज खान चौकड़ी, अक्षय, हृतिक बैठे हैं। लेकिन ये फिल्म इंडस्ट्री है यहाँ जो जितनी तेजी से ऊपर जाता है उससे दुगनी तेजी से नीचे आता है। फिल्म इंडस्ट्री के आसमान से कब कौनसा सितारा टूट जाये ये आकश को भी पता नहीं होता। इसलिए रणवीर ये ध्यान रखे कि खुद को कैसे प्रयोग करना है। स्वयं को अनावश्यक खर्च करने से बचें। इस मामले में आमिर खान को आदर्श बनाया जा सकता है।

बहरहाल, कपूर खानदान को २० साल बाद अपना असल बारिश मिला है। रणवीर को लेकर शायद किसी ऐसी फिल्म की योजना बने जो आर.के.बेनर को फिर जिंदा कर दे। रणवीर की कोशिश होगी कि वो भी अपने पिता और दादा की तरह एक संजीदा अभिनेता बने। "राजनीति " का समर प्रताप सिंह तो बस एक शुरुआत है।

खैर अंत में थोड़ी सी बात "राजनीति" की...भले ये फिल्म सुपरहिट हो, कमाई के कुछ रिकार्ड कायम करे पर ये झा की बेहतर कृति नहीं है। झा एक बहुत उम्दा फिल्म बनाने से चूक गये...एक अराजक, अतिरंजक फिल्म बन गयी जो यथार्थ का असल चित्रण नहीं है। "गंगाजल" और "अपहरण" वाले प्रकाश इसमें नज़र नहीं आये। इंटरवल तक प्रकाश ने अपने पत्ते अच्छे बिछाए थे बस उन्हें खोलने में रायता फ़ैल गया। फिर भी भव्य दृश्यों का फिल्मांकन और इतनी बड़ी स्टारकास्ट को साधना तारीफ के काबिल है। इतनी बड़ी स्टारकास्ट के बाद भी कोई भी स्टार गौढ़ नहीं किया गया है, सभी याद रखे जाते हैं। ढाई घंटे की फिल्म में इतना कुशल प्रबंधन है कि सब को अच्छे अवसर मिले है। और हाँ फिल्म के असली नायक की बात करना तो हम भूल ही गए-वो है भोपाल, जो फिल्म की नसों में रक्त बनकर प्रवाहित हो रहा है। कैमरे की आँख ने बड़ा ख़ूबसूरत भोपाल प्रस्तुत किया है, बड़ी आकर्षक लोकेशन है। कुछ खामियों को छोड़ दिया जाये तो कई खूबियों के लिए फिल्म देखी जा सकती है..........

Friday, June 4, 2010

ये है मुंबई मेरी जान.......


पिछले हफ्ते एक बेहद खुबसूरत शहर और करोड़ों लोगों की धड़कन मुंबई शहर को बेहद करीब से देखने का अनुभव हुआ । देखकर लगा कि आखिर क्यों इसे मायानगरी या नशीला शहर कहते हैं। हालाँकि ये मेरा पहला मुंबई भ्रमण नहीं था लेकिन पिछली बार यहाँ अपने कॉलेज के साथ शैक्षणिक भ्रमण पर आना हुआ था। उस समय तो दोस्तों के साथ मस्ती में ही कुछ यूँ मशगूल थे कि इस शहर को समझने का मौका ही नहीं मिला। तब इस शहर के सम्बन्ध में मेरी धारणा कुछ अलग थी, अब एक अलग धारणा है।

जितनी बार इस शहर का नाम बदला उससे कही ज्यादा बार इसकी संस्कृति,रीति-रिबाज़, रहन-सहन बदला अब ये शहर महज एक शहर नहीं बल्कि एक अलग ही स्वप्न संसार, एक अलग ही दुनिया बन गया है।
मुंबई ह़र काल में लोगों के आकर्षण का केंद्र रहा है,यह देश की व्यावसायिक राजधानी है। ये शहर अपने में जिंदगी के हर रंग समेटे है, मन के सभी रस, दिल की भावनाएं, दुनिया की खुशियाँ और दुनिया का दर्द हर चीज़ के दर्शन आपको इस नाचीज शहर में हो जायेंगे।

जी हाँ यही शहर है जहाँ सड़क से संसद तक की, अर्श से फर्श की, नालों से महलों तक, झुग्गी से बग्घी तक की जिंदगी के दर्शन हम कर सकते हैं। लाखों लोग यहाँ आते हैं और यहीं के हो जाते हैं। पहले वे इस शहर को पकड़ना चाहते हैं फिर ये शहर ही उन्हें पकड़ लेता है कि भले ही वे इसे छोड़ना चाहे पर यह शहर उन्हें नहीं छोड़ता। फिल्म texi no.9 2 11 में एक गीत कुछ इस प्रकार है-"लाख-लाख लोग आके बस जाते हैं इस शहर से दिल लगा के फंस जाते हैं, सोने की राहों पर सोने को जगह नहीं..शोला है या है बिजुरिया दिल की बजरिया मुंबई नगरिया..."

भले ही मुंबई के इर्द-गिर्द समुद्र है लेकिन उससे भी संगीन समुद्र यह मुंबई शहर खुद है जो अपने देश के हर वर्ग, हर क्षेत्र, हर संस्कृति के व्यक्ति को समाये हुए है और हर व्यक्ति के पेट के चूहे मार रहा है। यहाँ आकर हर व्यक्ति कुछ न कुछ पा जाता है कोई बहुत ज्यादा पाता है तो कोई थोडा कम। लेकिन इससे भी बड़ा सच है जो हमने 'मेट्रो' फिल्म के एक संवाद में सुना है "कि ये शहर जितना हमें देता है उससे कही ज्यादा हमसे छीन लेता है"।

दरअसल
जब भी किसी के दिमाग में मुंबई का चेहरा उभरता है तो उसकी नज़र बड़ी-बड़ी आलिशान बिल्डिंग, शोपिंग काम्प्लेक्स, मल्टी प्लेक्स पर तो जाती है पर हजारों वर्गफीट में फैली धारावी की झुग्गियां नहीं दिखती जहाँ समृद्ध लोगों की अपेक्षा कई गुना तादाद में लोग रहते हैंउसकी नज़र फिल्म सिटी, बालीवुड पर तो जाती है पर वह नाले किनारे बसने वाली जिंदगी से बेखबर हैवो बोम्बे स्टॉक एक्सचेंज को देखता है पर चौपाटी पर बड़ा पाव बेचता कल्लू उसे नहीं दिखताफैशन जगत की चकाचौंध तो दिखती है पर ट्रेफिक सिग्नल पर पेपर बेचता बच्चा और भीख मांगती अम्मा नहीं दिखतीयह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि हम मुंबई जाके शाहरुख़ का 'मन्नत' और अमिताभ का 'जलसा' देखना चाहते हैं पर हमारे दिमाग में बिरजू नाई और भोलू हम्माल के वो आशियाने नहीं आते जिनमे वो जिंदगियां बसती है जो हमसे दो मीठे बोल को तरस रही हैइस शहर से उड़ने वाले वो विमान दिखते हैं जो अमेरिका, सिंगापूर, लन्दन जाते हैं पर लोकल ट्रेन की पेलमपेल पर नज़र नहीं जाती

दुर्भाग्य ये है कि जिन चीजों पर हमारी नज़र नहीं जाती वही असली मुंबई है, वही सच्ची और बृहद मुंबई है। हमने हमारी अंखियों के झरोखों से दिखने वाले नजारों को भी संकुचित कर लिया है और जिस शहर को देखा है वो तो पुस्तक का सिर्फ मुख पृष्ठ है अन्दर के पन्नो से हम अनजान है। मुंबई की असली जिंदगी तो इस शहर के कालीन के नीचे पल रही है। इस शहर में ट्रेफिक प्रॉब्लम के कारण गाड़ियों की रफ़्तार धीमी हो जाती है पर गाड़ियों की उस धीमी रफ़्तार के बीच जिंदगी भागती रहती है।

लोग कहते हैं यहाँ का इन्सान बहुत खड़ूस और चिड़चिड़ा होता है पर ऐसा कहने वालो के भी सिर और कंधे पर वजन रखकर, उनके पैर बांधकर दौड़ने को कहा जाय तो वे भी संगीत का मधुर तराना नहीं सुनायेंगे। मुंबई के आदमी की जिंदगी शायद ऐसी ही है, चिडचिडाहट आना लाजमी है। ये एक वो शहर है जो अपने में कई शहर, कई प्रदेश, कई देश या यूँ कहे कि कई दुनिया समेटे है। मुंबई को समझना सिर्फ मुंबई को समझना नहीं है एक अच्छी-खासी दुनिया को समझना है।

वैसे तो मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है, पर ये महज महाराष्ट्र की नहीं ये सारे राष्ट्र की है सारे देश का दिल इसमें बसता है पर राजनैतिक मुर्खता के परिचायक राज ठाकरे जैसे लोगों को ये कौन समझाए, जो अपने देश में ही सरहदें बना रहे हैं। समझ नहीं आता कि काम का बोझ सिर पर रखने के कारण कहीं इस इन्सान का दिमाग घुटनों में तो नहीं आ गया, शायद इसलिए आज घुटनों के दर्द की शिकायत बढ रही है।

खैर, मुंबई के व्यक्ति के लिए तो हम ये कह सकते हैं कि वो जिंदगी जीते समय अपने भगवान को ये नहीं बताता कि उसकी परेशानियाँ कितनी बड़ी है बल्कि अपनी परेशानियों को ये बताता है कि उसका भगवान कितना बड़ा है। यही सोचकर बस जिंदगी जीता चला जाता है।

ये मुंबई अपने आप में एक पुराण है, एक ग्रन्थ है, एक महाकाव्य है जब इसके भाव को विचारकर पड़ोगे तो आँखे नम भी होगी, दिल में गम भी होगा, थोड़ी ख़ुशी तो थोडा गुस्सा भी आएगा पर अंततः आप एक मजबूत और परिपक्व इन्सान बन जाओगे। मेरी कलम का इस मुंबई गाथा का बखान करने में दम फूल रहा है विशेष तो आप खुद इसे महसूस करके देखें...शायद आप खुद बेहतर ढंग से जन पाए। अंत में २ पंक्तिया याद कर विराम लूँगा-
इन बंद कमरों में मेरा दम घुटता है,
खिड़कियाँ खोलो तो ज़हरीली हवा अन्दर आती है....