अभी-अभी एक सरकारी नौकरी में दाखिल हुआ हूँ...अच्छी तनख्वाह, एक ठीक-ठाक सा पद..लोगों की निगाहों में कुछ विशेष होने का सा भाव और ऐसा ही बहुत कुछ है जो हासिल हुआ है। अपने शैशव काल में एक क्रेज हुआ करता था गवर्मेंट ऑफ इंडिया का एम्पलॉय होने का...पर जबसे इन ख़याली मिथ्या इमारतों की असलीयत को करीब से समझने का मौका मिला है एक बात अनुभूत हो रही है कि दुनिया की तमाम ऐसी इमारतों के शिखर कितने भ्रामक है।
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समय की गिज़ा पे जनता और जनता की तालियों की आवाज़ नहीं बदलती..पर हुनरमंद एवं सफल लोग बदलते रहते हैं लेकिन उन तालियों के शोर के कारण इंसान एक ही जीवन में न जाने कितनी ज़िंदगी मरता और जीता है। कल तक जो लोग आपसे कहते हैं कि उसने इतना हुनरमंद होके क्या कर लिया..वही लोग और उनकी वही जुवान ये कहने लगती है कि मुझे तो उसके हुनर पे पहले से यकीन था वो बहुत आगे जायेगा। लोग, हवाओं का रुख देख अपनी दिशाएं तय करते हैं। अब बताईये किन शब्दों को सही माना जाय...किस पे रोष किया जाय और किस पे प्रसन्न हुआ जाय। इस बारे में पहले भी काफी कुछ अपनी एक पोस्ट भ्रम का आभामण्डल, मिथ्या अहंकार और अंधी आत्ममुग्धता में कह चुका हूँ।
लेकिन इस सबमें एक बात तो बहुत अच्छे से समझ आ ही गई है कि दुनिया में सिर्फ वही चीज़ें महान् है जो आपको हासिल नहीं हुई हैं..हासिल होने के बाद जब उसकी असलियत से रुबरु होते हैं तब उस वस्तु के भ्रामक आभामण्डल को समझते हैं। इसी तरह सिर्फ वही व्यक्ति महान् है जिसका ज़मीर सलामत है या जिसका चरित्र नीलाम नहीं हुआ। अन्यथा इस दुनिया के तमाम तथाकथित बड़े और रुतबे वाले लोग भी निहायती ओछे किस्म के ही हैं। हम भी हमारी समस्त ऊर्जा स्वयं का एक ऐसा आभामण्डल रचने में खर्च करते हैं जिसकी चमक से लोग चौंधिया जाये। भले ही उस आभामण्डल से हम खुद ही परेशान हों, भले ही वो आभामण्डल हमें तनिक भी संतुष्टि देने में सफल न हो पा रहा हो किंतु वो ज़रूरी है क्योंकि इंसान अपने पूरे जीवन काल में खुद के लिये जीता ही नहीं है..उसे सिर्फ समाज और रिवाज़ की ही फ़िक्र है।
हम आलीशान घर बनाते हैं..ऊंची नौकरी पाना चाहते हैं, हमारा पहनावा, हमारी साज-सज्जा या संपूर्ण जीवन में किये गये हमारे हर एक प्रयास, सिर्फ और सिर्फ दूसरों की एक 'वाह' पाने के लिये ही तो हैं। हमारी खुशी और खिन्नता का रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथ में है जहाँ दूसरे ही ताउम्र कभी अपनी तारीफों के बटन से तो कभी अपनी निंदा के बटन से हमें संचालित करते हैं और हम या तो अहंकारी हो जाते हैं अथवा तनावग्रस्त और क्रोधी बन जाते हैं। इस सबमें हम आखिर खुद के लिये कब जी पाते हैं। हम सिर्फ अपने जूते को ऐसा चमकदार रखते हैं कि लोग उसकी चमक और चिकनाहट से हमारी तारीफ में कसीदे गढ़ते रहें फिर वो जूता हमें कितना ही अंदर से काट क्युं न रहा हो पर हमें उसकी कोई परवाह नहीं।
बहरहाल, ये सब में अपने किसी फ्रस्टेशन या ओवर वर्कलोड के तनाव के चलते नहीं लिख रहा हूँ..बल्कि दुनिया के हर एक गंतव्य का ऐसा ही कुछ हश्ल है..पर हम उस भ्रमजनित आभा में कुछ ऐसा खो जाते हैं कि खुद को ही नहीं देख पाते..और सच तो यही है कि जैसे-जैसे हम मशहूर होते जाते हैं हम खूद से उतना ही दूर होते जाते हैं। मैं दुनिया में कहीं भी जाउं पर खुद के साथ रहना चाहता हूँ इतना बावला होने की तमन्ना नहीं रखता कि मैं अपने अहंकार में खुद को ही भुला दूं...लेकिन मेरी इस अदनी सी नौकरी ने मुझे खुद से दूर करने की कोशिश ज़रूर की थी..इसलिये कुछ हद तक खुद को हिदायतें देने के लिये और प्रायश्चित स्वरूप ये पोस्ट लिखी है..आपके लिये इसके मायने ज्यादा हो न हों पर मेरे लिये मेरी यही सृजनात्मकता सबसे बड़ी वेदी है जहाँ मैं अपने जज्बातों का माथा अक्सर टेकता हूँ...ताकि खुद को अपने अंतर में छुपे खुदा के नज़दीक रख सकूं।