Saturday, July 9, 2011

उद्दंड जवानी, दहकते शोले और बाढ़ का उफनता पानी


मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' में जवानी का चित्र कुछ इस तरह खीचा गया है-"बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..कभी जी में आया की रेलगाड़ी में बैठ कर देखूं कि कहाँ तक जाती है..अर्थी को देख श्मशान तक जाते हैं कि वहां क्या होता है..मदारी को देख देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती..ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं.."

जीवन का ऐसा समय जिसे बड़ा हसीन समझा जाता है लेकिन ये उद्दंडता का समय कई बार चरित्र पे ऐसी खरोंचे दे जाता है जिसके दाग जीवन भर नहीं भरते..अनुशासन और संस्कारों का नियंत्रण अगर न हो तो स्वयं की तवाही के साथ परिवार और समाज की बरबादी भी सुनिश्चित है..ये दौर दहकते शोले की तरह होता है चाहो तो उन शोलों पर स्वर्ण को कुंदन में बदल लो चाहो तो महल-अटारी को भस्म कर दो..या ये दौर बाढ़ के उस उफनते पानी की तरह है चाहो तो इसपे बांध बना के जनोपयोगी बना लो चाहो तो यूँही इसको स्वछंद छोड़ कर बस्तियों को बहा ले जाने दो..इन सारी चीजों में जो एक बात कॉमन है वो ये कि विवेक और नियंत्रण के साथ इनका प्रयोग ही सार्थक फल दे सकता है..अन्यथा परिणाम की भयंकरता के लिए तैयार रहे..

आनंद के मायने अलग होते हैं, अधिकारों को हासिल करने की तमन्नाएं ह्रदय में कुलाटी मारती है..मस्ती-अय्याशी-हुड़दंग जीवन का सार लगने लगते हैं..तरह-तरह के सपने नजरों के सामने नृत्य करते हैं..प्रायः इस उम्र में लक्ष्य नहीं, इच्छाएं सिर पे सवार होती हैं..गोयाकि "काट डालेंगे-फाट डालेंगे" टाइप अनुभूतियाँ होती है..

पहली सिगरेट होंठो को छूती है फिर उससे मोहब्बत हो जाती है..दारू का पहला घूंट कंठ को तर करता है फिर उसमे ही डुबकियाँ लगाई जाने लगती हैं..घर से नाता बस देर रात में सोने के लिए ही होता है..होटलों का खाना सुहाने लगता है..दाल-रोटी से ब्रेक-अप और पिज्जा-वर्गर से दोस्ती हो जाती है..गालियों से दोस्तों का स्तुतिगान और लड़की देख सीटी बजने लगती है..स्थिरता का पलायन और चंचलता स्थिर हो जाती है..जी हाँ जवानी की आग दहक चुकी है..

बड़े-बूढों की बातें कान में गए पानी के समान कष्ट देते हैं..और अनुशासन का उपदेश देने वाला सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है..इस उम्रगत विचारों के अंतर को ही जनरेशन गेप कहा जाता है..जिन्दगी जीना बड़ा सरल नजर आता है जिम्मेदारी बस इतनी लगती है कि दोस्तों का बर्थ डे याद रहे, और अगली पार्टी मुझे देना है..वक़्त बीतने का साथ ज्ञान चक्षु खुलते जाते हैं और समझ आता है कि जिन चीजों को पाने के हम लालायित थे वो उतनी हसीन नहीं है जितना हम समझ रहे थे..चाहे नौकरी हो चाहे शादी..जिम्मेदारी और हालातों के थपेड़े 'सहते जाना' बस 'सहते जाना' सिखा देते हैं...और समझ आ जाता है कि जिन्दगी दोस्तों की महफ़िल और कालेज की केन्टीन तले ही नहीं गुजारी जा सकती..

एक-एक कर जब हम अपनी इच्छित वस्तुओं को पाते जाते हैं तो उनकी उत्सुकता भी ख़त्म होती जाती है..वांछित का कौतुहल बस तब तक बना रहता है जब तक हम उन्हें हासिल न कर लें..हासिल करने के बाद कुछ नया पाने को मन मचल जाता है..संतोष और धैर्य के अमृत से प्रायः अनभिज्ञता बनी रहती है..और उतावलेपन में लिए गए फैसले बुरे परिणाम दे जाते हैं..

ऐसी दीवानगी होती है कि 'जो मन को अच्छा लगे वो करो' की धुन सवार रहती है..लेकिन इसका पता नहीं होता कि "जाने क्या चाहे मन बावरा" और मन तो न जाने क्या-क्या चाहता है यदि वो सब किया जाने लगे तो क़यामत आ सकती है..ये मन तो सर्व को हड़प लेना चाहता है, सर्व पे अधिकार चाहता है, सर्व को भोगना चाहता है, सारी दुनिया मुट्ठी में करना चाहता है...यदि इसे नियंत्रण में न रखा गया तो कैसा भूचाल आ जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता...

बहरहाल, जवानी-दहकते शोले और उफनते बाढ़ के पानी से सतर्क रहिये और यथा संभव इनपे नियंत्रण रखिये..संयम, संस्कारो से इन्हें काबू में रखिये अन्यथा बिना संस्कारो की ये जवानी ठीक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह है..जो खुद अपना अनिष्ट तो करेगी ही साथ ही दूसरों को भी ठोक-पीट के उनको भी मिटा देगी..इस बारे में और कथन मैं अपने इसी ब्लॉग पर प्रकाशित लेख "जोश-जूनून-जज्बात और जवानी" में कर चूका हूँ..जिन्दगी के इस ख़ूबसूरत समय की अहमियत समझिये और कुछ ऐसा करिए जो ताउम्र आपको फक्र महसूस कराये...क्षणिक आनंद के चक्कर में कुछ ऐसा न कर गुजरिये जिससे जवानी के ये जख्म जीवन के संध्याकाल में दर्द दें..क्योंकि ख़ता लम्हों की होती है और सजा सदियों की मिलती है......

Friday, July 1, 2011

प्रतिभा, सफलता और महत्वाकांक्षाओं का संसार



एक बहुत सुन्दर पंक्ति है-"प्रतिभा इन्सान को महान बनाती है और चरित्र महान बनाये रखता है"...और जन्म से मौत की दहलीज तक सिर्फ ये महत्वाकांक्षा दिल में कुलाटी मारती है कि जिन्दगी में कुछ तो करना है, महान बनना है...नाम-पैसा-शोहरत कमाना है..गोयाकि कुछ तो करना है का 'कुछ' बस यही तक सिमट कर रह जाता है और कई बार हम इस 'कुछ' को परिभाषित भी नहीं कर पाते या कहें कि पहचान ही नहीं पाते। दिल की कंदराओं में कुलाटी मारती आकांक्षाओं का 'कुछ' दरअसल इतना महीन है कि हम उसे पकड़ ही नहीं पाते..और बहुत कुछ मिल जाने पर भी "something is missing" की टीस सालती रहती है..मानव स्वभाव ही ऐसा है कि 'सपने अगर पूरे हो जाये तो लगता है बहुत छोटा सपना देखा, कुछ बड़ा सोचना था और यदि पूरे न हों तो लगता है कि कुछ ज्यादा बड़ा सपना देख लिया सफलता का इंतजार बेचैन किये रहता है'...असंतुष्टि दोनों जगह विद्यमान रहती है।

सफलता, खुद एक ऐसी अपनेआप में माया है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। ये एक ऐसी पिशाचनी है जिसके भ्रम में इन्सान बहुत कुछ गवा देता है..और जब वांछित की प्राप्ति होती है तो जो चीजें इसे पाने के लिए खोयी हैं उनकी कीमत समझ आती है...और वो इस सफलता से कई बड़ी महसूस होती हैं। सफलता की तलाश इतनी भ्रामक है कि जिन्दगी ख़त्म हो जाती है पर तलाश ख़त्म नहीं होती..दर्शन में इसे मृगतृष्णा कहते हैं..रेगिस्तान में जैसे पानी का भ्रम मृग के प्राण ले लेता है कुछ ऐसा ही दुनिया में इन्सान के साथ सफलता के भ्रम में घटित होता है...और कदाचित इन्सान को ये तथाकथित सफलता हासिल हो भी जाये तो वो उस सफलता के शिखर पे नितांत अकेला होता है। बकौल जयप्रकाश चौकसे "सफलता का शिखर इतना छोटा होता है कि उस पर दुसरे के लिए तो छोडो स्वयं की छाया के लिए भी स्थान नहीं होता।"

खास बनने की तमन्ना इन्सान को इस कदर बौरा रही है...कि उस अप्राप्त को पाने की चाह में हासिल की कीमत नहीं आती। प्रतिभा का आग्रह जिदगी को लील रहा है और चरित्र पर जंग लग रही है। मौत की कीमत पे भी सफलता और प्रतिभा पाने की महत्वाकांक्षा रहती है...और उस आकांक्षा के हवन में रिश्ते-नाते-मूल्य सब कुछ स्वाहा हो जाते हैं। स्पेंसर ने "survival of fittest" के सिद्धांत को बताते वक़्त शायद इस बात पर गौर नहीं किया होगा। दरअसल पश्चिम उस नजर से सोच ही नहीं सकता जो भारतीय मूल्यों पर कारगार हो सके...हमारी संस्कृति त्याग को महत्व देती है तो वहां हासिल करने के लिए सारे जतन हैं। उनका व्यक्तिवाद कभी उदीयमान भारत के समाजवाद का संवाहक नहीं हो सकता। हम लक्ष्य को, उद्देश्यों को प्राथमिकता देते हैं तो वे आकांक्षाओं को,इच्छाओं को...और जब इस संस्कृति में आकांक्षाओं के लिए जगह ही नहीं बनती तो सफलता का भूत न जाने कैसे इन्सान को लील जाता है।

सफलता कभी सुख का पर्याय नहीं हो सकती...सफलता कुछ देर के लिए चेहरे पे हँसी तो दे सकती है पर शाश्वत सुख नहीं। जिसे सफलता माना जाता है वह प्रतिभा की देन हो ये जरुरी नहीं। सफलता प्रतिभा से ज्यादा अवसरों की मोहताज है..कई प्रतिभाशाली लोग अवसर के अभाव में यूँही गुमनाम रह जाते हैं, तो कई प्रतिभाशाली लोग सफलता को काकवीट के सामान समझ अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं। उन्हें दुनिया को अपना जौहर दिखाना पसंद नहीं वे खुद की संतुष्टि को अहमियत देते हैं। नाम-शोहरत मिल जाने से प्रतिभाशाली हो जाने का प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता। यदि ऐसा हो तो राखी सावंत को मल्लिका साराभाई से ज्यादा प्रतिभावान मानना पड़ेगा, हिमेश रेशमिया को श्री रविशंकर से ज्यादा हुनरमंद मानना होगा, जेम्स केमरून को सत्यजीत रे से बड़ा निर्देशक मानना होगा....लेकिन ऐसा नहीं है।

एक जगह की सफलता दूसरी जगह असफलता बन सकती है...एक स्कूल में ९०% अंक लाकर सर्वश्रेष्ठ पायदान पर रहने वाला विद्यार्थी उतने अंको पे भी अपने मनपसंद कालेज में एडमिशन न मिल पाने पर असफल कहलाता है। मिस इण्डिया प्रतियोगिता में जीती सुन्दरी यहाँ सफल है और वही मिस वर्ल्ड में हार जाये तो असफल है। 'लगान' फिल्म फिल्मफेयर पुरुस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनकर सफल है और वही आस्कर न जीतने पर क्या असफल हो जाएगी। कहते हैं "असफलता के एक कदम पहले तक सफलता होती है" वर्ल्ड कप के फायनल में हारी श्रीलंकन टीम फायनल से पहले तक सफल थी। सफलता-असफलता हमारे दिमाग की उपज है। हालातों को देखने की नजर ही सफलता-असफलता का निर्धारण करती है। इस सम्बन्ध में ओशो का कथन दृष्टव्य है "हमारे अहंकार की पुष्टि हो जाने का नाम ही सफलता है"।

सफलता को हमेशा प्रदर्शित इस रूप में किया जाता है कि ये परोपकार की भावना है। पर ये शुद्ध स्वार्थपरक तमन्ना है जो साम-दाम-दंड-भेद करने से नहीं चूकती। एक राजनेता अपनी राज्नीति को पर सेवा नाम देगा..स्वार्थवृत्ति नहीं, एक अभिनेता अपनी अभिनय क्षमताओं को जन मनोरंजन नाम देगा, खुद की यश-लिप्सा नहीं...एक क्रिकेटर अपने प्रोफेशन को देशभक्ति का नाम देगा, स्वयं की जिजीविषा का नहीं। सर्वत्र स्वार्थ की नदियाँ प्रवाहित हैं ऐसे में कौन मूल्यों का संरक्षण करता है?

बहरहाल, सफलता की धुंध में कुछ ऐसे भी हैं जो सफलता के नहीं मूल्यों के आग्रही हैं...और उनके फैसले बहुमत के मोहताज नहीं...वे हमेशा नदी की उल्टी धारा में बहना पसंद करते हैं...कुछ लोग इतिहास रटकर सफल बनते हैं ये खुद इतिहास बन जाते हैं...कुछ प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति बनकर सफल होते हैं कुछ बिना किसी पद पे रहकर गाँधी जैसे राष्ट्रपिता कहलाते हैं...हाँ ये जरुर हैं ऐसे दिव्य-लोगों की महिमा उनके जीते-जी हमें नहीं आती। भैया, सफलता को नहीं, प्रसन्नता को चुनिए...सफलता, प्रसन्नता सा आनंद दिलाये ये जरुरी नहीं..पर प्रसन्नता जरुर सफलता सा मजा देती है..................