Thursday, August 5, 2010

जोश-जुनून-जज्बात और जवानी


किसी ने कहा है-"youth is the best time to be rich & the best time to be poor...they are quick in feelings but weak in judgment"...

व्यक्ति के जवानी का दौर एक ऐसी संकरी पगडंडी है जिसके एकतरफ छलछलाते गर्म शोले हैं तो दूसरी ओर अथाह समंदर। एक तरफ भस्म हो जाएँगे तो दूसरी तरफ डूब जाएँगे। पगडंडी की संकरी गली से होकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जबकि रास्ते में कई ऐसे मौके आते हैं जब आदमी फिसल सकता है।

जवानी में इन्सान नितांत भौतिकवादी होता है। नैतिकता और अनुशासन टिशु पेपर की तरह होते हैं जो बस कुछ देर के लिए खुद कों सभ्य दिखलाने का माध्यम होते हैं। हृदयस्तम्भ पर सपनो की लहरें आसमान छूने कों बेक़रार हैं। अंतस में समाया जुनून ज्वालामुखी बनकर फटना चाहता है। जज्बात श्वाननिद्रा की तरह होते हैं जरा सी भनक पड़ते ही जाग जाते हैं।

दिल, दिमाग पर हमेशा भारी रहता है। दरअसल दिल और दिमाग में से कोई भी एक यदि दुसरे पे भारी रहता है तो नुकसान ही उठाना पड़ता है। दिलोदिमाग का सही संतुलन बहुत जरुरी है। जोश, दिल में पैदा होता है दिमाग उसे होश देता है। महज जोश में सही फैसले नही होते उसके लिए होश जरुरी है और 'व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है'। फैसले दिलोदिमाग के सही संतुलन का परिणाम है।

युवामन निरंकुश हाथी है अच्छी संगति उसे अंकुश में लाती है और गलत साथ निरंकुशता को और बढ़ा देता है। उस दशा में इन्सान को घर-परिवार, माँ-बाप, धर्म, संस्कृति, अनुशासन, सत्शिक्षा फांस की तरह चुभती है। अनुभवियों के उपदेश कान में गए पानी की तरह दर्द देते हैं। हर व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है उसे समझाना एक नासमझी है। हर इन्सान खुद को वल्लम दुसरे को बेवकूफ समझता है।

भौतिकता में रंगा आधुनिक व्यक्ति आध्यात्मिक संत-महात्मा को पागल समझते हैं। आध्यात्मिकता में रंगे संत-महात्मा आधुनिक इन्सान को मोह-माया में पागल समझते है। दरअसल किसी के समझने से कुछ नही होता जो जैसा होता है बस वैसा होता है। इन्सान की कई तकलीफों में से एक तकलीफ ये भी है कि उसे हमेशा ये लगता है कि 'मुझे कोई नही समझता'। अब भैया किसी को क्या पड़ी है दूसरे को समझने की, यहाँ तो लोग खुद को ही नही समझ पाते, दूसरे को क्या खाक समझेंगे।

जवानी की दहलीज पर एक और खुद के सपनो को पूरा करने का दबाव होता है तो दूसरी तरफ दिल में समाये मोहब्बत के जज्बात। कई बार कोई जज्बात नही होते तो भी युवा जज्बातों को उकेरकर तैयार कर लेते हैं। पैर फिसलने की सम्भावना यहाँ सर्वाधिक होती है दरकार फिर सही निर्णय लेने की होती है।

गलत रास्तों पर भटके युवाओं को सही बात समझ आना, न आना मूल प्रश्न नही है, मूल प्रश्न ये है की सही चीज समझ में कब आएगी। देर से प्राप्त हर चीज दुरुस्त नही होती। जवानी तो मानसून का मौसम है यहाँ बोया गया बीज ही बसंत में बहार लाएगा। गर ये मानसून खाली चला गया तो पतझड़ के बाद वीरानी ही वीरानी है।

संस्कारो व सत्चरित्र का प्रयोग बुढ़ापे में नही, जवानी में ही होता है। संस्कारो के पालन से मौज-मस्ती बाधित नही होती बस मस्ती के मायने थोड़े अलग होते हैं। बार में बैठकर जिस्म में उतरती दारू-सिगरेट ही तो मस्ती नही है। दोपहर के तपते सूरज को देखकर ये आकलन हो सकता है कि शाम कितनी सुहानी होगी। जवानी दोपहर है और शाम बुढ़ापा। सुवह कि चमक तो हमने आँख मलते में ही गवां दी अब शाम कि लालिमा ही राहत दे सकती है।

कहते हैं जवानी, दीवानी होती है पर ये एक ख़ूबसूरत कहानी भी हो सकती है। जिसका मीठा रस हमें जीवन के संध्याकाल में मजा दे सकता है। इस मानसून के मौसम में आम और अनार के पेड़ लगा लीजिये, नागफनी के वृक्षों में क्यों अपना समय बर्बाद करते हैं...........

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया अभिव्यक्ति.....

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  2. dil aur dimaag dono hosh me laata hai yeh post

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