आगामी 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस के
अवसर पर पीपुल्स समाचार के विशेष अंक हेतु स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की भूमिका विषय पे मैनें आलेख तैयार किया है जो आप
सबके समक्ष प्रस्तुत है-
वो
देश की दासता का युग था। ब्रिटिश हुकुमत से लोहा लेने के लिये कहीं उदारवादी गुहार
लगा रहे थे तो कहीं उग्रवादी खूनी संघर्ष कर रहे थे। सबकी ज़रूरत सिर्फ और सिर्फ
आजादी थी और उसे किसी भी हाल में हासिल करने का एकमात्र उद्देश्य लोगों के ज़हन
में था। बंदूक, तलवार, तोपें और तमाम बड़े-बड़े हथियारों से क्रांतिकारी
स्वतंत्रता की जंग लड़ रहे थे किंतु क्रांति का हर प्रयास सिर्फ निराशा को ही देने
वाला था और इसका परिणाम था 1857 की क्रांति की विफलता। बस इसी दौर में हथियारों से
परे आजादी की अलख जगाने का जिम्मा कलमकारों ने अपने हिस्से लिया और कलम की ताकत
कुछ ऐसी चमकी..कि मशहूर शायर अकबर इलाहबादी को कहना पड़ा- “खींचों न कमानों को
न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो”
अब
ब्रिटिश हुकुमत से देश को आजाद कराने का काम अहिंसावादी आंदोलनकारियों और क्रांतिकारियों
के अलावा कवि, साहित्यकारों और पत्रकारों की नयी जमात के पास भी आ गया। ऐसा नहीं
है कि 1857 से पहले देश के ख़बरनवीसों ने कलम की इस ताकत का इस्तेमाल नहीं किया
था। राजाराममोहन रॉय, जुगलकिशोर शुक्ल, बंकिमचंद्र चटर्जी, राजा शिवप्रसाद
सितारेहिन्द जैसे दिग्गज कलमकारों ने पत्र-पत्रिकाओं को जनजागरण का अहम् हथियार
बनाया था किंतु इन तमाम पुरोधाओं का मुख्य ज़ोर समाज में व्याप्त विसंगतियों को
दूर करना ही था और अखबार महज़ सुधारवादी भूमिका में ही नज़र आ रहे थे। लेकिन 1857
के बाद अखबार महज़ सुधारवादी न रहकर क्रांति की अलख जगाने वाले अहम् शंख बन गये।
सारे देश को एक सूत्र में पिरोकर, जनजागरण के महत्वपूर्ण अस्त्र का रूप
पत्र-पत्रिकाओं ने ले लिया। तत्कालीन पत्रकारों ने अपनी जान को दांव पे लगाकर
संपूर्ण देशवासियों में आजादी की जिजीविषा को जागृत किया। तत्कालीन पत्रकारों के
इस अमिट योगदान को बयाँ करने के लिये महान् कवियत्री महादेवी वर्मा को कहना पड़ा “पत्रकारों के पैरों
के छालों से आज का इतिहास लिखा जाएगा”
स्वाधीनता संग्राम का अर्थ राजनीतिक क्षेत्रों
में विदेशी साम्राज्य से मात्र सशक्त टक्कर लेना ही नहीं था बल्कि
जनसाधारण को इस संग्राम के लिए प्रेरित करना भी था और इसी अहम् कार्य को
अंजाम दिया पत्रकारिता ने। पत्रकारों ने अपनी कलम के बल पर ऐसा माहौल तैयार
किया कि सारा देश एक होकर अंग्रेजी सरकार के शोषण अन्याय और दमकारी नीतियों
का विरोध करने के लिए एक साथ खड़ा हो गया। अखबार की ताकत का अंदाजा जब
स्वतंत्रतासेनानियों को हुआ तो सारे देश में एक ऐसी लहर पैदा हो गयी कि हर कोने से
समाचार पत्र व पत्रिकाओं का प्रकाशन शुरू हो गया। किसी संकट की परवाह किए बिना आजादी प्रेमियों
ने हिन्दी-अंग्रेजी और भाषायी समाचार पत्रों का प्रकाशन एक मिशन के रूप में शुरू किया।
अंग्रेजों की कठोर नीतियों व धन के अभाव के कारण पत्र बन्द भी होते रहे
लेकिन नए पत्रों का प्रकाशन नहीं रूका।
हिन्दी और अन्य देशी भाषाओं में प्रकाशित होने वाले समाचार
पत्रों ने सम्पूर्ण देश को एक सूत्र में बांधने का कार्य किया। इसकी शुरूआत
‘उदन्त
मार्तड’ से
मानी जाती है जोकि 30 मई 1826 को कलकत्ता के कोलूकोल्हा
मोहल्ले से पं. युगल
किशोर शुक्ल के संपादन में प्रारम्भ हुआ, ये साप्ताहिक पत्र वर्ष भर ही चल पाया और इसका
अन्तिम अंक 4 दिसम्बर
1827 को प्रकाशित
हुआ। वहीं
राजा राममोहन राय ने जनता की दुर्दशा और संकटों को जनता की
भाषा में अभिव्यक्त करने के लिए 10 मई 1829 को कलकत्ता से ‘हिन्दू हेराल्ड’ का
प्रकाशन शुरू किया जिसके ‘बंगदूत’ नाम से बंगला, हिन्दी और फारसी में
तीन संस्करण अलग से प्रकाशित होते थे लेकिन यह अखबार भी शीघ्र ही
बंद हो गया। 28 जनवरी 1830 को ‘संवाद
प्रभाकर’ पत्र
का प्रकाशन शुरू हुआ इस पत्र ने बंकिम चंद चटर्जी जैसे लेखक को
स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाई। इस पत्र द्वारा ईस्ट इण्डिया कम्पनी
का जमकर विरोध किया गया। इसी क्रम में राजा शिवप्रसाद सितारे हिन्द की मदद से
गोविन्द रघुनाथ धत्ते ने 1845 में ‘बनारस अखबार’, प्रेम नारायण ने इंदौर से 6 मार्च 1848 को ‘मालवा अखबार’, 1850 में
तारामोहन मैत्रोय ने काशी से ‘सुधाकर पत्र’, 1852 में बुद्धि-प्रकाश, सुधावर्षण, धर्मप्रकाश, प्रजाहित, ज्ञान
प्रकाश आदि पत्र प्रकाशित हुए।
इसी बीच ‘हिन्दी-उर्दू अखबार’ का
प्रकाशन शुरू हुआ इसने अंग्रेजी हुकूमत के विरोध के लिए सीधे-सीधे
माहौल तैयार किया। इन अखबारों ने अंग्रेजी हुकूमत की नाक में इस कदर दम किया कि
दण्ड रूप में इसके संपादक मौलाना अब्दुल को तोप से बांध कर उड़ा दिया गया।
अंग्रेजों के इस अमानवीय व्यवहार ने संपादकों में नए जोश का संचार किया। 1857 में ‘पयामे आजादी’ का
प्रकाशन शुरू हुआ इस अखबार ने प्रथम स्वतंत्राता संग्राम में अहम्
भूमिका अदा की इसीलिए इसे जंग-ए- आजादी का अखबार भी कहा जाता है। पयामे आजादी
के अंक में स्वतंत्राता संग्राम की अगवानी करने वाले मुगल सम्राट बहादुर
शाहजफर के फरमान व आजादी का झण्डा गीत प्रकाशित करने को जुर्म करार
देते हुए संपादक को फांसी पर लटका दिया गया। पयामे आजादी का प्रभाव कुछ ऐसा था कि
इसकी प्रति किसी के पास मिलने पे उसे गोली मारने का फरमान जारी किया गया था।
ब्रिटिश सरकार, कलम की तेजधार व क्रान्तिकारी संपादकों
के तेवरों को अच्छी तरह समझ गई थी। वह 1857 की क्रांति में
अखबारों की भूमिका से भी परिचित थी। सरकार जानती थी कि आने
वाले समय में अखबार खतरा साबित हो सकते है विशेषकर हिन्दी व क्षेत्रीय
अखबार। इन
पर दबाव बनाने के लिए 1878 में वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट बनाया
गया। इस एक्ट के तहत संपादकों पर भारी जुर्माने व जेल भेजने की कार्यवाही
ने जोर पकड़ा। लेकिन उसी रफ़्तार से पत्रकारों व अखबारों की संख्या
में भी वृद्धि होती चली गई। 1881 में विष्णुशास्त्री चिपलूंकर व बाल गंगाधर तिलक
ने ‘केसरी’ व ‘मराठा’ का
प्रकाशन शुरू किया। कहते हैं कि मराठा उकसाने वाला अखबार था और केसरी समझाने वाला।
1884 में
हरिशचन्द्रिका, स्वराज्य
प्रकाशित हुए तथा मदन मोहन मालवीय के संपादन में 1885 में ‘हिन्दोस्थान’ प्रकाशित किया गया। तब पत्र पत्रिकाओं का
प्रकाशन व संपादन करना कांटों की सेंज से कम नहीं था। प्रेस आज की तरह ग्लैमर से
भरपूर नहीं थी बल्कि ये एक तरह का खतरों का ताज सरीकी थी। ‘स्वराज्य’ के संपादक
पद के लिए छपा यह विज्ञापन इस बात को सिद्ध करने के लिए पर्याप्त है-
‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल और विशेष अवसर पे अपना सिर कटाने के लिये तैयार, योग्य कलमकार’’
‘‘चाहिए स्वराज्य के लिए एक संपादक। वेतन-दो सूखी रोटियां, एक गिलास ठंडा पानी और प्रत्येक संपादकीय के लिए दस साल जेल और विशेष अवसर पे अपना सिर कटाने के लिये तैयार, योग्य कलमकार’’
सरस्वती, अभ्युदय, प्रभा, हिन्द केसरी, नृसिंह, विश्वमित्र ने राष्ट्रीयता का प्रसार तथा तात्कालिक
आंदोलनों को गति देने का कार्य किया। 9 नवम्बर 1913 को कानपुर से ‘प्रताप’ साप्ताहिक
की शुरूआत हुई, ‘प्रताप’
अखबार ने जहां हिन्दी को माखनलाल चतुवेर्दी, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, बाल कृष्ण
शर्मा नवीन, कृष्ण
पालीवाल जैसे दर्जन भर प्रथम कोटी के पत्रकार दिए, वहीं भगतसिंह जैसे
क्रान्तिकारी ने प्रताप से जुड़कर पत्राकारिता की वर्णमाला सीखी। प्रेमचन्द्र
को हिन्दी में लिखने, वृंदावनलाल वर्मा, भगवती चरण वर्मा आदि को निखारने व मंच
प्रदान करने का काम भी गणेश शंकर विद्यार्थी व उनके समाचार पत्र ‘प्रताप’
ने किया। 6 नवम्बर
में ‘कर्मवीर’ के
संपादकीय में माखन लाल चतुवेर्दी ने लिखा ‘आजादी कितना मीठा शब्द है, पर यह शब्द
अपने आप में मीठा नहीं, इसमें मिठास लाती है कुर्बानी, इसमें मिठास लाता है बलिदान, पर यह
बलिदान औरों का न हो...उनका हो जो आजादी चाहें।’’ इस तरह के जुनूनी संवाद और शब्दों से लोगों के अंदर एक नवीन संचार
करने का काम समाचार पत्रों ने किया और स्वतंत्रता संग्राम को किसी क्षेत्र विशेष
तक सीमित न रहने देकर उसे एक अखिल भारतीय रूप प्रदान किया।
1922 में
बनारस से ‘आज’, लाला
लाजपत राय का ‘वंदेमातरम्’, गांधीजी
का हरिजन, नवजीवन, हरिजन
सेवक, सत्याग्रह
व यंग इण्डिया’ के
साथ-साथ इलाहाबाद का ‘देशदूत’, आगरा का ‘साहित्य संदेश’ व सैनिक, दिल्ली का
वीर अजुर्न ने कमाल कर दिखाया। महाकवि सूर्यकान्त त्रिपाठी के योगदान को नमन
किए बिना
हिन्दी पत्राकारिता की बात को विराम देना उचित न होगा। 1922 में बाल
कृष्ण प्रेस
से ‘समन्वय
साप्ताहिक’ 1923
में ‘मतवाला’ 1923 में रंगीला, निराला जी के
कुशल संपादन में प्रकाशित हुए।
स्वतंत्रता आंदोलन के समय जितने भी पत्र और पत्रिकाएं
निकल रही थी उनका काम अंग्रेजी शासन से मुक्ति दिलाने के लिए जनता में चेतना की लहर
लाना था ताकि लोग राष्ट्रीय आंदोलन की धारा में शमिल हो सकें। उस समय
पत्रकारिता एक मिशन के रूप में कार्य कर रही थी। पत्रकार कर्ज को लेकर, अपनी
सम्पत्ति दांव पर लगा कर अखबार निकाल रहा था। वह यह बहुत अच्छी तरह से
जानता था कि कभी भी उसका अखबार ब्रिटिश सरकार का कोपभाजन बन सकता है। इन सब
परेशानियों के रहते हुए भी ब्रिटिश सरकार का मुकाबला पत्रकारों ने किया।
अंग्रेजों के समक्ष समर्पण जैसा शब्द उनके शब्दकोष में ही नहीं था। हिन्दी और
भाषायी पत्रकारिता को स्वतंत्रता आंदोलन से पृथक करके नहीं देखा
जा सकता। इन समाचार पत्रों व उनके पत्रकारों का आजादी की प्राप्ति
में योगदान स्वर्ण अक्षरों में सदैव चमकता रहेगा। हमारी आने वाली
पीढ़िया निश्चित रूप से इनकी ऋणी रहेंगी।
जब-जब भी ये देश स्वतंत्रता दिवस की खुशी में दीपक जलायेगा..उस
स्वतंत्रता की खुशी में जगमगाने वाले दीपकों में कमसकम एक दीपक पत्रकारिता के नाम
का रहेगा और पत्रकारिता के इस योगदान को आदर भाव से स्मरण किया जायेगा। लेकिन जब
भी हम पत्रकारिता के इस योगदान को याद करें तब इस बात का भी स्मरण रखें कि
पत्रकारिता के पीछे एक गरिमामयी इतिहास भरा पड़ा है हम सभी आज के इस प्रोफेशनल
होते मीडिया के युग में पत्रकारिता की उस गरिमा को सदा जीवंत बनायें रखें क्योंकि
लोकतंत्र का ये चौथा स्तंभ यदि अपनी गरिमा-प्रतिष्ठा को गंवा बैठा तो प्रजातंत्र
के अन्य तीन स्तंभों का भी भलीभांति टिका रह पाना मुश्किल है।
शब्दों की शक्ति तलवार से अधिक धारदार रही है़, काश उसमें घुन न लगे।
ReplyDeleteआलेख बहुत बढ़िया लिखा है अंकुर...सशक्त अभिव्यक्ति है...
ReplyDeleteमगर समाचार पत्र में छपने से पहले ब्लॉग में पब्लिश कर दिया?? उन्हें आपत्ति नहीं होगी??
शुभकामनाएं..
अनु
बहुत अच्छा आलेख।
ReplyDeleteलाजबाब सशक्त अभिव्यक्ति,,,
ReplyDeleteRECENT POST : तस्वीर नही बदली
जब पीपुल्स समाचार रायपुर से निकलने की योजना बनी तो इस टीम में मैं भी शामिल था। दुर्भाग्य से यह अखबार निकल ही नहीं पाया, अब आपके लेख जब इस अखबार में छप रहे हैं तो संतोष होता है कि कहीं न कहीं मैं भी इससे जुड़ा हूँ।
ReplyDeleteलेख अच्छा लिखा है .
ReplyDeleteप्रभावी छाप छोड़ता है ये आलेख ... पर जरूरी है आज अखबार की मीडिया की ताकत को बचाए रखना ... इमानदारी बनाए रखना ...
ReplyDeleteइतना सुन्दर लेख और अत्यन्त महत्वपूर्ण जानकारी
ReplyDeleteअच्छा आलेख। गणेश शंकर विद्यार्थी के अप्रतिम अवदान पर हिंदी और भारतीय पत्रकारिता जगत में और गहराई और विस्तार से चर्चा होनी चाहिए।
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