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(जीवन के अनुभवों का चिट्ठा प्रस्तुत कर रहा हूँ, अपने गुजरे हुए लम्हों की जुगाली करके स्वयं का एक समीक्षात्मक विवरण दे रहा हूँ...संभवतः ये मेरे अपने ही कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहेगा, क्योंकि स्वयं के संस्मरणों का विवरण पूर्णतः निष्पक्ष हो ऐसा संभव नहीं है..फिर भी यथायोग्य निष्पक्षता रखने का प्रयास करूंगा)
(जीवन के अनुभवों का चिट्ठा प्रस्तुत कर रहा हूँ, अपने गुजरे हुए लम्हों की जुगाली करके स्वयं का एक समीक्षात्मक विवरण दे रहा हूँ...संभवतः ये मेरे अपने ही कुछ पूर्वाग्रहों से ग्रस्त रहेगा, क्योंकि स्वयं के संस्मरणों का विवरण पूर्णतः निष्पक्ष हो ऐसा संभव नहीं है..फिर भी यथायोग्य निष्पक्षता रखने का प्रयास करूंगा)
गतांक से आगे-
भागता हुआ वक्त किसी के लिये नहीं ठहरता..और अपनी इसी स्पीड के साथ इसने मुझे कब पाँच वर्ष का कर दिया पता ही नहीं चला...वैसे पांच-सात वर्ष की उम्र इस बात की समीक्षा करने की नहीं होती कि वक्त ने कितनी तेजी से उसे इस उम्र तक पहूंचा दिया। कुल मिलाकर वो वक्त बीत गया जिसकी धुंधली यादें मेरे ज़हन में हैं। मैंने स्कूल में प्रवेश लिया..हालांकि अनधिकृत तौर पे स्कूल मैं तीन-साढ़े तीन वर्ष की उम्र में ही जाने लगा था, वो स्कूल मेरे घर के सामने की ही गली में हुआ करता था। लेकिन अब पूरी औपचारिकताओं के साथ मेरा स्कूल में नाम दर्ज हुआ।
ईमानदारी से कहूँ तो मेरी स्कूली शिक्षा किसी बेहद आलीशान, उच्च कोटि के विद्यालय में नहीं हुई है..और ऑलमोस्ट इस इक्कीसवीं सदी का प्रतिनिधि होने के बावजूद मैंने अठारहवीं सदी के विद्यालयों की भांति ही अध्ययन किया...जहाँ न कोई अत्याधुनिक क्लासरूम, सिटिंग अरेंजमेंट आदि थे और न ही उच्च कोटि के हाईली क्वालिफाइड प्रोफेशनल टीचर। फट्टी पे बैठके, गुजरे जमाने वाले दीवारों पे चस्पा श्यामपट से, बरसातों में पानी चुचाते क्लासरूमस् में और 300-400 रुपये मासिक वेतन पे बुलाये गये आसपास के अध्यापकों से ही अपनी हाईस्कूल पर्यंत की शिक्षा हासिल की। व्यवसायिक पृष्ठभूमि वाला परिवार होने के कारण कभी घर में भी पढ़ाई को लेके किसी ने गंभीरता नहीं बरती..पढ़-लिखके उँचे महकमों पे नौकरी भी की जाती है ऐसी कोई मानसिकता ही नहीं थी..बस कखग, ABCD और थोड़ा-बहुत जोड़-घटाना सीखके अपने उस व्यवसाय में ही जुत जाना है बस यही हम सोचते थे और यही हमारा परिवार। आजकल के बच्चों पे हेवी स्टडी लोड और उनका हैक्टिक शेड्यूल देखता हूँ तो उन बच्चों पे तरस आता है...और इतने उच्च स्तर का अध्ययन पाने के बाद भी वो नैतिक मूल्यों और एक अदद उच्च जीवन से महरूम रह जाते हैं ये देख दुख भी होता है। लगता है सिर्फ आंकड़ो में शैक्षिक स्तर बढ़ाया जा रहा है पर इस शिक्षा से इंसानों का निर्माण नहीं हो पा रहा है।
बचपन के उन दिनों में स्कूल जाके महज़ एक औपचारिकता का निर्वहन कर आते थे..जो थोड़ा-बहुत मास्टरजी सिखा देते थे उसे रट लेते थे। गॉडगिफ्टेड स्मरण शक्ति और उच्च समझक्षमता हासिल हुई थी..तो सहज ही अपने वातावरण और लोगों से, कम उम्र में ही शुद्ध हिन्दी लिखना-पढ़ना सीख लिया था..इंग्लिश के भी अक्षर समझ आते थे और उन अक्षरों को हिज्जे करके शब्दों को भी पढ़ लेता था...पर आधुनिक स्कूलों में शिक्षा अर्जित कर रहे बच्चों की तरह अंग्रेजी में महारत नहीं थी। और ये महारत तो ग्रेजुएशन में इंग्लिश लिटरेचर से अध्ययन करने के बाद भी नहीं आ पाई। लेकिन इस समय अपने अथक प्रयासों से इंप्रूवमेंट के सोपानों से गुज़र रहा हूँ।
बचपन अपने घर-परिवार और आसपास के स्थानीय दोस्तों के साथ मस्ती करते हुए ही गुजरा और कोई जीवन का विशेष उद्देश्य नज़र नहीं आता था। ग्रामीण परिवेश था इसलिये सूरज के डूबने के साथ ही ज़िंदगी थम जाती थी..इसलिये शाम को उस गांव की सड़कों पे ही छुप्पन-छुपाई, छील-बिल्ली, मगर-पानी और बरफ-पानी जैसे खेल खेलके खुश हो लिया करते थे। पर यकीन मानिये वो खेल बेहद एनर्जेटिक हुआ करते थे और अपने अंदर एक तंदरुस्ती का अनुभव हम करते थे। आज विडियो-गेम्स्, मोबाईल और कंप्यूटर पर अपनी आँखे गढ़ाये बच्चे उन स्फूर्ति और ताजगीपूर्ण खेलों से खासे महरूम हैं और बंद कमरों में ही अपने बचपन के अनमोल पलों को गुज़र जाने देते हैं। शिक्षा का अत्याधिक लोड जीवन के दूसरे अहम् पहलुओं से दूर कर रहा है बस यही वजह है कि कमउम्र में तनाव और कई बीमारियां घर कर लेती हैं..साथ ही बच्चो का जो सर्वांगीण विकास होना चाहिये वो नहीं हो पाता। बचपन के ये आउटडोर गेम्स हमें न सिर्फ शारीरिक तौर पे मजबूत बनाते हैं बल्कि हमारी बौद्धिक-मानसिक शक्ति में भी इज़ाफा करते हैं..और हमारे टीमवर्क और संगठन के साथ काम करने की काबलियत विकसित होती है।
इन खेलों से फुरसत पा थक हार के माँ की गोदी में आसरा पाते थे और उनसे ही कुछ धार्मिक कथा या कोई शिक्षा पा सोने को तैयार हो जाते थे। ग्रामीण परिवेश था इसलिये बिजली तो प्रायः रहा ही नहीं करती थी इसलिये टेलीविज़न जैसे मनोरंजन के साधनों से दूर ही थे। और वैसे भी वो तो सिर्फ दूरदर्शन का युग हुआ करता था इसलिये कार्टून नेटवर्क या दूसरे मनोरंजन के कार्यक्रमों का भी सहारा नहीं था। हालांकि शहरों में केबल नेटवर्क ने दस्तक दे दी थी पर उसे अभी गाँवों में अपने पैर पसारने में वक्त था। इसलिये सिर्फ दूरदर्शन ही साथी था और उसपे भी सिर्फ संडे के दिन ही बच्चों का ख्याल रखा जाता था जबकि तरंग नाम का प्रोग्राम उसपे प्रसारित होता था अन्यथा रामायण, बुनियाद, महाभारत और चंद्रकांता जैसे सीरियल को समझने लायक क्षमता तो थी नहीं हममें तबतक।
बहरहाल, कम संसाधन और विषमताएं थी पर जिंदगी में मजे थे..क्योंकि बचपन में मजे करने के लिये किसी चीज़ की आवश्यकता नहीं होती..बचपन ही मजे के लिये काफी होता है...मनोरंजन के लिये खिलौने हो न हों..पर मिट्टी, पानी, धूल, आग और टूटे-फूटे बर्तन क्या किसी खिलौने से कम होते हैं.....
ज़ारी..........
बहुत बढ़िया चल रहा है आपका बचपन का संस्मरण।
ReplyDeleteजी धन्यवाद...
Deleteबचपन की स्मृतियाँ जीवन में हर बार न्यायमूर्ति भर जाती हैं।
ReplyDeleteसही कहा प्रवीणजी...
Delete*नयापन
ReplyDeleteसंसाधनों की कमी तब तक नहीं खलती जब तक उनकी आदत न हो जाए.
ReplyDeleteअच्छा लगा संस्मरण का यह हिस्सा पढ़कर ..सूरज छुपने का अब नींद से कितनो का वास्ता है?..तकनिकी विकास ने काफी कुछ दिया तो उससे अधिक छीना भी है.
एक मित्र ने अभी थोड़ी देर पहले मेसेज किया, बचपन की वो अमीरी न जाने कहाँ खो गयी,वरना बारिश के पानी में कभी-कभी हमारे भी जहाज हुआ करते थे।
ReplyDeleteबहुत खूब सौरभजी...
Deleteनिश्छल अभिव्यक्ति / शुभकामनाएँ
ReplyDeleteशुक्रिया आपका...
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