शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित बेहतरीन डॉक्युड्रामा 'मद्रास कैफे' देखी..चारों तरफ इस क्रिटिकली अक्लैम्ड फिल्म के चर्चे हैं। निश्चित ही बेहतरीन सिनेमा है पर इसके ज़रिये बात दूसरी करना है। फिल्म का ये संवाद (पोस्ट के टाइटल में वर्णित) ही फिल्म की विषयवस्तु का सारतः परिचय दे देता है...और सही-गलत के निष्कर्ष दिये बगैर दर्शक की विचारणा हेतु एक विषय मुहैया कराता है। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी की हत्या की पृष्ठभूमि में निर्मित, ये सिनेमा अपने मूल कथ्य के परे भी काफी कुछ कहता है..और तेजी से बदलते फ्रेम दर फ्रेम अनेक सामाजिक अर्थों की परतें हमारे सामने तैरती रहती है..और हम स्तब्ध हो फिल्म को बिना पलकें झपकाये सिर्फ देखते रहते हैं।
एक एजेंट की भूमिका निभा रहे जॉन अब्राहम ने हमारी व्यवस्था के उन लोगों की मनोदशा का बखूब चित्रण किया है..जिन्हें सिर्फ उच्च प्रशासन के आदेशों का पालन करते हुए, सत्यासत्य का विचार किये बगैर सिर्फ अपनी ड्यूटी पूरी करना होता है..और अपनी इस ड्युटी के चलते जहाँ उन्हें अपनी व्यक्तिगत ज़िंदगी में कई समझौते करना होते हैं तो दूसरी ओर अपनी अंतर्रात्मा की आवाज का भी गला घोंटना होता है। फिल्म में अस्सी के दशक में घटित हुए श्रीलंकन और तमिल्स के उन कड़वे हालातों का फिल्मांकन हैं जिन्हें देख कभी मन में एक रोष पैदा होता है तो कभी आंखें नम भी होती हैं। लेकिन कहीं भी ये समझ नहीं आता कि असली गुनाहगार कौन है और किसका रास्ता सही है? आखिर फिर हमें यही निष्कर्ष निकालना होता है कि हर किसी का अपना-अपना सच होता है फर्क सिर्फ इस बात का है कि हम देख कहाँ से रहे हैं।
अपने-अपने पूर्वाग्रह और दुराग्रहों से पीड़ित इंसान ने अपने ही सिद्धांतों को पैदा कर लिया है..और हर चीज़ की अपनी ही अलग परिभाषा है..और सबके मुगालते यही हैं कि हम सही हैं। इस तरह से एक ही चीज़ को लेके कई सत्य खड़े हो गये हैं..और अब लड़ाई सच और झूठ की नहीं, बल्कि अलग-अलग कई सारे सत्य के बीच पैदा हो गई हैं। इन भिन्न-भिन्न सत्यों में चाहे जो भी जीते पर हार सिर्फ मानवता की होती है। नक्सलवाद-माओवाद, सरकार के लिये आंतरिक गड़बड़ी है पर उन लोगों के लिये ये पुंजीवाद के विरुद्ध संघर्ष है..इस्लामी आतंकवाद सरकार के लिये एक भयावह बीमारी है तो उनके लिये ये ज़ेहाद है। भूमिअधिग्रहण से मेट्रो के लिये सुपर कॉरिडोर बनाना या मॉल्स, फैक्ट्री, अपार्टमेंट विकसित करना..सरकार के लिये डेवलपमेंट है तो किसानों के लिये ये उनकी रोज़ी का छिनना है..खाद्य सुरक्षा अधिनियम में सवा लाख करोड़ का खर्च सरकार के लिये गरीबों की फ़िक्र है तो उद्योगपतियों और आम आदमी के लिये ये आर्थिक आपातकाल की पूर्वभूमिका है। आखिर इन सबमें सही क्या है...गोया कि हाथ पे लिखी एक ही संख्या को कोई छह पढ़ रहा है तो कोई नौ। दोनों ही अपनी-अपनी जगह खड़े हो सही फरमा रहे हैं।
तमिल माइनॉरिटी पे श्रीलंका में होने वाली नृशंस हत्याओं ने अन्ना राजशेखरन को पैदा किया...जिन हालातों में ऐसे बगावती लोग पैदा होते हैं गर उन हालातों पे समय रहते काबू पा लिया जाये तो न ही छत्तीसगढ़-बंगाल के नक्सली नेता पैदा होंगे और न ही चंबल के बागी डाकू..लेकिन प्रशासन की आँख तब खुलती है जब पानी, सिर के ऊपर से जाने लगता है। फिर हम रोग की जड़ का इलाज न कर, सिर्फ उस रोग के ऊपरी लक्षण की मरहम पट्टी करते रहते हैं..और उस मरहम के अंदर पड़ा वो घाव, जब गैंगरीन में परिणत हो जाता है तब उस हिस्से को अपने अंग से ही अलग करने की नौबत आ जाती है। ऐसे ही हालातों को ठीक करने के लिये जब तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने पहल की, तो उन्हें अपनी जान से हाथ गंवाना पड़ा। एलटीएफ प्रमुख राजशेखरन के लिये ये उस समय का सही फैसला हो सकता है लेकिन उसके लिये इस फैसले ने उन तमाम लोगों को एक लंबे संघर्ष को लिये मजबूर कर दिया, जिनके अधिकारों के लिये वो अपनी इस जंग को जारी रखे हुए था। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया था कि राजीव गाँधी की उस हत्या के बाद से अब तक साठ हजार से ज्यादा लोग इस आपसी वैमनस्य में मारे जा चुके हैं और अब तक इस समस्या का कोई मजबूत समाधान नहीं हो पाया है।
इस पूरे घटनाचक्र को समझने के लिये ये फिल्म देखना बेहद ज़रूरी है और इसे देखा जाना भी चाहिये...ऐसी फ़िल्में ये साबित करती हैं कि सिर्फ काल्पनिक फूहड़ मसाला ही मनोरंजन नहीं करता बल्कि तथ्यात्मक सार्थक कथ्य भी उत्कृष्ट कोटि का मनोरंजन करता है। जॉन अब्राहम, जोकि इस फ़िल्म के निर्माता हैं और शुजीत सरकार इसके लिये धन्यवाद के पात्र हैं..इन दोनों की जोड़ी ने इससे पहले भी 'विकी डोनर' जैसी नवीन विषयवस्तु पे बेहतरीन मनोरंजक फिल्म बनाई थी और इस बार लोगों के लिए मनोरंजन के कलेवर में सार्थक जायका प्रस्तुत किया। फिल्म का टैम्पो इतना तेज है कि एक दृश्य भी आँखों से ओझल न हो जाये, ये डर सताता रहता है..इस बेहतरीन पेस और टैम्पो के लिये फिल्म के सिनेमैटोग्राफर और विडियो एडीटर को श्रेय देना ज़रूरी है..जिसके चलते कम समय में विस्तृत कथ्य प्रस्तुत किया जा सका। फिल्म के सभी कलाकारों की उत्कृष्ट अदाकारी भी घटनाक्रम को सजीव बनाती है।
बहरहाल, बहुत कुछ नहीं कहना चाहुंगा..पर कम से कम हम से जुड़ी एक ऐतिहासिक घटना को समझने के लिये इस फिल्म को अवश्य देखना चाहिये। मेरे लिये तो ये फ़िल्म "चैन्नई एक्सप्रेस" के वाहियात सफ़र के बाद "मद्रास कैफे" की लाजवाब चुस्की की तरह थी....
शुजीत सरकार द्वारा निर्देशित बेहतरीन डॉक्युड्रामा चैन्नई एक्सप्रेस देखी.,,,,,,,
ReplyDeleteठीक करिए फिल्म का नाम :-)
और समीक्षा बेहतरीन,हमेशा की तरह ...
अनु
धन्यवाद अनुजी इस ब्लंडर मिस्टेक की तरफ ध्यान आकर्षित कराने के लिये...
Deleteऔर शुक्रिया उत्साहवर्धन के लिये...
मुझे भी ऐसा ही लगता है कि सबका सच अपना होता है, पाप का भागी कोई और होता है भुगतना किसी और को होता है दोनों ही हिस्सों में... सुंदर समीक्षा
ReplyDeleteशुक्रिया सौरभजी...
Deleteसुंदर समीक्षा
ReplyDeleteधन्यवाद अशोक जी...
Deleteअच्छी समीक्षा और अच्छे सोर्स से जानकारी मिले... तो देखना बनती है ...और पूरी कोशिश रहेगी कि सिनेमा हाल में देखि जाये@
ReplyDeleteशुक्रिया !
जरूर देखिये अशोकजी..निश्चित ही ये आपके लिये ये एक बेहतरीन अनुभव रहेगी।।
Deleteअच्छी समीक्षा और अच्छे सोर्स से जानकारी मिले... तो देखना बनती है ...और पूरी कोशिश रहेगी कि सिनेमा हाल में देखि जाये@
ReplyDeleteशुक्रिया !
ऐसी संवेदनशील फिल्म देखना चाहूँगा।
ReplyDeleteजी जरूर देखिये...
Deleteबहुत बढ़िया समीक्षा ,,फिल्म जरूर देखेगें ,,,,
ReplyDeleteRECENT POST : फूल बिछा न सको
शुक्रिया...
Deleteलेकिन कहीं भी ये समझ नहीं आता कि असली गुनाहगार कौन है और किसका रास्ता सही है? ..................आप एक अच्छे फिल्म समीक्षक के रुप में स्थापित हो चुके हैं। निश्चय ही इस प्रकार का सिनेमा दर्शकों में वह जीवन-दृष्टि पैदा करता है जिसे आज से कई वर्ष पूर्व विकसित हो जाना चाहिए था, पर किन्हीं कारणों से (सबसे बड़ा कारण तथाकथित चेन्नई एक्सप्रेस जैसी बेहूदी फिल्में) वह हो नहीं पाया है। फिर फिल्म का अभिनेता भी डील-डौल, हैंडसमनेस से पूर्ण हो और विचारणीय अभिनेय करे तो ही फिल्म देखना सार्थक हो पाता है। हैंडसमनेस में जॉन अब्राहम, अक्षय कुमार, अर्जुन रामपाल के आगे ज्यादातर अभिनेता बेकार हैं। परन्तु दुर्भाग्य से बेकार अभिनेताओं की बेतुकी गलत संदेश देनेवाली फिल्में धड़ल्ले से प्रसारित होती हैं। और पब्लिक को भी उन्हीं छिछोरेपन पर चलने को विवश करती हैं जो ये परोसती हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद आपकी इस विस्तृत एवं उत्साहवर्धन करने वाली बेहतरीन प्रतिक्रिया के लिये..आपकी प्रतिक्रियाएं मुझे नित्य नवीन सृजन करने के लिये प्रेरित करती हैं..
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