Monday, December 31, 2012

देखते ही देखते.....

उलझनें बनी हुई, फासले भी जस की तस
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया......

  

चल रही है श्वांस, किंतु जिंदगी थमी हुई
रूह की दीवार पर, धूल है जमी हुई।
दाग गहरा छोड़के, देखो! ज़ख्म भर गया।।
देखते ही देखते.....

   


रंजिशों की मार से, जाने क्या है हो गया
मिल गया जवाब पर, सवाल ही है खो गया।
वक्त को आगे बढ़ा, वो पल वहीं ठहर गया।।
देखते ही देखते......




हो रहा है मिलन, पर बढ़ रहे शिकवे गिले
चीख सन्नाटों की है, सूनी पड़ी पर महफिलें।
ख्वाहिशों का दफन, देखने सारा शहर गया।।
देखते ही देखते.....




 होंठ पे मुस्कान है, पर आंख में आंसू भरे
मौत की आहट से ये, मासूम दिल क्युं न डरे?
झोपड़ी खड़ी रही और महल बिखर गया।।
देखते ही देखते....



 दिल की दुनिया ढूंढने में, खुद को हम खोने लगे
परम्परा के नाम पर, रुढियां ढोने लगे।
मर्ज़ की दवा थी वो, पर रग़ों में ज़हर गया।।
देखते ही देखते.....




रास्तों को खोजता, जाने क्या-क्या सोचता, हूं मैं वही खड़ा हुआ
ज़ख्म सीने में लिए, गिरते संभलते हुए, मजबूरी में पड़ा हुआ।
इस भोर में सूरज निकल, इक दिन का क़त्ल कर गया।।
देखते ही देखते ये साल भी गुज़र गया...........
मंजिलों को छोड़, आगे रास्ता है बढ़ गया
देखते ही देखते.......


अंकुर 'अंश'

Saturday, December 29, 2012

हे पुरुष ! ये घोर आत्ममंथन का वक्त है....

आखिरकार 13 दिन की तीव्र मानसिक एवं शारीरिक वेदना ने जबाब दे दिया...दामिनी नहीं रही। इस दामिनी ने लोकतंत्र के चारों स्तंभ को हिला डाला...देश की विधायिका नये कानून लाने के वैचारिक विद्रोह में है, कार्यपालिका देश की लाखों बेवश दामिनीयों को सुरक्षा देने के संकल्प पर पॉलिश कर रही है, न्यायपालिका आरोपियों का सजा सुनाने और दामिनी के न्यायिक मंथन से गुज़र रही है और मीडिया इस एक दामिनी के दमन की हवा में हजारों दामिनीयों की लुटती अस्मिता की अपडेट दे रहा है...ये एक दिल्ली की दामिनी, हजारों दमन की शिकार देश की नारियों का पर्याय बन गई है...गोयाकि आज दामिनी एक नारी नहीं, हालात बन गई है।

ये देश का पहला केस नहीं था और हमारे देश का सौभाग्य अभी इतना भी नहीं जागा कि ये आखिरी केस बन जाए। 'हर चौबीस मिनट में एक बलात्कार' का ये आंकड़ा थोड़ा बेहतर हो सकता है और शायद 'चौबीस मिनट' बदलकर 'अड़तालीस मिनट' बन सकते हैं...और शायद ये आंकड़ा भी ठीक नहीं हो सकेगा क्योंकि कुल होने वाले बलात्कारों में से 95 प्रतिशत तो दरो-दीवारों के अंदर होते हैं...बलात्कार रोकने के लिए सड़कों पे पुलिस तैनात की जा सकती है घरों में नहीं। रास्तों पे घूमने वाले लंपट मनचलों से सतर्क रहा जा सकता है..पर पिता, चाचा, मौसा, मामा, दोस्त-भाई, पड़ोसी, बॉस और यहां तक की अध्यापकों पर कैसे शक करें..उनसे कैसे सतर्क रहे? भेड़ियों की बस्ती में इंसान ही नज़र नहीं आते तो रिश्तेदार भला कहां मिलेंगे।

दामिनी के निमित्त से तंत्र को सुधारने का आंदोलन चल रहा है...सरकार को नसीहत दी जा रही है...पर प्रश्न उठता है कि ये तंत्र, ये सरकार क्या उन बलात्कारों, उत्पीड़नों को रोक पाएंगे जो दुनिया के सामने ही नहीं आते। यकीनन इस आंदोलन का कुछ सकारात्मक असर पड़ेगा पर वो असर सार्वकालिक समाधान बनकर सामने नहीं आ सकता...और वैसे भी दामिनी की चिता ठंडी पड़ने से पहले ये आंदोलन ठंडा पड़ जाएगा। समस्या की जड़ में जाकर ही समाधान तलाशा जा सकता है और इस बहसी प्रवृत्ति की जड़ें बहुत गहरी हैं...जिन जड़ों की खुदाई ये तंत्र, ये सरकार या मीडिया को नहीं बल्कि हर पुरुष को व्यक्तिगत तौर पर करनी हैं...ये समस्त पुरुष समाज के लिए गहन आत्ममंथन की घड़ी है।

हिन्दी के उपन्यास सम्राट प्रेमचंद की एक पंक्ति है कि 'जब किसी पुरुष में कुछ महिला के गुण आ जाते हैं तो वो महात्मा बन जाता है और किसी महिला में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वो कुलटा बन जाती है'...पुरुष को अपने उन्हीं आदिम पाशविक गुणों, मान्यताओं, अवधारणाओं, वैचारिक अहम् एवं समाज में व्याप्त पौरुषीय पितृसत्तात्मक सोच की पड़ताल करनी है जिसके चलते आज भी नारी समाज में दूसरी पंक्ति की हस्ती बनी हुई है। जिसे स्वयं के अस्तित्व के लिए, खुद को पूरा करने के लिए, स्वयं के संरक्षण के लिए किसी न किसी पुरुष की आवश्यकता है..उसकी इस ज़रूरत को कभी पिता, कभी भाई, पति, ब्वॉयफ्रेंड या फिर उसका अपना पुत्र पूरा करता है। ये सामाजिक असमानता जब तक विद्यमान है तब तक महिला उत्पीड़न, बलात्कार जैसी दुर्दांत घटनाओं पर ब्रेक लगा पाना बहुत मुश्किल है।

हमारे धर्मग्रंथों, पुरातन परम्पराओं, उपन्यासों, कविता, कहानियों और संस्कृति के हर हिस्से ने नारी को निरीह, करुणापात्र और असहाय साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी और पुरुष को उसका स्वामी बनाकर, वर्चस्व के सारे अधिकार प्रदान कर दिए। "हाय नारी तेरी बस यही कहानी, आंचल में है दूध और आंखों में पानी" हमारे बुद्धिजीवियों ने नारी की आंखों और आंचल से परे उसे देखने की हिमाकत ही नहीं की..और नारी को देख उसकी बेवशी ही पुरुष को नज़र आई...और फिर इन महाशयों ने उसे संरक्षण देने के बहाने हर तरह से नारी का शोषण किया। परंपराओं के ऐसे बज़न उन पर लाद दिए गए जिनके बोझ तले वह प्रताड़ित होती रही...और इन प्रताड़नाओं को ज़रुरी साबित करने में भी इस समाज ने कोई कसर नहीं छोड़ी..."ढोर-गंवार-शूद्र-पशु-नारी, ये सब ताड़न के अधिकारी" जैसी उक्तियों से ताड़ना को नारी का अधिकार बना दिया। दरअसल प्राकृतिक तौर पर नारी शारीरिक स्तर पर पुरुष से अधिक सबल है और पुरुष ने अपनी ये कमतरी छुपाने के लिए भांत-भांत के मानसिक-शारीरिक बंधनों और ताड़नाओं के ज़रिए खुद को इस बृह्माण्ड में श्रेष्ठ बना रखा है। पर मौका मिलते ही पुरुष का ये श्रेष्ठता का चोगा जाने कहां उड़ जाता है और वो अपने मूल स्वरूप में लौट आता है। इन परंपराओं और मान्यताओं का रस कुछ इस तरह से पुरुष ने इस समाज में घोला है कि नारी इन्हें अपने सिर-आंखों पे बैठाती है और अपनी ताड़नाओं को स्त्रीधर्म मान बैठी है।

इस पुरुष आत्ममंथन के वक्त में नारी को भी अपना वैचारिक आत्ममंथन करना होगा कि उसका अस्तित्व पुरुष की भोग्या बनने और बच्चा पैदा करने से परे भी बहुत कुछ है। वह अपने आप में एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है जिसके बिना इस धरती का, इस प्रकृति का संतुलन कभी बना नहीं रह सकता। उन तमाम सामाजिक विसंगतियों का बहिष्कार करना होगा जिनके चलते स्त्री इस समाज की दोयम दर्जे की हस्ती बनी हुई है...और अगर उन विसंगतियों के खिलाफ स्त्री ने आवाज बुलंद की तो मजाल है कि इस देश में भ्रूण-हत्या, दहेजप्रथा और घरेलु हिंसा जैसे अपराध सामने आये क्योंकि इन तमाम अपराधों में महिला की अहम् हिस्सेदारी होती है..अब वह चाहे मन से हो या बेमन से। अपने इस स्वतंत्र अस्तित्व को पहचानकर, सभी तरह के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ अपना स्वर मुखर कर...गर स्त्री, स्त्री बनी रहे तो इस प्रकृति की फ़िजा को बदलने से कोई नहीं रोक सकता। बस, वह याद रखे कि उसे अपने सशक्तिकरण के लिए कतई पुरुष बनने की ज़रुरत नहीं है, उसे अपने शील को मर्द की भांति दो टके का बनाने की कोई ज़रुरत नहीं है क्योंकि वो अपने आप में एक सुंदर व्यक्तित्व है जो पुरुष से कई बेहतर है। दामिनी की मृत्यु आंदोलन से ज्यादा, आत्ममंथन की मांग कर रही है.............

Tuesday, December 25, 2012

ताबड़तोड़ करियर का एक ख़ामोश अंत

"जब सचिन बेटिंग कर रहे हों, तब आप अपने सारे गुनाह कबूलकर लीजिये, क्योंकि तब भगवान भी उनकी बेटिंग देखने में मस्त रहते हैं" ये स्लोगन आस्ट्रेलिया में हुए एक मैच के दौरान सचिन के लिए एक पोस्टर पर देखने को मिला था। सचिन के अभिनन्दन में इस तरह की अतिश्योक्ति परक बातें आज से नहीं कही जा रही। इनका सिलसिला बहुत पुराना है, ये बातें दरअसल अपनी भावनाओं के सैलाब कों व्यक्त करने का एक जरिया है। लेकिन फिर भी हम हमारी भावनाएं उस ढंग से ज़ाहिर नहीं कर पाते जिस ढंग से उन्हें महसूस करते हैं। कई बार खुद पे गुमान होता है की हम उस काल में पैदा हुए जब सचिन खेला करते थे, आने वाली पीढ़ियों कों हम बड़े चटकारे लेकर सचिन की दास्ताँ सुनायेंगे।

463 मैच, 18000 से ज्यादा रन, 49 शतक-96 अर्धशतक जैसे विशाल, ताबड़तोड़ एकदिवसीय करियर का अंत इतना ख़ामोशी से होगा इसका अंदाजा किसी को नहीं था...एक तो देश इस समय किसी और मुद्दे पर आक्रोशित है ऊपर से गुजरात में मोदी की माया ने सचिन के इस फैसले को तमाम सुर्खियों से परे बड़ा ठंडा बना दिया। लगता था कि जब सचिन रिटायर होंगे तो खिलाड़ियों के कंधे पर बैठकर सारे मैदान का चक्कर लगाते हुए तालियों के जबरदस्त शोर के बीच उनकी विदाई होगी पर क्रिकेट के इस शिखरपुरुष ने बड़ी ख़ामोशी से इस खेल को अलविदा कह दिया। जिसे न दर्शकों की तालियां मिली और नाहीं मीडिया की सुर्खिया। हो सकता है मैदान के शेर इस खिलाड़ी का अंतर्मन बेहद नाजुक हो और जमाने के सामने अपने प्यार से विदाई लेते वक्त ये अपनी भावनाओं पर काबू न कर पाए...जिसकी एक बानगी हमने 2011 वर्ल्डकप के फाइनल में देखी थी।

 ऐसा नहीं कि सचिन के रिकोर्ड को कोई छू नहीं पायेगा, ऐसा नहीं क्रिकेट में सचिन की पारियों से बेहतर पारियां देखने नहीं मिलेंगी, सचिन की महानता को सिर्फ उनकी क्रिकेटीय पारियों या रिकॉर्डों से नहीं तौला जा सकता। सचिन को महान बनाता है उनका व्यक्तित्व..जिसमें शामिल है क्रिकेट के प्रति समर्पण, प्रदर्शन में निरंतरता, धैर्य और अनुशासन। 23 साल तक क्रिकेट के सभी फॉरमेट में खुद को बेहतर बनाये रखना किसी के लिए भी आसान काम नहीं है...ये सिर्फ आपके क्रिकेटीय कौशल से संभव नहीं हो सकता..इसके लिए ज़रुरी है कुछ आंतरिक गुणों का होना। जो सचिन के व्यक्तित्व का एक अहम् हिस्सा है..जिसके चलते आज वे इस खेल की चोटी पर विराजमान है..और ख़ास तौर से वनडे क्रिकेट के तो लगभग तमाम कीर्तिमान उनकी झोली में हैं।

सचिन देश के उन सम्मानीय लोगों में से हैं जिनका देश कि हर छोटी-बढ़ी शक्सियत सम्मान करती है। इसका कारण ये नहीं कि वे एक अच्छे खिलाड़ी हैं इसका कारण है कि वे एक अच्छे इन्सान है। इन्सान को महान उसकी प्रतिभा बनाती है मगर उसका चरित्र उसे महान बनाये रखता है। सचिन के पास चरित्र कि पूंजी भी है। वे संयमित हैं, मर्यादित हैं और विनम्र है। यही कारण है कि अमिताभ बच्चन, लता मंगेशकर, आमिर खान से लेकर अटल बिहारी वाजपेयी, अब्दुल कलाम तक उनका सम्मान करते हैं। युवराज सिंह अपने मोबाइल में सचिन का मोबाइल नम्बर 'गॉड' के नाम से सेव करते हैं।

सचिन की बल्लेबाज़ी देश के हर इन्सान को एक कर देती है, वो अपना हर दर्द भूलकर बस उनके खेल के जश्न में मस्त हो जाता हैं। सचिन की इस महानता के बावजूद उन पर कई बार ऊँगली उठी है और हर बार उन्होंने इसका जवाब अपने मुंह से देने के बजाय अपने खेल से दिया है। लेकिन इस बार खेल के इस भगवान का धैर्य जबाब दे गया..और उन्होंने अपनी आलोचनाओं के चलते बड़ी ख़ामोशी से इस खेल के एकदिवसीय संस्करण से अलविदा कह दिया...वे जानते हैं कि दुनिया भले उन्हें भगवान कहे पर वे एक इंसान है जिसकी अपनी कुछ सीमाएं होती हैं। चालीस वर्ष की इस उम्र में वो चौबीस जैसी स्फूर्ति और तकनीक नहीं ला सकते। उन्होंने कहा था कि वे सीरीज़ दर सीरिज़ अपने खेल का आकलन करेंगे और अब शायद उन्हें लगने लगा हो कि उनमें वनडे क्रिकेट के योग्य तेजी नहीं रही...इसलिए हमारे लिए सचिन का ये फैसला चौकाने वाला रहा हो पर उनके लिए तो ये एक सोची-समझी रणनीति ही है।

बहरहाल, क्रिकेट के इस जादूगर के खेल कौशल अब हम टेस्ट क्रिकेट में देखेंगे...लेकिन कब तक? ये बता पाना आसान नहीं है...क्योंकि सचिन ही जानते हैं कि उन्हें अपने आगे के करियर को किस तरह से दिशा देनी है और कब उसपे विराम लगाना है। हो सकता है कि उनके इस फैसले की तरह उनके टेस्ट करियर को अलविदा कहने का फैसला भी चकित करने वाला साबित हो...क्योंकि सचिन उन लोगों में से नहीं जो अपने व्यक्तिगत मोह के चलते टीम में बोझ बने रहे..टीम और देशहित हमेशा उनके लिए सर्वोपरि रहेगा। अंत में शारजाह में हुए एक मेच के पोस्टर पे लिखा स्लोगन याद करना चाहूँगा "जब मैं मरूँगा तब भगवान को देखूंगा तब तक मैं सचिन को खेलते हुए देखूंगा"......

Friday, December 21, 2012

बिखरता आत्मनियमन, टूटती यौनवर्जनाएं और दिल्ली गैंगरेप

सारा देश इन दिनों दिल्ली गैंगरेप में पीड़ित लड़की के स्वास्थ्य के लिए दुआ कर रहा है..और अपराधियों को कड़ी सजा की मांग कर रहा है। साथ ही इस बात का राग आलापा जा रहा है कि इन अपराधियों को दी जाने वाली कड़ी सजा से ऐसे अपराधों पर रोक लगेगी या इनमें कमी आएगी। लेकिन क्या वास्तव में किसी सजा का डर ही आपराधिक प्रवृत्ति के सफाये के लिए काफी है? मैं अपराधियों के बचाव का या उन्हें किसी तरह की रियायत दिए जाने की वकालत नहीं कर रहा हूं, उन्हें उनके किए का संविधान सम्मत योग्य परिणाम मिलना चाहिए...मैं यहां पापियों की नहीं पाप की बात करना चाहता हूं।

दिल्ली गैंगरेप की वारदात के बाद जस्टिस काटजू का विवादित पर चिंतनीय बयान आया था कि 'गैंगरेप तो आम बात है, दिल्ली गैंगरेप पे ज़रूरत से ज्यादा हायतौबा मचाने की क्या ज़रूरत है'। यकीनन आज के हमारे सामाजिक परिदृश्य की बुनावट ही कुछ ऐसी है कि जहां प्रचारतंत्र के ज़रिए, किसी मामुली से मुद्दे पर भी सारी भीड़ को भड़काया जा सकता है और कई बार संगीन अपराध पर भी चुप्पी साध के उसे युंही गुज़र देने दिया जा सकता है। मैं इस गैंगरेप को मामूली कतई नहीं कह रहा हूं सिर्फ सामाजिक प्रवृत्ति की बात कर रहा हूं...और यदि किसी महत्तवपूर्ण मुद्दे पर आंदोलन होते भी है तो वे भी प्रचारतंत्र के ठंडे होने के बाद सुप्तावस्था में चले जाते हैं...फिर भीड़ को इंतज़ार होता है अगले किसी आंदोलन का। दरअसल समाज में आंदोलन की प्रवृत्ति भी उत्सव की तरह ही है...उत्सव जितने ही आंदोलन आवश्यक है। आंदोलनों लायक मुद्दे मिलने पर तथाकथित सामाजिक संगठन अपने जिंदा होने का सबूत दे देते हैं, नेता लोग खुदको इस देश और समाज के शुभचिंतक साबित करने वाले बयान झाड़ देते हैं और प्रबुद्ध वर्ग अपने बौद्धिक बवासीर का परिचय दे देता है...लेकिन अपराध, अपराधी और पीड़ित की स्थिति में कोई परिवर्तन आता हो, ऐसा कहीं नज़र आता।

इस मुल्क में हर चीज़ दो हिस्सों में बंटी है और उस बंटवारे से पैदा हुई खाई बहुत गहरी है...ऐसे ही जिंदगियों के दरमियां भी गहरा फासला है और उन जिंदगियों का ट्रीटमेंट भी अलग-अलग ढंग से किया जाता है। दिल्ली में हुए गैंगरेप जैसी वारदातें छोटे गांव-नगरों में आए दिन होती रहती हैं...कई बार वे अखबार की सनसनात्मक प्रकृति की शोभा बढ़ाते हैं तो कई बार ऐसी घटनाएं घर-परिवार के लोगों द्वारा ही दबा दी जाती है। शायद ऐसा सिर्फ हमारे देश में होता है कि बलात्कार की घटना के बाद अपराधी से ज्यादा पीड़ित की इज्जत खराब होती है। अपराधियों के बदन पे चढ़ी धूल वक्त के हाथों द्वारा झड़ा दी जाती है पर पीड़ित के जिस्म और आत्मा पे लगी कालिख को न ये समाज मिटा पाता है और नाहीं पीड़ित खुद इसे भुला पाती है। दिल्ली गैंगरेप की संगीनता प्राकृतिक तौर पर नहीं, मीडिया द्बारा तय की गई है। हर साल होने वाले इस तरह के हजारों मामले भी इतने ही संगीन है, जोकि खामोशियों के साये में कहीं दब जाते हैं।

दरअसल, बात सिर्फ इस गैंगरेप की नहीं है...बात हैं उन तमाम टूटती वर्जनाओं की जो ऐसे अपराधों को बढ़ा रहे हैं, बात है उन तमाम बहसी प्रवृतियों की, बिखरते आत्म-संयम की जिसके चलते इंसान सिर्फ अपनी इच्छाओं को तवज़्जो देता है और भूल जाता है दूसरे के हितों को, उनकी भावनाओं को। क्यों बार-बार सिर्फ महिलाओं को ये समझाइश दी जाती है कि वे सादगी पूर्ण कपड़े पहने, रात को घर से बाहर न निकलें, अनजाने लोगों से दूर रहे, पुरुषों से दोस्ती न करें...ये समाज अपनी इस समझाइश का कुछ हिस्सा पुरुषों पर क्युं नहीं खर्च करता..जबकि ये तय है कि हवस से भरा मन रजाई ओढ़ के बैठी महिला को भी वैसे ही देखेगा जैसे वो किसी स्कर्ट पहनी युवती को देखता है। फ़िल्म 'पिंजर' में एक संवाद है कि 'कैसे महज़ एक मांस का लोथड़ा इंसान के सारे विवेक को नष्ट कर देता है'...यही कारण है कि साल-डेढ़ साल की बच्ची,  किसी 60-65 साल की वृद्धा,  मानसिक विकलांग महिला, फुटपाथ पे सोई किसी फटेहाल-मजबूर औरत के साथ ऐसी वारदातें होती है...अब इन सारी आपराधिक वृत्तियों के लिए किसे ज़िम्मेदार ठहराएं। औरत को पुरुषों के समकक्ष लाने वाले बुद्धिजीवी इस बात पर विचार करें कि क्या वाकई वे पुरुषों और औरतों को एक जमीन पर देखना चाहते हैं।

हकीकत तो यही है कि स्त्री बस एक आइटम है...जिसे फ़िल्मों में मसाला डालने के लिए किसी आइटम नंबर में पेश किया जाता है, बाजार में उससे विज्ञापनों के ज़रिए बिकनी पहनाकर सीमेंट और ऑयलपेंट जैसे उत्पाद बिकवाये जाते हैं, उसके मुस्काते चेहरे के ज़रिए उपभोक्ता को मॉल और शापिंग कॉम्पलेक्स में रिझाया जाता है, कढ़ाई-बुनाई और पाककला जैसे कामों में उसे पारंगत बनाकर पुरुष की सेवा योग्य तैयार किया जाता है, उसके जिस्म का प्रयोग पुरुष की जिस्मानी भूख को ठंडा करने के लिए होता है चाहे नारी स्वयं अपने समर्पण से उत्पन्न संतुष्टि का अनुभव न कर सके पर उसका मौन रहना ही संस्कार है...इन सबमें नारी क्या है महज आइटम, मनोरंजन का साधन, एक बेजान वस्तु...और जब वो एक वस्तु ही है तो फिर उसे पुरुष के समकक्ष लाने के झूठे प्रयास क्यों किए जाते हैं...क्योंकि जनाब! पुरुष तो एक इंसान है न...और वस्तुओं की इंसान से क्या तुलना।

बहरहाल, अच्छा है कि एक नदी को नदी ही रहने दिया जाए और एक स्त्री को स्त्री...जब तक नदी किनारों के बीच और स्त्री अपने दायरों के बीच बह रही है तब तक वो वही हैं जो वो हैं..जिस दिन नदी ने अपने किनारे और स्त्री ने अपने दायरे छोड़ दिए तब कहर आने में समय नहीं लगेगा...पर ये इंसान, ये समाज, ये व्यवस्था स्त्री को और प्रकृति को मजबूर कर रही है कि कहर आए....नास्त्रेदमस की भविष्यवाणी कुछ हद तक को सही साबित हुई ही है कि 21 दिसम्बर 2012 तक भले इंसान तबाही से बचा हुआ है पर इंसानियत तो तबाह हो ही चुकी है..........

Thursday, December 13, 2012

मुर्दा इंसानों की भीड़ में गुमनाम ज़िंदगी !!!

अखबार। इन दिनों दुनिया की सबसे खतरनाक वस्तु जान पड़ता है...जो दिल में एक चुभन सी पैदा करता है और घोर निराशावाद की ओर धकेलता नज़र आता है। ये मैं तब कह रहा हूं जबकि मैं विधिवत् जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक उपाधि ग्रहण कर..लोकतंत्र के चौथे स्तंभ में किसी न किसी तरह अपनी सहभागिता निभा रहा हूं। लेकिन आये दिन अखबार के पन्नों पर प्रकाशित होने वाली ख़बरें दिल बहुत छोटा कर देती हैं, साथ ही मुझे खुद से ये प्रश्न करने पर मजबूर कर देती हैं कि मैं किस भीड़ का हिस्सा हूं और किस दुनिया में सांसे ले रहा हूं?

मैं यहां फिलहाल भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, कालाबाज़ारी, महंगाई, गरीबी जैसे देशव्यापी मुद्दों की बात नहीं कर रहा हूं...बल्कि मेरा इशारा तो उन टूटती संवेदनाओं, बिखरते रिश्ते और मुर्दा भावनाओं की तरफ है जिन संवेदनाओं, भावनाओं और रिश्ते-नातों के कारण हम इंसान कहलाते हैं। मेरा इशारा अखबार की उन ख़बरों की तरफ है जो अक्सर फ्रंट पेज पर नहीं नज़र आती..पर जो ख़बरें तीसरे, पांचवे, सातवें या पंद्रहवे पेज पर ख़ामोशी से सिसक रही होती है। हर दिन उत्साह से अखबार को उठाने वाले हाथ, उदास मन से उसे फेंक देते हैं और माथे पर सलवटें लिए हुए लवों से यही लफ़्ज निकलते हैं-'क्या हो गया है इंसान को'।

दिल को इंडियन क्रिकेट टीम की जीत की ख़बर से मिली खुशी या शेयर मार्केट की छलांग से मिली राहत बड़ी तुच्छ नज़र आती है...जब नज़रें उन ख़बरों पर जाती है जहां किसी नवजात शिशु के कूड़ेदान में पड़े होने की, पिता द्वारा अपनी बेटी के बलात्कार की, भाई-भाई के खूनी युद्ध की, अपनी प्रेमिका पर तेजाब डाले जाने की या अध्यापक द्वारा छात्र का सिर दीवार से दे मारने की बात होती है। दिल में ख्याल आता है कि जिस संवेदना, ज्ञान और विवेक के कारण इंसान को इस प्रकृति के अन्य प्राणियों से अलग और उत्कृष्ट माना जाता है वे सब कहां हैं? अपने दिमाग और शिक्षा के ज़रिए इंसान ने कहीं न कहीं अपनी आकांक्षा, इच्छा, भोगलिप्सा, स्वार्थपरकता और लोलुपता को ही बढ़ाया है। यदि इंसान के पास ज्ञान या संवेदना है भी..तो वह भी रोबोटनुमा ज्ञान-संवेदना है। इंसान को इंसान बनाने वाली ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान कहीं भी नज़र नहीं आता। मुर्दा शरीरों में दिल धड़क तो रहा है पर वे जिंदा नहीं है।

सभ्यता और संस्कृति की बड़ी-बड़ी बातें महज ढकोसला लगती है...इंसान की हवस तो आज भी पशुमय है। यदा-कदा निखरकर आने वाली इंसान की दुर्दांत प्रवृत्तियां ये बताने के लिए काफी है कि आदमी..आदमी नहीं, वह तो मूलरूप से पशु है। शिक्षा-सभ्यता के ज़रिए वह अपनी पशुता पर महज़ मुखौटे लगाने का प्रयास करता है। वासना और तृष्णा का ऐसा कॉकटेल इंसान के हृदय में पड़ा है जहां अपने आनंद और संतुष्टि के लिए वह किसी भी दूसरे इंसान के कलेजे पर से गुज़र सकता है। इस सबमें इंसान कहां है और कहां है जिंदगी?

यदि संवेदना, प्रेम और रिश्तों की गर्माहट हो तो संसाधनों के अभाव में भी बखूब जिंदगी बसर की जा सकती है..पर जिस दुनिया में हर कोई अपनी पीठ के पीछे छुरा लेके चलता हो वहां कैसे जीवन गुजरेगा? जहां अपने रिश्ते-नातों से ही डर हो वह इंसान कहां आसरा तलाशेगा? और जब इतना भयावह माहौल हमने अपने ईर्द-गिर्द बना रखा है तो हमें क्या हक बनता है कि हम नयी पीढ़ी को इस दुनिया में लाए। जब इंसानों की इस भीड़ में अभी एक खूबसूरत जिंदगी का निर्माण हम नहीं कर पा रहे हैं तो आने वाली ज़िंदगी आखिर किन हालातों के साथ जिंदा रहेगी? 

ये सारे वे सवाल है जो दिल में उमड़-घुमड़ कर मुझे खुलकर मुस्कुराने से रोक देते हैं।  इन हालातों को गौढ़ कर हम अपनी ही दुनिया में स्वछंद बन मस्त रह सकते हैं लेकिन समष्टि का एक अहम् हिस्सा होने के चलते इन हालातों को गौढ़ कर देना इंसानियत तो नहीं हो सकती। व्यष्टि(व्यक्ति) का अस्तित्व समष्टि(समाज) से हैं और अपनी समष्टि के प्रति आंखें बंद कर  कृतघ्न हो जाने की इज़ाजत ये दिल नहीं देता। दिल बहलाने के लिए अक्सर सामाजिक यथार्थ से लबरेज़ समाचारों से दूर हो..सास-बहू के उबाऊ सीरियल, फूहड़ कॉमेडी शो, स्पोर्टस चैनल और अजीबोगरीब भूतहा-सस्पेंस कहानियों को देखने-पढ़ने का प्रयास करता हूं...पर मेरी ज्ञानात्मक संवेदना मुझे वापस सामाजिक यथार्थ के करीब ले जाती है।

Tuesday, November 20, 2012

ख़ुशी, ख़ुशहाली और ज़िंदगी के मापदण्ड

कई महीनों पहले एक टेलीविज़न चैनल के लांचिग प्रोमो का प्रचार कुछ इस अंदाज में किया गया था कि ज़िंदगी में 'ख़ुशहाली' ज़रुरी है पर उससे भी ज्यादा ज़रुरी है 'ख़ुशी' का होना... क्योंकि ज़िंदगी की खुबसूरती के मापदण्ड 'खुशी' से तय किये जा सकते हैं 'खुशहाली' से नहीं। जिंदगी के मापदण्ड तौलने के लिए तो 'ख़ुशी' को एक स्केल के तौर पर इस्तेमाल किया जा सकता है पर 'खु़शी' को तौलने वाला स्केल कैसे निर्धारित किया जा सकता है? गोयाकि वैज्ञानिक साधन-संपन्नता वाले विश्व में हर चीज़ की माप है पर दर्द, त्रासदी और ख़ुशी को मापने वाला पैमाना अब तक नहीं बन पाया। 

प्रसिद्ध लेखक पाओलो कोएल्हो ने अपने एक लेख में कुछ इस तरह के विचार व्यक्त किए थे कि दुनिया में हम लोगों की जितनी मुस्कुराहटों भरी तस्वीर देख रहे हैं वो मुस्कानें सिर्फ लोगों के चेहरे पर उतनी देर के लिए थी जब उनकी तस्वीर ली जा रही थी। ज़िंदगी की आपाधापी में सहज मुस्कानें तो कबकी मर चुकी हैं...या फिर जो मुस्कानें कदाचित् कुछ देर के लिए दिख भी रही हैं उन्होंने इसके लिए बड़ी कीमत चुकाई है। आमिर ख़ान की आगामी फ़िल्म 'तलाश' के एक गीत में जावेद अख्तर ने भी कुछ ऐसा ही फरमाया है कि "मुस्कानें झूठी है..पहचानें झूठी है"। पहचान और मुस्कान की हैसियत टिशु पेपर की तरह हो गई है जो सिर्फ शरीफों की महफिलों में 'वेलमेनर्स' कहलाए जाने का एक ज़रिया मात्र है। यहां एक बात मैं स्पष्ट किए देता हुं कि पाओलो कोएल्हो तो मुस्कुराहट अर्थात् हंसी को ही महंगा कह रहे हैं जबकि हंसी और खुशी दोनों बहुत अलग चीजें हैं। हंसोड़ो की महफिल तो हर गली-नुक्कड़-चौराहों पे मिल जाएगी पर एक अदद खुश इंसान खोज पाना बहुत मुश्किल है।

अंग्रेजी की एक कहावत है "Happiness is a interval between the period of unhappiness"...इसमें ख़ुशी के वक्त को त्रासद समय का महज एक अंतराल कहा है। लेकिन इस अंतराल की तलाश में एक बहुत बड़ा वक्त ज़ाया होता है जो दरअसल किसी भी तरह के अर्थ को लिए हुए नहीं है...जिसमें न खुशी है न ग़म। लेकिन जिसमें हम दिन का या कहें जिंदगी का काफी वक्त गुजारते हैं...और वो चीजें हैं हमारे रोजमर्रा के काम..जिसे हम रूटीन(Routine) भी कहते हैं। जो कि बिना किसी विशिष्ट अर्थ के हर दिन हमें खुद में लगाए रहते हैं..और हद तब हो जाती है जब इन रोजमर्रा के कामों में बिताया जाने वाला वक्त इतना लंबा हो जाता है कि कुछ दूसरा सोचने का वक्त भी हमारे पास नहीं होता। ये सारा समय महज एक तलाश है, एक इंतज़ार है मुस्कुराहटों या खुशी के चंद लम्हें पाने का...और अक्सर इस तलाश के बाद भी हमें वो लम्हें हासिल नहीं होते, उल्टा इस रूटीन में ही व्यवधान पैदा हो जाता है तब इंसान खुशी के उन लम्हों को भुलाकर अपने उस रुटीन को ही वापस पाना चाहता है...और अपने उस रूटीन या तलाश को पाकर ही कुछ सुखी सा अनुभव करता है। शायद इसी चीज को देखते हुए प्रसिद्ध इटेलियन फ़िल्म निर्देशक तारकोवस्की ने कहा था कि "मैं जी कहां रहा हूं मैं तो बस इंतज़ार कर रहा हूं...हर पल, हर श्वांस के साथ...बहुत छोटी-छोटी चीजों का"।

जिंदगी की कवायद उसे एक अर्थ देने के लिए हैं...पर उस अर्थ के ही अर्थ खो गए हैं। तमाम भावनाओं, रिश्ते-नातों, प्रेम, दोस्ती, पैसा, शोहरत, भौतिक संसाधनों, धर्म आदि में उस अर्थ की ही तलाश की जा रही है। जो लोग इतनी गहराई में जाए बगेर ज़िंदगी जी रहें हैं उन्हें भले अपनी इस तलाश की फिजिक्स-कैमिस्ट्री का पता नहीं हैं पर ये तलाश उनके दिल में भी है...और Something is missing की टीस उन्हें भी साल रही है। लेकिन ज़िंदगी को मायने फिर भी नहीं मिल रहे हैं...और कहीं न कहीं इंसान के मन में इस बात पर विचार करने की जिज्ञासा भी नहीं है कि जिंदगी के मायने क्या हैं...क्योंकि जो खालीपन प्रकृति से कदाचित् इन बातों पर विचार करने के लिए मिलता भी है वो खालीपन ही बोझ सा मालूम पड़ता है। टाइमपास एक बहुत बड़ा मुद्दा है...और इस टाइमपास के लिए ही सारा बाज़ार सजा पड़ा है। पर बाज़ार में खुशी-खुशहाली खोजने गया इंसान कब खुद बिकने लगता है उसे खुद पता नहीं चलता।

इस ऊहापोह में 'खुशी' शब्द के आगे हमेशा प्रश्नचिन्ह लगा रहता है...और प्रश्नचिन्ह को देखने की आदत कुछ ऐसी हो जाती है कि हमें इसका जबाब खोजना है ये बात ही भुला दी जाती है। लोगों के माथे पर पड़ी सलबटें, चेहरे की शिकन, बेवश निगाहें और झूठी मुस्कानें माहौल में एक डर घोल रही है और उस डर की बिसात पर हर कोई नितांत स्वार्थी होकर नयी-नयी चालें चल रहा है। उन चालों के भंवर में अगला कदम बढ़ाने से ही घबराहट होती हैं और ज़िंदगी, मौत से कठिन मालूम होती है।

बहरहाल, अपने-अपने नज़रिये की बात है...एक जीवन वो भी है जो सत्य को पूरी तरह नज़रअंदाज करके खिलंदड़ की तरह जीवन जीता है और एक जीवन वो है जहां सत्य, जीवन पे इस क़दर हावी है कि उसने जिंदगी को डर के आगोश में ले लिया है...पर इन सब बातों में सिर्फ एक बात बहुत पक्की हैं कि जिंदगी बहुत खास होती है, बहुत खूबसूरत होती है चाहे वो कैसी भी क्युं न हो और उसे हमेशा सर्वोपरि रखके जीना सबसे ज़रूरी है। अतः रब से इस बात का अफसोस ज़ाहिर करना कि 'हमें जिंदगी में मजा करने के लिए फलां साधन नहीं मिला ' एक बेतुकी बात है...क्योंकि हमें जिंदगी मिली है हर साधन का मज़ा लेने के लिए।

Wednesday, October 24, 2012

उत्सव, भोगवादी संस्कृति और आस्था का ढ़ोंग

उत्सवी फुलझड़ियां, मेवा-मिष्ठान, पटाखों का दौर चल रहा है...आस्था, पूजा, अर्चना के शोर हर गली मोहल्ले से लेकर टीवी चैनल, एफएम, अखबार तक गुलज़ार है। मुहूर्तों की रोशनी से बाज़ार में चमक है...हर प्रॉडक्ट पर ऑफरों की बरसात है...आम जनसमाज को उपभोक्ता समाज मे तबदील करने में किसी तरह की कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। गोयाकि धर्म भी संयम का नहीं उपभोग का ठेकेदार बना बैठा है।

धर्म की आड़ में सारी वही चीजें हो रही हैं जो न तो संविधान और समाज की निगाह में नैतिक मानी जाती हैं नाही जिन्हें विज्ञान तर्क की कसौटी पर कसा हुआ मानता है...पर धर्म एक ऐसा एंटीबॉयोटिक है जो हर हुल्लड़याई के रोग को कवच प्रदान करता है। लेकिन इस सबके बाबजूद हम मॉडर्न है साथ ही सभ्य भी। एक ऐसा माहौल हर तरफ निर्मित है जिसमें नशेबाजी, शराबखोरी, लड़कीबाजी, गुंडागर्दी और अंधेरे के साये में घट रहे तमाम व्यभिचार व्याप्त है पर उत्सवी शोर में सब ज़ायज है।

पिछले दिनों हिंदुस्तानी सिनेमा में हिन्दुस्तान के सबसे क्रांतिकारी विषय पर बनी एक सार्थक फ़िल्म 'ओह मॉय गॉड' प्रदर्शित हुई थी...जिसमें एक संवाद था कि "जहां धर्म है वहां सत्य नहीं है और जहां सत्य है वहां धर्म की ज़रूरत नहीं है" फ़िल्म का ये संवाद संपूर्ण मौजूदा धार्मिक माहौल को आईना दिखाता है। पर अफसोस फ़िल्म के इस संवाद पर तालियां बजाने वालों की भी कतई अपनी-अपनी रूढ़ियों पर से पकड़ ढीली न हुई होगी। दरअसल हमारी तमाम उत्सवी प्रकृति भले किसी न किसी धार्मिक विश्वास के कारण पैदा हुई हो पर उसका उद्देश्य एकमात्र विलासिता है। हमारी सारी पूजा, भक्ति भी भोगवादी संस्कृति से पैदा हुई है। जहां आस्था का जन्म उन मनोभावों से हुआ है जिन्हें किसी मानवमात्र में उचित नहीं माना जाता...और वो मनोभाव है डर तथा लालच।

एक तरह देखा जाये तो बाज़ारवाद और धार्मिक भावनाओं के विस्तार में एक से मनोभाव ज़िम्मेदार है। बाज़ार में भी हमें इसी तरह लुभाया जाता है...या तो हमें किसी डिस्काउंट, सेल, ऑफर के चले जाने का डर है या एक पे एक फ्री टाइप के बोनस पाने का लालच। हमें हमारे भोग-विलास की वस्तुओं को बनाये रखने का इस कद़र लालच है कि उनके दूर होने के डर के चलते हम हर तरह की क्रियाओं को कर गुज़रने के लिए तैयार हैं। धार्मिक आस्थाओं के नाम पर हर कष्ट का सहना भी इसलिए मंजूर है क्योंकि हमें उन प्रतिकूलताओं से डर लगता है जो हमारी विलासिता में खलल डालते हैं। यही वजह है कि हर सप्ताह रोजगारेश्वर बाबा, सदा-सुहागन माता, संतानदाता बप्पा जैसे देवता मार्केट में पैदा हो रहे हैं...इन देवताओं के कारण साधू, संतों, फकीरों का सेंसेक्स हमेशा बढ़े हुए स्तर पर बना रहता है। इन देवताओं के इस बढ़ते हुए ग्राफ को देख लगता है कि एक दिन वो भी होगा जब गर्लफ्रेंड बाबा, अय्याशी माता की पूजा हुआ करेगी...और शायद देश के किसी कोने में होने भी लगी हो।

हमारी सारे धार्मिक विश्वास हमारी भोगवादी जिजीविषाओं का परिणाम है...पुनर्जन्म की जो तथाकथित अवधारणा आज इंसान द्वारा गढ़ी गई है उसके पीछे भी यही मंशा है कि अगले जन्म में हम वो सारे भोगों का उपभोग कर सकें जो इस जन्म में अधूरे रह गए हैं। हर तरफ सिर्फ और सिर्फ हसरतों का सैलाब है। नाचना, गाना, विभिन्न तरह की अठखेलियां करना सब कुछ उसी उपभोगितावादी प्रवृत्ति का प्रतीक है जिन्हें धार्मिकता के नाम पर प्रदर्शित किया जा रहा है। नवरात्र में होने वाले गरबों के ख़त्म होने के बाद देर रात होने वाले विभिन्न क्रियाकांडो का चिट्ठा तो हम आये दिन पढ़ते-सुनते रहते हैं। 

दरअसल जो कुछ हो रहा है उन चीजों पर उतना ऐतराज़ नहीं है लेकिन जिसके नाम पर ये सब हो रहा है वो चीज ज्यादा खलती है। हम भारतीय संस्कृति का महिमामंडन बड़े जोश-खरोश के साथ करते हैं और पाश्चात्य सभ्यता को गरयाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। लेकिन पाश्चात्य सभ्यता खुद को भोगवादी कहकर सीना ठोककर वो चीजें करते हैं जो चीजें हम धर्म की आड़ में खुद को संयम और त्याग का शिरोमणि कहकर किया करते हैं। न तो हम भौतिकवादी ही हैं नाहीं हम धार्मिक है...हमारे अंदर तो वो छद्म धार्मिकता पल रही है जो पीला वस्त्र पहनकर बलात्कार करने की ख़्वाहिश रखती है। इस बारे में अपने एक अन्य लेख छद्म धार्मिकता, नास्तिक वैज्ञानिकता और अनुभूत अध्यात्म में भी काफी कुछ कह चुका हूँ।

आस्था के नाम पर होने वाला पाखंड और मूर्खता हमें उस श्रेणी का पुरुष बनाती है जो हमाम में नंगा नहाता है पर अपना कच्छा, तौलिया पहनकर बदलता है। जिसकी कमीज तो सफेद है पर बनयान मटमैली हो रही है। हर साल रावण को जलाने वाली संस्कृति गर रावण के सद्गुणों का अनुसरण कर ले तो मौजूदा भारत में रामराज्य आ जाएगा। सच्ची धार्मिकता धर्म के स्वरूप को समझे बगैर नहीं आ सकती...राम को मानने वाले न जाने कब राम की मानेंगे....................

Tuesday, October 2, 2012

अहिंसा, गांधी और सिनेमा


 गांधीजी की 143 वीं जन्मजयंती है...साथ ही एक दिन का अवकाश भी..ये अवकाश शायद इसलिए कि गांधी का स्मरण हो जाए। गोयाकि विराम का वक्तगांधित्व का विचार करने के लिए है। तो दूसरी ओर किसी के लिए ये दिन मौज-मस्ती का भी हो सकता है या फिर सिनेमा का...क्योंकि अक्टुबर को भी आज के इस दौर में गांधी से ज्यादा सिनेमा लोकप्रिय है। लेकिन कुछ दिलों में गांधी घुमड़ रहें होंगे इस तथ्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता। मूल्यों के चीरहरण वाले इस दौर में गांधी का याद किया जाना राहत देता है। तो कुछ लोग आज गांधी को याद तो कर रहे होंगेलेकिन कोसते हुए...इन तथाकथित शौकीनों को ड्राई डे रास न आ रहा होगा। शराब की दुकानें भी बंद हैं और कवाब की भी। खैर कुछ भी होकैसा भी दौर हो गांधी विस्मृत हो सकते हैं पर आप्रासांगिक नहीं...और आप्रासांगिक तो उन्हें ये सरकार ही न होने देगी क्योंकि रोटी से लेके बोटी तक और दवा से लेके दारु तक खरीदने के लिए गांधी की तस्वीरों की ज़रुरत होती है...गाँधी दिलों में रहें न रहें पर नोटों पे हमेशा चस्पा रहेंगे।

बहरहाल, हिन्दुस्तानी सरजमीं पर गांधी के बाद पैदा हुआ सिनेमा आज गांधी से बड़ा शिक्षक और उनसे ज्यादा लोकप्रिय है। गांधी को भी अपनी याद आवाम को दिलाने के लिए सिनेमा का सहारा लेना पड़ता है। अन्याय के खिलाफ गांधी ने आवाज़ बुलंद की थी तो आज ये काम हमारा लोकप्रिय सिनेमा भी कर रहा है। आज सिर्फ सिनेमा ही है जहाँ हम गाँधी के समाजवाद, सर्वधर्मसमभाव, लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और सहनशीलता जैसें सिद्धांतों को देख सकते हैं। सिनेमा ही है जो सही अर्थों में प्रजातांत्रिक सहभागिता को ले आगे बढ़ रहा है अन्यथा ये देश और इस देश का समाज तो जात-पात, भाषा-बोली, अमीर-गरीब और क्षेत्रीयता जैसी कई विसंगतियों में बट गया है। लेकिन सिनेमा आज भी धर्म, वर्ग, पंथ, जाति और क्षेत्र से निरपेक्ष बना हुआ है। न सिर्फ गाँधी के बल्कि मार्क्स और लेनिन के साम्यवादी, समाजवादी जैसे विचारों को भी असल मायनों में सिनेमा साकार कर रहा है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सही फायदा और जिम्मेदारी पूर्ण निर्वहन भी सिनेमा से ही संभव हो पाया है। इन तमाम तथ्यों के बावजूद कुछ चीज़ें हैं जो गाँधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांत से सिनेमा को दूर करती हैं क्योंकि गाँधी की अहिंसा को शब्दों की कारा में बाँध पाना मुमकिन नहीं है और उसकी असल अभिव्यक्ति को पचा पाने का सामर्थ्य वर्तमान समाज में नहीं है। इसी वजह से सिनेमा का रास्ता गांधी से बिल्कुल ज़ुदा हो जाता है। गांधी की अहिंसा आज के सिनेमाई दौर में कायरता का प्रतीक है। 

सफलता का पर्याय माने जाने वाले सौ करोड़ के विशिष्ट क्लब में वही फ़िल्में शुमार होती है जिनमें फ़िल्म का नायक अपनी शर्ट उतार कर बीसों गुंडों को अकेला चित कर देता है। आवाम की ताली, सीटियां और वाहवाही ऐसे ही नायकों का महिमामंडन करती है जो हिंसा का जबाब हिंसा से देता है। ये एक्शन ही इन नायकों को सुपरसितारा बनाता है..और इस हिंसा का बचाव अन्याय के खिलाफ उठने वाला हाथ कहकर किया जाता है या फिर ये जुमले बोले जाते हैं कि अन्याय सहने वाला अन्याय करने वाले से बड़ा होता है। भाई, ये बात बिल्कुल सही है लेकिन अन्याय का प्रतिशोध क्या सिर्फ हिंसा से ही दिया जा सकता है। तो फिर गांधी के प्रतिशोध और लड़ाई को क्या कहा जाएगा जिसने 200 सालों की विदेशी सत्ता के कदम उखाड़ फेंके। कई लोग तो ये भी कहते देखे जाते हैं कि गांधी की अहिंसा से नहीं, क्रांतिकारियों की हिंसा और बलिदान से देश को आजादी मिली। शायद उनकी बात सही हो कि गांधी की अहिंसा से हमें स्वतंत्रता नहीं मिली लेकिन गांधी की अहिंसा ने वो माहौल तैयार किया जिस माहौल में हमें स्वतंत्रता मिली। पर गांधी की इस अहिंसा को समझ पाने के समझ आवाम में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है खासतौर से आज की पिज्जा, वर्गर वाली नवसंस्कृति में।

आज का सिनेमा भीड़ में चल रहे उस अंतिम पंक्ति के अकेले इंसान पर फोकस नहीं करता जो अहिंसा की लाठी थामे पीछे-पीछे चल रहा है उसका फोकस उस हजारों-लाखों की भीड़ पर है जो हाथ में पत्थर थामे आगे बढ़ी जा रही है। अहिंसा भीड़ की समझ से परे की चीज़ है। यदा-कदा कुछ अन्ना और जेपी जैसे आंदोलन सत्याग्रह के नाम पर होते हैं जिनमें भीड़ भी जुड़ती है लेकिन क्या ये आंदोलन गांधी की अहिंसा के तनिक भी करीब है। गांधी की अहिंसा को समझने के लिए मैं कुछ बानगी प्रस्तुत करना चाहुंगा...युं तो आपने ये सारे वाक़्ये सुने होंगें लेकिन इनका भावभासन करने का प्रयास कीजिये। गांधी जो अपने पूर्णत़ः सफलता की ओर बढ़ रहे और अंग्रेजों की नींद हराम कर देने वाले असहयोग आंदोलन को वापस ले लेते हैं क्योंकि गांधी समर्थक चोरा-चौरी के एक पुलिस थाने में आग लगा देते हैं...आज के समय में ऐसा कौन-सा आंदोलन है जो सरकारी संपत्ति को क्षति नहीं पहुंचाता। दांडी यात्रा के दौरान, जबकि लाखों लोग गांधी के पीछे चल सकते थे उस दौरान उन्होंने सिर्फ 78 लोगों को लेकर नमक तोड़ो आंदोलन को अंजाम दिया क्योंकि भीड़ में इतनी क़ाबलियत नहीं थी कि वो गांधी की अहिंसा का निर्वहन कर आंदोलन को पूरा कर पाए। स्वदेशी आंदोलन के दरमियां गांधी ने कहा कि इस चरखे से काते जाने वाले कपड़े से यदि तुम अहिंसा को न समझ पाओ तो उस कपड़े को समंदर में बहा आना। लेकिन क्या आज स्वदेशी का जाप देने वाले भी गांधी की अहिंसा को समझ सकें हैं?

गांधी ने गणेश शंकर विद्यार्थी की मौत के दौरान जिस मौत की कामना की थी  उससे भी हम उनकी अहिंसा की गहराई को समझ सकते हैं उन्होंने कहा था "एक इंसान मेरे सिर पर लाठियों से लगातार प्रहार कर रहा हो, दूसरा तलवार से वार कर रहा हो, तीसरे के हाथ में जूता हो जिसे वो मुझ पर लगातार चला रहा हो तथा चौथा-पांचवा लात, घूंसे बरसा रहा हो तब भी मेरे मन में उनके प्रति विद्वेष न आए और मैं साम्यता के साथ मौत का आलिंगन करुं"...ये बात निश्चित ही वेवकूफों वाली जान पड़ रही है। लेकिन ये उस महापुरुष की चाहना है जिसे हम राष्ट्रपिता कहते हैं। अहिंसक तो कई लोग हो सकते हैं किंतु अहिंसा पर गांधीजी की तरह विश्वास कुछ विरले लोगों को ही हो सकता है। उन्हें अपने सत्य, अहिंसा को लेकर इतना यकीन था कि ये सिद्धांत कभी उन्हें उनकी मंजिल हासिल करने से नहीं रोक सकते।

आज सिनेमा, प्रेम जैसें अति कोमल जज्बातों को हासिल करने के लिए भी हिंसा का सहारा लेता है। 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगेका राज पूरी फ़िल्म में तो एक अहिंसक की तरह प्रस्तुत होता है पर अंत में उसे भी मार-धाड़ का सहारा लेना पड़ता है। 'परदेश' का नायक अपने प्रेम को पाने के लिए अंत में उस परिवार के खिलाफ ही विद्रोह कर देता है जिसने बचपन से उसे सहारा दिया है। 'क़यामत से क़यामत तक' में नायक-नायिका दोनों आत्महत्या कर एक ऐसी हिंसा को अंजाम देते हैं जिसे कतई सही नहीं कहा जा सकता। 'मैनें प्यार किया', 'बॉबी', 'प्रेमरोग' या फिर 'कहो न प्यार है' किसी भी लोकप्रिय प्रेमकथा को देख लें हर जगह विद्रोह है, हिंसा है...जिसका समर्थन हमारा सिनेमा बखूबी करता है...और ये गांधी जी की अहिंसा का '' समझ पाने में भी अशक्य हैं। जब प्रेम को हासिल करने के प्रति हमारे सिनेमा का ये नज़रिया है फिर अधिकारों, बदले की लड़ाई के संदर्भ में क्या कहना...और उसके उदाहरण 'वांटेड', 'सिंघम', 'गज़नी', 'एक था टाइगर' जैसी फिल्मों के रूप में सामने हैं और कुछ हिंसा तो बेबुनियाद ही परदे पर एक्शन के रूप में नज़र आती है जिसे हम दबंग और राउडी राठौड़ जैसी फ़िल्मों में देखते हैं और झूमते भी हैं... इन सब में गांधी कहां है और कहां है उनकी अहिंसा?

ये अहिंसा शायद कुछ गांधीवादी किताबों में नज़र आ जाए पर इसे सिनेमा और समाज में ढूंढ पाना बहुत मुश्किल है पर एक सत्य ये भी है कि सिनेमाई एक्शन को हम यथार्थ के धरातल पर सिद्ध होते नहीं देख सकते पर गांधी की अहिंसा इस धरा पर सिद्ध की जा सकती है। आज के दौर में यदि गांधी होते तो ग्लोबलाइजेशन की मार झेल रही संस्कृति, हमारे सिनेमा और इस औद्योगिकीकरण पर क्या कहते ये विचारणीय है पर इससे भी ज्यादा विचारणीय है कि हम गांधी को और उनकी अहिंसा को लेकर क्या सोचते हैं, क्या कहते हैं।

सिनेमा में गांधी की इस अहिंसा को देखना बेमानी है लेकिन एक सिनेमाई प्रयास का ज़िक्र करना चाहुंगा जिसने गांधी को जिंदा करने का खूबसूरत प्रयास किया था...वो है "लगे रहो मुन्नाभाई"। ये फिल्म उन तमाम दकियानूसी विचारों, अंधविश्वास और सामंतवादी सोच के ऊपर हास्य-वयंग्य की शैली में प्रहार करती है कि लोगों को भी मजबूरन गाँधी के सिद्धांतों पर यकीन करना पड़ता है। दादागीरि के ऊपर गाँधीगिरि की हिम्मत का आकलन हम कर पाते हैं और सत्याग्रह की खूबसूरत बानगी देखने मिलती है।

लेकिन इस समाज की स्मरण शक्ति सद्विचारों और नैतिक मूल्यों के मामले में काफी कमजोर है। यदा-कदा होने वाले कुछ सिनेमाई प्रयासों के चलते, वो एक लहर में बहकर संगत विचारों का कुछ वक्त के लिये अवलंवन तो लेता है पर शीघ्र ही वो वापस अपनी उसी चिरपरिचित पाशविकता की ओर लौट जाता है। जहाँ हिंसा है, असत्य है, लालच, असीमित वासना और भ्रष्टाचार है किंतु न ही गाँधी हैं और न ही है उनका सत्य या फिर अहिंसा। आज सत्याग्रही तो हर कोई बनना चाहता है पर सत्य ग्राही कोई भी नहीं। यही वजह है कि मौजूदा माहौल में गाँधी जयंती महज एक दिन का अवकाश बनकर रह गई है।


Tuesday, September 18, 2012

कुछ "बरफी" के बहाने से........

आनंद जितना ज्यादा अपने चरम पर पहुंच कर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है। ज़िंदगी की कश्मकश भी अजब है जिसमें सुख-दुख का ताना-बाना कुछ इस ढंग से बुना होता है जिसमें समझ पाना मुश्किल होता है कि जिंदगी की खुशियां, गम को मुंह चिड़ा रही हैं या दर्द के साये खुशियों को हराने की जुगत में लगे हैं। दरअसल ख़ुशी या ग़म के पैमाने हमारी नज़र तय करती है यही वजह है कि कई बार दूर से दिखने वाली त्रासदियां करीब से देखने पर हसीन जान पड़ती हैं तो कई बार दूर से दिखने वाली रंगीनियां पास जाने पर त्रासद नज़र आती हैं।

बरफी...हंसाती है, रुलाती है, तड़पाती है तो कई बार अपनी गिरेबान में झांकने पर मजबूर भी करती है। अनुराग बासु की ये डिश उनकी उस छवि से बिल्कुल अलग है जिस फ्लेवर का टेस्ट अनुराग ने हमें उनकी 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' जैसी पिछली फ़िल्मों में चखाया था। 'मेट्रो' बेहतरीन थी पर उसमें चरपरापन था लेकिन फिर भी उसका तीखापन लुभाता है। 'गैंग्सटर' भी लाजबाब थी जिसका कड़वापन मुंह में रखते वक्त तो चुभता है पर गले से नीचे उतरने के बाद स्वाद याद आता है। 'मर्डर' का स्वाद कसायला था जो चखते वक्त और गले से नीचे उतरने के बाद भी रास नहीं आती लेकिन फिर भी इसे बार-बार चखने की क्युरोसिटी बनी रहती है और कई मनचलों ने इसे कई-कई बार चखा है। तो बरफी का टेस्ट पूरी तरह से अलग है जो बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा मीठा है पर फिर भी डायबिटीज़ की संभावना शुन्य है। इस फ़िल्म को देखने के बाद लगता है कि निश्चित ही ये किसी बेहद संवेदनशील और ज़िंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया रखने वाले इंसान की ही कृति हो सकती है...अनुराग की छवि को बदल कर रख देने वाला सिनेमा...बेमिसाल, अद्बुत।

एक गुंगे-बहरे इंसान से जीने की कला सीखी जा सकती है...जिंदगी ने उसके साथ इंसाफ नहीं किया है पर वो जिंदगी के साथ इंसाफ करना जानता है। ये गुंगा बेहद वाचाल है औऱ अत्यधिक तफरीबाज़ भी। एक आम युवा की तरह उजड्डीपन लिए हुए...उसी तरह लंपट, उद्दंड, लडंकीबाज़। ये बहरा वो चीजें सुनता है जो शायद कान वालों को सुनाई नहीं देती। यही वजह है कि ये बड़ी-बड़ी खुशियों के बजाय..छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढता है...उसकी इस खूबसूरत फ़ितरत को बखूब बयां किया है स्वानंद किरकिरे ने-"इत्ती सी ख़ुशी, इत्ती सी हंसी..इत्ता सा टुकड़ा चांद का..."और ये चांद का इत्ता सा टुकड़ा, पूनम के चांद से ज्यादा रोशनी फैलाता है। इस अशक्त पात्र की खुशी को देखने की एक नज़र ये भी हो सकती है कि जिसके जीवन में इतनी बड़ी निशक्तता का दर्द है उसे अब कौन-सी दूसरी चीज़ परेशान कर सकती है।

इसके इसी खिलंदड़पन पर वो लड़की अपना दिल हार बैठती है जिसकी पहले से शादी तय हो चुकी है और उसके जीने का अंदाज बदल गया है। लेकिन जिस समाज में धन-दौलत, धर्म-जाति-वर्ग गत अंतरों के कारण प्यार की अस्वीकृति होती है वहां इतनी बड़ी शारीरिक विकलांगता के भेद कैसे स्वीकार किए जा सकते हैं। लड़की की मां नायक की ख़ामोशी को रिश्ते के ख़ामोश हो जाने की वजह बताती है और उसे एक खुशहाल जिंदगी चुनने की हिदायत देती है। जिस उदाहरण को प्रेम की विचारणा को त्यागने के लिए प्रस्तुत किया जाता है उससे प्रेमिका संतुष्ट भी हो जाती है और जिस खुशहाल ज़िंदगी को चुना जाता है वहां जुवां है, लफ़्ज हैं फिर भी सतत खामोशी है। यहीं लफ़्जों की खामोंशी और ख़ामोशियों के लफ़्ज समझ आते हैं। फ़िल्म के अंत में अपने इस फैसले पर पश्चाताप करते हुए प्रेमिका कहती है जिंदगी में हम खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम देखते है प्यार नहीं पर जहां प्यार होता है वहां खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम खुद ब खुद पीछे चले आते हैं।

कई छोटे-छोटे दृश्य बेमिसाल बन पड़े हैं..फ्रेम दर फ्रेम फ़िल्म गुदगुदाती हुई आगे बढ़ती है पर इस गुदगुदी में कुछ कतरा आंसू की बुंदे अनायास ही शामिल हो जाती है। फ़िल्म का एक छोटा सा नकारात्मक पक्ष फ़िल्म का संपादन है जो फ़िल्म की गति को धीमा करता है। रणवीर और प्रियंका का अभिनय उनके करियर के सर्वोत्तम शिखर पर है। रणवीर ने अपनी सितारा हैसियत का कद काफी उंचा कर लिया है..संवेदना से लबरेज दृश्यों और खिलंदड़ स्वरूप में वे कमाल करते हैं।अपने प्रेमप्रस्ताव को ठुकराए जाने के बाद बारिश में अपनी प्रियतमा के साथ वाले दृश्य में उनकी अदाकारी की संजीदगी देखी जा सकती है... प्रियंका का किरदार चुनौतीपूर्ण है क्योंकि एक मुख्यधारा की सितारा अभिनेत्रियां इस तरह के नॉन-ग्लैमरस् किरदार निभाने से कतराती है पर प्रियंका ने इस किरदार को बखूबी जिया है और खुद को शिखर की नायिका साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इंस्पेकटर के किरदार में सौरभ शुक्ला राहत देते हैं। नई अभिनेत्री इलियाना डिक्रुज़ खुबसूरत लगती हैं और अनुराग ने बड़ा सधा हुआ अभिनय उनसे करवाया है। फ़िल्म का संगीत बेहतरीन है और फिल्म देखते वक्त तो बेहद मधुरतम अहसास पैदा करता है। कुल मिलाकर फ़िल्म को एक क्लासिक दर्जा दिलाने वाले सारे तत्व मौजूद हैं।

खैर, अपनी तरह की एक अद्वितीय फ़िल्म है...गर न देखी हो तो ज़रूर देख कर आईये। भले बहुत कुछ फ़िल्म के बारे में कह दिया है पर ये ऐसी बरफी है जिसका स्वाद जिस ढंग से महसूस होता है उस ढंग से बता पाना मुश्किल है...पर यकीनन इस बरफी का स्वाद काफी बाद तक आपके ज़हन में रहेगा।

Wednesday, September 12, 2012

माय आइडियोलॉजी ऑल थ्रु द लाइफ, व्हाट वे यू कंन्विस....

अंग्रेजी का ये वाक्य मुझे फ़िल्म निर्देशक कबीर ख़ान के हाल ही में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यु के बाद याद आया। हालांकि मेरे अग्रज वरुण सर ने एक बार कबीर ख़ान की फ़िल्म 'एक था टाइगर' के रिलीज के वक्त इस सेंटेंस का ज़िक्र किया था लेकिन तब इसके भाव को मैं उतने अच्छे से नहीं समझ पाया था जितना कि उस इंटरव्यु को पढ़ने के बाद समझ पाया हुं...कबीर ख़ान का कहना था कि कोई इंसान चाहे कितना भी निष्पक्ष क्युं न हो किंतु सबके अपने-अपने पुर्वाग्रह होते हैं और वो अपनी अभिव्यक्ति में इस बात की कोशिश करता है कि सामने वाले को अपनी विचारप्रणाली से प्रभावित कर पाए। गोयाकि 'हम तो भाई जैसे हैं वैसे रहेंगे'।

 बहरहाल, इस वाक्य को यहां उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य कुछ फ़िल्म निर्देशकों की विचारप्रणाली और उनकी फ़िल्मों की पड़ताल करना है। कबीर ख़ान की फ़िल्म 'एक था टाइगर' ब्लॉगबस्टर धमाल मचा चुकी है करोड़ो की बरसात से इसने यशराज कैंप और कबीर ख़ान के चेहरे पे खुशी ला दी है और कुछ खबरिया चैनल इसकी तुलना महान् 'थ्री इडियट्स' से करने की बचकाना हरकत कर रहे हैं जो कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है जैसे कि किसी वैश्या के मुजरे की तुलना शास्त्रीय नृत्यांगना के भरतनाट्यम से की जा रही हो। सफलता का पैमाना नोटों की बरसात को बनाया गया है। दरअसल सलमान की फ़िल्म सिर्फ सलमान की होती है वो किसी निर्देशक या प्रोडक्शन हाउस की फ़िल्म नहीं रह जाती। सलमान की लोकप्रियता का रसायन समझना दिमाग से बाहर की बात है। 

खैर, बात दुसरी करना है पाकिस्तान में 'एक था टाइगर' के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी क्योंकि आईएसआई का जिस ढंग से ज़िक्र किया गया है वो पाकिस्तान को नागवार गुज़रा। ये एक हठवादी फैसला ज़रुर लग सकता है लेकिन भारत को भी इस बात पर आपत्ति होना चाहिए थी कि आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली आईएसआई की तुलना प्रतिष्ठित रॉ से करना कतई ठीक नहीं है। लेकिन अजब-गजब भारत में इस फ़िल्म ने कमाई के नए आयाम स्थापित किए। आईएसआई मुल्ला परस्ती के साये में आतंक और सिर्फ भारत के खिलाफ आतंक फैलाने में सहायक होती है। यह बात कई आतंकियों के पकड़े जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर भी साबित हो चुकी है। किंतु रॉ के बारे में अब तक ये बात साबित नहीं हो पाई है। लेकिन एक आम दर्शक वर्ग जो रॉ और आईएसआई की इन कुंडलियों से बेखबर है वो इस बात को मोटे तौर पे मानने लगा है कि ये दोनों संगठन एक समान हैं।

ऐसा नहीं है कि कबीर ख़ान आईएसआई के समर्थक हैं लेकिन उन्हें ऐतराज रॉ से भी है ये ज़ाहिर होता है। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रेम कहानी की चासनी में डुबोकर इतना भारी डोज़ आम जनता को दिया है और लोगों की धारणा में ये बात कुछ हद तक जम भी गई है। कबीर ख़ान एक पत्रकार और डॉक्युमेंट्री निर्देशक के तौर पर कई सालों तक काम कर चुके हैं कई देशों का भ्रमण किया है और 9/11 के अमेरिकी हमले के बाद का वैश्विक परिदृश्य उन्होंने देखा है तथा मुस्लिम देशों और आवाम के साथ होने वाले सौतेले व्यवहार के प्रति उनके दिल में आक्रोश है। जिस आक्रोश को वो भारतीय परिवेश में ढालकर मीठे गुलगुलों के साथ अपनी फ़िल्मों में प्रदर्शित करते हैं। उनकी पिछली फ़िल्म 'न्युयार्क' में भी हम इस बात की झलक देख सकते हैं जहां पूरी फ़िल्म में वे एक मुस्लिम अमेरिकी प्रवासी द्वारा हमले की योजना और उसके उद्देश्य को महिमामंडित करते रहते हैं तथा अंत में एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी विचारधारा के साथ फ़िल्म को ख़त्म करते हैं। लेकिन वे शायद ये भूल जाते हैं कि अमेरिका का ये कड़ा रवैया दूर से देखने पर भले तानाशाह और सामंतवादी नज़र आए लेकिन उनके इसी रवैये के कारण पिछले ग्यारह सालों में वहां आतंकी हमला, बमविस्फोट तो दूर एक दिवाली का संगोला भी कोई नहीं फोड़ पाया। कबीर की पहली फ़िल्म 'काबुल एक्सप्रेस' एक गुणवत्तापरक, बेहतरीन फ़िल्म थी लेकिन उस फ़िल्म में भी दो पत्रकारों के ज़रिए एक पाकिस्तानी और अफगानिस्तानी के बीच हुए संवाद ये जता रहे थे कि अमेरिकी नीतियां पूरी तरह ग़लत हैं और आतंक को पनाह दे रहे तालिबान पर की जा रही कार्यवाहियां ठीक नहीं हैं। हालांकि जिस प्लॉट पर फ़िल्म विकसित हो रही थी वो बहुत ही जायज़ और इंसानियत के नैतिक मुल्यों को लिए हुए था फिर भी कबीर के पुर्वाग्रहों की झलक हम उनमें देख सकते हैं और खास तौर पर तब वे पुर्वाग्रह और अधिक समझ आते हैं जब लोग 'एक था टाइगर' और 'न्युयार्क' देख चुके हों।

कोई भी निर्देशक या साहित्यकार जब अपनी पहली कृति प्रस्तुत करता है.. तो उसमें समाहित विषयवस्तु प्रथमबार में कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर करने के कारण प्रशंसनीय मानी जाती है.. पर जब आप लगातार वही विचारधारा, उन्हीं पहलुओं को दिखाते हैं तो उनकी आलोचना होना स्वाभाविक हैं...क्योंकि 'वैसा है' ये तो माना जा सकता हैं लेकिन 'सबकुछ सिर्फ वैसा ही है' ये नहीं माना जा सकता। लेकिन निर्देशक अपने इन आग्रहों से बाहर नहीं आ पाते और जब कभी आना चाहते हैं तो वो सिनेमाई पटल पर वह कमाल नहीं दिखा पाते.. जो वो अपने आग्रहों का ट्रीटमेंट कर दिखाते हैं...क्योंकि अपनी विचारधारा से दूसरे को प्रभावित करने की खुशी काम में स्वाभाविकता ला देती है। 

सिर्फ कबीर ख़ान ही क्यों..हम कुछ दूसरे फ़िल्मकारों की फ़िल्मों को भी देख सकते हैं। महान् फिल्मकार बिमल रॉय ने अपनी फ़िल्मों में सदा उस प्रेम को प्रदर्शित किया जो परिस्थितियों को भलीभांति समझ कर, सहज, गैर-पारंपरिक ढंग से पैदा होता था उनकी फ़िल्मों में परिस्थितियां महत्वपूर्ण थी नाकि प्रेम या रिश्ते-नाते...जिसे शायद उन्होंने अपनी ज़िंदगी में अनुभव किया हो। राज-कपूर का अंदाज हमेशा दार्शनिकता लिए होता था...और वे अपनी फ़िल्मों के किरदारों को, प्रेम को, तनावों को, गरीबी को, यहां तक की संभोग को भी किसी दुसरी दुनिया में ले जाकर दार्शनिकता का चोगा पहना देते थे। कई असफल रिश्ते और प्रेम की नाकामयाब पारियां खेलने वाले गुरुदत्त कि हर फ़िल्म बस यही जताती थी कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। उनके दिल में एक टीस थी जिसे वो बखुबी परदे पर प्रस्तुत करते थे। फ़िल्म 'प्यासा' का लेखक हो या 'साहब बीबी और गुलाम' की बहुरानी दोनों एक कसक लिए जी रहे हैं। जिन्हें दुनिया में प्रेम की तलाश है लेकिन जो माहौल उनके ईर्दगिर्द है वहां वो प्रेम, अपनापन नहीं मिल रहा। उनकी इन फ़िल्मों में ही गुरुदत्त की आत्महत्या की वजह तलाशी जा सकती है। श्याम बेनेगल का कैमरा बेवफा पत्नी, वैश्याओं, अपराधी सरगनाओं को यथार्थ मानता है और इसे ही आज की दुनिया के समानांतर महसूस करता है। 'मंडी', 'मंथन', 'भुमिका' देख ये समझा जा सकता है। श्याम बेनेगल का हास्य भी कटु यथार्थ से पैदा होता है और वे 'वेलकम टु सज्जनपुर' और 'वेलडन अब्बा' का निर्माण करते हैं।

पुराने फ़िल्मकारों की बात छोड़ भी दे तो आज के फ़िल्मकारों ने भी अपनी कुछ लीक तय कर रखी है। सूरज बड़जात्या ने अपने घर में शायद हमेशा एक खुशनुमा माहौल देखा होगा इसलिए उन्हें हर तरफ हरा-हरा नज़र आता है। उनकी फ़िल्में रामायणनुमा आदर्श की स्थापना करती देखी जाती है पर वे महाभारतनुमा यथार्थ से कोसों दूर है उनके अपने पूर्वाग्रह है। तो रामगोपाल वर्मा 'सत्या' और 'कंपनी' में स्याह दुनिया दिखा कर कमाल करते हैं और जब कभी सीधी-सपाट प्रेमकहानी बनाने की कोशिश करते हैं तो फिजूल के डिब्बों को जन्म देते हैं। उन्हें अंडरवर्ल्ड के बाद भूत ही नज़र आते हैं सहज, शांत, आदर्श इंसान नहीं। तो ग्लैमर जगत की बखैया उधेड़ने में मधुर भंडारकर का कोई सानी नहीं...उन्होंने बड़े करीब से ग्लैमर वर्ल्ड की हकीकत जानी है तथा मधुर का नाम खुद एक बी ग्रेड फ़िल्म की नायिका के साथ विवादों में रह चुका है जिससे उन्हें इस चाकचिक्य की दुनिया के खासे अनुभव हैं और इसे लेकर अपनी ही एक विचारप्रणाली...यही वजह है कि कार्पोरेट, फैशन, फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर मीडिया जगत तक को वो नंगा कर चुके हैं। यश चोपड़ा और उनके नक्से कदम पर आगे बढ़े आदित्य चोपड़ा और करण जौहर का सिनेमा कश्मीर, स्विटजरलैंड, शिफॉन और करवाचौथ के नाम से मशहूर है ही। जिसकी मुख्य टारगेट ऑडियंस अप्रवासी भारतीय रहा करते हैं। दरअसल न तो सूरज बड़जात्या द्वारा प्रदर्शित हरियाली ही पूर्णतः सत्य है नाही भंडारकर और बेनेगल द्वारा वर्णित सामाजिक बंजरपन। दोनों बस एकदेश सामाजिक यथार्थ को बयां करते हैं।

खैर, इस वर्णन का कोई अंत नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले इस देश में सबको अपने पुर्वाग्रह परोसने का अधिकार है पर ये ध्यान रखना भी ज़रुरी है कि आपके पुर्वाग्रह किसी दूसरे इंसान को आहत न करें..कुछ आचार संहिताएं स्वयं से निर्धारित करने की ज़रुरत है। बात कबीर ख़ान से शुरु हुई थी और हमने इसमें कई निर्दशकों का पोस्टमार्टम कर डाला। वैसे हर निर्देशक की फ़िल्में देखने के मेरे अपने भी कुछ पुर्वाग्रह हैं और ये वर्णन भी उन पूर्वाग्रहों से अछूता नहीं रह सकता। वास्तव में तो हमारी नज़र ही इन पूर्वाग्रहों को सही या ग़लत ठहराती है। शेक्सपियर का एक वाक्य है जिससे अपनी बात ख़त्म करुंगा- "नथिंग इज गुड, नथिंग इस बैड...बट अवर थिंकिंग मेक इट सो"

Wednesday, August 29, 2012

क्या सच में बातों से ज़िंदगी नहीं चलती....???

हिन्दुस्तानी फ़िल्मों, साहित्य और कई बार घरों की चारदीवारी के अंदर भी अक्सर एक संवाद सुनने को मिलता है..."बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। ज़िंदगी अपने आप में ही एक बड़ा संगीन मुद्दा है और ये कैसे चलती है इस प्रश्न का जबाब खोजने में सैंकड़ो दर्शन, धर्म, ग्रंथ, पुराणों का जन्म हो गया...और इन तमाम चीजों से कई तरह के विवादों का ज़न्म हो गया, पर आज तक इस प्रश्न के एक सार्वभौमिक जबाब का जन्म नहीं हो पाया कि ज़िन्दगी कैसे चलती है? 

बहरहाल, भले इस बात का पता न चला हो कि ज़िन्दगी कैसे चलती है पर इस सार्वभौमिक बात को सब ही कहते मिल जाते हैं कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। गर बातें नहीं है तो स्वाभाविक तौर पर ख़ामोशी होगी तो सवाल खड़ा होता है कि क्या ख़ामोशी से ज़िन्दगी चलती है ? जबाब मिलना मुश्किल है। कुछ और जमाने के प्रसिद्ध संवाद है- 'ज़िंदगी तो भैया पैसों से चलती है' या फिर 'प्यार से ज़िंदगी चलती है' या 'रिश्तों का नाम ज़िंदगी है'...सब बड़ा गड्डमगड्ड है। ज़िंदगी...ज़िंदगी...जिंदगी...कमबख़्त एक ऐसा शब्द है ये, जिस शब्द को शुरुआत में या मुख्य केन्द्र में लेकर हजारों शायरियां, गज़लें, कविताएं और फ़िल्मी गीतों का निर्माण हुआ है...इस ब्लॉग जगत पे भी कम से कम सौ-दो सौ ब्लॉग होंगें जिन्होंने अपने ब्लॉग में ज़िंदगी शब्द का इस्तेमाल किया होगा...हर कोई ज़िंदगी की पड़ताल कर रहा है और सब अपनी-अपनी राग आलाप रहे हैं कि ज़िंदगी ऐसे चलती है और ऐसे नहीं चलती है। अपने लेख को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको बता दूं कि मैं अपने इस लेख में ज़िंदगी के संबंध में कोई नई रिसर्च प्रस्तुत करने नहीं जा रहा...दरअसल आज इस शब्द पे एक खुन्नस सी आ रही थी बस इसलिए अपने दिल की भड़ास ज़िंदगी पर...माफ कीजिए ज़िंदगी शब्द पर निकाल रहा हूं।

खैर फिलहाल हमारा मुद्दा है कि क्या बातों से ज़िंदगी नहीं चलती...प्रसिद्ध संचार विशेषज्ञ डेविड बर्लो का कहना है कि मानव अपने जाग्रत समय में से सत्तर फीसदी समय का प्रयोग शाब्दिक संचार के साथ करता है। इसमें वो बोलना-सुनना, पढ़ना-लिखना आदि काम करता है। सीधा सा मतलब है वो अपना समय किसी न किसी तरह बातों के साथ बिताता है और ये सत्तर फीसदी समय तब गिना गया है जबकि इसमें सिर्फ शाब्दिक संचार को शामिल किया गया है गर अशाब्दिक संचार को भी शामिल करें तो ये गणना सौ फीसदी हो जाती है..और दिल में घुमड़ने वाली वे लाखों बचैनियां, कसमसाहटें, परेशानियां, जज़्बात और असंख्यात विचार जो किसी न किसी तरह बातों से ही जन्में है और खुद को शब्द देने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं..उन्हें हम आखिर कैसे बातों से अलग कर सकते है। लेकिन इन बातों को थामें फिर भी जिंदगी चल रही है...और यही ज़िंदगी की सबसे अच्छी बात है कि वो चलती रहती है और शायद यही सबसे बुरी बात भी।

संसद में सैंकड़ो योजनाएं बन रही है, अन्ना हजारे, बाबा रामदेव से लेकर विपक्ष तक सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं..रैलियां निकल रही हैं...बीस चैनलों पर दो सौ बाबा इंसान को मुक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं...लाखों स्कूल-कॉलेज पढ़ा-पढ़ाकर समाज में साक्षर बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं...कई बड़े बिजनस प्रोजेक्ट तैयार हो रहे हैं...एक्टर-क्रिकेटर-स्मगलर सबकी कांफ्रेंस हो रही है..ऑफिस में, घर में, सड़क पर सब जगह मीटिंग्स का दौर चालु है...ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण संरक्षण, से लेकर ग्लोबलाइजेशन जैसी बड़ी-बड़ी समस्याओं से निपटने के सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं..शादी-व्याह, जन्म-मरण और दसियों त्यौहारों का सेलीब्रेशन या कोई न कोई उत्सव हो रहा है..फ़िल्मों, अखबारों, विज्ञापनों, रास्तों पर चस्पा पोस्टरों, किताबों से लेकर शहर के नुक्कड़ो, गांव की चौपालों में कुछ न कुछ प्रसारित, प्रचारित किया जा रहा है....अरे भैया ये सब क्या है ? बातें...बातें...और सिर्फ बातें। और इन सबके साथ कालीन के नीचे छुपी-थकी-हारी, वेवश, फ्रस्टयाई, इगनोर की हुई, बेचारी ज़िंदगी चल रही है।

एक घरेलु हिंसा के खिलाफ विज्ञापन टीवी पर आया करता था जिसके अंत में संदेश दिया जाता था-"चुप्पी तोड़ो"। एक अन्य सेलफोन कंपनी का विज्ञापन था जिसका स्लोगन था- "बात करने से ही बात बनती है" क्यों..आखिर क्यों चुप्पी या ख़ामोशी तोड़ने की बात की जा रही है जबकि बातों से कहां जिंदगी चलती है..?? अक्सर हम दुनिया में ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो चुप है या हालतों, समाजों या रिवाजों ने उन्हें ख़ामोश बना दिया है ऐसे वो तमाम लोग हासिए पर फेंक दिए जाते हैं...नाम-शोहरत, वाहवाहियां उसे ही नसीब हो रही हैं जो बोलना जानता है...वही अपने हक, ज़माने से ले पाता है जिसे कहना आता है...सर्वत्र बोलने वाले ही तो अपना काम निकाल पा रहे हैं या कहें कि तथाकथित 'ढंग की ज़िंदगी' जी पा रहे हैं। फिर क्यों आखिर ये जुमला बोला जाता है कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"।

एक डॉक्टर की दवा से ज्यादा कई बार रोगी को उसके दिए दिलासे काम करते हैं..किसी का साथ निभाने का वादा दिल को कितना संबल देता है..भगवान के दर पर प्रार्थना कर दिल को कितना सुकुन मिलता है...प्यार का इज़हार-इकरार कितना रुमानी होता है...उत्सव के गीत, मुस्काते शब्द, मां की लोरियां, मजाक-मस्ती, दोस्तों के जोक्स ये सब क्या है....महज बातें ही तो है लेकिन ये बातें वो काम कर जाती है जो कि बड़ी-बड़ी चीजें नहीं कर पाती...फिर आखिर कैसे बातों से ज़िंदगी नहीं चलती???

अंत में उपकार फ़िल्म का इक गीत याद आ रहा है-"कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या..कसमें-वादे प्यार-वफा सब, बातें हैं बातों क्या " और तो आप पूरा गाना खुद सुन लीजिएगा, ये सारी 'बातों और ज़िंदगी' का झमेला अपने तो पल्ले नहीं पड़ता। भगवान और इस जमाने के बुद्धिजीवी जाने की ज़िंदगी कैसे चलती है..अपन को तो बस इत्ती-सी बात समझ आती है- ज़िंदगी, ज़िंदगी से चलती है..कभी हंसती है तो कभी रोती...और जो नहीं चलती, वो ज़िंदगी नहीं होती।

Friday, August 17, 2012

इक्कीसवी सदी की नारी और महिलासशक्तिकरण के छलावे

देश की स्वतंत्रता 65 वर्ष की हो चुकी है...काफी कुछ बदला पर कुछ चीजें जस की तस की है। उन्हीं में से एक है आज भी महिलाओं की स्थिति, महिलाओं के प्रति पुरुष की सोच। यकीनन आज के दौर में ये बात करना बड़ा अजीब लगता है जबकि आज जहां महिलाएं अंतरिक्ष में पहुंच रही हैं, ओलंपिक में मेडल जीत रही है, राजनीति और सिविल सर्विसेस में नाम कमा रही हैं।

ये सच हैं कि आज सतीप्रथा, अशिक्षा, बेमेल विवाह जैसे मामले सुनने में नहीं आते। महिलाओं के प्रेम संबंधों, अंतर्जातीय विवाह जैसी चीजों को समाज का कुछ समृद्ध और शिक्षित वर्ग दकियानूस नज़रों से नहीं देखता...लेकिन फ़िर भी पुरुष की तथाकथित मर्दाना सोच आज भी उसे ज़िस्म से ऊपर और यौन संतुष्टि से परे मानने को तैयार नहीं है। निश्चित तौर पर समाज में एक ऐसा भी पुरुष वर्ग है जो महिलाओं को आदर, सम्मान की नज़र से देखता है पर उस वर्ग की तादाद बहुत कम हैं। को-एड एजुकेशन से शिक्षित होती, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती, आगे बढ़ती महिला पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती दिख रही है... लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? क्या सच में आज महिला और पुरुष एक ज़मीन पर खड़े हैं? इन प्रश्नों पर थोड़ी गहराई में जाकर विचार करें तो हमें समझ आए कि महिलासशक्तिकरण शब्द कितना बड़ा छलावा है।

हर दिन बसों, ट्रेनों और अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधनों में अनचाही छूअन से गुज़रती महिला.. कॉलेज, ऑफिस और सड़कों पर महिला के बदन का पोस्टमार्टम करती पुरुष की निगाहें...तीखे, अनचाहे कानों में पड़ते शब्दवाण...अश्लील एसएमएस, कमेंट्स और जोक्स को सहती नारी जब रात में नींद लेने जाती होगी तो उस छुअन, उन निगाहों और शब्दों के सांपों को अपने बदन में लिपटता हुआ महसूस करती होगी...और ये वो सांप है जिसका ज़हर बिना डसे तड़प पैदा करता है।

किसी नौकरी में ऊंचे पद पर आसीन महिला के ऊपर भी उस ऑफिस के निचले दर्जे के कर्मचारी द्विअर्थी जोक्स मारने से परहेज़ नहीं करते..उन पुरुषों की निगाहें अपनी बॉस को भी पहले छद्म निगाहों से देखती है फिर उसे अपना बॉस मानती है। पुरुष मानसिकता आज भी महिला पर शासन जमाने को अपना हक़ समझती है...महिला से स्वयं का शासित होना उसे बर्दाश्त नहीं। 

आज अपने करियर में एक मुकाम बनाने की चाह रखने वाली महिला को किन मानसिक प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता है ये शायद सिर्फ वही जानती है...और अगर अत्यधिक महत्वकांक्षी नारी हो तो उसे दलदल में उतरने से गुरेज़ नहीं। ऊंचे महकमों पे तैनात आला अफसरों की ज़िस्मानी भूख मिटाने का भोजन नारी बनती है...जहां उसे नाम, शोहरत, पैसा सब कुछ तो मिलता है पर नारीत्व ही समाप्त हो जाता है। कुछ महिलासशक्तिकरण के ठेकेदार नारी के इस कृत्य की वकालत करते पाए जाते हैं...उनके द्वारा स्त्री के कई लोगों से संबंध, विवाहेतर संबंध रखना आदि भी उदारवादी नज़रों से देखा जाता है, इसे वे महिला की प्रगतिवादी सोच कहते हैं। आश्चर्य होता है कि चारित्रिक पतन को कैसे महिलासशक्तिकरण का पर्याय माना जा सकता है और ख़ास तौर पर उस देश में जहां दुर्गा, सरस्वती और सीता की पूजा होती है। महिलासशक्तिकरण और महिलाविकास का राग आलापने वाले ये महानुभव..ऐसे विचार प्रगट कर अपनी हवस में आने वाले राह के रोड़ो को साफ करने की मंशा रखते हैं... और इनकी दिली तमन्ना यही होती है कि महिला की सोच इसी तरह तथाकथित प्रगतिवादी बने। गंदगी साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ज़रुरी होता है पर कीचड़ खाकर गंदगी साफ करना समझदारी नहीं है। महिला का सबसे बड़ा गहना उसका चरित्र है उस गहने को बेंचकर महिलासशक्तिकरण पाना, बहुत महंगा सौदा है।

अफसोस, कि भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के जी-तोड़ जतन कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में सब नाकाम है..और इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो रहने ही दो...घर-परिवार के अंदर ही महिला इस पुरुष मानसिकता का शिकार है जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का गला हरक्षण घोंटना पड़ता है। शादी से पहले तक वह परिवार में बोझ है और घर की इज़्जत का जिम्मा भी बेचारी इस अबला पर है और शादी के बाद वो एक भोग्या है और यहां भी घर की इज़्जत की ठेकेदार ये अबला है...पर आश्चर्य, जिस पर घर की इज्जत टिकी है उसकी ही घर में इज्जत नहीं है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध..यथा-भ्रुणहत्या, दहेज, महिलाउत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि।

हमारा सिनेमा, विज्ञापन, अखबार और तमाम मीडिया महिला को एक वस्तु की तरह ही पेश करते हैं..हर जगह नारी लुभाने की एक वस्तु है और मार्केटिंग का अहम् ज़रिया। पुरुष मानसिकता इस क़दर समाज में घुल गई है कि महिला भी आज इस मानसिकता के प्रति सकारात्मक सोच रखने लगी है...उसे खुद के इस्तेमाल होने से गुरेज़ नहीं...और अपने भौंडे प्रदर्शन को वो खुद की तरक्की समझ बैठी है। आज उसके मूंह पे भी पुरुषों की भांति गाली है, जेब में हथियार है, चाल में ऐंठन हैं और ये सारी चीजें उसके लिए महिलासशक्तिकरण का प्रतीक है...पर इन सारी क्रियाओं में नारी कहां है? पुरुष और नारी दोनों का अपना अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व है, अपना ही संसार है और इन दोनों के स्वतंत्र व्यक्तित्व से ही संतुलन है। नारी खुद में पुरुष के गुण समाहित करके अगर सोचे कि वो सशक्त हो गई है तो ये एक भूल है...और वो भी उन गुणों को जो पुरुष में भी होना अच्छा नहीं है। नारी की अस्मिता उसकी कोमलता, शर्म, प्रेम, करुणा, ममता से जानी जाती है इन गुणों का ह्रास होना भला कैसा महिलासशक्तिकरण है। 

खैर, भले एकतरफ महिलासशक्तिकरण के लिए हमारा तंत्र अपनी पीठ थपथपाता रहे..पर आए दिन भंवरीदेवी, गीतिका जैसी महिलाओं के साथ घटी घटनाएं हमारे तंत्र को आइना दिखा देती है...और इन घटनाओं में शुमार हमारे कानून और राजनीति के ठेकेदारों को भी उनकी गिरेबान में झांकने पे मजबूर कर देती है। इन सब चीजों से एक बात समझ में आती है कि महिलासशक्तिकरण, कभी भी महिला की सोच बदलने से नहीं आ सकती...महिलासशक्तिकरण के लिए पुरुष की सोच बदलना ज़रुरी है। ये ठीक उसी तरह है कि अपराध का जड़ से सफाया, पुलिस के कदमों पर नहीं...अपराधीयों के कदमों पर निर्भर है।


Friday, July 13, 2012

ज़िन्दगी, युवामन और टाइमपास



विगत दिनों एक टेलीविज़न कार्यक्रम में युवा अपराध से जुड़ी कहानी देखने को मिली। कहानी के अंत में एक संवाद था..आज का युवा जिंदगी को टाइमपास और टाइमपास को ज़िंदगी समझ रहा है और उस टाइमपास के विकल्प यदि उसके पास न हों तो उसे अवसाद घेर लेता है। बड़ी अजीब बात है कि शिक्षा में आई क्रांति ज़िंदगी के मायने तय नहीं कर पा रही है। भौतिकता का अंधानुसरण उसकी दिशा तय नहीं कर पा रहा है और जिस भी दिशा में आज युवा जा रहा है उसकी सर्वोत्कृष्ठता का राग आलापने में भी वो कोई कसर नहीं छोड़ रहा। लेकिन उसकी वो दिशा न तो उसे संतुष्टि प्रदान करने में सफल हो पा रही है नाहीं अवसाद कम कर पा रही है।

स्वामी विवेकानंद ने तकरीबन 150 वर्ष पहले हमारी शिक्षा व्यवस्था पे जो टिप्पणी की थी वो आज के शिक्षातंत्र पे ज्यादा चरितार्थ हो रही है। उनका कहना था- आज का पढ़ा-लिखा युवा चार बातें सबसे पहले सीखता है...पहली कि उसका बाप दकियानूस है और उसका दादा दिवाना था जो उसकी सोच है वही उत्कृष्ठ है, दूसरी कि हमारे सारे धर्मग्रंथ झूठे और कोरी गप्प हांकने वाले है, तीसरी कि अपने शौक और इच्छाएं ज़रुरी है और उनको पूरा करना ही सुख तथा चौथी कि विकास सिर्फ पश्चिम में ही है और हमारी उन्नति एवं शक्ति का विस्तार भी पाश्चात्य विचारप्रणाली से हो सकता है। इच्छाओं को पूरा करने की ये दौड़ टाइमपास को ज़रुरी बना देती है और ज़िंदगी का मतलब टाइमपास हो जाता है। दरअसल टाइमपास अपने अंदर के भगौड़ेपन का प्रतीक है हम खुद के साथ वक्त नहीं बिता पाते इसलिए किसी साधन का होना हमारे लिए अनिवार्य हो जाता है। विराम का वक्त बरदाश्त नहीं होता, लेकिन हम भूल जाते हैं कि विराम का वक्त विचार का वक्त भी हो सकता है।

तमाम भौतिक चाकचिक्य का बाज़ार हमारे उस आंतरिक भगौड़ेपन को दूर करने के लिए है। उन्नति का पैमाना इन्हीं संसाधनों के विकास से तय किया जाता है जो हमारा टाइमपास कर रहे है। टेलीवज़न पे प्रसारित सैंकड़ो चैनल, हाई-स्पीड इंटरनेट, सोशल नेटवर्किंग साइट्स, मोबाइल फोन, मॉल कल्चर, मल्टीप्लेक्स, कॉम्पलेक्स आदि समस्त चीजें संस्कृति का मैक्डोनाल्डाइजेशन की गवाही दे रही हैं। लेकिन संसाधनों का निरंतर होता ये विकास, तब भी संतुष्टि प्रदान करने में समर्थ नहीं हो पा रहा अपितु हमारी इच्छाओं की आग में घी डालने का ही काम कर रहा है। इस असंतुष्टि का ही नतीजा है कि आज आत्महत्या का प्रतिशत निरंतर बढ़ रहा है और इन आत्महत्या करने वालों की तादाद में 15 से 35 वर्ष के युवा ज्यादा है। हम सोच सकते हैं कि पहले भले हमें इतने संसाधन महरूम नहीं थे, ज़िंदगी अभावों में बसर होती थी, लेकिन लोगों में आत्मबल हुआ करता था जिसके दम पे वो अभावों से लड़ते हुए भी कभी ज़िंदगी का साथ नहीं छोड़ते थे। उनके पास जिजीविषा हुआ करती थी किंतु आज का परिदृष्य सामने है।

स्वामी दयानंद सरस्वती ने संदेश दिया था कि वेदों की ओर लौटो...पर आज के संदर्भ में यदि आप किसी नौजवान को ये उक्ति सुनाने जाएंगे तो यकीनन आप घोर हंसी के पात्र बनेंगें। आज वेदों, पुराणों की बात तो छोड़ ही दीजिए अच्छे साहित्य की तरफ भी रुझान नज़र नहीं आता। जिस तथाकथित साहित्य को पढ़ा जा रहा है वो भी इच्छाओं को हवा देने का काम करता है। जिनकी अहम विषयवस्तु सेक्स हुआ करती है और जिसे प्रेम के नाम पर परोसा जाता है। आधुनिक साहित्य, समाज और सिनेमा नैतिकता और मूल्यों की स्थापना में नाकाम सिद्ध हो रहा है।

ज़िंदगी की सार्थकता गर्लफ्रेंड, पार्टी, पैसा और सेक्स से मानी जाती है। अब इस जीवनशैली में आप कहां सद्विचारों को स्थापित कर सकते हैं और यदि स्थापित करने की कोशिश की गई तो ज़माने में आप एक गई-गुज़री सोच वाले रुढ़िवादी इंसान करार दिए जाएंगें। प्राचीनतम चंद अंधपरंपराओं से लड़ने की गुहार युवा से की गई थी किंतु उसने प्राचीनतम संपूर्ण ज्ञान को ही तिलांजलि दे दी। संतुलित वैज्ञानिक विचारप्रणाली अपनाने की मांग युवा से की गई थी किंतु उसने प्रत्यक्षवाद की आड़ में संपूर्ण आत्मिक भावनओं का ही दमन कर दिया।

बहरहाल, कहाँ तक कथन करुं...पहले भी अपने दो लेख जोश-जुनून-जज़्बात और जवानी तथा उद्दंड जवानी, दहकते शोले और बाढ़ का उफनता पानी में काफी कुछ कह चुका हूं। इस संबंध में कुछ कहता हूं तो अपने ही मित्रों और संबंधियों की नज़रों में दकियानूस साबित हो जाता हूं। दिल की भड़ास पन्नों पर और ब्लॉग पे निकालकर संतुष्ट हो जाता हूं अन्यथा ज़माना मुझे ये सब कहने की इज़ाजत और मोहलत नहीं देता........

Tuesday, May 29, 2012

प्रताड़ित होने से बेहतर पराजित होना : सत्यमेव जयते


बचपन से ये सीख सुनता आ रहा हूँ कि सच प्रताड़ित तो हो सकता है पर पराजित नहीं..और इसी बात पे यकीन रखते हुए कठिन विपदाओं में भी सच का आँचल नहीं छोड़ता...लेकिन कई बार वर्तमान दौर की प्रताड़नायें बर्दाश्त के बाहर हो जाती है तब ये आँचल भले न छूटे, पर उस आँचल पे अपनी पकड़ ढीली होती हुयी जरुर महसूस करता हूँ...तब भी एक विश्वास के साथ किसी न किसी तरह थामे रहता हू उस दामन को..ये सोचकर कि कोई तो होगा जो इन प्रताडनाऑ में साथ देने आएगा, पर नहीं...मूल्यविहीनता के इस दौर में साथ तो दूर कोई उस राह पे बढते रहने के लिए हौसला-अफजाई भी नहीं करता...जो आवाजें आती है वो यही कहती है...समय के साथ चलो...और ये वक़्त सच के चीरहरण का है ये वक़्त सत्य को पैरों तले कुचलने का है...ये वक़्त निजी स्वार्थों में सच को अनदेखा करने का है...तब ये दिल भी कह उठता है कि साला प्रताड़ित होने से बेहतर तो पराजित होना है!

डार्विन का survival of fittest (शक्तिशाली ही जियेंगे, बाकि हासिये पे फेंक दिए जायेंगे) का सिद्धांत भी इसी ओर इशारा करता है कि भैया शक्ति का संचार अपने अंदर करो और ताकतवरों की ही संगत करो...अपने अंदर शक्ति का उत्सर्जन कर ही आप इस दौर में ज़माने से कदमताल मिलाकर आगे बढ़ पाओगे...लेकिन उस शक्ति के लिए हमें भ्रष्टता की संगत करनी होगी, मूल्यविहीनता का आलिंगन करना होगा, ज़माने के हितों से आँखें मूंद कर स्वार्थी होना होगा...क्योंकि वर्तमान दौर की शक्ति इन्ही सब चीजों में निहित है...और भ्रष्टता के पुजारी ही फल-फूल रहे है...चुनाव आपके हाथ में है..एक तरफ चौंधिया देने वाली भौतिक समृद्धि तो एक ओर फटे हुए सच का दामन थामे अकेले खड़े आप...

बात सच के साथ आमिर के बहुचर्चित शो सत्यमेव जयते’’ की भी करनी है...बहुत पहले से इस बारे में कुछ लिखने का सोच रहा हूँ...पर आमिर खान का हॉट फेनहोने के कारण सोचा कि अभी यदि कुछ लिखा तो आमिर के पक्षव्यामोह से ग्रसित होने के कारण संतुलित लेख न लिख पाउँगा...और लेखन में अतिरेक हो जाने का भय बना रहेगा... किन्तु अब चार एपिसोड बीत जाने के बाद भी मुझे यही लग रहा है कि लेखन अतिरेक पूर्ण ही होगा क्योंकि भले इस शो की आलोचना के स्वर भी सुनाई दे रहे हैं...पर मैं शो के उद्देश्य, और विषय-चयन को महान मानते हुए आमिर का और अधिक कद्रदान हो गया हूँ.....

भ्रूण-हत्या, बालयौन-शोषण, दहेज और चिकित्सातंत्र में व्याप्त भ्रष्टाचार को अब तक के चार एपिसोड में प्रस्तुत किया गया है...इन्हें देख कई बार रगों में खून तेज हो जाता है तो कई बार कमबख्त पानी बनकर आँखों से झर भी जाता है...माथे पे सलवटें आ जाती है...तो कई बार शर्म भी कि हम इस माहौल में जी रहे हैं...सच की कड़वाहट गले की नीचे उतरते हुए बहुत तड़पाती है...दिल दिमाग से सवाल पूछता है कि कैसे इंसान इतना बहसी और संवेदनशून्य हो सकता है?

भौतिकता की आस, असीमित इच्छाएं और स्वार्थ अपराधों को जन्म दे रही हैं पर उन अपराधों का रूप इतना भयावह है कि दिल परेशान हो उठता है..हर इंसान अपराधी जान पड़ता है...अपने रिश्ते-नातेदार और करीबी दोस्त भी संदिग्ध निगाहों से देखे जाने लगते हैं...हद इस बात की नहीं कि ये अपराध हो रहे हैं...हद तो तब होती है कि अपराध चौराहों पे नहीं घरों में ही हो रहे हैं...घर में ही हत्या, घरों में ही बलात्कार और घरों के अंदर ही लूट हो रही है...और ये हत्यारे, बलात्कारी और लुटेरे कोई असभ्य, अशिक्षित समाज के नहीं बल्कि सभ्य, सुसंस्कृत, सुशिक्षित समाज का प्रतिनिधित्व करते हैं...और घर के बाहर इनकी अपनी अलग चमक है, सम्मान है...गोयाकि घर के बाहर चमकीला डिस्टेम्पर है और अंदर की दीवारें उधड़ रही है..ब्रांडेड कमीज के अंदर फटी बनियान है... इंसान का चेहरा उसकी फितरत बयां नहीं कर रहा...चेहरे पे सभ्यता का मुखौटा और दिल में हवस का सांप लहरा रहा है....

आमिर का ये प्रयास सराहनीय है...हालाँकि कुछ लोग इसे उनकी व्यावसायिक बुद्धि मानते है और सिर्फ पैसा कमाना ही एक मात्र उद्देश्य कहते हैं...व्यावसायिकता का होना बुरा नहीं है किन्तु आप उस व्यावसायिकता के जरिये यदि सामाजिक सरोकार का भी कुछ काम कर पाए तो वो उत्तम ही है...सिर्फ धंधा करना और सामाजिक जिम्मेदारी को निभाते हुए बिजनेस करने में फर्क होता है...पैसा कमाना बुरा नहीं है पर आप उस पैसे को कमाने का जरिया किसे बनाते हो ये आपके दृष्टिकोण का परिचायक होता है...शाहरुख खान की आईपीएल वाली टीम भी पैसा कमा रही है और आमिर का सत्यमेव जयते भी..पर दोनों कमाई में फर्क तो है न..और फर्क दोनों के नजरिये में भी है....एक अखवार के संपादक ने कहा था कि सत्यमेव जयते जैसा शो न्यूज चैनल के ४ इंटर्न ही बना सकते हैं...शायद वो सही कह रहे हों..पर क्या वो न्यूज चैनल वाले इतनी व्यापकता दे पाते अपने शो को...शायद नहीं...तो भले आमिर की लोकप्रियता ही इस शो को चर्चित बना रही हो...पर प्रशंसनीय तो ये भी है न कि उन्होंने अपनी लोकप्रियता का प्रयोग किस दिशा में किया...सोनी टीवी पे प्रसारित शो क्राइम पेट्रोल भी उम्दा प्रयास है..किन्तु उसका कथ्य कुछ अलग है.....

खैर, इस शो में दिखने वाले कड़वे सच एक बात और बयां करते हैं कि इन सारे अपराधों के पीछे कहीं न कहीं हमारी कमजोर बुनियाद भी जिम्मेदार है...जो हमें अपने परिवार से और प्रारंभिक शिक्षा से मिलती है...बच्चों को बचपन से ही महत्वाकांक्षाऑ का पाठ पढाया जाता है...नाम,पैसा,शोहरत कमाने के लिए ही जीवन है ऐसे उपदेश मिलते हैं...और यही चीज उन्हें अपनी शिक्षा पद्धति से सीखने को मिलती है...पर इन महत्वाकांक्षाऑ में नैतिकता और सामाजिक मूल्य हासिये पे फेंक दिए जाते हैं...गांधीजी कहते थे कि शिक्षा की बुनियाद चरित्र होना चाहिए, बाकि चीजें तो बच्चे अपनी प्रतिभा और माहौल से स्वतः सीख लेंगे...किन्तु शिक्षा ने उस बुनियाद को ही मजबूत बनाने की कोशिश नहीं की..इससे न तो चरित्र विकसित हो पाया नाही दृष्टिकोण व्यापक बन पाया!

बहरहाल, इस शो में नकारात्मकता के साथ कुछ सकारात्मक पहलु भी उजागर किये जाते है पर वो बहुत थोड़े है...और बरबाद होते इस समाज को आबाद करने में नाकाफी हैं...किन्तु वो सकारात्मक प्रयास राहत देते हैं...और कभी तो सवेरा होगाकी उम्मीद जागते हैं...इन छुटमुट सी रोशनियों का सहारा लेकर हमें भी सच का साथ देना है...और सच को जिन्दा रखने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास करते रहना है...सच पे से विश्वास खो देना कभी समस्या का समाधान नही हो सकता...भले इस डगर में आप अकेले हों लेकिन फिर भी आपको सच का दिया लेके इस घनघोर दुनिया के जंगल में अपने-अपने स्तर पे रोशनी बिखेरते रहना है...आपकी ये रोशनी कभी न कभी, किसी न किसी वन में भटके पथिक की जिंदगी में उजियारा जरुर लाएगी............