आनंद जितना ज्यादा अपने चरम पर पहुंच कर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है। ज़िंदगी की कश्मकश भी अजब है जिसमें सुख-दुख का ताना-बाना कुछ इस ढंग से बुना होता है जिसमें समझ पाना मुश्किल होता है कि जिंदगी की खुशियां, गम को मुंह चिड़ा रही हैं या दर्द के साये खुशियों को हराने की जुगत में लगे हैं। दरअसल ख़ुशी या ग़म के पैमाने हमारी नज़र तय करती है यही वजह है कि कई बार दूर से दिखने वाली त्रासदियां करीब से देखने पर हसीन जान पड़ती हैं तो कई बार दूर से दिखने वाली रंगीनियां पास जाने पर त्रासद नज़र आती हैं।
बरफी...हंसाती है, रुलाती है, तड़पाती है तो कई बार अपनी गिरेबान में झांकने पर मजबूर भी करती है। अनुराग बासु की ये डिश उनकी उस छवि से बिल्कुल अलग है जिस फ्लेवर का टेस्ट अनुराग ने हमें उनकी 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' जैसी पिछली फ़िल्मों में चखाया था। 'मेट्रो' बेहतरीन थी पर उसमें चरपरापन था लेकिन फिर भी उसका तीखापन लुभाता है। 'गैंग्सटर' भी लाजबाब थी जिसका कड़वापन मुंह में रखते वक्त तो चुभता है पर गले से नीचे उतरने के बाद स्वाद याद आता है। 'मर्डर' का स्वाद कसायला था जो चखते वक्त और गले से नीचे उतरने के बाद भी रास नहीं आती लेकिन फिर भी इसे बार-बार चखने की क्युरोसिटी बनी रहती है और कई मनचलों ने इसे कई-कई बार चखा है। तो बरफी का टेस्ट पूरी तरह से अलग है जो बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा मीठा है पर फिर भी डायबिटीज़ की संभावना शुन्य है। इस फ़िल्म को देखने के बाद लगता है कि निश्चित ही ये किसी बेहद संवेदनशील और ज़िंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया रखने वाले इंसान की ही कृति हो सकती है...अनुराग की छवि को बदल कर रख देने वाला सिनेमा...बेमिसाल, अद्बुत।
एक गुंगे-बहरे इंसान से जीने की कला सीखी जा सकती है...जिंदगी ने उसके साथ इंसाफ नहीं किया है पर वो जिंदगी के साथ इंसाफ करना जानता है। ये गुंगा बेहद वाचाल है औऱ अत्यधिक तफरीबाज़ भी। एक आम युवा की तरह उजड्डीपन लिए हुए...उसी तरह लंपट, उद्दंड, लडंकीबाज़। ये बहरा वो चीजें सुनता है जो शायद कान वालों को सुनाई नहीं देती। यही वजह है कि ये बड़ी-बड़ी खुशियों के बजाय..छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढता है...उसकी इस खूबसूरत फ़ितरत को बखूब बयां किया है स्वानंद किरकिरे ने-"इत्ती सी ख़ुशी, इत्ती सी हंसी..इत्ता सा टुकड़ा चांद का..."और ये चांद का इत्ता सा टुकड़ा, पूनम के चांद से ज्यादा रोशनी फैलाता है। इस अशक्त पात्र की खुशी को देखने की एक नज़र ये भी हो सकती है कि जिसके जीवन में इतनी बड़ी निशक्तता का दर्द है उसे अब कौन-सी दूसरी चीज़ परेशान कर सकती है।
इसके इसी खिलंदड़पन पर वो लड़की अपना दिल हार बैठती है जिसकी पहले से शादी तय हो चुकी है और उसके जीने का अंदाज बदल गया है। लेकिन जिस समाज में धन-दौलत, धर्म-जाति-वर्ग गत अंतरों के कारण प्यार की अस्वीकृति होती है वहां इतनी बड़ी शारीरिक विकलांगता के भेद कैसे स्वीकार किए जा सकते हैं। लड़की की मां नायक की ख़ामोशी को रिश्ते के ख़ामोश हो जाने की वजह बताती है और उसे एक खुशहाल जिंदगी चुनने की हिदायत देती है। जिस उदाहरण को प्रेम की विचारणा को त्यागने के लिए प्रस्तुत किया जाता है उससे प्रेमिका संतुष्ट भी हो जाती है और जिस खुशहाल ज़िंदगी को चुना जाता है वहां जुवां है, लफ़्ज हैं फिर भी सतत खामोशी है। यहीं लफ़्जों की खामोंशी और ख़ामोशियों के लफ़्ज समझ आते हैं। फ़िल्म के अंत में अपने इस फैसले पर पश्चाताप करते हुए प्रेमिका कहती है जिंदगी में हम खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम देखते है प्यार नहीं पर जहां प्यार होता है वहां खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम खुद ब खुद पीछे चले आते हैं।
कई छोटे-छोटे दृश्य बेमिसाल बन पड़े हैं..फ्रेम दर फ्रेम फ़िल्म गुदगुदाती हुई आगे बढ़ती है पर इस गुदगुदी में कुछ कतरा आंसू की बुंदे अनायास ही शामिल हो जाती है। फ़िल्म का एक छोटा सा नकारात्मक पक्ष फ़िल्म का संपादन है जो फ़िल्म की गति को धीमा करता है। रणवीर और प्रियंका का अभिनय उनके करियर के सर्वोत्तम शिखर पर है। रणवीर ने अपनी सितारा हैसियत का कद काफी उंचा कर लिया है..संवेदना से लबरेज दृश्यों और खिलंदड़ स्वरूप में वे कमाल करते हैं।अपने प्रेमप्रस्ताव को ठुकराए जाने के बाद बारिश में अपनी प्रियतमा के साथ वाले दृश्य में उनकी अदाकारी की संजीदगी देखी जा सकती है... प्रियंका का किरदार चुनौतीपूर्ण है क्योंकि एक मुख्यधारा की सितारा अभिनेत्रियां इस तरह के नॉन-ग्लैमरस् किरदार निभाने से कतराती है पर प्रियंका ने इस किरदार को बखूबी जिया है और खुद को शिखर की नायिका साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इंस्पेकटर के किरदार में सौरभ शुक्ला राहत देते हैं। नई अभिनेत्री इलियाना डिक्रुज़ खुबसूरत लगती हैं और अनुराग ने बड़ा सधा हुआ अभिनय उनसे करवाया है। फ़िल्म का संगीत बेहतरीन है और फिल्म देखते वक्त तो बेहद मधुरतम अहसास पैदा करता है। कुल मिलाकर फ़िल्म को एक क्लासिक दर्जा दिलाने वाले सारे तत्व मौजूद हैं।
खैर, अपनी तरह की एक अद्वितीय फ़िल्म है...गर न देखी हो तो ज़रूर देख कर आईये। भले बहुत कुछ फ़िल्म के बारे में कह दिया है पर ये ऐसी बरफी है जिसका स्वाद जिस ढंग से महसूस होता है उस ढंग से बता पाना मुश्किल है...पर यकीनन इस बरफी का स्वाद काफी बाद तक आपके ज़हन में रहेगा।
आवारगी पर्दे पर भी प्रभावित करती है।
ReplyDeleteफिल्म मैंने देखी है,,,,यकीनन कई द्रश्य मन को प्रभावित करते है,,,
ReplyDeleteRECENT P0ST ,,,,, फिर मिलने का