Thursday, February 16, 2012

प्रेम-दिवस है,प्रेम-मास है,प्रेम-ग्रन्थ है,प्रेम-रोग है....पर प्रेम कहाँ है?


खाली बगीचे से मन
हाथों में सुर्ख गुच्छे
संकीर्ण दिलों के बीच
बड़ा सा दिल बने तकिये
महंगे स्वाद हीन पकवान.
और
खाली होती जेबों के मध्य
दिवस तो मन रहा है
पर
प्रेम नदारद है....

शिखा वार्ष्णेयजी की ये कविता कम शब्दों में बड़ी गहरी बात बयां करती है...प्रेम की एक दिवसीय संस्कृति(वेलेनटाइन डे) को सेलीब्रेट कर बाज़ार होली की तैयारी में मशरूफ हो गया है...बाजारवाद के साये में भावनायें भी बाजारू हो गयी है...गोयाकि उत्सवी रौनक इंसानी चेहरों पे कम, बाज़ार में ज्यादा नजर आती है...आधुनिक पीढ़ी की प्रेम की परिभाषा महज शारीरिक मोहपाश से ज्यादा कुछ नहीं है...दिलों का मेल बस बातों में हैं..दिल की सतह तो बंजर है, उसमे भला कहाँ प्रेम का बीज पनप सकता है। आर्चीज के का‌र्ड्स, गुलाब के फूलों का संसार, होटल, रेस्तरां, पब यहां तक कि सार्वजनिक स्थान भी अब प्रेम के बाजार की कहानी स्वत: ही बयां कर रहे हैं... लेकिन इस कहानी में अहसास नज़र नहीं आता।

14 फरवरी के साथ सीधे तौर पर एक मान्यता यह जुड़ी है कि वेलेंटाइन नामक पादरी को उस समय के यूनानी शासक क्लाउडियस ने ईसा के मत के प्रचार के अपराध में जेल में डाल दिया और इस दिन उसे मृत्युदंड देते हुए उसका सिर धड़ से अलग कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि जिस दिन उसे मौत के घाट उतरा गया उसी रात उसकी मृत्यु से पहले उसने जेलर की बेटी को अलविदा कहते हुए पत्र लिखा था, जिसके अंत में उसने लिखा था तुम्हारा वेलेंटाइन। तभी से दंडित किए गए सेंट वेलेंटाइन के मार्मिक और अपूर्ण प्रेम की स्मृति में यह दिवस मनाया जाता है। लेकिन ये दिन कहीं भी हमारी संस्कृति से मेल नहीं खाता..और जिस तरह का सेलिब्रेशन इस दरमियाँ बयां होता है वो तो कतई हमारा अपना नहीं है...भारतीय प्रेम में नज़ाक़त, नफासत और प्रबल सरसता की त्रिवेणी का वास है...जो नितांत व्यक्तिगत मधुर अनुभूति है..जिसमे प्रदर्शन की कोई गुंजाइश नहीं है। लेकिन नवसंस्कृति का प्रेम उत्कट छद्म-प्रदर्शन, अय्याशी, शोर-शराबे और अभद्र कलेवर से लिप्त है जिसमे भावमयी संकल्पना का पूर्णतः आभाव है।

भारतीय परंपरा में यूँ तो हर उत्सव प्रेम और वात्सल्य से लवरेज होता है किन्तु इसकी अभिव्यक्ति का दिवस बसंत-पंचमी को माना जाता है...आज शायद ये पता भी न रहता हो कि कब ये दिन आया और गया...हमारी सारी तैयारियां वेलेनटाइन डे के लिए ही होती है...हर तरफ जो माहौल निर्मित किया जाता है वो भी इस दिन के लिए ही होता है...टेलीविजन पे भी हम धारावाहिकों में पूरे हफ्ते इस दिन को मनते देख सकते हैं...बाज़ार की ताकतें हमारी मानसिकता का रुख भी उस तरफ मोड़ देती है जिससे उन्हें फायदा मिलता हो..बेचारा गुलाब का फूल भी इन दिनों महंगा हो जाता है।

वास्तव में वेलेनटाइन डे की भावना में दोष नहीं है...दोष तो केवल एक दिवसीय मदनोत्सव की संस्कृति में है, जो सारी वर्जनाओं को ध्वस्त करके बाजार की संस्कृति का हिस्सा बनकर आक्रामक स्वरूप अपना रही है। दोष है युवाओं की सोच में, जो प्रेम सिर्फ शारीरिक आकर्षण एवं यौवन की आकांक्षाओं में देखता है। प्रेम को आखिर कैसे किसी दिन में या महीने में बांधा जा सकता है..क्या सिर्फ प्यार की जिम्मेदारी इतनी है कि ग्रीटिंग कार्डस या उपहार दे दिए जाये..क्या महज इस बात का प्यार पे असर पड़ता है कि किसने सबसे पहले अपने साथी को वेलेनटाइन विश किया था। सब कुछ बड़ा निराला है...प्यार की कसमें है, प्यार के किस्से हैं, प्यार की शायरी, प्यार की डायरी है...पर प्यार जाने कहाँ है। इस बारे में काफी कुछ मैं अपने इसी ब्लॉग पे प्रकाशित लेख "प्रेम-फिजिक्स, कैमिस्ट्री, फिलोसफी या कुछ और.." में कह दिया है...यहाँ वो सब कहना अभीष्ट नहीं समझता।

बहरहाल, दिखावे से भरे संसार में प्यार का कालीन के नीचे तड़पना दर्द देता है...संभवतः प्रेम आज शायद महज साहित्य के पन्नो में सिमट कर रह गया है..प्रेमी-प्रेमिका के आदर्श प्रेम की बात तो दूर आज की नव-संस्कृति में माँ-बाप, भाई-बहिन..जैसे पारिवारिक प्रेम के दर्शन भी दुर्लभ हो गये है। हर प्रेमी के पास एक स्टेपनी है..कि एक के साथ प्रेम ख़त्म, तो बेक-अप के लिए दूसरी प्रेमिका तैयार है। भौतिक विकास के युग में सड़कें तो चौड़ी हो रही हैं पर दिल संकरे हो रहे है...बंगलो और अपार्टमेन्ट की लम्बाई तो बढ़ रही है पर फैमिली का आकार घट रहा है...और सिकुड़ता दिल, लुप्त होती संवेदनाएं भला कैसे प्यार करें।

वर्तमान हालात देख लगता है कि एक दिवसीय उत्सव सेलिब्रेट करने वाली ये संस्कृति वेलेंटाइन, मदर्स,फादर्स,फ्रेंडशिप डे के बाद शायद एक ऐसा दिन भी ईजाद करें..जब प्रेम के लिए रखा जाएगा दो मिनट का मौन.........