Wednesday, March 7, 2012

भ्रष्ट-तंत्र, बागी-चम्बल और पान सिंह तोमर


फ़िल्मकार तिग्मांशु धुलिया की कमाल की फिल्म 'पान सिंह तोमर' देखी। अंतरराष्ट्रीय पदकविजेता धावक से बागी बने पान सिंह तोमर की ये कहानी हमारे तंत्र को आइना दिखाती है..और बताती है कि किस तरह इस देश में राजनीति और व्यवस्था के तवे पे स्वार्थ की रोटी तंत्र सेंकता है...जिससे मजबूरन एक राष्ट्रीय प्रतिभा को अपने हाथ में बंदूक उठाना पड़ता है।

फिल्म की शुरुआत में ही एक गजब का संवाद है..जब पत्रकार द्वारा पानसिंह से पूछा जाता है कि आप कैसे एक धावक से डकैत बने...जिसपे पानसिंह का जबाव कि ''डकैत नहीं, बागी..डकैत तो देश की संसद में बैठते है"। चम्बल कि पृष्ठभूमि पे निर्मित इस फिल्म का समग्र प्रभाव कुछ ऐसा है..कि फिल्म देखने के बाद भी आप खुद को इससे अलग नहीं कर पाते। अपनी व्यवस्था और तंत्र पे मन में रोष उठता है...पानसिंह की मज़बूरी खुद की मज़बूरी लगने लगती है...और दिल में एक उमंग ऐसी भी जगती है कि पानसिंह हमें भी बंदूक थमा के अपनी गेंग में शामिल कर ले।

फिल्म में निर्देशक के कैमरे ने चम्बल के बीहड़ को प्रभावकारी ढंग से प्रस्तुत किया है पर चम्बल के बीहड़ से ज्यादा प्रभावकारी चित्रण उस बीहड़ का है जो हमारे तंत्र में पसरा हुआ है...जहाँ पढ़े-लिखे तथाकथित सभ्य लोगो द्वारा गरीब-अनपढ़ लोगों की मजबूरियों का जनाज़ा निकला जाता है। साथ ही फ़िल्मकार ने ठेठ-गंवारू बाहुबलीय सोच को भी उजागर किया है..जहाँ बन्दूक चलाने, रौब झाड़ने, जोर आजमाने को ही पुरुषार्थ समझा जाता है...जहाँ प्रशासन की औकात अपनी रखैल से ज्यादा नहीं है।

पानसिंह इन दोनों ही पाट के बीच पिस रहा है..जहाँ उसका चचेरा भाई बन्दूक की नोक पे उसकी सारी ज़मीन हथियाए हुए है और प्रशासन उसकी मज़बूरी पे आँख मूंदे हुए है। ज़मीन की जद्दोजहद में उसकी माँ को मार दिया जाता है, बेटे को पीट-पीट के अधमरा कर दिया जाता है, उसे अपना घरबार छोड़ना पड़ता है...और अपनी इन परेशानियों को लेकर जब वो सिस्टम का दरवाजा खटखटाता है तो उससे उसके पदकविजेता होने का सबूत माँगा जाता है। उन पदकों को जमीन में फेंक दिया जाता है।

फ्रेम दर फ्रेम जैसे-जैसे फिल्म आगे बढती है..कदम-कदम पे सिस्टम के द्वारा एक नागरिक की राष्ट्रीय भावना, उसका प्रशासन के प्रति सम्मान को कुचलते हुए हम देखते हैं। जब इस कदर अपने ही तंत्र द्वारा उसका दमन होता है..तो आखिर उसे भी अपने हाथ में बंदूक उठाना पड़ती है। एक बेहद सीधे-सादे इन्सान को क़त्ल, अपहरण, लूट जैसे अपराध करने पे मजबूर होना पड़ता है...जो इन सबसे पहले तक ये कहता था कि 'हिंसा से कुछ हासिल नहीं होगा'..जो देश के लिए अपनी जान देने तक को तैयार था...जिसे अपने काम के लिए किसी के सामने झुकने, पैर पड़ने से भी गुरेज नहीं था..जो हर काम कानून के दायरे में ही करना चाहता था। एक ऐसे नागरिक को बागी बनने में, कानून तोड़ने को मजबूर करने में हमारे सिस्टम का ही हाथ है...ये फिल्म हमारे तंत्र को अपनी गिरेबान में झाँकने पे मजबूर करती है। पान सिंह तोमर से लेकर फूलन देवी तक सबके हाथ में बन्दूक थमाने में कहीं न कहीं हमारे सिस्टम का ही हाथ है...चम्बल के पानी को यूँही दोष दिया जाता है।

बहरहाल, एक बेहद कसी हुई, सार्थक फिल्म का निर्माण धुलिया ने किया है..जिसे इरफ़ान खान के अद्भुत अभिनय ने बेजोड़ बना दिया है..इरफ़ान ने अपनी अदाकारी से पानसिंह तोमर को जिया है। फिल्म के संवाद कमाल के हैं जो दर्शक को भी भिंड-मुरैना में होने का अहसास कराते हैं। गीत-संगीत के लिए फिल्म में कोई जगह नहीं है..जो इक्का-दुक्का गीत है वो भी पार्श्व में सुनाई देते है और कथा के भाव को ही दर्शाते हैं। सेट डिसाइन और कास्ट्यूम पे अच्छा काम किया है..जो फिल्म को यथार्थ का रूप देने का काम करते हैं..ड्रेस का ही कमाल है कि मूलतः पंजाब की माही गिल और राजस्थान के इरफ़ान खान ऐसे जान पड़ते हैं मानो उनकी रगों में चम्बल का पानी बहता हो।

अग्निपथ जैसी कमर्शियल फिल्म की सक्सेस के बाद एक यथार्थपरक सिनेमा का निर्माण और दर्शकों द्वारा इसे पसंद किया जाना सुखद अहसास देता है। इस तरह की फिल्मों की सफलता ही..बालीवुड को मसालेदार व्यावसायिक सिनेमा के इतर सार्थक फ़िल्में रचने की उर्जा प्रदान करती है..........

Sunday, March 4, 2012

छद्म धार्मिकता, नास्तिक वैज्ञानिकता और अनुभूत अध्यात्म


अरस्तु, शेलिंग फिकटे, हीगेल, शापेन्हार, वर्डस्वर्थ, ग्राण्ड जैसे पाश्चात्य दार्शनिको-विद्वानों से लेकर कन्फ्युशियास और भारतीय चिन्तक चार्वाक तक प्रत्यक्षवाद, धर्म, अध्यात्म, ईश्वर अस्तित्व को लेकर काफी विमर्श हुआ, जो आज भी होता है। लेकिन विद्वत्ता की सारी पराकाष्ठा अध्यात्म की तह तक पहुंचने में थक जाती है और परिणाम-स्वरूप विद्वत जनों द्वारा ईश्वर, अध्यात्म, पुण्य-पाप जैसी बातों को सिरे से नकार दिया जाता है। प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत ने सारी बौद्धिकता को भौतिक स्तर पर ही खर्च कर दिया..और उन विषयों को रूढ़ीवाद का नाम दे दिया जो तर्क के परे है या आँखों द्वारा अदृष्ट है। ऐसे में उन सारी अनुभूतियों को तिलांजलि दे दी गयी जो तर्क का विषय नहीं है..ये जाने वगेर कि अनुभव को किसी प्रमाण या तर्क की मोहताजगी नहीं होती।

यथार्थ अनुभूत धर्म जब कहीं नज़र नहीं आया तो धर्म को बदनाम करने में भी विद्वानों ने कसर नहीं छोड़ी..कार्ल मार्क्स ने तो धर्म को अफीम की संज्ञा ही दे डाली। धर्म का उपरी रूप जो था वो वाकई किसी अफीम की तरह ही था..पूजा-भक्ति के नाम पर पाखंड, यज्ञादि अनुष्ठानों में हिंसा, कोरे व्रत-तप-उपवास, और मन्नतें पूरी करने या रोगों को दूर करने के लिए भगवान के दर पर चढ़ने वाले चढ़ावे..सब कुछ कोरी छद्म धार्मिकता से अलग कुछ न था। जो सत्यान्वेषण कर सके, ऐसा धर्म दूर-दूर तक कही नजर नहीं आया...पर सत्यान्वेषण के लिए न इन सब क्रियाओं की जरुरत थी नाही बौद्धिक कौशल की..क्योंकि सत्य की खोज के लिए बुद्धि की नहीं, संबुद्धि की जरुरत है..विश्लेषण की नहीं संश्लेषण की दरकार है...इसे अभिव्यक्ति से नहीं अनुभूति से हासिल किया जा सकता है...किन्तु जो उस परम सत्य को निकाल सके, ऐसे समस्त साधनों से इन्सान बहुत दूर रहा...और जिन्होंने उस अध्यात्म अनुभूतियों की उपलब्धि की, उन्हें तो इस इन्सान ने सम्मान दिया पर उनके कथनों का अनुसरण न किया। गोयाकि राम को तो माना पर राम की नहीं मानी।

आज न अनुभूत अध्यात्म है और नाही छद्म धार्मिकता प्रकट रूप से सामने है...आज यदि कहीं कुछ है तो वो है सिर्फ नास्तिक वैज्ञानिकता या कहें कि भौतिक चाकचिक्य। यदि कहीं आस्तिकता है भी, तो वो छद्म धार्मिकता का ही ढका हुआ स्वरूप है। यूँ तो सारे तीज-त्यौहार, व्रतादि आज की संस्कृति मना रही है..पर उपलब्धि जिन चीजों की चाहती है वो सारी आकांक्षाये भौतिक है। नेम-फेम, बंगला-गाड़ी, अच्छा करियर, बेशुमार दौलत सब कुछ विलासी महत्वाकांक्षाओं के लिए ही है..ऐसे में धर्म भी विलासिता की विषयवस्तु से अलग कुछ नहीं रह गया है। जो लोंग-इलायची की तरह मूल्यविहीन इंसानी भौतिक जीवन में माउथफ्रेशनर का काम करता है।

सारा आनंद इन्द्रियाधीन है और उसके लिए ही सारे जतन है। यहाँ स्वामी विवेकानंद की उक्ति स्मरण करना चाहूँगा-"जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनंद वहीं अत्यंत प्रखर होता है। खाने और भोग में जैसा उत्साह भेड़िये और कुत्ते दिखाते हैं वैसा उत्साह मनुष्य में नहीं होना चाहिए। जानवरों का आनंद इन्द्रियाधीन है, सुसंस्कृत व्यक्ति का आनंद विचार, कला, दर्शन और विज्ञानं में निहित है।" लेकिन आज का परिदृश्य हमारे सामने है जहाँ खाने-पीने, उठने-बैठने, गीत-संगीत, मनोरंजन आदि समस्त चीजों में विवेकरहित स्वच्छंद प्रवृत्ति नज़र आ रही है। यदि इन प्रवृत्तियों पे अंकुश लगाने को कहा जाये तो एक ही जवाब सुनने को मिल जाता है 'एक जिन्दगी मिली है खुल के ऐश करो, अगला जनम किसने देखा है'। हमारे ऐश करने के पैमाने ही हमारे व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं।

वैज्ञानिकता सर्वप्रकार से धर्म, अध्यात्म, ईश्वर को नकारने की कोशिश कर रही है..और निरंतर होने वाली वैज्ञानिक खोजें हमारी विलासिता को ही पुष्ट कर रही है। विज्ञान नैतिकता की स्थापना में नाकाम है और सिर्फ क्षणिक शारीरिक संतुष्टि के साधनों को ही विकसित करने में संलग्न है। महायोगी अरविन्द इस सन्दर्भ में कहते थे-"मनुष्य की समस्याएं दो प्रकार की है, एक शरीर से संबंधित, जैसे- भूख,प्यास, सर्दी,गर्मी,काम इत्यादि...और दूसरी समस्या आत्मिक है, जैसे-जन्म-मरण भय, आकुलता, आंतरिक क्लेश इत्यादि। विज्ञान से सिर्फ शारीरिक समस्याओं का तो समाधान हो सकता है...किन्तु शाश्वत आत्मिक समस्याओं का समाधान खोजने में विज्ञान असफल है..और उसका कारण है विज्ञान की नास्तिकता।" धर्म को वैज्ञानिक और विज्ञान को धार्मिक बनाकर ही इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है...और इसके लिए अनुभूत अध्यात्म की आवश्यकता है।

हमेशा से भारत ने भौतिक वैभव को छोड़, किसी परलौकिक वैभव की तलाश की है...क्योंकि भौतिक सुख के तो कई दौर ये देश देख चुका है। लेकिन अब हम पर हमारी ही संस्कृति का असर नहीं रहा... आज जो हालात है वो बड़े बदतर हैं..युवाओं की इच्छाएं बड़ी संकुचित और निम्न स्तर की है। महँगी कार, अच्छा पेकेज वाली नौकरी, गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड का साथ, शराब के नशे में डूबी रंगीली शामें, लेट नाइट पार्टी, डिस्को और लफ्फाजी..इस पतित लाइफस्टाइल में कहाँ दर्शन और अध्यात्म की बात हो सकती है। बड़े-बूढ़े भी अपनी कुछ ऊपरी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने को ही मुक्ति मान बैठें है...कि बच्चों को पाला-पोसा, पढाया-लिखाया, नौकरी से लगाया, शादी की और हो गया...इन्सान का बौद्धिक दायरा बस इनमे ही सिमट कर ख़त्म हो जाता है।

जिस जीवन में लाचारी है वहां मूलभूत चीजों रोटी, कपडा और मकान के संघर्ष में जिन्दगी अस्त हो रही है और जिस जीवन में समृद्धि है वहां विलासिता के कारण जीवन की बर्बादी हो रही है..अनुभूत अध्यात्म दोनों ही जिंदगियों से दूर है।

बहरहाल, इस भौतिकवाद की कीचड़ में कहीं-कहीं कुछ आध्यात्मिक कमल भी नज़र आ ही जाते हैं..जो सुकून देते हैं। ये सत्यान्वेषण की वो आग है जो भौतिकवाद और छद्म जीवनशैली के समंदर के अन्दर धधक रही है...और उस समुद्र को अपने दायरे का उलंघन करने से रोक रही है। ये समंदर किनारों की चट्टानों से टकराकर भले ही अपना माथा कितना भी क्यूँ न कूट ले...पर ये आग उसे चट्टानों को तोड़कर बाहर निकलने की इजाज़त नहीं देती............