अरस्तु, शेलिंग फिकटे, हीगेल, शापेन्हार, वर्डस्वर्थ, ग्राण्ड जैसे पाश्चात्य दार्शनिको-विद्वानों से लेकर कन्फ्युशियास और भारतीय चिन्तक चार्वाक तक प्रत्यक्षवाद, धर्म, अध्यात्म, ईश्वर अस्तित्व को लेकर काफी विमर्श हुआ, जो आज भी होता है। लेकिन विद्वत्ता की सारी पराकाष्ठा अध्यात्म की तह तक पहुंचने में थक जाती है और परिणाम-स्वरूप विद्वत जनों द्वारा ईश्वर, अध्यात्म, पुण्य-पाप जैसी बातों को सिरे से नकार दिया जाता है। प्रत्यक्षवाद के सिद्धांत ने सारी बौद्धिकता को भौतिक स्तर पर ही खर्च कर दिया..और उन विषयों को रूढ़ीवाद का नाम दे दिया जो तर्क के परे है या आँखों द्वारा अदृष्ट है। ऐसे में उन सारी अनुभूतियों को तिलांजलि दे दी गयी जो तर्क का विषय नहीं है..ये जाने वगेर कि अनुभव को किसी प्रमाण या तर्क की मोहताजगी नहीं होती।
यथार्थ अनुभूत धर्म जब कहीं नज़र नहीं आया तो धर्म को बदनाम करने में भी विद्वानों ने कसर नहीं छोड़ी..कार्ल मार्क्स ने तो धर्म को अफीम की संज्ञा ही दे डाली। धर्म का उपरी रूप जो था वो वाकई किसी अफीम की तरह ही था..पूजा-भक्ति के नाम पर पाखंड, यज्ञादि अनुष्ठानों में हिंसा, कोरे व्रत-तप-उपवास, और मन्नतें पूरी करने या रोगों को दूर करने के लिए भगवान के दर पर चढ़ने वाले चढ़ावे..सब कुछ कोरी छद्म धार्मिकता से अलग कुछ न था। जो सत्यान्वेषण कर सके, ऐसा धर्म दूर-दूर तक कही नजर नहीं आया...पर सत्यान्वेषण के लिए न इन सब क्रियाओं की जरुरत थी नाही बौद्धिक कौशल की..क्योंकि सत्य की खोज के लिए बुद्धि की नहीं, संबुद्धि की जरुरत है..विश्लेषण की नहीं संश्लेषण की दरकार है...इसे अभिव्यक्ति से नहीं अनुभूति से हासिल किया जा सकता है...किन्तु जो उस परम सत्य को निकाल सके, ऐसे समस्त साधनों से इन्सान बहुत दूर रहा...और जिन्होंने उस अध्यात्म अनुभूतियों की उपलब्धि की, उन्हें तो इस इन्सान ने सम्मान दिया पर उनके कथनों का अनुसरण न किया। गोयाकि राम को तो माना पर राम की नहीं मानी।
आज न अनुभूत अध्यात्म है और नाही छद्म धार्मिकता प्रकट रूप से सामने है...आज यदि कहीं कुछ है तो वो है सिर्फ नास्तिक वैज्ञानिकता या कहें कि भौतिक चाकचिक्य। यदि कहीं आस्तिकता है भी, तो वो छद्म धार्मिकता का ही ढका हुआ स्वरूप है। यूँ तो सारे तीज-त्यौहार, व्रतादि आज की संस्कृति मना रही है..पर उपलब्धि जिन चीजों की चाहती है वो सारी आकांक्षाये भौतिक है। नेम-फेम, बंगला-गाड़ी, अच्छा करियर, बेशुमार दौलत सब कुछ विलासी महत्वाकांक्षाओं के लिए ही है..ऐसे में धर्म भी विलासिता की विषयवस्तु से अलग कुछ नहीं रह गया है। जो लोंग-इलायची की तरह मूल्यविहीन इंसानी भौतिक जीवन में माउथफ्रेशनर का काम करता है।
सारा आनंद इन्द्रियाधीन है और उसके लिए ही सारे जतन है। यहाँ स्वामी विवेकानंद की उक्ति स्मरण करना चाहूँगा-"जीवन का स्तर जहाँ हीन है, इन्द्रियों का आनंद वहीं अत्यंत प्रखर होता है। खाने और भोग में जैसा उत्साह भेड़िये और कुत्ते दिखाते हैं वैसा उत्साह मनुष्य में नहीं होना चाहिए। जानवरों का आनंद इन्द्रियाधीन है, सुसंस्कृत व्यक्ति का आनंद विचार, कला, दर्शन और विज्ञानं में निहित है।" लेकिन आज का परिदृश्य हमारे सामने है जहाँ खाने-पीने, उठने-बैठने, गीत-संगीत, मनोरंजन आदि समस्त चीजों में विवेकरहित स्वच्छंद प्रवृत्ति नज़र आ रही है। यदि इन प्रवृत्तियों पे अंकुश लगाने को कहा जाये तो एक ही जवाब सुनने को मिल जाता है 'एक जिन्दगी मिली है खुल के ऐश करो, अगला जनम किसने देखा है'। हमारे ऐश करने के पैमाने ही हमारे व्यक्तित्व के परिचायक होते हैं।
वैज्ञानिकता सर्वप्रकार से धर्म, अध्यात्म, ईश्वर को नकारने की कोशिश कर रही है..और निरंतर होने वाली वैज्ञानिक खोजें हमारी विलासिता को ही पुष्ट कर रही है। विज्ञान नैतिकता की स्थापना में नाकाम है और सिर्फ क्षणिक शारीरिक संतुष्टि के साधनों को ही विकसित करने में संलग्न है। महायोगी अरविन्द इस सन्दर्भ में कहते थे-"मनुष्य की समस्याएं दो प्रकार की है, एक शरीर से संबंधित, जैसे- भूख,प्यास, सर्दी,गर्मी,काम इत्यादि...और दूसरी समस्या आत्मिक है, जैसे-जन्म-मरण भय, आकुलता, आंतरिक क्लेश इत्यादि। विज्ञान से सिर्फ शारीरिक समस्याओं का तो समाधान हो सकता है...किन्तु शाश्वत आत्मिक समस्याओं का समाधान खोजने में विज्ञान असफल है..और उसका कारण है विज्ञान की नास्तिकता।" धर्म को वैज्ञानिक और विज्ञान को धार्मिक बनाकर ही इन समस्याओं से निजात पाई जा सकती है...और इसके लिए अनुभूत अध्यात्म की आवश्यकता है।
हमेशा से भारत ने भौतिक वैभव को छोड़, किसी परलौकिक वैभव की तलाश की है...क्योंकि भौतिक सुख के तो कई दौर ये देश देख चुका है। लेकिन अब हम पर हमारी ही संस्कृति का असर नहीं रहा... आज जो हालात है वो बड़े बदतर हैं..युवाओं की इच्छाएं बड़ी संकुचित और निम्न स्तर की है। महँगी कार, अच्छा पेकेज वाली नौकरी, गर्लफ्रेंड या बॉयफ्रेंड का साथ, शराब के नशे में डूबी रंगीली शामें, लेट नाइट पार्टी, डिस्को और लफ्फाजी..इस पतित लाइफस्टाइल में कहाँ दर्शन और अध्यात्म की बात हो सकती है। बड़े-बूढ़े भी अपनी कुछ ऊपरी सांसारिक जिम्मेदारियों को पूरा करने को ही मुक्ति मान बैठें है...कि बच्चों को पाला-पोसा, पढाया-लिखाया, नौकरी से लगाया, शादी की और हो गया...इन्सान का बौद्धिक दायरा बस इनमे ही सिमट कर ख़त्म हो जाता है।
जिस जीवन में लाचारी है वहां मूलभूत चीजों रोटी, कपडा और मकान के संघर्ष में जिन्दगी अस्त हो रही है और जिस जीवन में समृद्धि है वहां विलासिता के कारण जीवन की बर्बादी हो रही है..अनुभूत अध्यात्म दोनों ही जिंदगियों से दूर है।
बहरहाल, इस भौतिकवाद की कीचड़ में कहीं-कहीं कुछ आध्यात्मिक कमल भी नज़र आ ही जाते हैं..जो सुकून देते हैं। ये सत्यान्वेषण की वो आग है जो भौतिकवाद और छद्म जीवनशैली के समंदर के अन्दर धधक रही है...और उस समुद्र को अपने दायरे का उलंघन करने से रोक रही है। ये समंदर किनारों की चट्टानों से टकराकर भले ही अपना माथा कितना भी क्यूँ न कूट ले...पर ये आग उसे चट्टानों को तोड़कर बाहर निकलने की इजाज़त नहीं देती............
sarthak post.aabhar
ReplyDeletesarthak lekh... holi ki shubhkamnayen......
ReplyDeletebina pura padhe comments karne kee iksha to nahi thi... emergency k karan beech mein chhod kar jana pad raha hai... par pahle paragraph ne comments dene k liye majboor kiya hai... jahan vyakti ki apni baudhikta khatam ho jati wahan vyakti ishwar ka naam lekar apne aapko suraksha kavach mein dhaal leta hai...
ReplyDeleteकितना ही भौतिक सुख पा लें, थकान अध्यात्म में ही आकर मिटती है..
ReplyDeleteSARTHAK PRASTUTI HETU BADHAI . ye hai mission london olympic
ReplyDeleteप्रभावशाली !
ReplyDeleteरंगोत्सव की शुभकामनायें स्वीकार करें !
बेहद विचारणीय उद्गार है, सार्थक व्याख्या प्रस्तुत की है आपने।
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति ||
ReplyDeleteदिनेश की टिप्पणी : आपका लिंक
dineshkidillagi.blogspot.com
होली है होलो हुलस, हुल्लड़ हुन हुल्लास।
कामयाब काया किलक, होय पूर्ण सब आस ।।