Sunday, March 31, 2013

ज़िंदगी के चौराहे

(ये लेख आज से लगभग चार वर्ष पहले अपने रायपुर प्रवास के दौरान..होली के दिन भांग के नशे में लिखा था..पर आज भी जब इसे पढ़ता हुं तो इसकी यथावत् प्रासंगिकता को पाता हुं..कृप्या इस अचेत अवस्था में लिखे गये लेख को साहित्यिक पैमानों पर तौलने की कोशिश न करें...)

जिंदगी में रास्ते लंबे भले हों, मगर मुश्किल नहीं होने चाहिए..इससे भी ज्यादा दुखद है उनका असमंजस भरा होना। कठिनाईयों से ज्यादा संशय परेशान करता है। राही की मुश्किल भी तब बढ़ जाती है जब सीधे-सादे रास्तों के बाद चौराहे आते हैं और उन चौराहों का तो क्या कहना, जहाँ रास्ते दिखाने वाले बोर्ड नहीं लगे हों। जिंदगी में भी इंसान ऐसे कई चौराहों से रूबरू होता है और जिंदगी के चौराहों में कोई इंडिकेशन बोर्ड नहीं होता। सही रास्तों को चुनने का बोझ होता है, एक अनचाहा डर सताता है। कई बार चौराहे कुछ ऐसे होते हैं कि कोई रास्ता ही नज़र नहीं आता। ऐसे ही समय में इंसान के असली हुनर और दूरदर्शिता की पहचान होती है।

समाज में एक ओर पहचान, सुरक्षा, स्थायित्व पाने की चाहत तो दूसरी ओर शारीरिक परिवर्तन, विलासिता की तमन्ना, रिश्तों के बंधन जटिलताओं का निर्माण करते हैं। ऐसे हालातों में बीता हुआ सफ़र याद आता है जहां बेरोकटोक हम जिंदगी की गाड़ी को सरपट भगाये जा रहे थे। दरअसल, हम गतिमान जीवन में ही इतना मस्त हो जाते हैं कि उस जीवन से परिवर्तन हमें विचलित कर देता है। पुराने रिश्ते जब परबान चढ़ते हैं तभी उनके बिखरने का वक्त आ जाता है। वक्त तो बीत जाता है पर बीते हुए लम्हों की कसक साथ रह जाती है..अब जो नया रास्ता शुरू होता है वहां प्रारंभ फिर शून्य से होता है।

लोग अपने वर्तमान स्वच्छंद जीवन को देख कहते हैं कि काश! ताउम्र बस ऐसे ही जीवन चलता रहे, बस युंही मौज-मस्ती में वक्त गुज़र जाये और किसी तरह का कोई परिवर्तन न हो...पर इस वक्त वो भूल जाते हैं कि गतिमान लम्हों की कीमत ही इसलिए है कि ये हमेशा नहीं रहने वाले। अंतहीन सफ़र कभी सुहाना नहीं होता। परिवर्तन में नवीनता गर्भित है।

इंसान एक अजीब सी खींझ महसूस करता है...एक तरफ कुछ सार्थक न कर पाने की बेवशी...दूसरी तरफ मृत्यु, स्वास्थ्य, असुरक्षा का अदृश्य भय..जो प्रगट नहीं होता। दरअसल, अनिष्ट की आशंका अदृश्य ही होती है। अपने ही सपनों का सैलाब हमें तंग करता है क्योंकि लोगों को मुकम्मल जहां नहीं मिलता। हर एक उपलब्धि एक नई ज़रूरत को जन्म देती है और ज़रूरत से फिर नई उपलब्धि होती है। जीवन का चक्र घूमकर हमें फिर वहीं खड़ा कर देता है जहाँ से हमने सफ़र की शुरुआत की थी। सच, परिवर्तनीय जगत वास्तव में कितना अपरिवर्तनीय होता है। दुनिया के परिवर्तनीय स्वरूप को देखने के कारण अप्रसन्नता है...अपरिवर्तनीय का दीदार हो जाये तो तकलीफ कभी छू भी न पायेगी। परेशानी ये है कि जीवन-चक्र में घूमते हुए हमारे हाथ खाली ही होते हैं।

हर चाही हुई चीज को पाने की कोशिश अनैतिक बना देती है। परिस्थितियों की बेवफाई चरित्र को नष्ट कर देती है और इन सारी चीजों का जन्म चौराहों पर लिये गए हमारे फैसलों के कारण होता है। सही-गलत की उलझन नतीजे आने तक बरकरार रहती है...और नतीजे आने के बाद हमारे हाथ कुछ नहीं होता, महज अनुभव के। जिस अनुभव को यदि हम दूसरों को बताए तो वो भी इन्हें नहीं मानता क्योंकि अधिकतर इंसान अपनी गलतियों से ही सीखते हैं।

तथाकथित सफलता की चकाचौंध ने इंसान की जिंदगी को आवृत्त कर दिया है। दुनिया में सक्सेस और स्टेटस के मायनों के चलते लाइफ के मायने घट गये हैं। एक स्टेज पर सक्सेस इतनी ख़ास हो जाती है कि उसके आगे जिंदगी बहुत छोटी नज़र आती है। चुंकि हर इंसान के हिसाब से सक्सेस के पैमाने अलग होते हैं, पर आज सफलता- करियर, पैसे के अर्थ में रूढ़ हो गई है। और उस भौतिकीय सफलता को ही सब कुछ माना जाता है। उस सफलता का आकर्षण हमें एक ऐसी दिशा में ले जाता है जहाँ आफतों को आदत बनाना पड़ता है। मंजिल पर पहुंचने के बाद रास्तों का सुकून याद आता है और मंजिल से बेहतर रास्ते लगने लगते हैं।

खैर, जीवन की हर चीज पर अपना ही एक दार्शनिक विचार खड़ा हो सकता है। अंत में मैं सिर्फ एक बात कहुंगा जो मैं बहुत सीधे-सादे अंदाज में बिना किसी चमत्कारिक शब्दों के कहुंगा...कि कुछ भी हो, रास्ते का चुनाव हो पाए या नहीं, सफलता मिले या नहीं या फिर किसी वा़ञ्छित वस्तु या व्यक्ति की दूरी ही क्यों न हो जाए...पर अपना चरित्र नीलाम मत कीजिए, सिद्धांतों से समझौता मत कीजिए। हमारी सबसे बड़ी पूंजी हमारा चरित्र है..अपनी पूंजी गंवाकर उपलब्धियों की प्राप्ति कभी सुखकर नहीं हो सकती। यकीन मानिए, अंततः सब ठीक हो जाएगा...............

Friday, March 8, 2013

जज्बातों के लिबास बनने की मुश्किल कोशिश करते अल्फ़ाज......

रॉकस्टार फिल्म का प्रसिद्ध गीत 'जो भी मैं कहना चाहुं, बरबाद करें अल्फाज मेरे' इंसान की अभिव्यक्ति की जबरदस्त लाचारी को बयां करने वाला गीत था। शब्द बृम्ह कहलाते हैं और इनके सहारे ही इंसान सभ्यता और विकास की नित नई इबारत लिख रहा है। रीति, रस्म, रिवाज, संस्कार का प्रसार इन्हीं अल्फाजों के सहारे हो रहा है...लेकिन इतना कुछ कह जाने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा ही रह जाता है। या तो चीजें बयां नहीं हो पाती और गर बयां होती हैं तो समझी नहीं जाती। वार्ताओं का मंथन अमृत कम, ज़हर ज्यादा उगल रहा है और खामोशियों की वाचाल जुवां सुनने की कोई जहमत ही नहीं उठा रहा है।

असीम कुंठा, असीम दर्द, पीड़ा, मोहब्बत या नफरत से कभी गोली निकलती है, कभी गाली, कभी आंसु तो कभी कविता...पर अनुभूतियों का कतरा भी अभिव्यक्त नहीं होता। इंसान बेचैनियों का बवंडर दिल में दबाये जिये जाता है क्योंकि दुनिया में वो किनारे ही नहीं हैं जिस दर पे जज्बातों की लहरें अपना माथा कूटे। बेचैनियों की आग हर दिल में धधक रही है पर धुआं ही नहीं उठ रहा..जिसे देख लोग उस आग का अनुमान लगा सके। धुआं उठ भी जाये तो वो लोगों की आंखों में धंस जाता है जिसके बाद लोग उस आग को देखने की हसरत ही त्याग देते हैं क्योंकि जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज मेरे। इंसान अनभिव्यक्त ही रह जाता है।

जिंदगी के सफर में रिश्तों की सड़क साथ चलने का आभास देती है पर हम आगे बढ़ते जाते हैं और सड़क का हर हिस्सा अपनी जगह ही स्थिर रहता है। हम अकेले ही होते हैं..हमेशा, हर जगह। कुछ पड़ावों पर हमें हमारा साया नजर आता है जो हम सा ही प्रतीत होता है..पर वो बस प्रतीत ही होता है क्योंकि हम जैसा और कोई नहीं होता। हमारे दिल में वो परछाईयां जगह पाने लगती हैं जो हम सी नजर आती है...हमको समझती हुई सी दिखती है पर अचानक हमारा दिवास्वपन टूटता है और हम फिर बिखर जाते हैं...बिना अभिव्यक्त हुए। कभी मुस्काने बिखरती हैं तो कभी आंसू..और कभी कुछ बेहुदा से अल्फाज भी...पर सब झूठे ही रहते हैं। याद आता है वो गीत- 'कसमें-वादे, प्यार-वफा सब बातें हैं बातों का क्या.......

इस सूचना विस्फोट के युग में कितना कुछ बाहर आ रहा है...सोशल नेटवर्किंग साइट्स, टेलीविजन, फिल्म, साहित्य सब जगह कितना कुछ अभिव्यक्त हो रहा है...पर क्या वाकई अनुभूतियां मुखर हो पा रही हैं। भ्रम के इस युग में अल्फाज सबसे बड़े भ्रम हैं। जो बातें हैं वो जज्बात नहीं है...वो जज्बात हो ही नहीं सकते क्योंकि जज्बात नग्न ही होते हैं और अदृश्य भी...ये लफ्जों के लिबास उन्हें ढंक सकते हैं प्रगट नहीं कर सकते। पूरा जीवन उस एक शख्स और उन चंद अल्फाजों को खोजने में लग जाता है जहां जज्बातों को पनाह मिल सके।

तपन से वर्फ पिघल सकती है, लोहा पिघल सकता है, पर्वत, पाषाण और  संपूर्ण पर्यावरण पिघल सकता है...पर रूह की इस भीषण गर्मी से इंसान नहीं पिघल रहा। उसके सीने में मौजूद जज्बातों के विशाल सरोवर पर बना दायरों का बांध, अल्फाजों की लहरों को निकलकर आने ही नहीं दे रहा..और जो बाहर आ रहा है वो बहुत ही सतही और दूषित लहरें हैं जिन्हें पवित्र बनाने के झूठे जतन किये जा रहे हैं। बहरहाल, अपने इस असमर्थ लेख के गरीब अल्फाजों से कुछ कहने की अनकही कोशिश कर रहा हूं...पर इन गरीब अल्फाजों ने उन संसाधनों को आज तक विकसित नहीं किया जिससे ये कुछ कह पायें...खैर, मैनें कहने की मुश्किल कोशिश की है आप समझने के दुर्लभ जतन करना.............