Friday, March 8, 2013

जज्बातों के लिबास बनने की मुश्किल कोशिश करते अल्फ़ाज......

रॉकस्टार फिल्म का प्रसिद्ध गीत 'जो भी मैं कहना चाहुं, बरबाद करें अल्फाज मेरे' इंसान की अभिव्यक्ति की जबरदस्त लाचारी को बयां करने वाला गीत था। शब्द बृम्ह कहलाते हैं और इनके सहारे ही इंसान सभ्यता और विकास की नित नई इबारत लिख रहा है। रीति, रस्म, रिवाज, संस्कार का प्रसार इन्हीं अल्फाजों के सहारे हो रहा है...लेकिन इतना कुछ कह जाने के बाद भी बहुत कुछ अनकहा ही रह जाता है। या तो चीजें बयां नहीं हो पाती और गर बयां होती हैं तो समझी नहीं जाती। वार्ताओं का मंथन अमृत कम, ज़हर ज्यादा उगल रहा है और खामोशियों की वाचाल जुवां सुनने की कोई जहमत ही नहीं उठा रहा है।

असीम कुंठा, असीम दर्द, पीड़ा, मोहब्बत या नफरत से कभी गोली निकलती है, कभी गाली, कभी आंसु तो कभी कविता...पर अनुभूतियों का कतरा भी अभिव्यक्त नहीं होता। इंसान बेचैनियों का बवंडर दिल में दबाये जिये जाता है क्योंकि दुनिया में वो किनारे ही नहीं हैं जिस दर पे जज्बातों की लहरें अपना माथा कूटे। बेचैनियों की आग हर दिल में धधक रही है पर धुआं ही नहीं उठ रहा..जिसे देख लोग उस आग का अनुमान लगा सके। धुआं उठ भी जाये तो वो लोगों की आंखों में धंस जाता है जिसके बाद लोग उस आग को देखने की हसरत ही त्याग देते हैं क्योंकि जो भी मैं कहना चाहूं, बरबाद करें अल्फाज मेरे। इंसान अनभिव्यक्त ही रह जाता है।

जिंदगी के सफर में रिश्तों की सड़क साथ चलने का आभास देती है पर हम आगे बढ़ते जाते हैं और सड़क का हर हिस्सा अपनी जगह ही स्थिर रहता है। हम अकेले ही होते हैं..हमेशा, हर जगह। कुछ पड़ावों पर हमें हमारा साया नजर आता है जो हम सा ही प्रतीत होता है..पर वो बस प्रतीत ही होता है क्योंकि हम जैसा और कोई नहीं होता। हमारे दिल में वो परछाईयां जगह पाने लगती हैं जो हम सी नजर आती है...हमको समझती हुई सी दिखती है पर अचानक हमारा दिवास्वपन टूटता है और हम फिर बिखर जाते हैं...बिना अभिव्यक्त हुए। कभी मुस्काने बिखरती हैं तो कभी आंसू..और कभी कुछ बेहुदा से अल्फाज भी...पर सब झूठे ही रहते हैं। याद आता है वो गीत- 'कसमें-वादे, प्यार-वफा सब बातें हैं बातों का क्या.......

इस सूचना विस्फोट के युग में कितना कुछ बाहर आ रहा है...सोशल नेटवर्किंग साइट्स, टेलीविजन, फिल्म, साहित्य सब जगह कितना कुछ अभिव्यक्त हो रहा है...पर क्या वाकई अनुभूतियां मुखर हो पा रही हैं। भ्रम के इस युग में अल्फाज सबसे बड़े भ्रम हैं। जो बातें हैं वो जज्बात नहीं है...वो जज्बात हो ही नहीं सकते क्योंकि जज्बात नग्न ही होते हैं और अदृश्य भी...ये लफ्जों के लिबास उन्हें ढंक सकते हैं प्रगट नहीं कर सकते। पूरा जीवन उस एक शख्स और उन चंद अल्फाजों को खोजने में लग जाता है जहां जज्बातों को पनाह मिल सके।

तपन से वर्फ पिघल सकती है, लोहा पिघल सकता है, पर्वत, पाषाण और  संपूर्ण पर्यावरण पिघल सकता है...पर रूह की इस भीषण गर्मी से इंसान नहीं पिघल रहा। उसके सीने में मौजूद जज्बातों के विशाल सरोवर पर बना दायरों का बांध, अल्फाजों की लहरों को निकलकर आने ही नहीं दे रहा..और जो बाहर आ रहा है वो बहुत ही सतही और दूषित लहरें हैं जिन्हें पवित्र बनाने के झूठे जतन किये जा रहे हैं। बहरहाल, अपने इस असमर्थ लेख के गरीब अल्फाजों से कुछ कहने की अनकही कोशिश कर रहा हूं...पर इन गरीब अल्फाजों ने उन संसाधनों को आज तक विकसित नहीं किया जिससे ये कुछ कह पायें...खैर, मैनें कहने की मुश्किल कोशिश की है आप समझने के दुर्लभ जतन करना.............

10 comments:

  1. Thank you for sharing your info. I really appreciate your efforts and I am waiting for your further write ups thank you once again.


    My site link

    ReplyDelete
  2. जज्बातों को अल्फ़ाज.में पिरो कर वयां करना बड़ा मुश्किल कार्य होता है .....

    Recent post: रंग गुलाल है यारो,

    ReplyDelete
  3. जो बातें हैं वो जज्बात नहीं है...वो जज्बात हो ही नहीं सकते क्योंकि जज्बात नग्न ही होते हैं और अदृश्य भी...ये लफ्जों के लिबास उन्हें ढंक सकते हैं प्रगट नहीं कर सकते।पूरा जीवन उस एक शख्स और उन चंद अल्फाजों को खोजने में लग जाता है जहां जज्बातों को पनाह मिल सके।

    वाह!क्या बात कह दी अंकुर आप ने..बहुत खूब!
    ..............
    बहुत अच्छी लगी यह पोस्ट.

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया अल्पना जी..जो महसूस किया वो लिख दिया।।।

      Delete
  4. भ्रम के इस युग में अल्फाज सबसे बड़े भ्रम हैं.............बहुत अच्‍छा उकेरा है मन के भावों को। लेकिन एक शिकायत है।
    (उसके सीने में स्थित जज्बातों) इस वाक्‍य में स्थित शब्‍द ठीक नहीं लग रहा है। इसकी जगह मौजूद लिखते तो रवानगी आती वाक्‍य में। या स्थित के आगे-पीछे की शब्‍द भी विशुद्ध हिन्‍दी में होते तो भी बढ़िया होता। इस तरह के कांबिनेशन से बचें, ये मेरा बिना मांगा हुआ सुझाव है आपको।
    इतनी लम्‍बी टिप्‍पणी इसलिए करी क्‍योंकि इस आलेख में प्रकट आपके विचार ने सोचने पर विवश कर दिया।

    ReplyDelete
    Replies
    1. जी आपकी सलाह पर ध्यान दुंगा...धन्यवाद अवगत कराने के लिये।।।

      Delete
  5. यह गीत प्रभावित करता है क्योंकि मेरा भी सच बताता है।

    ReplyDelete
  6. अंकुर आपकी पोस्ट हमारे दौर के हर संवेदनशील इंसान की चिंता को बयां करती है कुछ भी सार्थक करने का भाव अंत में अर्थहीन हो जाता है लेकिन आप के अल्फाज गरीब नहीं है वे यूँ ही खो नहीं जाते, वो परिवर्तन करते हैं बस हम और आप उनसे वाकिफ नहीं हो पाते। सुंदर और अर्थपूर्ण प्रस्तुति

    ReplyDelete
    Replies
    1. शुक्रिया सर..पर मुझे तो ऐसा ही लगता है क्योंकि अपने लफ्जों से जज्बातों को समझाने में खुद को हमेशा असमर्थ ही महसूस किया है मैनें...

      Delete
  7. वाह बहुत सुन्दर ! मन में आये विचारों को बड़े ही प्रभावी ढंग से पेश किया है आपने , मन में आये विचारों को बिखेरना तो बहुत आसान है जैसे किसी बुनी हुई स्वेटर उधेड़ना हो, जो आसान भी होता है और उधेड़ना अच्छा भी लगता है लेकिन उसे फिर से एकसूत्र में पिरोना उतना ही मुश्किल । शानदार प्रस्तुति !

    ReplyDelete

इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-