Saturday, November 22, 2014

'वेस्ट ऑफ टाइम' की 'इम्पॉर्टेंस'

राजकुमार हिरानी निर्देशित और आमिर खान अभिनीत साल की सबसे प्रतीक्षित फ़िल्म 'पीके' अपनी रिलीज़ से पहले ही जमकर सुर्खियां बटोर रही हैं। जिनमें हाल ही में बाहर आया फिल्म का संगीत और खास तौर पर 'लव इज वेस्ट ऑफ टाइम' खासा आकर्षित करता है। कोई गहरी और दार्शनिक बात न करते हुए गीत के बोल सिर्फ उन जज़्बातों को बयां करते हैं जो हर युवामन के अनुभूत हैं। युवामन की फितरत को भली भांति समझते हुए गीतकार जहाँ प्यार-व्यार को वेस्ट ऑफ टाइम कहता है तो वहीं आई वांट टू वेस्ट माय टाइम, आई लव दिस भेस्ट ऑफ टाइम कहता भी नज़र आता है।

यकीनन, जब दार्शनिको द्वारा ये कहा जाता है कि प्रेम बुद्धिमानों की मूर्खता और मूर्खों की बुद्धिमानी है। तो इस पंक्ति में प्रेम को वक्त की बरबादी के साथ उसकी उपयोगिता को भी वे बड़े डिप्लोमेटिक तरह से बयां कर देतेे हैंँ। इस दुनिया में अब तक जितना कुछ भी सुना-समझा और अनुभव किया है उसमें इक चीज़ समझ आई है कि ज़िंदगी के अनेक विषयों में से प्रेम ही एकमात्र ऐसा विषय है जिस पर कही गई हर बात सही है। प्रेम पर व्यक्त तमाम नज़रिये अपनी-अपनी जगह सही है और कहीं न कहीं गलत भी। ये जरुरी भी है, मजबूरी भी। इसमें खुशी भी हैं, ग़म भी। इसमें देवत्व भी है और पाशविकता भी। ये ताकत भी देता है और कमजोर भी करता है। ये खुदा की बरकत भी है और अभिषाप भी। ये जीने की वजह भी है और मरने का कारण भी। ऐसी तमाम एक-दूसरे से विरुद्ध लगने वाली चीज़ों का निवास प्रेम में होता है और इनमें से कोई भी नज़रिया यदि प्रस्तुत किया जा रहा है तो वे सब अपनी-अपनी जगह सही है और प्रेम के इन्हीं तमाम रूपों को लेकर हिन्दी सिनेमा में हर तरह के गीत प्रस्तुत हुए हैं। साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं लिखी हैं। साहित्य और सिनेमा के इसी क्रम का एक और सोपान प्रतीत होता है ये गीत जिसमें प्रेम को 'वेस्ट ऑफ टाइम' कहते हुए भी 'एक बार तो इस जीवन मां करना है वेस्ट ऑफ टाइम' जैसे बोल पिरोये गये हैं।

जीवन के सबसे सृजनात्मक समय में होने वाली सबसे गैर-उत्पादक अनुभूति का नाम है प्रेम। लेकिन इस अनुभूति को पा लेने के बाद व्यक्ति में जिस रचनात्मकता की वृद्धि होती है वो बिना इसके हासिल किये नहीं हो सकती। इसलिये शायद कहा है कि इंसान के जीवन में सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन तब होते हैं जब उसके जीवन में या तो कोई लड़की आ जाती है अथवा जीवन से चली जाती है। दोनों ही कंडीशन में किसी हमदर्द की जीवन में मौजूदगी तो जरुरी है ही क्योंकि जाने के लिये भी उसे आना होगा ही। प्रेम परिपक्वता देता है और जीवन को सतही सोच से परे ले जाकर कई ऐसे गहरे अनुभवों का दीदार कराता है जो बिना प्रेम के संभव नहीं। प्यार के जीवन में आविर्भाव के बाद हम अपने प्रेमी को कितना समझ पाते हैं यह तो फिर भी एक विवादित प्रश्न है लेकिन हम खुद के व्यक्तित्व की कई अनगढ़ परतों से अपना परिचय पा लेते हैं। रविन्द्र सिंह के उपन्यास 'आई टू हेड लव स्टोरी' के मुखपृष्ठ पर एक पंक्ति है- 'तेरे जाने का कुछ ऐसा असर हुआ मुझपे, तुझको खोजते-खोजते मैंने खुद को पा लिया' और यह हकीकत है कि प्रेम करने के बाद हम खुद को ज्यादा बेहतर तरीके से समझने लगते हैं। यह प्रेम ही है जो एक भले इंसान में से उसके अच्छे व्यक्तित्व की परतें उतारकर, छुपी हुई बहसी परतों को बाहर निकाल देता है और कई मर्तबा एक बुरे इंसान से उसके व्यक्तित्व की विषाक्त परतें उतारकर, उसकी दबी पड़ी दैवीय परतें उभार देता है।

प्रेम के सफल या असफल होने से ज्यादा मायने रखता है प्रेम का होना, क्योंकि सफलता और असफलता का निर्धारण बाहर से देखी गई दृष्टि से किया जाता है। जबकि प्यार को अंतर्तम से देखा जाये तो उसमें ऐसे भेद ही नहीं है वो बस प्रेम है। कहा ये भी जाता है कि असफल प्रेम अक्सर नफरत में बदल जाता है लेकिन ये भी उसी सतही नज़रिये का कथन है क्योंकि प्रेम, उपेक्षा में तो बदल सकता है पर नफरत में कभी नहीं। निश्चित ही प्रेम स्वार्थी होता है लेकिन यह स्वार्थी होकर भी अंतस में सबसे ज्यादा त्याग की भावना का संचार करता है। वक्त के साथ प्रेम पर भी अपने दौर के रंग देखने को मिलते हैं और इसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति में भी फर्क देखा जाता है लेकिन फिर भी कुछ ऐसा भी होता है जो सर्वत्र एक समान होता है। प्रेम का ऐसा सार्वभौमिक, शाश्वत अहसास पूर्णतः अमूर्त है और सैंकड़ो परते चढ़ाने-उतारने के बावजूद वो सदा एक महक बनकर जीवंत रहता है। यही वजह है कि इस 'वेस्ट ऑफ टाइम' का 'इम्पार्टेंस' किसी भी दूसरे 'युसफुल टाइम' से बढ़कर है। प्रेम की इसी उपयोगिता को देखते हुए सैंकड़ो साल पहले कबीर को कहना पड़ा- 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढें सो पंडित होय।।'

अकेले में भी जो किसी के संग होने का अहसास दे और कई मर्तबा महफिलों में भी तन्हा कर दे, ऐसा जादूगर प्रेम से बढ़कर कोई नहीं हो सकता। ये प्रेम ही है जिसमें 'मिलके भी हम न मिले' वाले जज्बात जागते हैं और इसमें ही 'जितना महसूस करूं तुमको, उतना ही पा भी लूं' वाले अहसासों से वास्ता होता है। 'पीके' के इस गीत में ही कुछ पंक्तियां हैं 'बैठे-बैठे बिना बात मुस्कायें, क्या है माजरा कुछ भी समझ न आये' इसलिये लव इज वेस्ट ऑफ टाइम। बट आय लव दिस वेस्ट ऑफ टाइम। 

दरअसल, हम हर उस चीज़ को व्यर्थ करार देते हैं जिसके अर्थ बुद्धि के विषय नहीं बनते। लेकिन बुद्धि के परे भी बहुत कुछ होता है और यदि हम प्रेम को भी बुद्धि का विषय न बना संबुद्धि से जाने..और इसका विश्लेषण न कर संश्लेषण करने की कोशिश करें तो शायद प्रेम भी हमें वेस्ट ऑफ टाइम न लगकर बहुत प्रॉडक्टिव लगने लगेगा। यह दुनिया बहुत प्रेक्टिकल हो गई यहां समय का सदुपयोग सिर्फ पैसे और संसाधनों की कमाई को माना जाता है पर प्रेम इन सब चीज़ों को नहीं, जज़्बातों को कमाकर देने वाली चीज़ है। भौतिकवादिता के प्यालों में सिर्फ शारीरिक सुखों का घूंट पीने वालों के लिये 'व्यक्ति का भावनात्मक होना' वेस्ट ऑफ टाइम ही है। चुंकि प्रेम पे लिखी तमाम पाण्डुलिपियां 'सिक्स सिग्मा' जैसे किसी प्रबंधन का सिद्धांत न बन हमारे व्यवसायिक उपयोग में नहीं आती। इसलिये प्रेम के तमाम आचार, विचार और संस्कार बस वेस्ट ऑफ टाइम ही लगते हैं। 

बहरहाल, किसी कवि की कुछ पंक्तियां हैं- 'मैं जो लिखता हूँ वो व्यर्थ नहीं है...हूँ जहाँ खड़ा वहाँ गर तुम आ जाओ, तो कह न सकोगे कि इसका कोई अर्थ नहीं है।' प्रेम पे लिखी किसी लेखनी को वेस्ट ऑफ टाइम कहना या प्रेम से संतृप्त किसी अहसास को वेस्ट ऑफ टाइम कहने वालों के लिये उपरोक्त पंक्तियां सर्वोत्तम जबाव देती हैं। वैसे भी जब हम समय को खुद से बांधने की कोशिश करते हैं तब ही प्रेम की उपयोगिता और अनुपयोगिता का निर्धारण कर सकते हैं पर जब समय से खुद को बाँध देते हैं तब वेस्ट ऑफ टाइम का आकलन करने वाली बुद्धि ही ख़त्म हो जाती है। प्रेम में होने का मतलब है खुद की हस्ती, वक्त के हवाले कर देना। फिर वक्त अपने हिसाब से आपको दिशा दे देता है और हमें नियति की सच्चाई पता चल जाती है कि 'हम भले हाथ में घड़ी बांध वक्त को थामने का गुरुर कर ले, पर हाथ में हमारे एक लम्हा भी नहीं है.............