Saturday, August 14, 2010

आजाद भारत की गुलाम तस्वीर-"पीपली लाइव"


तेजी से बदलती संस्कृति, मिटती रूढ़ियाँ, नयी-नयी खोजें, बड़ी-बड़ी इमारतें, आलिशान मॉल-मल्टी प्लेक्स, सरपट दौड़ती मेट्रो ट्रेन...और जाने क्या-क्या हमने विकसित कर लिया है स्वतंत्रता की इस ६३वी वर्षगाठ तक पहुँचते-पहुँचते...लेकिन बहुत कुछ है जो अब भी नहीं बदला..शाइनिंग इंडिया विकसित हो रहा है पर पिछड़ा भारत जस का तस है। शिक्षा, रोजगार, औद्योगिकीकरण भारत का जितना बड़ा सच है उतना ही बड़ा सच है गरीबी, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता और तंगी में बढती आत्महत्याएँ। बहरहाल....

बात पीपली लाइव की करना है...मिस्टर परफेक्शनिस्ट की एक और खूबसूरत सौगात। आसमानी उचाईयों को छूने जा रहे हिन्दुस्तान की कडवी तस्वीर को बताती फिल्म...जो सरकार से सवाल करती है कि क्या वाकई हमें आजाद हुए ६३ वर्ष हो चुके हैं। एक गंभीर मुद्दे को हास्य-व्यंग्य से दिखाने का अनुषा रिज़वी का प्रयास सराहनीय है। जिस देश की अर्थव्यवस्था खेती पर ही सर्वाधिक निर्भर है उस देश का किसान ही जब कर्जे के बोझ से दबकर आत्महत्या करेगा तो फिर क्या होगा उस देश का? आजादी के ६३ सालो बाद भी हम एक ऐसा माहौल नहीं बना पाए जहाँ इन्सान सुख से जी सके। इन्सान की जिन्दगी को विलासितापूर्ण बनाने की बात तो दूर उसकी मूलभूत जरूरतों (रोटी-कपडा और मकान) का बंदोबस्त ही नहीं हो पाया है।

तो आखिर इन ६३ वर्षों में क्या किया हमने? ढेरों योजनायें बनाई, कई क्रांतियाँ चलाई, खूब आन्दोलन-प्रदर्शन किये...पर इन सब का लाभ आखिर किसको हुआ? क्या कारण है कि आज भी तकरीबन आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर कर रही है, क्यों किसान जिन्दगी की जगह मौत को चुन रहे हैं, क्यों करोड़ों ग्रामीण बच्चे अब भी शिक्षा से दूर है, क्यों अब भी भूख से मौतें हो रही है? इन तमाम प्रश्नों के जवाब ये फिल्म सरकार से, हम सबसे मांगती है। आखिर कब हम व्यक्तिगत हितों को भूलकर, भ्रष्टाचार विमुक्त हो राष्ट्रहित के बारे में सोचेंगे? आखिर कब हमारे विकास के मापदंड एक खास वर्ग तक सीमित न रहकर सारे देश को अपने में समाहित करेंगे?

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं में भारत के विरोधाभास और विसंगतियां खूब साफ उभरकर आती हैं और ‘पीपली लाइव’ उसी शैली की सेल्युलाइड पर गढ़ी रचना है। हबीब तनवीर की शैली भी इस फिल्म में नज़र आती है। सरकार और मीडिया में फैली सड़ांध को बखूबी महसूस किया जा सकता है। जनता के दर्द पे ही राजनीति की रोटियां सिक रही है और यही दर्द टीआरपी बड़ा रहा है। सर्वत्र असंवेदनशीलता का माहौल है ऐसे में आखिर किस के सामने इस दर्द की गुहार लगाई जाये। यहाँ तो दर्द कि बिक्री शुरू हो जाती है। त्रासदियों के मेले लगाये जा रहे हैं। दर्द में आकंठ इन्सान के मूत्रत्याग करने तक की ख़बरें बनायीं जा रही हैं। देश और दुनिया की भयावह तस्वीर...जी हाँ हमें आजाद हुए ६३ साल हो चुके हैं।

अनुषा ने पटकथा और फिल्म की पृष्ठभूमि पर अच्छी मेहनत की है। ग्रामीण परिवेश की बारीकियों का खासा ध्यान रखा है। अनुषा के इस प्रयास के लिए प्रसिद्द फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने की बात कहते हैं जो सही जान पड़ता है। वाकई ये एक फिल्म मात्र न रहकर शोधपत्र बन गई है।

फिल्म का संगीत बेहतरीन है जिसके कुछ गीत "महंगाई डायन" और "चोला माटी के राम" ने तो पहले ही काफी प्रसिद्धि पा ली थी। संवाद भी बड़े चुटीले है जो मध्य प्रदेश के रायसेन-सागर-विदिशा वेल्ट के गाँवो की स्थानीय भाषा में ही जस के तस गढ़े गए हैं...जैसे-'मुंह में दही जम गओ का' या 'अपनों तेल पटा पे धर लए और कढैया तुम्हे दे दए'...गालियों का प्रयोग है जो एक खास वर्ग को नागवार गुजरेगा पर ये उन गाँवो की हकीकत है। हर कलाकार का अभिनय कमाल का है-अम्माजी के किरदार में फारुख ज़फर और धनिया के रोल में शालिनी वत्स आकर्षित करती हैं...रघुवीर यादव अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप हैं।

कुछेक जगह पे फिल्म कमजोर पड़ती दिखाई दी है पर जल्द ही घटनाक्रम का बदलाव उस कमी को पूरा कर देता है। हो सकता है एक खास वर्ग को कुछ विशेष आग्रह के कारण ये फिल्म पसंद न आये लेकिन ओवरआल एक मनोरंजक और संदेशप्रद फिल्म है....जिसे सत्ता में बैठे देश के कर्णधारों को जरुर दिखाया जाना चाहिए....

(मासिक पत्रिका 'विहान' के प्रथम अंक में प्रकाशित)

Thursday, August 5, 2010

जोश-जुनून-जज्बात और जवानी


किसी ने कहा है-"youth is the best time to be rich & the best time to be poor...they are quick in feelings but weak in judgment"...

व्यक्ति के जवानी का दौर एक ऐसी संकरी पगडंडी है जिसके एकतरफ छलछलाते गर्म शोले हैं तो दूसरी ओर अथाह समंदर। एक तरफ भस्म हो जाएँगे तो दूसरी तरफ डूब जाएँगे। पगडंडी की संकरी गली से होकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जबकि रास्ते में कई ऐसे मौके आते हैं जब आदमी फिसल सकता है।

जवानी में इन्सान नितांत भौतिकवादी होता है। नैतिकता और अनुशासन टिशु पेपर की तरह होते हैं जो बस कुछ देर के लिए खुद कों सभ्य दिखलाने का माध्यम होते हैं। हृदयस्तम्भ पर सपनो की लहरें आसमान छूने कों बेक़रार हैं। अंतस में समाया जुनून ज्वालामुखी बनकर फटना चाहता है। जज्बात श्वाननिद्रा की तरह होते हैं जरा सी भनक पड़ते ही जाग जाते हैं।

दिल, दिमाग पर हमेशा भारी रहता है। दरअसल दिल और दिमाग में से कोई भी एक यदि दुसरे पे भारी रहता है तो नुकसान ही उठाना पड़ता है। दिलोदिमाग का सही संतुलन बहुत जरुरी है। जोश, दिल में पैदा होता है दिमाग उसे होश देता है। महज जोश में सही फैसले नही होते उसके लिए होश जरुरी है और 'व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है'। फैसले दिलोदिमाग के सही संतुलन का परिणाम है।

युवामन निरंकुश हाथी है अच्छी संगति उसे अंकुश में लाती है और गलत साथ निरंकुशता को और बढ़ा देता है। उस दशा में इन्सान को घर-परिवार, माँ-बाप, धर्म, संस्कृति, अनुशासन, सत्शिक्षा फांस की तरह चुभती है। अनुभवियों के उपदेश कान में गए पानी की तरह दर्द देते हैं। हर व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है उसे समझाना एक नासमझी है। हर इन्सान खुद को वल्लम दुसरे को बेवकूफ समझता है।

भौतिकता में रंगा आधुनिक व्यक्ति आध्यात्मिक संत-महात्मा को पागल समझते हैं। आध्यात्मिकता में रंगे संत-महात्मा आधुनिक इन्सान को मोह-माया में पागल समझते है। दरअसल किसी के समझने से कुछ नही होता जो जैसा होता है बस वैसा होता है। इन्सान की कई तकलीफों में से एक तकलीफ ये भी है कि उसे हमेशा ये लगता है कि 'मुझे कोई नही समझता'। अब भैया किसी को क्या पड़ी है दूसरे को समझने की, यहाँ तो लोग खुद को ही नही समझ पाते, दूसरे को क्या खाक समझेंगे।

जवानी की दहलीज पर एक और खुद के सपनो को पूरा करने का दबाव होता है तो दूसरी तरफ दिल में समाये मोहब्बत के जज्बात। कई बार कोई जज्बात नही होते तो भी युवा जज्बातों को उकेरकर तैयार कर लेते हैं। पैर फिसलने की सम्भावना यहाँ सर्वाधिक होती है दरकार फिर सही निर्णय लेने की होती है।

गलत रास्तों पर भटके युवाओं को सही बात समझ आना, न आना मूल प्रश्न नही है, मूल प्रश्न ये है की सही चीज समझ में कब आएगी। देर से प्राप्त हर चीज दुरुस्त नही होती। जवानी तो मानसून का मौसम है यहाँ बोया गया बीज ही बसंत में बहार लाएगा। गर ये मानसून खाली चला गया तो पतझड़ के बाद वीरानी ही वीरानी है।

संस्कारो व सत्चरित्र का प्रयोग बुढ़ापे में नही, जवानी में ही होता है। संस्कारो के पालन से मौज-मस्ती बाधित नही होती बस मस्ती के मायने थोड़े अलग होते हैं। बार में बैठकर जिस्म में उतरती दारू-सिगरेट ही तो मस्ती नही है। दोपहर के तपते सूरज को देखकर ये आकलन हो सकता है कि शाम कितनी सुहानी होगी। जवानी दोपहर है और शाम बुढ़ापा। सुवह कि चमक तो हमने आँख मलते में ही गवां दी अब शाम कि लालिमा ही राहत दे सकती है।

कहते हैं जवानी, दीवानी होती है पर ये एक ख़ूबसूरत कहानी भी हो सकती है। जिसका मीठा रस हमें जीवन के संध्याकाल में मजा दे सकता है। इस मानसून के मौसम में आम और अनार के पेड़ लगा लीजिये, नागफनी के वृक्षों में क्यों अपना समय बर्बाद करते हैं...........