Saturday, April 11, 2015

मेरी प्रथम पच्चीसी : ग्यारहवी किस्त


(ज़िंदगी की तथाकथित व्यस्तताएं और ज़रुरी काम हमसे हमारी सृजनधर्मिता छीन लेते हैं। हम अंदर ही अंदर छटपटाते रहते हैं पर अपनी रचनात्मक शक्ति के प्रयोग को किसी न किसी वजह से टालते रहते हैं और सच्चाई यही है कि रचनात्मकता से बढ़कर सुख और किसी में नहीं। ऐसी ही कुछ व्यस्तताओं के चलते ब्लॉग लेखन में विलंब होता रहता है और अपने इस सृजनधर्म से दूर जाकर कसमसाहट भी होती है। बहरहाल लंबे वक्त बाद जीवन के प्रथम पच्चीस वर्षों का यह यात्रा वृत्तांत पुनः आगे बढ़ा रहा हूँ। विलंब होने से अहसासों का रेशा भी टूटता है जिसका फर्क लेखन पर भी प्रतिबिंवित होता है इस तरह के श्रंख्लाबद्ध लेखन के लिये निरंतरता आवश्यक होती है पर चाहते हुए भी कभी आलस तो कभी दूसरी वजहों से इस निरंतरता को बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। खैर, औपचारिक बातों को विराम देते हुए पच्चीसी को आगे बढ़ाता हूँ। )

गतांक से आगे....

जीवन में जिस दौर से हम गुजर रहे होते हैं, हमें उसकी कद्र कभी नहीं आती और हम बरहमिश अतीत के गलियारों में ही डोलते रहते हैं...और इस प्रवृत्ति के चलते वर्तमान के सुख से वंचित रहते हुए स्वर्णिम वर्तमान को भी अतीत बन जाने देते हैं पश्चात इस खिन्नता से परेशान रहते हैं कि काश! तब हमने ये किया होता, काश! तब हमने वो किया होता। जीवन के प्रारंभिक उन्नीस वर्षों के गुजरने और स्नातक पर्यंत का अध्ययन पूर्ण करने के बाद जब स्नातकोत्तर की शिक्षा अर्जित करने भोपाल आया तो अपने अध्ययन का तकरीबन पूरा प्रथम सत्र गुजरे हुए लम्हों की यादों में ही बिता दिया। इस कारण नये रिश्तों और नये अहसासों को पनपने का ज्यादा अवसर ही नहीं मिला। अपने अतीत को वर्तमान से बेहतर बताते-बताते तत्कालीन दौर को कोसता रहा और वक्त को रेत के मानिंद अपनी मुट्ठी से फिसलने दिया। 

चीज़ें बहुत सामान्य ढंग से घट रही थीं। यूँ समझिये कि न कुछ बहुत बेहतरीन था और न ही कुछ बेहद बदतर। छोटी-छोटी चीज़ें खुशी देती थी और छोटी-छोटी समस्याएं ही पहाड़ सरीकी दिखती थी। सतही अहसास और बचकाने सपने दिल में हिलोरे लेते थे। जो कि उस उम्र का सच होते हैं। ज़रा सी तारीफ आसमानी अहंकार की वजह बन जाती थी और तनिक सी उपेक्षा रातों की नींद छीन लेती थी। समझ कम थी पर जानकारी शनैः शनैः बढ़ रही थी और समझ के बगैर जानकारी का बढ़ना कभी सुख का कारण नहीं होता। 

समझ, हमेशा विपदाओं और असफलताओं से ही मिलती हैं। गलतियां ही अनुभवी बनाती हैं। जब लाचारियों के कारण कुछ करने का रास्ता नज़र नहीं आता तो हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और तभी हमें विराम का वक्त मिलता है ये विराम का वक्त अनायास ही विचार का वक्त बन जाता है। जिस कारण स्वतः समझ विकसित होने का माहौल निर्मित हो जाता है। प्रथमदृष्टया मुसीबतें बेहद विचलित करने वाली लगती हैं पर कालांतर में यही परिपक्वता का संचार करती हैं। मेरी ज़िंदगी में ऐसी ही विपदाओं का दौर शुरु हो रहा था जिस कारण क्षणिक उपलब्धियों और आधारहीन ख़याली घोड़ों पर लगाम लगी। जीवन की लंबाई के परे, इसकी गहराई को जानने के अवसर मिले। विराम का वक्त आया और यह अपने साथ विचार का वक्त लाया। यह सिलसिला शुरु तो 2007 में हुआ था पर थमा अब भी नहीं है।

नवंबर 2007 में अपने गृहग्राम से लौटते वक्त एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुआ। हादसा इतना बड़ा नहीं था कि हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़े और इतना छोटा भी नहीं था कि तुरंत चलने-फिरने लगे। इसलिये प्राथमिक उपचार के बाद आठ दस दिन विश्राम करना था...यूं कहिये अनचाहा विराम का वक्त..और बेवजह के विचार का वक्त। घटनाएं भले छोटी ही क्युं न हों पर जब वे घटती हैं तो यह ज़रुर लगता है कि अब तो हो गया काम-तमाम और हम एक अदृश्य शक्ति से ज़िंदगी की भीख मांगने लगते हैं। तमाम दुष्कृत्यों को न करने और सुकृत्यों को करने के तात्कालिक संकल्प लेते हैं पर वक्त बीतने के साथ एवं हालात सुधरते ही वे सारे संकल्प फ़ना हो जाते हैं। ज़िंदगी फिर स्वच्छंद हो जाती है। एक्सीडेंट हुआ तो अपने गाड़ी चलाने की रफ़्तार पे तो नियंत्रण पाया ही साथ ही ख़याली उड़ान पर भी लगाम लगी। तात्कालिक ही सही ज़िंदगी की क्षणभंगुरता का भान हुआ। मसान वैराग्य का जन्म और सुप्त चैतन्यता झंकृत हुई।

अपनी इस घटना के चलते कुछ लोगों की पुरातन और अंधश्रद्धा के दर्शन भी हुए। दरअसल, जिस जगह यह सड़क हादसा हुआ था उससे कुछ दुरी पहले एक धार्मिक आयतन पड़ता है जिसे लेकर मान्यता है कि वहां मत्था न टेका तो जीवन में बुरा होना निश्चित है। उस धार्मिक स्थल पर आपकी मान्यता हो या न हो लेकिन उस स्थान से गुजरते वक्त कमसकम गाड़ी का हॉर्न ज़रूर बजा देना चाहिये। पर मेरी नज़र में यह तमाम धारणायें धार्मिकता की पर्याय नहीं बल्कि पोंगापंथी ही हैं। मुझे याद नहीं कि मैंने वहां हॉर्न बजाया था या नहीं लेकिन यह ज़रूर बताना चाहूंगा कि यदि याद होता तब भी मैं वहां यह फिजूल की क्रिया नहीं करने वाला था। ऐसा कहकर मैं किसी धार्मिक आस्था और आयतन का तिरस्कार नहीं कर रहा हूँ पर स्वयं की श्रद्धा के बगैर, चाहे जहाँ महज डर या लालच के मत्था टेकने को नीतिगत आस्था के विरुद्ध ज़रूर बताना चाह रहा हूँ। ऐसी आस्थान मूल्यविहीन तो है ही साथ में इंसान के तार्किक और विवेकवान होने पर भी एक सवाल है। दुनिया का कोई ईश्वर इतना हल्के दर्जे का नहीं हो सकता जो खुद को नमन न करने वालों के साथ बुरा कर अपनी छद्मवृत्ति का परिचय दे। ईश्वरत्व का वास साम्यता के साथ ही हो सकता है। राग-द्वेष संयुक्त होना, पक्षपाती होना और दुनिया को अपने आगे झुकाने की वृत्ति रखना..ये तमाम चीज़ें ईश्वरत्व की पर्याय कतई नहीं है। लेकिन मुझे हिदायतें देने वाले तो दे ही रहे थे। अफसोस इस बात का है कि मेरे संग घटी उस घटना से मेरे श्रद्धान में तो शिथिलता नहीं आई पर कई दूसरे लोग इसे देखकर ज़रूर अंधश्रद्धानी बन गये। डर एवं लालच, सदैव और सर्वथा एक बहुत बड़ी विसंगति ही हैं और इन विसंगतियों के आधार से जो पैदा होगा...वो चाहे जो भी क्युं न हो पर धर्म कतई नहीं हो सकता।

खैर, इस हालात से उबरने में ज्यादा वक्त नहीं लगा...पर यह सुकून महज तीन-चार दिन का ही था क्युंकि कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी विपदा बड़ी सज-धज के दर पे दस्तक देने जा रही थी। जीवन के सफ़र में एक और गतिअवरोधक आ चुका था...जिसकी चर्चा अगली किस्त में, फिलहाल रुकता हूँ। लेकिन हाँ चलते-चलते एक बात और कि गतिअवरोधक, जीवन सफर में हमारी रफ़्तार को धीमा भले कर दें लेकिन हर रास्ते और सुरक्षित सफ़र के लिये इनका होना बहुत ज़रुरी है।

जारी.....................