Saturday, December 31, 2011

केलेन्डर बदलता है...हालात और फितरत नहीं


२०११ का समापन है और २०१२ दस्तक देने को तैयार..साल ख़त्म होने के पहले ही कई घरों में केलेन्डर बदल गये होंगे..और २०१२ का नवीनतम केलेन्डर सज-धज के दीवारों पे चस्पा हो गया होगा। वर्ष की विदाई, हर्ष की विदाई, उत्कर्ष की विदाई तो किसी के लिए संघर्ष की विदाई का आलम है..पर सच ये भी है कि गुजरा हुआ वक़्त गुजरकर भी नहीं गुजरता।

वर्ष बदल रहा है तो ज़ाहिर है केलेन्डर भी बदल जायेगा...लेकिन इस बदलते केलेन्डर के बावजूद कुछ चीजें जस की तस बरक़रार रहेंगी। लोकपाल बिल का तमाशा खूब हुआ बीते वर्ष..पर अब भी ये विवादों के फेरे में उलझा हुआ है...भ्रष्टाचार की त्रासद तस्वीरें नहीं बदलेंगी..अशिक्षा, जातिवाद, रुढियों का दीमक भी शायद ही देश की दीवारों से दूर हो पायेगा..और शायद ही रुकेंगी किसानों की आत्महत्याएं, मेट्रो सिटीज में बलात्कार की घटनाएं, डकैत, लूट या गली-मोहल्लों में दिनदहाड़े हो रही हत्याओं की वारदातें। गत वर्ष ओसामा मारा गया पर क्या आतंकवाद मरा है..गद्दाफी और होस्नी मुबारक की तानाशाही मिटी है पर क्या तानाशाह ख़त्म हुआ है..खाद्य सुरक्षा बिल पास हुआ है लेकिन क्या अब भूख से कोई नहीं मरेगा, ये गारंटी है...अफ़सोस बदलता हुआ केलेन्डर न बदलने वाले सवालों के जबाव दिए बगेर ही गुजर रहा है...

न हालात बदल रहे हैं नाही इंसानों की फितरत...नया वर्ष सिर्फ नयी तारीखें लेकर आएगा, सुसंगतियाँ नहीं। धार्मिक कट्टरताएँ नहीं हटने वाली और इससे जन्मी धार्मिक हिंसा भी बनी रहेगी..लोगों के पूर्वाग्रह विसंगतियों को ख़त्म नहीं होने देंगे...तथाकथित मोड़ेर्निटी विचारों पर नज़र नहीं आती सिर्फ पहनावे और चालचलन में दिखती है। पुरातन रूढ़िवादिता से जनमी छुआछूत, ओनरकिलिंग, अन्धविश्वास, पाखंड जैसी वारदातें नहीं मिटने वाली...कहने के लिए महिला सशक्त हुयी है लेकिन क्या असल में घरेलु हिंसा ख़त्म हुई है, क्या आज भी महिला पे बंदिशें मिटी है, क्या बेटियों का आबोर्शन होना रुका है...यदि कहीं महिला बंदिशों के बिना नज़र आ भी रही है तो वो महिला का सशक्त रूप नहीं, कुत्सित रूप नज़र आ रहा है...आज भी पुरुष मानसिकता उसे एक विलास सामग्री के तौर पे ही देखती है...और नारी का प्रयोग भी विज्ञापनों और फेशन जगत में सिर्फ उत्पाद का बाज़ार बढ़ाने के लिए किया जा रहा है...विश्वास नहीं होता कि हम इक्कीसवी सदी के बारहवे वर्ष मेंप्रवेश करने जा रहे है।

इतिहास महज़ कुछ तिथियों में सिमटकर नहीं रह जाता...वो एक अहम् अनुभवशास्त्र भी होता है। जिसका भाव समझकर अध्ययन किया जाय तो कुछ सीखा भी जा सकता है...और वो सीख लक्षित भविष्य को हासिल करने में सहायक साबित हो सकती है। २०११ इतिहास के पन्नो में समा रहा है लेकिन हम इससे क्या सीख कर आने वाले कल की तरफ निहार रहे हैं, ये महत्वपूर्ण है..क्या कोई इस न्यू ईयर ईव पे अपनी भागमभाग भरी जिंदगी में से कुछ विराम का वक़्त निकाल कर अपने बीते हुए कल पे विचार करेगा...शायद नहीं..और मैं यदि कुछ विचारने की हिदायत दूंगा तो सबसे बड़ा पुरातनपंथी होने का ताज मेरे सर पर ही मढ़ दिया जायेगा...भैया न्यू ईयर ईव की ये रात तो जाम छलकाने के लिए है, DJ की धुनों पे थिरकने के लिए है, सिगरेट के कस से धुंए के बादल उड़ाने के लिए है..और उन बादलों में जबकि पूरी फिजा धुंधली हो जाएगी तो किसे अपना अतीत नज़र आयेगा..कौन उसमें अतीत का मूल्यांकन करेगा..और जो करेगा वो तो पुरातनपंथी कहलायेगा ही जनाब!!!

केलेन्डर बदल जायेगा पर कुछ यादे ज़हन में बनी रहेंगी..जो आने वाले वक़्त में भी यदा-कदा अपना मीठा या कडवा रस हमें देती रहेंगी..लोगों की २०११ की डायरी बंद हो जाएगी लेकिन उसकी कुछ बातें २०१२ की डायरी में अनायास चली आएँगी। गुजरा हुआ वक़्त और आने वाला कल दोनों किसी न किसी तरह हमारे साथ चलते ही रहते है...गोयाकि जिंदगी भी दीवार में चस्पा सुइयों वाली घड़ी की तरह होती है जिसमे गुजरा हुआ और आने वाला समय भी उन दो सुइयों पे नज़र आता है जो वक़्त वे सुइयां नहीं बता रही होती है। बकौल जयप्रकाश चौकसे "कुछ लोग पुरानी डायरी में अंकित कुछ बातों को नई डायरी में नोट कर रहे हैं, परंतु अधिकांश लोग कैलेंडर अवश्य बदलना चाहते हैं। काश, कैलेंडर बदलने की तरह आसान होता कड़वाहट को भुलाना, परंतु वह तो दीवार में ठुके कीले की तरह दिल में पीड़ा का सतत स्मरण कराती है। हम अपने हर वर्तमान क्षण पर विगत का साया और आगामी की आशंका को महसूस करते हुए वर्तमान के क्षण को ही भींची हुई मुट्ठियों से रेत की मानिंद फिसलने देते हैं। अधिकांश लोग कैलेंडर बदलते हैं, परंतु नियति नहीं बदलती और इस कैलेंडरों से भरे देश में तारीख बदलने से भाग्य नहीं बदलता।"

बहरहाल, सभी की तरह मेरे लिए भी २०११ मिले-जुले अनुभवों से भरा रहा..जहाँ मैने रीनल डिसआर्डर के बाद किडनी ट्रांसप्लांट जैसे कठिन लम्हों को देखा तो कई बेहद सुखद अनुभवों से भी दो-चार हुआ..आगे देखता हूँ तो दर्द का साया भी है और डर भी...लेकिन उम्मीद, दर्द और डर दोनों से ज्यादा है...और उसी उम्मीद और हौसले के साथ निरंतर आगे बढ़ने का ज़ज्बा भी बना हुआ है। केलेन्डर से २०११ गुजर जायेगा पर मेरे दिल से नहीं....नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ.........................