Thursday, July 24, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : आठवीं किस्त

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(कलम की रेलगाड़ी पे बैठ यादों के सफ़र पे निकले मैंने अपने अतीत के नज़ारों को एक बार फिर जीने की कोशिश की...पर अब भी बहुत कुछ है जो आगे इस सफ़र में आयेगा। अतीत में झांकना कई मर्तबा बड़ा प्रेरक होता है तो कई बार ये आंखें नम भी कर देता है। गुजरे दौर का वो वक्त जिसमें हम रोये थे उसे सोचकर हंसी आती है और जिन लम्हों में हम हंसे थे उन्हें सोचकर रोना आता है पर दोनों ही तरह के लम्हों को याद कर अधूरापन तो सालता ही है क्योंकि ये कसक हमेशा बनी होती है कि अब फिर हम उन लम्हों को नहीं जी पायेंगे। जो बीत गया सो बीत गया...लेकिन यादों और किस्सागोई के जरिये अतीत के पुराने पड़ चुके पन्नों पर से धूल ज़रूर झाड़ी जा सकती है। लेकिन इस ताजगी के लिये एक सच्चे हमदर्द, हमसफ़र की तलाश होती है और उसका मिलना ही शायद सबसे मुश्किल है..और इस मुश्किल घड़ी में कलम ही सच्ची मित्र बनकर सामने आती है और आज के इस सायबर युग में उस मित्र का काम कर रहा है ये चिट्ठाजगत..बस इसीलिये अपनी यादों के इडियट् बॉक्स से कुछ चिट्ठियां निकाल यहां बिखेर रहा हूँ.... )

गतांक से आगे-

दोस्तों का नया हुजूम जुड़ रहा था और पुराने दोस्तों की दिल के आंगन से धीरे-धीरे विदाई हो रही थी। हालांकि विदा हुए कुछ दरख़्त कई मर्तबा रूह में  ऐसे चिपक जाते हैं कि ताउम्र उनकी कचोट हृदय को उद्वेलित करती रहती है। लेकिन उस अर्धपरिपक्व उम्र का कोेई पुराना दरख़्त मेरी रुहानी दहलीज पर न टिक सका। दरअसल  ये मानव स्वभाव है कि 'नज़रों से दूर तो दिल से दूर'। नयी-नयी नज़दिकिया हर बार प्राथमिकताएं बदल देती हैं और ऐसा ही कुछ मेरे साथ था। अपने इस आशियाने के जिन साथियों से ट्युनिंग बैठना थी वो बैठ गई थी और जिनसे नहीं बैठना थी उनसे अनचाहे ही दूरी बनी हुई थी। मेरे बेहद जिद्दी और अहंकारी स्वभाव के कारण दोस्ती कम दुश्मनी ज्यादा होती थी। उस स्वभाव के कुछ छींटे आज भी कायम है और अपनी कमी जानते हुए भी खुद को सुधार पाना बड़ा मुश्किल होता है। बुद्धि, हालातों को समझ सब कुछ सामान्य कर देना चाहती है पर अहंकार चीज़ों को जटिल करता जाता है। इससे पता चलता है कि समस्त ज्ञान और विवेक के लिये अहंकार, रोष और क्रोध जैसे विषाक्त जज़्बात कितने घातक हैं। मुझे अच्छे से याद है कि मेरी कक्षा के कुल 35 विद्यार्थियों में से 16 छात्रों से मैं एक ही समय पर दुश्मनी पाले बैठा था और प्रायः इन सबसे ही मेरी बात नहीं होती थी। कुछ दूरियां तो ऐसी थी कि उस परिसर में पांच साल तक पड़ने के बावजूद मैंने उन लोगों से कभी बात नहीं की। वक्त बीतने के साथ हम ये भूल जाते हैं कि हमने किस वजह से बैर पाला था पर उस बैर से बड़ी हमारेे बीच की दूरी बन जाती है...गलतियों की खाई को भरना बहुत आसान है पर दूरियों की खाई गहराती ही जाती है।

कक्षा बारहवीं बोर्ड परीक्षा होने के वजह से हमें उस हॉस्टल में कुछ विशेष रियायतें मिला करती थी। लेकिन उन आजादियों को हम प्रॉडक्टिव काम करने के बजाय फिजूल के कामों में ज्यादा खर्च करते थे। जैसे धार्मिक कक्षाओं, पूजा-प्रार्थना से हमें छुट्टी दी जाती तो हम शॉपिंग, खेल-कूद या सोने में अपना वक्त ज़ाया करते, बस से हमें कॉलेज के लिये भेजा जाता तो किसी सिनेमाहॉल में फ़िल्में देखने चले जाते। तब ये सब करने में बहुत मजा आता था पर आज सोचते हैं तो लगता है कि उस वक्त का कुछ बेहतर उपयोग किया जा सकता था पर जीवन की कड़वी सच्चाई यही है कि सारी समझदारी वक्त बीतने के बाद ही आती है। ज़िंदगी के उस दौर में गुटबाजी का भी सुरूर छाया रहता था और अपना एक दल बनाकर खुद को तीसमारखां साबित करने की जुगत सवार रहती और उस गुटबाजी में खूब राजनीति होती और दूसरों को नीचा और खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश करते। तत्कालीन स्कूल या हॉस्टल में होने वाली प्रतियोगिताओं में अव्वल आने के लिये साम-दाम-दंड-भेद सबका सहारा लेते और अपनी लकीर लंबी करने के लिये प्रायः दूसरों की लकीर मिटाने से भी मैंने गुरेज़ नहीं किया। प्रतिस्पर्धाएं हमें आगे बढ़ाने के लिये होती है लेकिन हमें पता ही नहीं चलता कि चारित्रिक तौर पर हम कई बार बहुत पीछे चले जाते हैैैै क्योंकि प्रतिस्पर्धा के साथ राजनीति और कूटनीति भी सहज व्यक्तित्व का हिस्सा बनती है और जीवन में राजनीति का प्रवेश होने के बाद नैतिकता बहुत दूर चली जाती है।

प्रतिस्पर्धा का असली चरम क्रिकेट के मैदान पर नज़र आता था। जिसके लिय की जाने वाली तैयारियां और हमारे द्वारा बनाई जाने वाली रणनीतियां कुछ ऐसी हुआ करती थी मानो भारतीय टीम का ओलंपिक में प्रतिनिधित्व करना है। हर वर्ष दिसंबर-जनवरी में हॉस्टल में खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन होता..मुझे याद नहीं आता कि उस समय क्रिकेट टूर्नामेंट जीतने पर हासिल हुई प्रसन्नता जैसी खुशी कभी और मिली हो। 31 दिसंबर 2003 को क्रिकेट कप जीतने के जज़्बात आज भी चेहरे पे मुस्कान और गौरव का संचार कर देते हैं। यकीनन वो  कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट नहीं था, जीवन में उसके बाद कई उपलब्धियां आयी पर कोई भी उपलब्धि उस अदनी सी सफलता जैसी खुशी नहीं दे पाई।  अपने हॉस्टल की साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी अब कुछ-कुछ रुतबा कायम होता जा रहा था जिससे आत्मविश्वास का संचार भी होने लगा था और जब आत्मविश्वास बढ़ता है तो सब अच्छा लगने लगता है। उस साल बारहवीं की परीक्षा में भी अच्छे खासे प्रतिशत से पास हुआ था तो जिस हॉस्टल की दीवारें पहले काटने दौड़ा करती थी वहीं अब अपने घर से भी प्यारी लगने लगी। उन दोस्तों से अब जज़्बाती गांठ जुड़ चुकी थी। बहुत कुछ सीखते हुए जिंदगी बढ़ रही थी तो बहुत कुछ चूक जाने का मलाल आज भी बना हुआ है। वैसे हम चाहे कितना कुछ भी क्युं न हासिल कर लें..जिंदगी के साथ कुछ 'काश' तो जुड़े ही रहते हैं।

हॉस्टल में सीनियर हो जाने का भी गजब का आनंद रहा करता था और जुनियरों के सामने शेखी बघारने में भी बहुत मजा आता था। इस प्रवृत्ति से मैं भी बहुत अच्छे से ग्रस्त था..और कई झूठी-सच्ची बातों के सहारे खुद को महान् बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। भाषण, वाद-विवाद जैसी प्रतियोगिताओं में तब अच्छा खासा नाम हो गया था तो दूसरों को ज्ञान देने के बहाने भी मिल गये थे। उम्र के नाजुक दौर में अहंकार बहुत जल्दी दस्तक देता है और मैं तो वैसे ही जरा सी तारीफों से बढ़प्पन के भाव से ग्रस्त हो जाता था..तो जब भी तारीफें होती तो खुद को महान् और दूसरों को तुच्छ देखने की एक बेहद घटिया प्रवृ्त्ति का आविर्भाव अंतस में हो गया था। यदि उम्र बढ़ने के बावजूद भी हम इस प्रवृत्ति से घिरे हुए हैं तो समझ लीजिये हम बड़े हुए ही नहीं है। जीवन में आये कई उतार-चढ़ावों ने कमसकम दूसरों को हीनता से देखने का भाव को तो ख़त्म कर ही दिया। हाँ तारीफों के चलते आने वाला अहंकार का भाव आज भी बहुत हद तक बना हुआ है..इसलिये हमेशा लोगों की तारीफों से दूर भागने की कोशिश करता हूँ ताकि यथार्थ के नजदीक रह सकूं।

तकरीबन उसी साल मतलब उम्र के सोलहवें वर्ष में एक बड़ी धार्मिक सभा में प्रवचन करने का पहली बार मौका मिला था। जो कि हमारे उस हॉस्टल की परंपरा का हिस्सा होता था और हर छात्र उस स्वर्णिम अवसर में अपना सर्वस्व देने की कोशिश करता था। मुझे जब ये अवसर मिला तो लंबी तैयारी के बाद जब मैंने उस सभा में धूम मचाई तो लोगों की तारीफों ने एक बार फिर अभिमान को शिखर पर पहुंचा दिया। इसी तरह की छुटमुट उपलब्धियां इकट्ठी होती हुई नाम तो बड़ा कर रही थी पर दृष्टिकोण में ऊंचाई नहीं आयी थी और संकीर्ण मानसिकता की कई परतें अब भी चढ़ी हुई थी। जिन्हें आगे चलकर धीरे-धीरे ज्ञानार्जन से ही दूर किया जा सका। पूर्वाग्रह और दुराग्रह तो आज भी होगा और वो जाते-जाते ही जाता है क्योंकि सीखना ताउम्र जारी रहता है..लेकिन जज़्बाती और शैक्षिक परिवर्तन का वो एक मोड़ था जिस पर सबसे ज्यादा सीख भी मिली और परिपक्वता भी आई। उसी वर्ष पहली बार बिना किसी गार्जियन के देश के कई बड़े शहरों को घूमने का मौका मिला..जब शिविरों और संगोष्ठियों के लिये हमें वक्ता के तौर पर बाहर भेजा जाता और सफ़र से ज्यादा सीख देने वाली और कोई चीज़ नहीं हो सकती। दिल्ली, शिमला, पूना जैसे कई छोटे-बड़े शहरों को अकेले या दोस्तों के साथ घूमा...मजा भी बहुत आया, डर भी दूर हुआ और स्वावलंबी होने के क्रम मे कुछ सोपान और चढ़े। सबकुछ बड़ा वंडरफुल था..अपनी हॉस्टल लाइफ का विस्तृत वर्णन मैंने एक अन्य ब्लॉग पर स्मारक रोमांस और पिंकिश डे इन पिंक सिटी नामक श्रंख्ला में कर चुका हूँ इसलिये यहाँ ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा।

बहरहाल, जीवन का सोलहवां बसंत पार हो रहा था और अब कुछ नटखट और नादान अहसासों का भी ज़िंदगी में प्रवेश हो रहा था। समझदारी के साथ अय्याशी की चाहत भी बढ़ रही थी। एक तरफ संस्कार थे तो दूसरी तरफ मनचले मन की कश्मकस...दोनों का खूब संघर्ष हुआ और इस संघर्ष के कारण जिंदगी के अगले हिस्से मजेदार और जीवंत बने। रुकता हूँ अभी..उन पलों के साथ फिर लौटूंगा.................

Friday, July 11, 2014

मानव पूंजी का निकास और लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था

देश की नई सरकार का पहला बजट हाल ही में जारी हुआ है। कई बड़े-बडे़ सपने और दूरगामी लक्ष्यों को पूरा करना इस बजट का ध्येय है। शिक्षास्वास्थ्य और रोजगार के लिये सुदृढ़ अवसंरचना निर्माण के वायदे हैं तो कहीं न कहीं देश के युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने के लिये कई मूल्यपरक बेहतर काम करने की पहल भी प्रदर्शित की गई है। लेकिन बावजूद इसके हिन्दुस्तानी युवा या जिसे मैंने अपनी इस पोस्ट के शीर्षक में मानव पूंजी कहकर संबोधित किया है वो यूरोपसिंगापुरदुबई और अमेरिका के सपने आँखों में संजोये हुए महज़ खुद के विकास को प्राथमिकता देता है और हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था और तमाम राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को गरियाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। 

उन्नीसवीं सदी के अंत में दादाभाई नैरोजी ने ड्रेन ऑफ वेल्थ (धन का निकास) सिद्धांत प्रतिपादित कर देश को ये बताने की कोशिश की थी कि किस तरह देश का अमूल्य खजाना विभिन्न माध्यमों के जरिये ब्रिेटेन  जा रहा है। अब बीसवीं शताब्दी के अंत या इक्कीसवीं सदी की समस्या ड्रेन ऑफ ह्युमन वेल्थ की निकासी है। लाखों की तादाद में आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थानों से शिक्षा प्राप्त होनहार युवा अपने करियर को नई ऊंचाई देने के लिये विदेश पलायन कर रहे हैं और इससे उनका योगदान देश और अर्थव्यवस्था के विकास पर उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है। देश को आज चिकित्सा, शिक्षा, अभियांत्रिकी, प्रबंधन जैसे हर क्षेत्र में मानव पूंजी की बेहद आवश्यकता है किंतु युवाओं की स्वार्थपरक वृत्तियां उन्हें अपने देश की बजाय दूसरे देशों में काम करने को बाध्य कर रही हैं। निश्चित ही कई मायनों में बाहर कार्यरत भारतीयों के कारण देश के अंदर पैसा भी आता है पर वो अपने देश में रहकर ग्रास रूट लेवल पर काम करने की तुलना में कम कार्यकारी है और देश की खोखली पड़ चुकी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिये उन युवाओं की ज़रूरत देश में रहकर ज़मीनी स्तर पर काम करने की ज्यादा है।

आज सरकार युवाओं की प्राथमिक और बुनियादी उच्च शिक्षा को गुणवत्तापरक बनाने के लिये अनेकों जतन कर रही है पर वही युवा सरकार से समुद्रपारीय शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति लेकर विदेश जाते हैं औऱ फिर कभी लौटकर नहीं आते। एक अध्ययन के अनुसार एम्स से साढ़े पाँच वर्ष की एमबीबीएस पढाई कर 53 फीसदी चिकित्सक स्टडी लीव के नाम पर विदेश जाते हैं और फिर वापस नहीं आते। जबकि एम्स संस्थान में शिक्षा के लिये सरकार एक विद्यार्थी पर करोड़ो का खर्च करती है। वहीं यदि देश की बात की जाये तो वर्तमान में हमारे यहाँ डेढ़ लाख उपकेन्द्रों पर एक भी चिकित्सक नहीं है और हम अपनी मानव पूंजी का धड़ल्ले से निकास होते हुए देख रहे हैं। यही हालत दूसरे संस्थानों की और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रकों की भी है। 

आज सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर जो बेहिसाब खर्च कर रही है उसका लक्ष्य एक कुशल मानव पूंजी का निर्माण करना है और इन आधारभूत खर्चों के माध्यम से मानव की श्रम उत्पादकता में वृद्धि करना है। अकेले शिक्षा पर सरकार जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करती है। लेकिन सरकार का ये सारा निवेश उस समय बेकार चला जाता है जब निजी स्वार्थों के लिये ये युवा अपनी इस उत्पादकता का प्रयोग अपने देश के बजाय अन्य देशों में करते हैं। यकीनन इससे वे अपनी लाइफ को लग्जरी सुविधाओं से संपोषित करते हैं किंत इसका कोई सहभागी उपयोग अपने देश की आवाम के लिये नहीं हो पाता। इन्फोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति का एक महत्वपूर्ण कथन याद आ रहा है, वे कहते हैं- 'प्रतिभा और पैसे का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वो दूसरों के काम आये' लेकिन बाहर गयी हुई मानव पूंजी की न तो प्रतिभा से देश लाभान्वित हो पाता है और न ही पैसे से।

इस सबके अलावा सबसे बड़ी परेशानी ये है कि इन पलायन किये हुए युवाओं में अपने देश के प्रति हीनता का भाव भी आ जाता है और अपने देश की प्रणाली को ये बड़े ही दरिद्रता के भाव से देखते हैं जिसके प्रति इन्हें सहानुभूति तो होती है पर इसकी बेहतरी के लिये सहभागिता निभाने पर जोर नहीं होता। मैं यहां डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम का एक वक्तव्य उल्लिखित करना चाहूंगा- "हम अमेरिका जाकर उनकी प्रशंसा करते हैं और उनके सम्मान में क्या-क्या कहते हैं और जब न्यूयार्क असुरक्षित हो जाता है तो हम लंदन भागते हैं। जब इंग्लैण्ड में बेरोजगारी की स्थिति पैदा होती है तो हम अगली फ्लाइट से खाड़ी देश पहूंच जाते हैं। जब खाड़ी में युद्ध छिड़ता है तब हम भारत सरकार से खुद को वहां से निकालने की गुहार लगाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति देश को गाली देने व दुर्व्यवहार करने के लिये मुक्त है पर कोई भी इस व्यवस्था को पूर्णता प्रदान करने के बारे में नहीं सोचता। हमारी अंतरात्मा धन की गिरवी हो गयी है"। इस कथन में युवाओं की संपूर्ण सोच को रेखांकित किया गया है।

जितनी आत्मीयता और आदर हम अन्य देशों के कानूनों और व्यवस्थाओं के प्रति दिखाते हैं उतना यदि हम अपने देश के प्रति दिखाये तो बात ही अलग हो सकती है। मुंबई के पूर्व निगमायुक्त श्री टिनाइकार ने एक बार कहा था कि 'धनी व्यक्ति अपने कुत्तों के साथ सड़को पर घूमने निकलते हैं उनके कुत्ते सड़कों पर जगह-जगह मलत्याग देते हैं। दुूबारा वही व्यक्ति फिर सड़कों पर आते हैं और अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनकी तथाकथित अक्षमता के लिये गाली देते हैं। अमेरिका में कुत्ता मालिकों को फुटपाथ पर खुद ही कुत्ते का मल साफ करना पड़ता है। जापान में भी ऐसा ही है। पर क्या भारत में भारतीय नागरिक ऐसा करेंगे? "वाशिंगटन में 55 मील प्रतिघंटा से अधिक गति पर कार ड्राइव करने पर आपको यातायात पुलिस को यह कहने की हिम्मत नहीं होगी कि 'तुम्हें पता है कि मैं अमूक नेता या अधिकारी का बेटा हूं।' पैसा लो और भागो"। 

दरअसल, खराबी हमारे जिन्स में ही आ चुकी है यही वजह है कि हम वर्षों से चली आ रही अपनी छद्म स्वार्थपकर वृत्तियों के चलते पूर्णतः सद्भावना और जनहितपरक सोच से शून्य हो चुके हैं। सिस्टम को गाली देना..और खुद को पदपैसा और प्रतिष्ठा से लवरेज़ करके हम महात्मा होना चाहते हैं पर वैश्विक संस्कृति में महात्मा होने के लिये संग्रहवृत्ति नहीं बल्कि त्यागवृत्ति वाञ्छित है...महज मरने से कोई शहीद नहीं हो जाता, आपकी मौत की वजह शहादत को तय करती है। महानता का पैमाना भी कुछ-कुछ ऐसा ही है..............

Thursday, July 3, 2014

बंजारे को घर दिलाने की कोशिश : एक विलेन

सरपट दौड़ती ज़िंदगी में मोहब्बत के कारण ही नये पेंच आते हैं...कभी मोहब्बत हो जाने से तो कभी मोहब्बत की डोर टूट जाने से, जीवन के मायने ही बदल जाते हैं। हर मर्तबा साहित्यकार या फिल्मकारों द्वारा प्रेम को मंजिल साबित करने के जतन किये जाते हैं पर मोहब्बत हमेशा रास्ता ही बनी रहती है जिसकी कोई मंजिल नहीं होती..और असल में मोहब्बत की खूबसूरती ही इस बात में है कि ये मंजिल नहीं, महज़ रास्ता है। रास्तों की खूबसूरती हमेशा मंजिल से ज्यादा होती है लेकिन हम किसी अव्यक्त मंजिल की तलाश में रास्तों का मजा भी नहीं ले पाते।

मोहित सूरी निर्देशित फिल्म 'एक विलेन' भी नायकनुमा विलेन को प्रेम के जरिये मंजिल दिलाने की कोशिश करती है। जिसे फिल्म के बहुचर्चित गाने 'मुझे कोई यूं मिला है जैसे बंजारे को घर' के जरिये बयां भी किया गया है। लेकिन फिर भी मोहित सूरी अपनी तथाकथित सुखद अहसास वाली एंडिंग करने के बावजूद बंजारे को घर नहीं दिला पाते..क्योंकि प्रेम में गंतव्य का प्रावधान ही नहीं होता। प्रेम को मासूमियत और दीवानगी को दिखाने का मोहित सूरी का अपना ही एक पैटर्न है जो 'एक विलेन' में भी बखूब नज़र आता है। मोहित का नायक पारंपरिक शिष्टाचार और नैतिकता से युक्त नहीं होता और न ही उसमें मानवीय सभ्यता का समावेश देखने को मिलता है लेकिन फिर भी वो फिल्म के कथानक में पूरे सिस्टम और सभ्य समाज के बीच सबसे ज्यादा दर्शकों की सहानुभूति जुटाता है। यही वजह है कि वो विलेन होते हुए भी नायक है क्योंकि वो प्यार करता है और हमने हिन्दी सिनेमा की शुरुआत से ही प्यार करने का जिम्मा नायक को सौंप रखा है...किसी और में प्यार के लिये दीवानगी हो, ये हमें रास नही आता।

'एक विलेन' में दरअसल एक नहीं बल्कि दो विलेन हैं।  दोनों हत्याएं करते हैं, दोनों ही अपनी-अपनी नायिकाओं से बेइंतहा प्यार करते हैं लेकिन दर्शक का जुड़ान सिर्फ एक के साथ होता है और सिस्टम के हाथों कुंठा झेलने वाला और अनायास ही जिस किसी को मार देने वाला काम्प्लेक्सिटी से घिरा दूसरा विलेन (रितेश देशमुख) दर्शकों की हमदर्दी नहीं जुटा पाता..क्योंकि उसके हिंसक रवैये की वजह तार्किक नहीं है जबकि पहले विलेन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) का हिंसक होना सतर्क और उद्देश्यपूर्ण बताया गया है। शायद इसीलिये वो विलेन होते हुए भी अनाधिकारिक तौर पर इस फिल्म का हीरो है। 

मोहित सूरी ने हत्या और हिंसा के परे इस फिल्म में जो प्रेम कहानी बताई है वो बड़ी रुमानियत और मासूमियत को संजोये हुए है और फिल्म की असली यूएसपी भी वही है। प्रेम को प्रकृति से जोड़ते हुए जिन नाजुक लम्हों को मोहित ने संजोया है वो उनकी तरह का पहला सिनेमाई एक्सपेरिमेंट है...और मौजूदा दौर में पर्यावरणविद् जिन क्लाइमेटिक चेंजेस को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं उन चीज़ों को ही इस फिल्म में खूबसूरती से प्रेम के साथ लिंक किया गया है। सावन की पहली बारिश में मोर का नाचना, तितलियों के साथ अठखेलियां करना, समंदर के नीचे की दुनिया, मछलियों का संसार, मूंगे की चट्टान,  हवा के साथ बहने के दृश्यों का प्रेम के साथ समायोजन बड़ा सुंदर नज़र आता है..और ये दृश्य ही प्रेम का प्रकृतिकरण और प्रकृति का प्रेमीकरण  करते प्रतीत होते हैं। जो मानवीय जज़्बातों को ग्रास रूट लेवल का बनाते हैं और प्रेम की सबसे बड़ी सच्चाई को बयां करते हैं।

बहरहाल, मोहित सूरी इस फ़िल्म की सफलता से स्टार निर्देशकों की जमात में शामिल हो गये हैं और उन्होंने भट्ट कैम्प के बाहर भी अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज कराई है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिये ये फिल्म उनके करियर को नये परवाज़ देने वाली साबित होगी..तो श्रद्धा कपूर को आशिकी टू के बाद इससे बेहतर अवसर नहीं मिल सकता था और इस अवसर को उन्होंने बखूबी भुनाया भी है। मोहित सूरी की फ़िल्मों के संगीत के विषय में कुछ समीक्षा करना गुस्ताख़ी होगी क्योंकि संगीत की उनसे ज्यादा परख मौजूदा दौर के कुछ ही फिल्मकारों में देखने को मिलती है..और सबसे बड़ी बात उनकी फ़िल्मों के संगीत की ये है कि मोहित की फ़िल्मों में स्थापित संगीतकारों की बजाय नये संगीतकारों को अवसर दिया जाता है।

खैर, कुछ कमियों के बावजूद ग्रे-शेड में गुजरते धवल जज़्बातों की महीन प्रस्तुति को देखना है तो ये एक बेहतरीन अनुभव हो सकता है। वैसे भी दीवानगी की हद से गुजर चुके लोग भले ही समृद्धि के शिखर पे पहुंच जायें पर उन्हें वहीं बेखुदी की गलियां भाती है और क़ातिल की तरह हर आशिक उन्हीं गलियों में बार-बार लौटना चाहता है जहाँ उसने आशिकी की थी..................