Thursday, May 5, 2016

मेरी प्रथम पच्चीसी : चौदहवीं किस्त

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(जीवन के पहले पच्चीस वर्षों को लिखने के लिये तकरीबन ढाई साल पहले प्रवृत्त हुआ था पर अब तक जीवन के बीसवें पड़ाव तक ही बमुश्किल पहुंचा हूँ। अतीत के गलियारे में न कुछ छोड़ने का मन करता है न कुछ अधुरा लिखने को...काम हाथ में लिया है तो अधिकतम बयां करने की कोशिश भी है। लेकिन पेशेगत व्यस्तताएं, रचनात्मक अभिरुचियों के लिये फुरसत नहीं देती। इसलिये कथानक विलंब से आगे बढ़ रहा है...लेकिन खुशी है कि बढ़ रहा है। देर से  ही सही काम हाथ में लिया है तो पूरा करूंगा जरूर।)

गतांक से आगे....

कॉलेज टूर से लौटने के बाद बस उन दस दिनों की खुमारी ही छाई हुई थी। जो एक दिव्य दर्शन रिश्तों को लेकर हमने उस कॉलेज टूर के बाद जाना था वो इस वाक्य में कुछ इस तरह बयां हुआ था कि "इस टूर से पहले जिन्हें हम सिर्फ जानते थे उनके करीब आ गये और जिनके करीब थे उन्हें जान गये।" रिश्तों के नये ताने-बाने इस शैक्षणिक भ्रमण के बाद बुने गये थे। जिनमें से कई आज भी कायम है...और उन रिश्तों के दरमियां झूमता है बस वही एजुकेशन टूर। 

खैर, यदि उन यादों में उलझ गया तो इस किस्त में उससे ही बाहर नहीं निकल पाउंगा क्योंकि ज़िंदगी के सबसे खुशनुमा और यादगार दस दिन थे वे। लेकिन पच्चीसी को वहां ठहराना अभीष्ट नहीं है सो बढ़ता हूँ आगे। कॉलेज के तीसरे सेमेस्टर की परीक्षा देने के बाद चौथे सेमेस्टर का अधिकतम वक्त कैंपस सिलेक्शन और कहीं जॉब या इंटर्नशिप की तलाश में ही ज़ाया होता है सो हम भी अपने इस अनजान भविष्य की तलाश में उन्हीं अहसासों से दो-चार हुए, जिनसे प्रायः हर युवा होता है। किसी एक कैंपस में सिलेक्ट नहीं हुए तो लगा कि दुनिया ही लुट गई...किसी इंटरव्यु में जलालत का सामना करना पड़ा तो आत्मविश्वास सरक के धरती के क्रोड में समा गया। जिन दोस्तों की जॉब लगती उनसे बरबस ही ईर्ष्या होती। धीरे-धीरे कॉलेज लाइफ की तत्कालीन खुशियां किसी अनजान भविष्य की खोज में स्वाहा होने लगीं। 

देखादेखी हमने भी किसी चैनल की तलाश शुरु कर दी जो या तो हमें नौकरी दे या कम स कम इंटर्नशिप करने का ही मौका दे दे...और ये खोज पूरी हुई रायपुर के जी चौबीस घंटे न्यूज चैनल में जाकर, जो वर्तमान में आईबीसी-24 कहलाता है। हम नौ दोस्तों में से सिर्फ पांच लोग ही इंटर्नशिप में चयनित हुए..भाग्य से मैं इन पांच में शामिल था। जिन दोस्तों को नहीं चुना गया उन्हें लेकर काफी दुख था..दुख का कारण ये नहीं कि उनके करियर को दिशा नहीं मिल पाई बल्कि उसके पीछे मेरा स्वार्थ था कि सिर्फ यही शाकाहारी और मेरी फितरत वाले दोस्त थे...और अब जबकि ये साथ नहीं होंगे तो मुझे मन मार के किसी अनचाहे मित्र के साथ गुजर-बसर करनी होगी। दुख का एक कारण ये भी था कि जिन दोस्तों का सिलेक्शन नहीं हुआ वे जबरदस्ती मुझे अपने साथ इस इंटरव्यु के लिये लाये थे और यहाँ आकर मैंने उनका ही स्थान छीन लिया। करियर को आकार देने में ऐसे कई कठोर फैसले हमें लगातार ताउम्र करने होते हैं जहाँ लौकिक महत्वाकांक्षाओं की आग में कई मर्तबा ज़ेहनी अहसासों और रिश्तों को हमें होम करना पड़ता है।

तब ये भी लगा कि जब इंटर्नशिप के लिये इतनी मशक्कत है तो एक अदद नौकरी के लिये कितना भटकना पड़ेगा। जिन सपनों को लेकर इस रास्ते पर मैं निकला था उसके संघर्ष की दास्तां अब शुरु हो रही थी। हम अपने वाञ्छित भविष्य को जितना आसान और स्वर्णिम समझ उसके सपने देखा करते हैं उसका रास्ता कभी भी उतना दिलकश नहीं होता। ख्यालों में खूबसूरत दिखने वाली चीज़ों की असलियत उनके नजदीक आने पर ही पता चलती हैं। मीडिया, जिसके ग्लैमर से आकृष्ट हो इस क्षेत्र में आने का मन बनाया था उसके निष्ठुर यथार्थ ने विचलित कर दिया। असंवेदनशीलता और गलाकाट प्रतिस्पर्धा ने भावनाशून्य प्रवृत्ति का आविर्भाव कर दिया। चुंकि मैं अपने पारिवारिक और धार्मिक संस्कारों से बंधा हुआ था इसलिये अपने दायरों को लांघने की हिम्मत तथा रुचि कभी नहीं हुई। सहकर्मियों-साथियों को धूंए में अपना तनाव उड़ाते और मयखानों में अपना ग़म मिटाते देखता तो हरबार लगता कि क्यों एक सीधी-सादी शांत ज़िंदगी छोड़ मैं इस रास्ते पर आगे बढ़ रहा हूं।

ग्रामीण पृष्ठभुमि, छोटी सी दुनिया, परिवार-दोस्त सब छूट रहे थे...और अब लगातार मिल रही बेतरतीब सूचनाएं, संवेदनाओं को ख़त्म कर रही थीं। इस तरह के माहौल में काम कर बेशक हम वैश्विक हो जाते हैं पर अपनी ज़मीन से उखड़ हमारी हालत त्रिशंकु की भांति हो जाती है। जहाँ दुनिया तो हमारे दिमाग में होती है पर हम किसी के दिल में नहीं रह जाते। जिन्होंने हमें अपने दिलों में आसरा दे रखा था...वो हमारी बौद्धिक व्यापकता के समक्ष बौना जान पड़ता है। 

कहते हैं पहला कदम सोच समझ कर उठाइये क्योंकि दूसरा कदम अंधा होता है...अब जबकि पहला कदम तकरीबन उठ चुका था। तो पीछे मुढ़ना भी मुश्किल था और आगे जाने से डर लग रहा था। इसलिये खुद को वक्त के प्रवाह के हवाले कर बस बहते जाने का मन बना लिया...इस प्रवाह में आज भी बह ही रहे हैं। पहुंंचना कहाँ है ये भी खुद नहीं जानते...अब वक्त ही सारी नियति निर्धारित कर रहा है। वैसे असल में हर इंसान की नियति स्वतः वक्त पर ही निर्भर होती है किंतु हर कोई अपना कर्तत्व का अभिमान लिये ये समझता रहता है कि ये मैंने किया। इंसान बड़ा स्वार्थी है जब कभी भी इसके मनमाफिक चीज़ें घटती हैं तो खुद के हुनर को जिम्मेदार मानता है और जब चीज़ें प्रतिकूल होती हैं तो किस्मत या भगवान को उसका जिम्मा दे देता है।

उस पैंतालीस दिन की इंटर्नशिप का एक-एक दिन काटना बड़ा मुश्किल हो रहा था। इस बीच मन मारके और ऑफिस के दबाव में काम भी बहुत किया। मसलन आज जो पत्रकारिता मैं कर रहा हूँ उसकी असल नर्सरी वो संस्थान ही था जहां पहली बार लेखन किया, संपादन किया और रिपोर्टिंग भी की। जैसा कि मैं लगातार बताता आ रहा हूँ कि अपने धार्मिक आग्रहों से भी मैं गहरे तक बंधा था तो उनके चलते खाने-पीने का भी अदद इंतजाम मेरे लिये न हो सका। न तो मुझे बिना प्याज-लहसुन और जमींकंद वाला भोजन ही नसीब हो पाता था और न ही दिन रहते मैं घर पहुंच पाता था जिससे कभी एक टाइम खाकर तो कभी पूरा दिन फलों या चाय-बिस्किट पर ही गुजारना पड़ा। भूखे पेट इंसान कुछ ज्यादा ही बेचैन होता है...इस बेचैनी की कई वजहों में से एक वजह उपयुक्त खुराक न मिल पाना भी थी। इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि पैंतालीस दिन बाद जब मैं रायपुर से लौटा तो पूरा नौ किलो वजन उस दरमियां कम हो चुका था। मीडिया के प्रति पहली बार में ही बेहद नकारात्मक नजरिया बना। 

इंटर्नशिप के दौरान ही मुझे जॉब ऑफर की गई। 2008-09 के आर्थिक मंदी के दौर में नौकरी का मिलना किसी स्वप्न से कम नहीं था। यकीनन बहुत खुशी हुई। मैं बड़ा और बाजार संकरा नजर आने लगा। अपने हुनर पर बेइंतहा गुमान हुआ और लगा अब तो सारा जहाँ मेरे लिये ही बाहें फैला कर खड़ा है। लेकिन इस खुशी से बड़ी खुशी उस वक्त मेरे लिये वापस अपने शहर लौटना था। इसलिये जॉब के ऑफर को अपने चौथे सेमेस्टर के एक्साम के बाद करने की रुचि व्यक्त कर मैं वापस अपने वतन आने को लेकर ही ज्यादा चिंतित था। अपने घर, अपने दोस्तों के बीच, अपने उसी कॉलेज के माहौल में एक बार फिर ज़िंदगी को जीने...मैं लौटना चाहता था। इसलिये जब रायपुर छोड़ मैं भोपाल पहुंचा तो मुझे याद नहीं आता कि इतनी खुशी मुझे तब से पहले कभी अपने शहर लौटने की हुई हो।

इंटर्नशिप से लौट कॉलेज के बचे हुए दो महीनों को पूरी शिद्दत से जिया। चुंकि नौकरी लगने की बात दोस्तों में फैल चुकी थी इसलिये सभी का मुझे देखने का नजरिया भी बदल गया था...इसलिये कुछ कुछ एलीट ग्रुप वाला होने का अहसास होता था। मौज, मस्ती, हुडदंगी, किस्से, कहानी और पार्टी-शार्टी के बीच उन दो महीनों का समय भी बीत गया। एक बार फिर दोस्तों की विदाई सामने थी। ग़म के बादल फिर पसर गये थे...साल में एक बार मिलने के वादे, फोन-ऑरकुट-ई मेल के जरिये टच में रहने के वादे और न जाने क्या-क्या...पर वक्त की सीड़न और ज़िंदगी के भौतिक परिवर्तन आंतरिक हालातों को भी बदल देते हैं। रिश्तों का रेशा...कमजोर होते होते टूट जाता है...मुलाकातें फिर खयालों में ही होती है।

वक्त की करवट पलों में बदल जाती है, दिन तो बहुत दूर की बात है। इन दो महीनों में अहंकार का हिरण भी समय की दहाड़ पा कहीं छुप गया। जब पता चला कि जी 24 घंटे छत्तीसगढ़ चैनल में सत्ता परिवर्तन हो गया है और अब जिस बॉस की छत्रछाया में मुझे जॉब ऑफर की गई थी वो वहां से जा चुके हैं लिहाजा अब..जबकि वो इंसान ही नहीं रहा तो उसका किया वादा कैसे रह सकता था। जिस चैनल में बादशाहों की तरह इंटर्नशिप की थी..जब वही चैनल कॉलेज में कैंपस सिलेक्शन के लिये आया तो इस हुनर के अहंकारी प्राणी का उस कैंपस में सिलेक्शन न हो सका और अपने से कमतर समझे जाने वाले कई दोस्त उस कैंपस में सिलेक्ट हो रायपुर जा पहुंचे। तन्हाई...और ग़म का एक जलजला आया। मैं वहां नौकरी नहीं करता तो मुझे यकीनन कोई परेशानी नहीं होती...लेकिन मैं वहां नहीं हूँ और मेरी जगह मेरे साथ के ही किसी और ने वहां डेरा जमा लिया है ये चीज़ खासी तड़पाने वाली थी। 

एक मर्तबा लगा कि ज़िंदगी में सब कुछ लुट गया...और अब सारे रास्ते बंद हो गये। एक लंबे समय के लिये ठहराव सा आ गया। कॉलेज ख़त्म हो गया था..दोस्त जा चुके थे। आगे का कोई रास्ता समझ नहीं आ रहा था...हाथ में न कोई नौकरी थी और न कोई लक्ष्य। अतीत की यादें और भविष्य के डरावनी कल्पनाओं में वर्तमान जख्मी हो रहा था...वक्त अपनी रफ्तार से बढ़ रहा था पर मैं वहीं जड़ चुका था......ज़िंदगी के सफर में समय ने एक ऐसे चौराहे पर ला पटका था जहाँ से आगे का कोई भी रास्ता नजर नहीं आ रहा था। 

बहरहाल, वक्त बीता और वक्त ने ही खुद भविष्य का रास्ता मुकर्रर कर दिया। जिसकी दास्तां के साथ लौटूंगा जल्द....फिलहाल और ज्यादा विस्तार भय से रुकता हूं यहीं.......................

जारी................

Wednesday, May 4, 2016

कालीन के नीचे छिपी सार्थकता के "फैन" बनाम चौंधियाती सफलता का "सन्नाटा"

बीती तीन मई को हिन्दी सिनेमा ने अपने एक सौ तीन वर्ष पूरे कर लिये हैं। एक सौ तीन वर्ष के हिन्दी सिनेमा में सफलता का प्रतिशत भी महज तीन ही होगा और सार्थक फिल्में भी बमुश्किल तीन फीसदी ही होंगी। इनमें ऐसी फिल्में जो सफल और सार्थक दोनों ही हों वे तो एक-आध प्रतिशत ही ढूंढने से मिल पायेंगी। लेकिन इन एक-दो फीसदी फिल्मों में ही सिनेमा की श्वांसे हैं और इन्हीं की दम पर सार्थक सिनेमा का हिरण व्यवसायिकता के जंगल में दौड़ पा रहा है।

सिनेमा के जनक दादा साहेब फाल्के कहा करते थे कि "यकीनन सिनेमा मनोरंजन का एक सशक्त माध्यम हैं लेकिन इसका उपयोग ज्ञानवर्धन और सामाजिक सरोकार के लिये भी किया जा सकता है" पर आज इस सिनेमा की सफलता और उद्देश्यों को नापने का एक मात्र जरिया इसकी व्यवसायिकता है। फिल्में रिलीज होने के कुछ घंटों बाद ही ये अटकलें शुरु हो जाती हैं कि अमुक फिल्म सौ करोड़ कमा पायेगी या नहीं...और कुछ घंटों बाद ही फिल्म की कमाई के ब्यौरों के आधार पर उसे सफल या असफल करार दे दिया जाता है। व्यवसायिकता के इस व्यामोह ने सिनेमा से कलापक्ष को बाहर निकाल फेंका है और उसे महज एक दुकान में तब्दील कर दिया है।

पिछले दो-तीन हफ्तों में रिलीज़ हुई कुछ फिल्में इस बात का बखूब उदाहरण प्रस्तुत करती हैं। जय गंगाजल, फैन, बाग़ी जैसी फ़िल्में अपनी चमक का झूठा आभामंडल रचकर पहले तीन दिन में तीस-चालीस करोड़ का व्यवसाय करती हैं और अपनी भव्यता के फरेब़ में दर्शक को ठगती है जिससे दर्शक कालीन के नीचे खामोशी से श्वांस ले रहीं कई सार्थक फिल्में देखने की हिम्मत भी नहीं जुटा पाता। यही वजह है कि अलीगढ़, जुबान, निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में दर्शकों के अभाव में एक सप्ताह भी सिनेमाघरों में टिकी नहीं रह पाती। बड़े बजट की सितारा सज्जित फिल्मों से इन सार्थक फिल्मों को इस मायने में भी नुकसान है कि प्रायः मल्टीप्लेक्स में बड़ी बजट फिल्मों के साथ लगी इन ऑफबीट फिल्मों के लिये सिनेमाघरों में टिकट दरें कम नहीं की जातीं और इन्हें भी बहुसितारा-बड़ी फिल्मों की टिकट दरों पर ही देखना होता है। जिससे आम दर्शक डेढ़ सौ, दो सौ रुपये खर्च कर इन फिल्मों को देखने का रिस्क नहीं लेना चाहता।

ऐसा सिर्फ इस वर्ष की इन कुछेक फिल्मों के साथ ही नहीं हुआ है इससे पहले भी डोर, उड़ान, दसविदानिया, चलो दिल्ली, लंचबॉक्स, इंग्लिश-विंग्लिश, बीए पास, क्वीन, मसान जैसी फिल्मों को भी अपेक्षाकृत सफलता नहीं मिली। मजेदार बात ये भी है कि उपरोक्त वर्णित इन फिल्मों की सफलता के बाद इनके निर्देशकों को फिल्म इंडस्ट्री ने नोटिस किया...इन फिल्मों को कई अवार्ड समारोहों में सराहा गया... बाद में इन तमाम फिल्मों के निर्देशकों को उनकी अगली फिल्म के लिये पिछली फिल्मों के दम पर बड़ा स्टार्ट मिला लेकिन उनमें से कई फिल्में एक बार फिर दर्शकों की उम्मीदों पर खरी न उतर सकीं। इसका सबसे बड़ा कारण यही रहा कि पहले वाली फिल्मों की सार्थकता को गौढ़ कर इन निर्देशकों ने अपनी अगली फिल्म को मसाला मनोरंजन के साथ पेश किया। इस व्यावसायिकता के आग्रह ने भले इन फिल्मों पर रुपयों की बरसात करवाई हो पर सार्थकता का पिपासु दर्शक एक बार फिर छला गया। इसके उदाहरण हमने बीते वर्ष काफी देखे जब पिछली फिल्मों से उम्मीद जगाने वाले निर्देशकों ने ऑल द बेस्ट, शानदार, बॉम्बे वेलवेट जैसे डिब्बों का निर्माण किया।

ये सारा दुख हालिया रिलीज़ 'निल बटे सन्नाटा' फिल्म में सूने पड़े सिनेमाघरों को देख पैदा हुआ है। बॉलीवुड की मौलिकता और इसके अपने खालिश अंदाज की प्रतिनिधि ये फिल्म, विदेशी फैक्ट्री के चुराये मसाला मनोरंजन "बाग़ी" से कमाई के मामले में पिछड़ गई। इस फिल्म को कई शहरों में सिनेमाघर ही नसीब नहीं हुए और जहाँ नसीब हुए भी वहां इसे दो-तीन दिन में ही या तो अपने शो कम करने पड़े या बाहर ही निकल जाना पड़ा। इस तरह से इन ऑफबीट फिल्मों का व्यवसायिकता में पिछड़ जाना कई दूसरे मायनों में भी घातक होता है। इससे इनके निर्देशक हतोत्साहित होते हैं और निर्माता भी ऐसी फिल्मों पर दाव नहीं खेलना चाहते। जिससे हम सिनेमा में सार्थक परंपरा को पनपने से पहले ही ख़त्म कर देते हैं।

बहरहाल, इस तमाम नकारात्मकता के बावजूद वे लोग बधाई के पात्र हैं जो इस रचनात्मकता के लिये अवकाश रखते हैं। 'निल बटे सन्नाटा' आज से सालों बाद भी हिन्दी सिनेमा का एक अहम् दस्तावेज माना जायेगा जबकि 'फैन' या 'बाग़ी' पर वक्त की धूल ज़रूर जमा होगी। नवोदित निर्देशक अश्विनी अय्यर तिवारी में अपार संभावना हैं उम्मीद करेंगे कि वे इस सार्थकता को आगे भी लेकर जायें। इस फिल्म के निर्माता और रांझणा, तनु वेड्स मनु जैसी फिल्मों के निर्देशक आनंद एल राय को भी बधाई जिन्होंने ऐसी फिल्म के निर्माण में सहयोग किया। साथ ही स्वरा भास्कर, रत्ना पाठक, पंकज त्रिपाठी को भी उनके शानदार अभिनय के लिये बधाई तथा ऐसी फिल्म के चुनाव के लिये साधुवाद।

एक बात समझना बहुत जरुरी है कि भारतीय सिनेमा प्रेम रतन धन पायो, दिलवाले, फैन या सिंह इस किंग टाइप अरबी क्लब (सौ करोड़ का क्लब) की फिल्मों से जीवंत नहीं रह सकता...इसे मसान, लंचबॉक्स और निल बटे सन्नाटा जैसी फिल्में ही ऑक्सीजन देती हैं और यही इसे जिंदा रखे हुए हैं।

Tuesday, May 3, 2016

''ये हौसला कैसे झुके'' को मिली अखबारों की सुर्खियां।

करीब एक वर्ष पहले विमोचित हुई मेरी पहली पुस्तक "ये हौसला कैसे झुक" को बीते वर्ष में आप सबका खासा प्यार मिला है। इससे जुड़ी खबरों को बीते वर्षों में कई अखबारों ने प्रकाशित किया जो आपके साथ साझा कर रहा हूं।













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