Saturday, December 31, 2011

केलेन्डर बदलता है...हालात और फितरत नहीं


२०११ का समापन है और २०१२ दस्तक देने को तैयार..साल ख़त्म होने के पहले ही कई घरों में केलेन्डर बदल गये होंगे..और २०१२ का नवीनतम केलेन्डर सज-धज के दीवारों पे चस्पा हो गया होगा। वर्ष की विदाई, हर्ष की विदाई, उत्कर्ष की विदाई तो किसी के लिए संघर्ष की विदाई का आलम है..पर सच ये भी है कि गुजरा हुआ वक़्त गुजरकर भी नहीं गुजरता।

वर्ष बदल रहा है तो ज़ाहिर है केलेन्डर भी बदल जायेगा...लेकिन इस बदलते केलेन्डर के बावजूद कुछ चीजें जस की तस बरक़रार रहेंगी। लोकपाल बिल का तमाशा खूब हुआ बीते वर्ष..पर अब भी ये विवादों के फेरे में उलझा हुआ है...भ्रष्टाचार की त्रासद तस्वीरें नहीं बदलेंगी..अशिक्षा, जातिवाद, रुढियों का दीमक भी शायद ही देश की दीवारों से दूर हो पायेगा..और शायद ही रुकेंगी किसानों की आत्महत्याएं, मेट्रो सिटीज में बलात्कार की घटनाएं, डकैत, लूट या गली-मोहल्लों में दिनदहाड़े हो रही हत्याओं की वारदातें। गत वर्ष ओसामा मारा गया पर क्या आतंकवाद मरा है..गद्दाफी और होस्नी मुबारक की तानाशाही मिटी है पर क्या तानाशाह ख़त्म हुआ है..खाद्य सुरक्षा बिल पास हुआ है लेकिन क्या अब भूख से कोई नहीं मरेगा, ये गारंटी है...अफ़सोस बदलता हुआ केलेन्डर न बदलने वाले सवालों के जबाव दिए बगेर ही गुजर रहा है...

न हालात बदल रहे हैं नाही इंसानों की फितरत...नया वर्ष सिर्फ नयी तारीखें लेकर आएगा, सुसंगतियाँ नहीं। धार्मिक कट्टरताएँ नहीं हटने वाली और इससे जन्मी धार्मिक हिंसा भी बनी रहेगी..लोगों के पूर्वाग्रह विसंगतियों को ख़त्म नहीं होने देंगे...तथाकथित मोड़ेर्निटी विचारों पर नज़र नहीं आती सिर्फ पहनावे और चालचलन में दिखती है। पुरातन रूढ़िवादिता से जनमी छुआछूत, ओनरकिलिंग, अन्धविश्वास, पाखंड जैसी वारदातें नहीं मिटने वाली...कहने के लिए महिला सशक्त हुयी है लेकिन क्या असल में घरेलु हिंसा ख़त्म हुई है, क्या आज भी महिला पे बंदिशें मिटी है, क्या बेटियों का आबोर्शन होना रुका है...यदि कहीं महिला बंदिशों के बिना नज़र आ भी रही है तो वो महिला का सशक्त रूप नहीं, कुत्सित रूप नज़र आ रहा है...आज भी पुरुष मानसिकता उसे एक विलास सामग्री के तौर पे ही देखती है...और नारी का प्रयोग भी विज्ञापनों और फेशन जगत में सिर्फ उत्पाद का बाज़ार बढ़ाने के लिए किया जा रहा है...विश्वास नहीं होता कि हम इक्कीसवी सदी के बारहवे वर्ष मेंप्रवेश करने जा रहे है।

इतिहास महज़ कुछ तिथियों में सिमटकर नहीं रह जाता...वो एक अहम् अनुभवशास्त्र भी होता है। जिसका भाव समझकर अध्ययन किया जाय तो कुछ सीखा भी जा सकता है...और वो सीख लक्षित भविष्य को हासिल करने में सहायक साबित हो सकती है। २०११ इतिहास के पन्नो में समा रहा है लेकिन हम इससे क्या सीख कर आने वाले कल की तरफ निहार रहे हैं, ये महत्वपूर्ण है..क्या कोई इस न्यू ईयर ईव पे अपनी भागमभाग भरी जिंदगी में से कुछ विराम का वक़्त निकाल कर अपने बीते हुए कल पे विचार करेगा...शायद नहीं..और मैं यदि कुछ विचारने की हिदायत दूंगा तो सबसे बड़ा पुरातनपंथी होने का ताज मेरे सर पर ही मढ़ दिया जायेगा...भैया न्यू ईयर ईव की ये रात तो जाम छलकाने के लिए है, DJ की धुनों पे थिरकने के लिए है, सिगरेट के कस से धुंए के बादल उड़ाने के लिए है..और उन बादलों में जबकि पूरी फिजा धुंधली हो जाएगी तो किसे अपना अतीत नज़र आयेगा..कौन उसमें अतीत का मूल्यांकन करेगा..और जो करेगा वो तो पुरातनपंथी कहलायेगा ही जनाब!!!

केलेन्डर बदल जायेगा पर कुछ यादे ज़हन में बनी रहेंगी..जो आने वाले वक़्त में भी यदा-कदा अपना मीठा या कडवा रस हमें देती रहेंगी..लोगों की २०११ की डायरी बंद हो जाएगी लेकिन उसकी कुछ बातें २०१२ की डायरी में अनायास चली आएँगी। गुजरा हुआ वक़्त और आने वाला कल दोनों किसी न किसी तरह हमारे साथ चलते ही रहते है...गोयाकि जिंदगी भी दीवार में चस्पा सुइयों वाली घड़ी की तरह होती है जिसमे गुजरा हुआ और आने वाला समय भी उन दो सुइयों पे नज़र आता है जो वक़्त वे सुइयां नहीं बता रही होती है। बकौल जयप्रकाश चौकसे "कुछ लोग पुरानी डायरी में अंकित कुछ बातों को नई डायरी में नोट कर रहे हैं, परंतु अधिकांश लोग कैलेंडर अवश्य बदलना चाहते हैं। काश, कैलेंडर बदलने की तरह आसान होता कड़वाहट को भुलाना, परंतु वह तो दीवार में ठुके कीले की तरह दिल में पीड़ा का सतत स्मरण कराती है। हम अपने हर वर्तमान क्षण पर विगत का साया और आगामी की आशंका को महसूस करते हुए वर्तमान के क्षण को ही भींची हुई मुट्ठियों से रेत की मानिंद फिसलने देते हैं। अधिकांश लोग कैलेंडर बदलते हैं, परंतु नियति नहीं बदलती और इस कैलेंडरों से भरे देश में तारीख बदलने से भाग्य नहीं बदलता।"

बहरहाल, सभी की तरह मेरे लिए भी २०११ मिले-जुले अनुभवों से भरा रहा..जहाँ मैने रीनल डिसआर्डर के बाद किडनी ट्रांसप्लांट जैसे कठिन लम्हों को देखा तो कई बेहद सुखद अनुभवों से भी दो-चार हुआ..आगे देखता हूँ तो दर्द का साया भी है और डर भी...लेकिन उम्मीद, दर्द और डर दोनों से ज्यादा है...और उसी उम्मीद और हौसले के साथ निरंतर आगे बढ़ने का ज़ज्बा भी बना हुआ है। केलेन्डर से २०११ गुजर जायेगा पर मेरे दिल से नहीं....नववर्ष की शुभकामनाओं के साथ.........................

Friday, November 18, 2011

प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार


जिन्दगी में कुछ बड़ा करना है तो दर्द पैदा करो..सर्वोत्तम कला या भीड़जुटाऊ सफलता त्रासद जिन्दगी से जन्म लेती है...लेकिन एक वक़्त आता है जब हमारे पास कला, शोहरत, सफलता, पैसा सब होता है पर ये सब जिस दर्द से हासिल हुआ है वही दर्द असहनीय बन जाता है। गोयाकि जनक और जन्य दोनों बर्दाश्त के बहार होते हैं...असंतोष जिन्दगी का सच होता है।

रणवीर कपूर अभिनीत और इम्तियाज़ अली द्वारा निर्देशित फिल्म 'रॉकस्टार' कुछ इसी कथ्य को लेकर आगे बढती है। नायक की हसरत होती है एक बड़ा सिंगिंग रॉकस्टार बनने की...और उसके पास अपनी इस हसरत को हासिल करने लायक प्रतिभा भी है लेकिन फिर भी तमाम सामाजिक, आर्थिक बंदिशें उसे अपने मुकाम पे नहीं पहुँचने दे रही। इसी वक़्त कोई उसे कहता है कि तू तब तक अपना लक्ष्य हासिल नहीं कर सकता जब तक तुझमें एक जूनून न हो, तड़प न हो, दर्द न हो, टुटा हुआ दिल न हो...अपने लक्ष्य को हासिल करने की दीवानगी इस कदर नायक के दिल में हैं...कि वो बुद्धिपूर्वक उस दर्द को पाना चाहता है...जानबूझ के तड़पने के लिए उसमे बेकरारी है...पर दर्द हालत के थपेड़ों से सहसा मिलता है उसके लिए कोई पूर्वनियोजन नहीं होता।

लेकिन इसी कश्मकश में नायक ये समझ बैठता है कि वो जो चाह रहा है वो मिल पाना मुश्किल है...और इसी बीच वो अपनी सब हसरत भुलाकर दोस्त बन बैठता है एक लड़की हीर कौल का...इस दोस्ती की शुरुआत में उसे नहीं पता कि यही दोस्ती उसकी जिन्दगी के सबसे त्रासद लम्हों को जन्म देगी। वो तो बस अभी सिर्फ उन पलों में डूबा है जहाँ सिर्फ खुशियाँ है, मस्ती है, बेफिक्री है..उसे नहीं मालूम कि ये बेफिक्री ही आगे चलके उसकी जिन्दगी का दर्द बनेगी और यही उसे एक अनचाही शोहरत दिलाएगी, उसे रॉकस्टार बनाएगी। सच, आनंद जितना चरम पे पहुंचकर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है।

नायक और नायिका सिर्फ अपनी दोस्ती के मजे ले रहे हैं..और लिस्ट बना-बनाकर छोटी-छोटी हसरतें पूरी करने में खुशियाँ ढूंढ़ रहे हैं। कभी वे ब्लू फिल्म देखते हैं तो कभी देशी दारू पीते हैं..ये सब करते हुए भी वो बस दोस्त होते हैं...और नहीं जानते कि उनका ये साथ अब उनकी आदत बन चुका है, प्यार बन चुका है। जो उनके अलग-अलग हो जाने के बाद भी उन्हें तड़पाने वाला है।

हालात दोनों को अलग कर देते हैं..लेकिन अलग होके भी अब वो अलग नहीं रह गए हैं...यहाँ नायक अब जनार्दन से जोर्डन बन चूका है और नायिका एक गृहणी...दोनों उस जिन्दगी को जी रहे हैं जो वो चाहते थे लेकिन फिर भी दोनों के दिल में एक कसक है..सब कुछ मन का होके भी न जाने क्यूँ सब कुछ मन का नहीं है। जिंदगी कितनी अजीब होती है हम जो चाहते है उसे हासिल कर लेने के बाद भी यही लगता है कि कुछ कमी है...और बेचैनियाँ बराबर हमें तड़पाती रहती हैं। उस तड़प को, उस कसक को बयां कर पाना मुमकिन नहीं होता और जो हम बयां करते हैं वो हमारा असल अहसास नहीं होता...क्योंकि "जो भी मैं कहना चाहूं बरबाद करें अल्फाज़ मेरे"

नायक का सुर प्यार की गहराई से जन्मा है और उस सुर में मिली हुई दर्द की राग उसे और कशिश प्रदान कर रही है...प्यार करने को वो सड्डा हक कहता है..लेकिन उसे अपने उस हक को हासिल करने में तमाम तरह के सामाजिक बंधन परेशान करते हैं...उन बंधनों से वो खुद को कटता हुआ महसूस करता है...वो कहता भी है कि आखिर क्यूँ उसे 'रिवाजों से-समाजों से काटा जाता है, बांटा जाता है..क्यूँ उसे सच का पाठ पढाया जाता है और जब वो अपना सच बयां करता है तो नए-नए नियम, कानून बताये जाने लगते हैं।' इस सामाजिक ढांचें में सफलता पचा पाना भी आसन नहीं है...आप सफल तो हो जाते हैं पर आप एक इंसानी जज्बातों का उस ढंग से मजा नहीं ले पाते जो एक आम आदमी को नसीब होता है। खुद को अपनी जड़ों से दूर महसूस करने लगते है..अपना आशियाना छूटा नजर आता है और हम वापस अपने घर आना चाहते हैं...और इस दर्द में सुर निकलता है "क्यूँ देश-विदेश में घूमे, नादान परिंदे घर आजा"

नायक अपने गीत-संगीत से ही प्यार को महसूस करता है...और उसके दिल की गहराई से निकले यही गीत आवाम की पसंद बन जाते हैं...नायक गाता है कि 'जितना महसूस करूँ तुमको उतना मैं पा भी लूँ' अपने गीत के साथ वो अपनी प्रेमिका का आलिंगन कर रहा है। संवेदना के रस में डूबकर कला और भी निखर जाती है...और साथ ही वो जनप्रिय बन जाती है।

बहरहाल, एक बहुत ही सुन्दर सिनेमा का निर्माण इम्तियाज़ ने किया है...जो उनके कद को 'जब वी मेट' और 'लव आजकल' के स्तर का बनाये रखेगी। इरशाद कामिल के लिखे गीत और रहमान के संगीत की शानदार जुगलबंदी देखने को मिली है...और फिल्म का गीत-संगीत ही फिल्म की आत्मा है...नहीं तो कहीं-कहीं इम्तियाज़ अपनी पकड़ फिल्म पे से छोड़ते नज़र आते हैं पर फिल्म का संगीत उन्हें संभाल लेता है। रणवीर की अदाकारी कमाल की है सारी फिल्म का भार उन्ही के कन्धों पर है...उन्होंने अपने अभिनय से साबित किया कि उनमे भावी सुपरस्टार के लक्षण बखूबी विद्यमान हैं...एक बेचैन गायक की तड़प को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है रणवीर ने। नर्गिस फाखरी खूबसूरत लगी है उनमे एक ताजगी महसूस होती है...हम उम्मीद कर सकते हैं कि कटरीना के बाद एक और विदेशी बाला अपना बालीवुड में सिक्का जमा सकती है।

खैर, जुनूनी मोहब्बत, मोहब्बत पे समाजी बंदिशें, सफलता की हकीकत से रूबरू होना चाहते हैं और सुन्दर गीत-संगीत और फ़िल्मी रोमांटिज्म पसंद करते हैं... तो 'रॉकस्टार' कुछ हद तक आपकी इसमें मदद कर सकती है...

Tuesday, November 8, 2011

समृद्ध इण्डिया की उत्सवधर्मिता और लाचार भारत की बदनसीबी


दीपावली के साथ भारत में उत्सवों का एक दौर हर साल विदा ले लेता है और दूसरा दौर ग्यारह दिन बाद ही दस्तक दे देता है...जी हाँ अवरुद्ध पड़े शादी व्याह की बहार आ जाती है। भारत वो देश है जिसकी रगों में उत्सव खून बनकर बहते हैं। देश की सामाजिक संरचना या कहें भारतीय फितरत ही ऐसी है कि उसे हर वक़्त झूमने के अवसर की तलाश होती है गोयाकि खुद के घर में शादी न हो तो दूसरे की बारात में ठुमकने से भी परहेज नहीं है। इस असल भारतीय स्वभाव ने ही हमारी संस्कृति को लचीला स्वरूप प्रदान किया है। यही कारण है कि ये संस्कृति जितने जोश-खरोश के साथ दीवाली, ईद और रक्षाबंधन मानती है उतने ही उत्साह से वेलेंटाइन डे, मदर्स-फादर्स डे जैसे पश्चिमी दिनों को मनाती है।

उत्सवप्रियता का ये स्वभाव इस कदर मानवीय है कि जन्म की खुशियाँ तो इसमें शुमार हैं ही वरन मौत की रसोई भी शामिल है। इस मानवीय पृकृति ने ही विलासिता, बाजारवाद और झूठी शान-शौकत की प्रवृत्ति में इजाफा किया है।

आज हम त्यौहारों-उत्सवों के रंग में खुद नहीं रंगते बल्कि इन उत्सवों को अपने रंग में रंग देते हैं। अपनी दूषित प्रकृति से उत्सवों को दूषित कर दिया जाता है। मैं उत्सवप्रियता या प्रसन्नचित्तता का विरोधी नहीं हूँ बल्कि ये कहना चाहता हूँ कि हमने उत्सवों में अपनी प्रसन्नता के मायने जो तय किये हैं वो ग़लत हैं। अपने उत्सव धर्म से जो हमने प्रक्रितिधर्म को ठेस पहुचाई है वो ग़लत है। अपने परिवेश को भूलकर जो उत्साह मनाया है वह ग़लत है।

बात जटिल लग रही होगी सरल करने का प्रयास करता हूँ। दरअसल अपने हिन्दुस्तानी परिवेश को गहनता से देखा जाये तो यह हमें कतई उस उत्सव धर्म में शरीक होने कि इज़ाज़त नहीं देता जो हम मना रहे हैं। बशर्त आप एक उत्सवधर्मी न होकर एक इन्सान के नाते बात पर गौर करने की कोशिश करें। जिस देश की सत्तर प्रतिशत आबादी दो वक़्त का पेट भर खाना नहीं खा पा रही उस देश में कैसे आप ख़ुशी के जाम छलका सकते हैं, लाखों-करोड़ो रुपये महज़ पटाखों पर खर्चे जा सकते हैं। जिस देश में लाखों-करोड़ो बच्चे कुपोषण, भुखमरी का शिकार है या जिनके सर माँ-बाप का साया नहीं हैं वहां कैसे लोगों के गले के नीचे महँगी मिठाइयाँ उतर सकती हैं। जहाँ किसान आत्महत्या कर रहा है उसके पास क़र्ज़ चुकाने का चंद पैसा नहीं है जहाँ महंगाई के बोझ तले इन्सान अपने बच्चों को रोटी नहीं खिला पा रहा वहां कैसे धनतेरस जैसे अवसरों पर सोने-चाँदी कि दीनारें महज शगुन के तौर पर खरीदी जा सकती हैं।

हालात, उत्सवों पर वास्तव में बहुत थोड़े ही बदलते हैं कि आम दिनों में समृद्ध इण्डिया एक पैग पीता है और उत्सवों में दो,तीन या चार जबकि लाचार भारत आम दिनों में बस रोता है तो उत्सवों में उसका चेहरा हल्की मुस्कराहट लिए आंसू बहता है। आंसू इस लाचार भारत का यथार्थ है और मुस्कान आदर्श।

वैज्ञानिक विकास और तकनीकी दक्षता ने भी खुशहाली सिर्फ उस समृद्ध इण्डिया के हिस्से में दी है...फेसबुकिया सेलिब्रेशन उसे ही नसीब है वही इन सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पे वधाईयां लाइक और शेयर कर रहा है। लाचार भारत उस दिन भी रिक्शा चला रहा है, इमारतें बना रहा है, गड्ढे खोद रहा है या समृद्ध इण्डिया के घरों,कालोनियों,सड़कों की सफाई में सलंग्न है। हाँ ये बात है कि किसी तरह उसे इस समृद्ध इण्डिया के उत्सवों का शोर ये बता देता है कि आज कुछ खास दिन है और इस खास दिन का पता लगने पर वो चेहरे पे मुस्कान लाकर फिर काम में लग जाता है।

वैज्ञानिक विकास इस लाचार भारत के विनाश का गड्ढा खोद रहा है उत्सवधर्मिता इसकी लाचारी को और बढ़ा रही है। प्रकृति और संसाधनों को जितनी हानि ये समृद्ध इण्डिया पहुंचा रहा है..उतना लाचार भारत नहीं। उल्टा वह तो उस हानि से त्रस्त ही हो रहा है। समृद्ध इण्डिया की जरुरत दो की है तो वह दो सौ का उपभोग कर रहा है और लाचार भारत की जरुरत एक की है तो वो उस एक को पाने के लिए ही संघर्षरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार विश्व के एक तिहाई संसाधनों पे विश्व जनसंख्या का सिर्फ छटवा हिस्सा उपभोग कर रहा है तो सोचिये एक बड़े जनसमूह के पास कितने संसाधन हैं? महंगाई, ग्लोबल वार्मिंग, बेरोजगारी, अशिक्षा, गरीबी जैसी सारी समस्याओं ने इस लाचार भारत के घर की ओर रुख कर लिया है।

अखवारों में आने वाले विकास के आंकड़े एकतरफा हैं और विनाश के आंकड़े भी एकतरफा है। समृद्ध इण्डिया और लाचार भारत के बीच बस आर्थिक असंतुलन नहीं, उत्सव असंतुलन भी है। समृद्ध इण्डिया संयम और मर्यादा में उपभोग की नीति विसरा चूका है। उसकी उत्सवधर्मिता अब विलासिता बन चुकी है या कहें उसने खुश होने के जो मानक बनाये हैं वह उसके व्यसन बन चुके हैं। उसका उत्सवप्रियता पे खर्च बढ़ता जा रहा है और अय्याशियाँ ख़ुशी का रूप लेती जा रही हैं। उत्सवी खुशियाँ सिर्फ कालीन के ऊपर हैं कालीन के नीचे लाचार भारत की तड़प देखने की ज़हमत कोई नहीं कर रहा है।

आश्चर्य होता है एक सिर्फ इसलिए परेशान है कि उसे होटल में पिज्जा टाइम पे नहीं मिला या उसकी ब्रांडेड ज्वेलरी का आर्डर डिलीवर होने में देरी हो गयी..तो दूसरा भूखा रहकर भी अपनी कसक जाहिर नहीं कर पा रहा। एक इसलिए परेशान है कि उसके बच्चे को मन के इंग्लिश मीडियम स्कूल में एडमिशन नहीं मिला..तो दूसरा अपनी आँखों के सामने भूख से मरते बच्चे को देखकर भी आंसू नहीं बहा पा रहा। एक इसलिए गुस्सा है है कि उसकी बेटी की शादी के लिए मनपसंद मैरिज गार्डन नहीं मिला..तो दूसरा कदम-कदम पे दुत्कारे जाने के बाद भी अपना गुस्सा नहीं दिखा पा रहा। गोयाकि आंसू बहाने, गुस्सा दिखाने, दर्द में कराहने के लिए भी स्टेटस का होना जरुरी है।

बहरहाल, किसे पड़ी है दुनिया-ज़माने के सोचने की..अपनी उत्सवी फुलझड़ियाँ जलते रहना चाहिए, अपनी गिलास में जाम भरा होना चाहिए....हम तो लाचार भारत पे यह कहके पल्ला झाड़ सकते हैं कि ये उनके अपने कर्मों का फल है..हम अपने उत्सवों या कहें अय्याशियों को क्यों फीका करें। करवाचौथ और नवदुर्गा पे हम व्रत रखके उत्सव मनाते हैं..लाचार भारत भूखा रहकर हर दिन बेउत्सव व्रत करता है।

खैर, अपनी अय्याशियों की लगाम हमें टाईट करने की जरुरत नहीं है और वैसे भी हमें हमारे उत्सवी पटाखों के शोर में लाचारियों की चीखें सुनाई कहाँ देती हैं............................

Tuesday, October 18, 2011

'बोल' के लव आजाद है तेरे.....



पाकिस्तानी फिल्म 'बोल' देखने का अवसर मिला। हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतर एक बेहद उम्दा और अर्थपूर्ण फिल्म जो व्यवस्था, रूढ़ीवाद एवं समाज की विसंगतियों के विरुद्ध एक उन्माद पैदा करती है। छद्म- धार्मिकता और पाखंड की तस्वीर दिखाती है।

निर्देशक शोएव मंसूर की एक और सार्थक फिल्म जो इंसानी हैवानियत और उसके असल रूप को बेनकाब करती है। परिवार नियोजन, महिला-सशक्तिकरण, धार्मिक अंधविश्वास, छद्मपुरुष मानसिकता, रूढ़िवादिता जैसे मुद्दों के खिलाफ जिस संजीदगी से स्वर मुखरित किया है वो सोचने पर विवश करती है। लगता है कैसे ये फिल्म पाकिस्तानी सेंसर बोर्ड से बचकर हम सब तक पहुच गई।

'बोल' ह़र उस औरत का स्वर हैं जो खुले आकाश में उड़ना चाहती है, जो पाक पवन में साँस लेना चाहती है या कहे जो असल में जीना चाहती है। जिसकी दुनिया चौके की चारदिवारी तक सीमित नहीं, या जिसका जिस्म बिस्तरों पे ही बयां नहीं होता वो इन सबसे परे अपनी एक अलग शक्सियत भी रखती है। उसके जज्बात-तमन्नायें कुछ और भी चाहते हैं। लेकिन पुरुष उन जज्बातों को नहीं सिर्फ जिस्म को देखते हैं। फिल्म में एक दृश्य है जब हकीम साहब अपनी बेगम से कहते हैं "खुदा ने आपको दो ही तो हुनर बख्शे हैं एक स्वादिष्ट खाना पकाना और खुबसूरत औलादें पैदा करना " औरत को देखने का प्राय: यही नजरिया समाज में हैं यही कारण है कि आज तक बड़े से बड़े चित्रकार औरत को जिस्म से परे नहीं देख पाए।

ये फिल्म पाकिस्तानी या मुस्लिम समाज की ही कहानी बयां नहीं करती बल्कि हर उस समाज, हर इन्सान, हर वर्ग को आइना दिखाती है जहाँ सारे कायदे, सारे कानून, रस्मों-रिवाज़, मर्यादाएं सिर्फ और सिर्फ महिलाओं पर ही लामबंद कर दिए जाते हैं। जहाँ पुरुष हर तरह से अपने चरित्र की धज्जियाँ उड़ाते हुए भी शरीफ बना रहता है। जहाँ बड़े-बड़े पढ़े-लिखे लोग रुढियों के गुलाम होते हैं भले ही वह दूसरों को कितने भी आधुनिक ख़यालात धारण करने के उपदेश दें। लेकिन जब बात खुद पर आती है तो परम्पराओं की आड़ में रुढियों को पनाह दी जाती है। ये देख लगता है साक्षरता सिर्फ कागजों पर बढ़ी है विचारों में नहीं।

लेकिन इन्सान भूल जाता है की औरत जब तक खामोश है तब तक ही पुरुष वर्चस्व कायम है यदि वो 'बोल' उठे तो जमीन कांप उठती हैं और आसमान झुक जाता है। मर्द की जुवान बंद हो जाती है और बाजुओं की जोर-आज़माइश शुरू। एक दृश्य में बेटी अपने रुढ़िवादी पिता से कहती है "अब्बा! आप मर्द हैं ना जहाँ वेजुवां हुए वहां हाथ चलाने लगे।" पुरुष की दरिंदगी और बेरहमी को हर फ्रेम में बखूबी दर्शाया है शोएब मंसूर ने।

यूँ तो इन्सान की निगाहें और हवस हर तरफ महिला को तलाशती है पर यदि औलाद की बात हो तो बेटा ही चाहिए, बेटी को कलंक समझा जाता है। बेटे की चाह में औलादों की कतार लगा दी जाती है और यदि बेटा न हो तो इसका दोष भी औरत के सिर मढ़ा जाता है। सदियों से धार्मिक मान्यताओं का सहारा लेकर या औलाद को खुदा का करम जानकर इसी तरह बच्चों की संख्या बढ़ाई जा रही है फिर भले उनकी परवरिश में बेरुखी बरती जाये। फिल्म अपने अंत में यही प्रश्न छोडती है कि "क्या मारना ही गुनाह है पैदा करना नहीं"। क्या पहले से ही इस धरती पे भूखे बेवश लोग कम थे जो और लोगों को तड़पने के लिए धरती पे लाया जाये। जब ढंग से पाल नहीं सकते तो पैदा करने का हक किसने दिया।

फिल्म न जाने कितने ऐसे संगीन मुद्दों को उठाती है जो समाज की नस-नस में बसकर उसे बीमार बना रहे हैं। चाहे किन्नरों को देखने का नजरिया हो, चाहे महिलाओं कि शिक्षा, जातिवादी-सम्प्रदायवादी मानसिकता हो, या ईश्वरकर्तृत्व की घोर अतार्किक सोच हो हर तरफ ध्यान खींचने की कोशिश की गयी है। जहाँ भारत-पाकिस्तान के मैच में जीत-हार के लिए खुदा या भगवान को जिम्मेदार माना जाता हो, जहाँ संकीर्ण मानसिकता दो जातियों की बात तो दूर एक कुरान को मानने वाले सिया-सुन्नियों में भेद करती हो, जहाँ अपनी ही औलाद का लोकलाज वश क़त्ल किये जाने जैसा बेरहम कदम उठाया जाता हो वहां कैसे आधुनिक विचार और सुसंगतियों का प्रसार हो सकता है।

बहरहाल, एक कमाल का सिनेमा है 'बोल'। जो न सिर्फ कथा के स्तर पर बल्कि तकनीकी स्तर पर भी अद्भुत है। ख़ूबसूरत छायांकन, हृदयस्पर्शी संवाद, सुन्दर संगीत व कमाल की अदाकारी इसे एक गुणवत्तापरक सिनेमा बनाती है... और इन सबमे सबसे बड़ा कमाल किया निर्देशक शोएब मंसूर ने जिन्होंने 'खुदा के लिए' के बाद एक बार फिर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया और सिद्ध किया कि उद्देश्य महान हों तो सीमित संसाधनों में भी महान फिल्म बनायीं जा सकती है।

यदि स्वच्छ कालीन के नीचे जमी समाज की गंदगी को, शिक्षित-सभ्य लोगों की बेहयाई को, धार्मिक विश्वासों के पीछे छुपे पाखंड-अंधविश्वासों को देखना है तो 'बोल' देखिये....शायद ये आपको अपनी गिरेबान में झाँकने का माध्यम भी साबित हो।

Wednesday, August 31, 2011

सलमान खान: सीमित प्रतिभा और अपार लोकप्रियता का रसायन


ईद के अवसर पर विगत २ वर्षों की तरह एक बार फिर सलमान अपनी नयी सौगात "बॉडीगार्ड" के साथ हाजिर है...लेकिन मै पहले ये बता दूँ कि मेरा ये लेख इस फिल्म की समीक्षा करने के लिए नहीं है क्योंकि अब तक मैंने ये फिल्म नहीं देखी है...यहाँ बात दूसरी करना है।

बालीवुड के सबसे बड़े सुपर सितारे बनते जा रहे सलमान का नाम ही किसी फिल्म का बॉक्स ऑफिस कलेक्शन बढ़ाने के लिए काफी है.."बॉडीगार्ड" की सफलता के साथ वह पहले ऐसे सितारे बन जायेंगे जिनकी लगातार ४ फिल्मों का व्यावसायिक आंकड़ा १०० करोड़ के पार होगा। क्या कारण है कि एक सीमित प्रतिभा के कलाकार की फ़िल्में जो घोर अतार्किक होती है फिर भी दर्शक उन पर दीवानों कि तरह उमड़ पड़ता है...और उनकी इस अतार्किक विडंबनाओं को पूरे चाव से यथार्थ की भांति अनुभव कर देखता है।

एक साथ पचासों गुंडों के बीच बड़े ही अविश्वसनीय ढंग से लड़ता हुआ एक मसल्समेन दर्शकों में एक अजब उन्माद जगा जाता है...और उस उन्माद को जगाने के लिए उसे 'कृष' के हृतिक या 'रा-१' के शाहरुख़ की तरह किन्हीं दैवीय शक्तियों को पाने की जरुरत नहीं है। वह बिना किसी कलेवर के होते हुए भी सुपरहीरो है..लेकिन प्रतिनिधित्व आम आदमी का करता है। उन बेढंगे दृश्यों को देखते हुए शरीर में एक झुनझुनी दर्शक महसूस करता है और सहस रोंगटे खड़े हो जाते है।

कितनी अजीब बात है कि एक सीमित प्रतिभा का इन्सान इस कदर लोकप्रियता हासिल कर जाता है कि मिस्टर परफेक्शनिस्ट आमिर खान को कहना पड़ता है कि उन्हें सलमान की लोकप्रियता से जलन होती है। दरअसल लोकप्रियता का गणित भी बड़ा अजीब है जिसे समझ पाना बड़ा दुर्लभ है..और इस लोकप्रियता को हासिल करने के लिए कई बार प्रतिभा और कर्म बहुत बौने साबित हो जाते है..और कोई किस्मत का धनी बैठे-ठाले ही फेमस हो जाता है। योगगुरु बाबा रामदेव का भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन फ्लॉप हो जाता है तो एक छोटे से गाँव के आम आदमी अन्ना हजारे विशाल जनक्रांति ला देते हैं। कई प्रतिभाशाली कत्थक और भरतनाट्यम की नृत्यांग्नाएं गुमशुदा रहती है..और राखी सावंत जैसी दो कौड़ी की आइटम डांसर बड़ा नाम पा जाती है। 'बिग बॉस' के घर की सबसे बड़ी तमाशबीन डॉली बिंद्रा की TRP सबसे ज्यादा बढ़ जाती है। तकनीकी कौशल से लबरेज टेस्ट मेच क्रिकेट हाशिये पर फेंक दिया जाता है और २०-२० क्रिकेट की बहार आ जाती है। दरअसल इस देश में लोक को समझना ही टेड़ा काम है तो उसकी लोकप्रियता को कैसे समझा जा सकता है। लोकप्रियता बुद्धिजीवियों की पसंद से ज्यादा अघोरियों की पसंदगी पे निर्भर करती है...और अघोरियों के भी मूड़ होते हैं कभी कुढा-कचरा खाने वाले ये अघोरी उसी कचरे को इसलिए नकार देते हैं क्योंकि उसपे मक्खी बैठी थी।

सलमान खान की लोकप्रियता वेवजह हो या वे इसके लायक नहीं हैं ऐसा मैं नहीं कह रहा..मैं बस ये बताना चाहता हूँ कि बस लोकप्रियता को महानता का पैमाना नहीं बनाया जा सकता...लेकिन आज सर्वत्र आलम ये है कि लोग महानता के पीछे नहीं लोकप्रियता के पीछे ही भागना पसंद करते है..हिंदी फिल्म सिनेमा में सलमान इकलौते ऐसे सितारे नहीं रहे जो सीमित प्रतिभा के बाद इतने लम्बे समय तक इस इंडस्ट्री में मुस्तैदी से जमे रहे इससे पहले भी जुबली कुमार के नाम से मशहूर राजेंद्र कुमार और जीतेन्द्र ने लम्बी परियां खेली है। जो तत्कालीन प्रतिभाशाली कलाकार संजीव कुमार और अमोल पालेकर जैसे सितारों से ज्यादा लोकप्रिय रहे है।

सलमान की पैंठ उन दर्शक वर्ग तक है जहाँ शाहरुख़, आमिर और अक्षय पहुँचने के लिए तरसते हैं...इसका और विशदता से ज़िक्र मैंने अपने इसी ब्लॉग पर प्रकाशित लेख "सितारा सिंहासन और दबंग सलमान" में किया है। खैर यदि आपको असल सलमानी प्रभाव देखना है तो मल्टीप्लेक्स की बजाय एकलठाठिया सिनेमाघर में जाकर "बॉडीगार्ड" मजा लीजिये...जहाँ सलमान के एक-एक संवाद और एक्शन दृश्यों पर बजने वाली सीटियाँ और भान्त-भान्त के कमेंट्स आपको फिल्म से ज्यादा मनोरंजन प्रदान करेंगे।

फ़िलहाल अपनी बात समाप्त करता हूँ और सलमान के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करता हूँ क्योंकि इन दिनों ये बॉडी-बिल्डर सुपर सितारा अपनी एक छोटी सी गले की नस के दर्द से परेशान है..और उसकी सर्जरी कराने अमेरिका गया हुआ है। यहाँ ये बात भी समझ आती है कि अपार लोकप्रियता और पहलवानी वदन होने के वावजूद इन्सान कितना लाचार है..फिर आखिर घमंड किसका करें। छलावे से भरे संसार में सबसे ज्यादा छल..हमारे साथ हमारा अपना शरीर और लोकप्रियता ही करती है।

Saturday, August 20, 2011

सिंहासन खाली करो कि..जनता आती है....


अन्ना की आंधी से सारा देश इस समय प्रभावित है..और सरकार अपने कदम टिकाये रखने के लिए जद्दोज़हद कर रही है। आलम ये है कि अन्ना की इस क्रांति ने सारे देश का माहौल इस समय अन्नामय कर दिया है..अभी की सबसे बड़ी खबर और सबसे बड़ा काम बस अन्ना का अनशन और जन-लोकपाल की बहाली बन चुका है। इसे आजादी की दूसरी लडाई का नाम दिया जा रहा है..जो किसी भी मायने में पहली लडाई से कमतर नहीं है। पहली लड़ाई हमने विदेशी लुटेरों के खिलाफ लड़ी थी..अब ये लड़ाई घर के अन्दर बैठे ठगों से है..और कहते हैं चोरों से ज्यादा सावधान ठगों से रहना चाहिए क्योंकि ठग अपना बना के लूटते हैं।

देश की जनता ने दिखा दिया कि वो बस भारतीय टीम के विश्व कप जीतने पे ही सड़कों पे नहीं आती..उसे खुद का हक मांगने के लिए भी सड़कों पे उतरना आता है...ये भीड़ अब महज भीड़ नहीं रह गयी है ये तो वो सैलाब है जो सरकार ढहाने को तैयार है। सरकार को ये अंदाजा भी न होगा कि एक ७५ साल का बुढा ऐसा कहर ढा सकता है...और कहीं न कहीं सरकार ने ही अन्ना को अपने गले की फांस बना लिया, अनशन रोकने और क्रांति को सीमित करने का हर प्रयास उल्टा साबित हुआ। बाबा रामदेव की तरह अन्ना को भी गिरफ्तार करके सरकार ने सोचा कि इस आन्दोलन को भी उसी तरह दबा देंगे जैसा रामदेव के साथ किया था। लेकिन उनका फैसला आग को हवा देने वाला साबित हुआ...और अब ये आन्दोलन दिल्ली की चार दिवारी से निकलकर सारे राष्ट्र का अहम् मुद्दा बन गया।

इससे कांग्रेस सरकार की राष्ट्रीय शाख न सिर्फ आम जनता की नजरों में धूमिल हुई बल्कि उसके अपने पक्के समर्थक भी उससे रूठ चुके हैं। तो दूसरी ओर विश्वपटल पे भी वो उसकी प्रतिष्ठा में गिरावट आई है। पी.चिदम्बरम, कपिल सिब्बल और अम्बिका सोनी जैसे राजनीतिक धुरंधरों की बयानबाजी ने जनसैलाब को और भड़का दिया..जन मानस को पढने में ये धुरंधर चूक कर गये। सरकार समझ रही है ये जनसैलाब अन्ना के कारण क्रांति पे उतरा है पर ऐसा नहीं है इसका कारण तो भ्रष्टाचार की हदें पार हो जाना है..महंगाई का आसमान पे जाना है, लोगों का जीना दूभर हो जाना है। अन्ना तो बस इस क्रांति के अग्रदूत हैं।

इतिहास से सबक न लेना भी सरकार की एक बड़ी भूल है...ऐसे ही जनसैलाब ने १९७५ में इन्द्रा सरकार को उखाड़ फेंका था और उस आन्दोलन की परिणति आपातकाल के रूप में सामने आई थी। अब एक बार फिर कोई बड़ा परिवर्तन इंतजार कर रहा है। अन्ना का ये आन्दोलन महज उतावलापन नहीं है..ये बहुत व्यवस्थित और दूरदर्शिता के साथ नियोजित आन्दोलन है...जिसमे अन्ना के प्रमुख हथियार किरण बेदी, केजरीवाल और भूषण जैसे दिग्गज है जिनका कुशल प्रवंधन इस आन्दोलन की लौ को बुझने की बात तो दूर, कम तक नहीं होने दे रहा।

इस आन्दोलन का समर्थन कर रही जनता को एक बात और ध्यान रखना भी जरुरी है कि वो महज सरकार पर नारेबाजी करके उसे ही बदलने का प्रयास न करें..स्वयं में भी बदलाव लाये। सरकार के खिलाफ आन्दोलन से ज्यादा जरुरी स्वयं के लिए भी एक आन्दोलन का होना है। सरकार को सदाचार की नसीहत देने से ज्यादा आवश्यकता खुद को भी सदाचारी बनाने की है। हम खुद अपने अन्दर से पहले भ्रष्टाचार का सफाया करें फिर सरकार से इसे दूर करने की मांग करे। हम खुद पहले अपनी जिम्मेदारियों को समझे फिर सरकार से जिम्मेदार होने की अपील करे। अन्यथा ये आन्दोलन भी महज एक छलावा बन के रह जायेगा। अपनी जरूरतों को सीमित कर एक न्यायोचित जीवन ही हमारी महत्वाकांक्षाओं का अहम् हिस्सा हो। तभी वैसा राष्ट्र निर्मित हो सकता है जिसके हम सपने संजो रहे है। देश सरकार के बदलाव से ज्यादा नागरिकों के योग्य बदलाव की दरकार कर रहा है।

अंत में दिनकर की कविता जो उन्होंने जे.पी.आन्दोलन के दरमियाँ पढ़ी थी, से अपनी बात समाप्त करूँगा-
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।।

Saturday, July 9, 2011

उद्दंड जवानी, दहकते शोले और बाढ़ का उफनता पानी


मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रेमाश्रम' में जवानी का चित्र कुछ इस तरह खीचा गया है-"बाल्यावस्था के पश्चात् ऐसा समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..कभी जी में आया की रेलगाड़ी में बैठ कर देखूं कि कहाँ तक जाती है..अर्थी को देख श्मशान तक जाते हैं कि वहां क्या होता है..मदारी को देख देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती..ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं.."

जीवन का ऐसा समय जिसे बड़ा हसीन समझा जाता है लेकिन ये उद्दंडता का समय कई बार चरित्र पे ऐसी खरोंचे दे जाता है जिसके दाग जीवन भर नहीं भरते..अनुशासन और संस्कारों का नियंत्रण अगर न हो तो स्वयं की तवाही के साथ परिवार और समाज की बरबादी भी सुनिश्चित है..ये दौर दहकते शोले की तरह होता है चाहो तो उन शोलों पर स्वर्ण को कुंदन में बदल लो चाहो तो महल-अटारी को भस्म कर दो..या ये दौर बाढ़ के उस उफनते पानी की तरह है चाहो तो इसपे बांध बना के जनोपयोगी बना लो चाहो तो यूँही इसको स्वछंद छोड़ कर बस्तियों को बहा ले जाने दो..इन सारी चीजों में जो एक बात कॉमन है वो ये कि विवेक और नियंत्रण के साथ इनका प्रयोग ही सार्थक फल दे सकता है..अन्यथा परिणाम की भयंकरता के लिए तैयार रहे..

आनंद के मायने अलग होते हैं, अधिकारों को हासिल करने की तमन्नाएं ह्रदय में कुलाटी मारती है..मस्ती-अय्याशी-हुड़दंग जीवन का सार लगने लगते हैं..तरह-तरह के सपने नजरों के सामने नृत्य करते हैं..प्रायः इस उम्र में लक्ष्य नहीं, इच्छाएं सिर पे सवार होती हैं..गोयाकि "काट डालेंगे-फाट डालेंगे" टाइप अनुभूतियाँ होती है..

पहली सिगरेट होंठो को छूती है फिर उससे मोहब्बत हो जाती है..दारू का पहला घूंट कंठ को तर करता है फिर उसमे ही डुबकियाँ लगाई जाने लगती हैं..घर से नाता बस देर रात में सोने के लिए ही होता है..होटलों का खाना सुहाने लगता है..दाल-रोटी से ब्रेक-अप और पिज्जा-वर्गर से दोस्ती हो जाती है..गालियों से दोस्तों का स्तुतिगान और लड़की देख सीटी बजने लगती है..स्थिरता का पलायन और चंचलता स्थिर हो जाती है..जी हाँ जवानी की आग दहक चुकी है..

बड़े-बूढों की बातें कान में गए पानी के समान कष्ट देते हैं..और अनुशासन का उपदेश देने वाला सबसे बड़ा दुश्मन नजर आता है..इस उम्रगत विचारों के अंतर को ही जनरेशन गेप कहा जाता है..जिन्दगी जीना बड़ा सरल नजर आता है जिम्मेदारी बस इतनी लगती है कि दोस्तों का बर्थ डे याद रहे, और अगली पार्टी मुझे देना है..वक़्त बीतने का साथ ज्ञान चक्षु खुलते जाते हैं और समझ आता है कि जिन चीजों को पाने के हम लालायित थे वो उतनी हसीन नहीं है जितना हम समझ रहे थे..चाहे नौकरी हो चाहे शादी..जिम्मेदारी और हालातों के थपेड़े 'सहते जाना' बस 'सहते जाना' सिखा देते हैं...और समझ आ जाता है कि जिन्दगी दोस्तों की महफ़िल और कालेज की केन्टीन तले ही नहीं गुजारी जा सकती..

एक-एक कर जब हम अपनी इच्छित वस्तुओं को पाते जाते हैं तो उनकी उत्सुकता भी ख़त्म होती जाती है..वांछित का कौतुहल बस तब तक बना रहता है जब तक हम उन्हें हासिल न कर लें..हासिल करने के बाद कुछ नया पाने को मन मचल जाता है..संतोष और धैर्य के अमृत से प्रायः अनभिज्ञता बनी रहती है..और उतावलेपन में लिए गए फैसले बुरे परिणाम दे जाते हैं..

ऐसी दीवानगी होती है कि 'जो मन को अच्छा लगे वो करो' की धुन सवार रहती है..लेकिन इसका पता नहीं होता कि "जाने क्या चाहे मन बावरा" और मन तो न जाने क्या-क्या चाहता है यदि वो सब किया जाने लगे तो क़यामत आ सकती है..ये मन तो सर्व को हड़प लेना चाहता है, सर्व पे अधिकार चाहता है, सर्व को भोगना चाहता है, सारी दुनिया मुट्ठी में करना चाहता है...यदि इसे नियंत्रण में न रखा गया तो कैसा भूचाल आ जाये इसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता...

बहरहाल, जवानी-दहकते शोले और उफनते बाढ़ के पानी से सतर्क रहिये और यथा संभव इनपे नियंत्रण रखिये..संयम, संस्कारो से इन्हें काबू में रखिये अन्यथा बिना संस्कारो की ये जवानी ठीक बिना ब्रेक की गाड़ी की तरह है..जो खुद अपना अनिष्ट तो करेगी ही साथ ही दूसरों को भी ठोक-पीट के उनको भी मिटा देगी..इस बारे में और कथन मैं अपने इसी ब्लॉग पर प्रकाशित लेख "जोश-जूनून-जज्बात और जवानी" में कर चूका हूँ..जिन्दगी के इस ख़ूबसूरत समय की अहमियत समझिये और कुछ ऐसा करिए जो ताउम्र आपको फक्र महसूस कराये...क्षणिक आनंद के चक्कर में कुछ ऐसा न कर गुजरिये जिससे जवानी के ये जख्म जीवन के संध्याकाल में दर्द दें..क्योंकि ख़ता लम्हों की होती है और सजा सदियों की मिलती है......

Friday, July 1, 2011

प्रतिभा, सफलता और महत्वाकांक्षाओं का संसार



एक बहुत सुन्दर पंक्ति है-"प्रतिभा इन्सान को महान बनाती है और चरित्र महान बनाये रखता है"...और जन्म से मौत की दहलीज तक सिर्फ ये महत्वाकांक्षा दिल में कुलाटी मारती है कि जिन्दगी में कुछ तो करना है, महान बनना है...नाम-पैसा-शोहरत कमाना है..गोयाकि कुछ तो करना है का 'कुछ' बस यही तक सिमट कर रह जाता है और कई बार हम इस 'कुछ' को परिभाषित भी नहीं कर पाते या कहें कि पहचान ही नहीं पाते। दिल की कंदराओं में कुलाटी मारती आकांक्षाओं का 'कुछ' दरअसल इतना महीन है कि हम उसे पकड़ ही नहीं पाते..और बहुत कुछ मिल जाने पर भी "something is missing" की टीस सालती रहती है..मानव स्वभाव ही ऐसा है कि 'सपने अगर पूरे हो जाये तो लगता है बहुत छोटा सपना देखा, कुछ बड़ा सोचना था और यदि पूरे न हों तो लगता है कि कुछ ज्यादा बड़ा सपना देख लिया सफलता का इंतजार बेचैन किये रहता है'...असंतुष्टि दोनों जगह विद्यमान रहती है।

सफलता, खुद एक ऐसी अपनेआप में माया है जिसे परिभाषित नहीं किया जा सकता। ये एक ऐसी पिशाचनी है जिसके भ्रम में इन्सान बहुत कुछ गवा देता है..और जब वांछित की प्राप्ति होती है तो जो चीजें इसे पाने के लिए खोयी हैं उनकी कीमत समझ आती है...और वो इस सफलता से कई बड़ी महसूस होती हैं। सफलता की तलाश इतनी भ्रामक है कि जिन्दगी ख़त्म हो जाती है पर तलाश ख़त्म नहीं होती..दर्शन में इसे मृगतृष्णा कहते हैं..रेगिस्तान में जैसे पानी का भ्रम मृग के प्राण ले लेता है कुछ ऐसा ही दुनिया में इन्सान के साथ सफलता के भ्रम में घटित होता है...और कदाचित इन्सान को ये तथाकथित सफलता हासिल हो भी जाये तो वो उस सफलता के शिखर पे नितांत अकेला होता है। बकौल जयप्रकाश चौकसे "सफलता का शिखर इतना छोटा होता है कि उस पर दुसरे के लिए तो छोडो स्वयं की छाया के लिए भी स्थान नहीं होता।"

खास बनने की तमन्ना इन्सान को इस कदर बौरा रही है...कि उस अप्राप्त को पाने की चाह में हासिल की कीमत नहीं आती। प्रतिभा का आग्रह जिदगी को लील रहा है और चरित्र पर जंग लग रही है। मौत की कीमत पे भी सफलता और प्रतिभा पाने की महत्वाकांक्षा रहती है...और उस आकांक्षा के हवन में रिश्ते-नाते-मूल्य सब कुछ स्वाहा हो जाते हैं। स्पेंसर ने "survival of fittest" के सिद्धांत को बताते वक़्त शायद इस बात पर गौर नहीं किया होगा। दरअसल पश्चिम उस नजर से सोच ही नहीं सकता जो भारतीय मूल्यों पर कारगार हो सके...हमारी संस्कृति त्याग को महत्व देती है तो वहां हासिल करने के लिए सारे जतन हैं। उनका व्यक्तिवाद कभी उदीयमान भारत के समाजवाद का संवाहक नहीं हो सकता। हम लक्ष्य को, उद्देश्यों को प्राथमिकता देते हैं तो वे आकांक्षाओं को,इच्छाओं को...और जब इस संस्कृति में आकांक्षाओं के लिए जगह ही नहीं बनती तो सफलता का भूत न जाने कैसे इन्सान को लील जाता है।

सफलता कभी सुख का पर्याय नहीं हो सकती...सफलता कुछ देर के लिए चेहरे पे हँसी तो दे सकती है पर शाश्वत सुख नहीं। जिसे सफलता माना जाता है वह प्रतिभा की देन हो ये जरुरी नहीं। सफलता प्रतिभा से ज्यादा अवसरों की मोहताज है..कई प्रतिभाशाली लोग अवसर के अभाव में यूँही गुमनाम रह जाते हैं, तो कई प्रतिभाशाली लोग सफलता को काकवीट के सामान समझ अपनी मस्ती में मस्त रहते हैं। उन्हें दुनिया को अपना जौहर दिखाना पसंद नहीं वे खुद की संतुष्टि को अहमियत देते हैं। नाम-शोहरत मिल जाने से प्रतिभाशाली हो जाने का प्रमाण पत्र नहीं मिल जाता। यदि ऐसा हो तो राखी सावंत को मल्लिका साराभाई से ज्यादा प्रतिभावान मानना पड़ेगा, हिमेश रेशमिया को श्री रविशंकर से ज्यादा हुनरमंद मानना होगा, जेम्स केमरून को सत्यजीत रे से बड़ा निर्देशक मानना होगा....लेकिन ऐसा नहीं है।

एक जगह की सफलता दूसरी जगह असफलता बन सकती है...एक स्कूल में ९०% अंक लाकर सर्वश्रेष्ठ पायदान पर रहने वाला विद्यार्थी उतने अंको पे भी अपने मनपसंद कालेज में एडमिशन न मिल पाने पर असफल कहलाता है। मिस इण्डिया प्रतियोगिता में जीती सुन्दरी यहाँ सफल है और वही मिस वर्ल्ड में हार जाये तो असफल है। 'लगान' फिल्म फिल्मफेयर पुरुस्कारों में सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनकर सफल है और वही आस्कर न जीतने पर क्या असफल हो जाएगी। कहते हैं "असफलता के एक कदम पहले तक सफलता होती है" वर्ल्ड कप के फायनल में हारी श्रीलंकन टीम फायनल से पहले तक सफल थी। सफलता-असफलता हमारे दिमाग की उपज है। हालातों को देखने की नजर ही सफलता-असफलता का निर्धारण करती है। इस सम्बन्ध में ओशो का कथन दृष्टव्य है "हमारे अहंकार की पुष्टि हो जाने का नाम ही सफलता है"।

सफलता को हमेशा प्रदर्शित इस रूप में किया जाता है कि ये परोपकार की भावना है। पर ये शुद्ध स्वार्थपरक तमन्ना है जो साम-दाम-दंड-भेद करने से नहीं चूकती। एक राजनेता अपनी राज्नीति को पर सेवा नाम देगा..स्वार्थवृत्ति नहीं, एक अभिनेता अपनी अभिनय क्षमताओं को जन मनोरंजन नाम देगा, खुद की यश-लिप्सा नहीं...एक क्रिकेटर अपने प्रोफेशन को देशभक्ति का नाम देगा, स्वयं की जिजीविषा का नहीं। सर्वत्र स्वार्थ की नदियाँ प्रवाहित हैं ऐसे में कौन मूल्यों का संरक्षण करता है?

बहरहाल, सफलता की धुंध में कुछ ऐसे भी हैं जो सफलता के नहीं मूल्यों के आग्रही हैं...और उनके फैसले बहुमत के मोहताज नहीं...वे हमेशा नदी की उल्टी धारा में बहना पसंद करते हैं...कुछ लोग इतिहास रटकर सफल बनते हैं ये खुद इतिहास बन जाते हैं...कुछ प्रधानमंत्री, और राष्ट्रपति बनकर सफल होते हैं कुछ बिना किसी पद पे रहकर गाँधी जैसे राष्ट्रपिता कहलाते हैं...हाँ ये जरुर हैं ऐसे दिव्य-लोगों की महिमा उनके जीते-जी हमें नहीं आती। भैया, सफलता को नहीं, प्रसन्नता को चुनिए...सफलता, प्रसन्नता सा आनंद दिलाये ये जरुरी नहीं..पर प्रसन्नता जरुर सफलता सा मजा देती है..................

Monday, June 20, 2011

प्रार्थना और कर्म का रसायन



(नोट-ये लेख किसी के खास आग्रह पे लिखा गया है अन्यथा मैं इतने जटिल लेखों को अपने ब्लॉग से हमेशा दूर रखता हूँ...अतः आप अपनी स्वयं की रिस्क पर इसमें प्रवेश करें..ये लेख आपको पका सकता है)

चरम मजबूरियों में जन्म लेता है अक्सर एक वाक्य-"होनी को कौन टालसकता है" लेकिन जब तक ये त्रासद समय हमसे दूर रहता है हम इस अहंकार या कहें कि मुगालते में ही जीवन गुजारते हैं कि हम सब कर सकते हैं।

साया फिल्म का एक गीत है 'कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ हर जगह हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर'। इन मजबूरियों के हालात ही प्रार्थनाओं को जन्म देते हैं। असफलताएं, लाचारियाँ, परेशानियाँ मजबूर करती हैं दुआओं के लिए। अगर हमें प्रकृति से ये लाचारियाँ न मिले तो शायद हम ये भूल ही जाएँ कि हम एक इन्सान हैं, फिर शायद भगवान की याद भी न आये।

दुःख का दौर हमें भगवान के सामने ये गुनगुनाने को मजबूर करता है कि "तेरा-मेरा रिश्ता है पुराना"। जीवन भर कर्म को सर्वस्व मानने वाले इन्सान के सामने जब विपदाओं के ववंडर आते है तब कर्म बेअसर और प्रार्थनाएं असरदार बन जाती हैं। अनिष्ट की आशंका प्रार्थनाओं की जनक है और अनिष्ट की आशंका हर उस जगह विद्यमान है जहाँ प्रेम होता है। हमें अपने जीवन से, रिश्तों से, संवंधों से इस कदर आसक्ति है जो हमारे अन्दर एक डरको पैदा करती है। जी हाँ डर, इनके खोने का, बिखरने का, टूट जाने का। इस तरह गाहे-बगाहे प्रार्थनाएं प्रेम से जुड़ जाती हैं।

तो क्या प्रार्थनाओं से कुछ होता भी है? या कोई इन्हें सुनता भी है? इस बारे में अलग-अलग मत हो सकते हैं। लेकिन इस संबंध में अपना व्यक्तिगत नजरिया रखूं जो मेरे अब तक के अध्ययन से निर्मित है तो मैं कहूँगा कि प्रार्थनाओं का असर होता है लेकिन सच ये भी है कि कोई इन्हें सुनने वाला नहीं बैठा है। प्रार्थनाओं में चाहत छुपी होती है और जो चीज हम शिद्दत से चाहते हैं वो हमें मिलकर रहती है। यदि कोई चीज आपको नहीं मिल रही है तो आपकी चाहत में शिद्दत की कमी है। हम हमारी दुआओं, प्रार्थनाओं, चाहतों से ऐसे परमाणु (vibration) उत्सर्जित करते हैं जो हमें वांछित वस्तु की उपलब्धि में सहायक साबित होते हैं। तो इस तरह ये जरुरी नहीं की प्रार्थनाओं या दुआओं के लिए किसी भगवान के दर पर माथा टेका जाये या व्रत-उपवास अथवा गंडा-ताबीज का सहारा लिया जाये। व्रत रखकर या निर्जला उपवास करके हम बस अपनी चाहत की शिद्दत दिखाना चाहते हैं।

दरअसल, ये इंसानी फितरत है कि वो नियति को कभी मंजूर नहीं करता और अपने आसपास घट रही समस्त घटनाओं के लिए किसी न किसी को जिम्मेदार या कर्ता मानता है। जब तक सब सही-सही होता है तो कहता है ये मैंने किया, ये मेरा कर्मफल है और जब खुद के अनुकूल घटित नहीं होता तो किस्मत को या भगवान के मत्थे उस यथार्थ को मढ़ देता है और फिर ईश्वर की चौखट पे जाके कहता है तूने मेरे साथ ही ऐसा क्यूँ किया या मेरा तुझसे विश्वास हट गया। बस इसी क्षणिक सापेक्ष श्रद्धा का नाम छद्म आस्तिकता है। जो गलत हो वो भगवान कैसे हो सकता है ईश्वर के सर पे दोष मढना बंद करें। इसलिए मेरा मानना है कि धार्मिक नहीं, आध्यात्मिक होना चाहिए। god से पहले खुद की पहचान करो।

बहरहाल, गीता के कर्मफलवाद, जैनदर्शन के क्रमबद्धपर्याय और बौद्ध मत के सृष्टि रहस्यवाद को समझने के बाद नियति पर यकीन हो। पाश्चात्य दार्शनिक अरस्तु, सुकरात घटनाओ के इस नियम को 'predestined uncontrollable incident' कहते हैं। वहीँ आइन्स्टीन का इस बारे में कथन भी दृष्टव्य है-"Events do not heppen, they already exist and are seen on the time-machine" वे घटनाओं को पूर्व नियोजित और पहले से विद्यमान मानते हैं। तो फिर प्रश्न उठता है कि यदि नियति ही सब कुछ है तो क्या हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें तो मैं कहना चाहूँगा कि नहीं, हमें अपने स्तर पर कर्म करना कभी बंद नहीं करना चाहिए क्योंकि हमारे हाथ न तो नियति है नहीं कर्म का फल। हमारे हाथ सिर्फ और सिर्फ कर्म है जिसे पुरुषार्थ भी कहते हैं....और हमें अपना काम बंद नहीं करना चाहिए। लेकिन उस काम में ईमानदारी और सद्भावना बनी रहने दें। यही गीता का 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' का सिद्धांत है....और भगवान को अनावश्यक जगत का कर्ता बनाकर इस पचड़े में न डालें तभी बेहतर है।

प्रार्थनाएं तो करें पर निरपेक्ष, जो सापेक्ष होती है वे प्रार्थनाएं नहीं इच्छाएं होती है। भगवान के दर दुनिया की चीजें नहीं स्वयं के लिए आत्मबल मांगने जाएँ। समस्याओं को समस्या की तरह देखना बंद करें। अनुकूलता में अति उत्साह और प्रतिकूलता में अवसाद से बचें तथा इस तरह के व्यक्तित्व को बनाना स्थितप्रज्ञ या स्थिरबुद्धि हो जाना है।

प्रार्थनाओं से ज्यादा जरुरी है कभी सत्य का साथ न छोड़ना, चाहे कुछ मिले या न मिले। दुनिया की बड़ी टुच्ची चीजों (पैसा, पद, प्रतिष्ठा) के लिए जिस तरह से हम सत्य और सिद्धांतों का बलात्कार करते हैं वह तो महा अशोभनीय है। दुनिया की चीजों से क्षणभर की ख़ुशी मिल सकती है परमसुख अपने अन्दर से ही आता है। इसलिए 'प्यासा' फिल्म में साहिर लुधयानवी कहते हैं "ये दुनिया अगर मिल भी जाये तो क्या है"।

खैर, प्रार्थनाओं और कर्म के रसायन की तरह ये लेख भी बहुत जटिल हो गया...इस संबंध में कहा तो बहुत कुछ जा सकता है लेकिन फ़िलहाल इतना ही...लेख अतिविस्तार पा लेगा। ये सारी मेरी अपनी व्यक्तिगत सोच है जो आपके हिसाब से गलत भी हो सकती है...और आप इससे सहमत हों ऐसा मेरा कतई आग्रह नहीं है।

Sunday, June 19, 2011

एक ख़ूबसूरत प्रेम-पत्र



ब्लॉग भ्रमण के दरमियाँ एक ख़ूबसूरत प्रेमपत्र मिला जिसे अपने ब्लॉग पर आप सबसे साझा कर रहा हूँ....ये टीस किसी एक की नहीं, प्रायः हर जवान दिल की हो सकती है...सुन्दर शब्दों के साथ अपने अहसासों को कागज पे उतारता ये प्रेमपत्र कई आशिकों का प्रतिनिधि हो सकता है-


प्रिये,
काफ़ी लंबे वक़्त बाद प्रेम पत्र लिखने का मौक़ा मिल रहा है, यक़ीन मानों. हां इतना ज़रूर है कि स्कूली दिनों में गुलाबी कागज़ों पर कलम चला लिया करता था.. लेकिन कामयाबी शायद ही कभी मिली हो... मिलती भी कैसे, वो ख़त या तो दोस्तों के ख़ातिर हुआ करता या फिर इकतरफ़ा आकर्षण की ज़ोर आजमाइश।। ख़ैर, आज मौक़ा मिला है,
ठिकाना भी मिला है... और ख़ुद के भावों को उकेरने का दस्तूर भी... सो लिख देता हूं।
पहला सवाल, कैसी हो... बिन मेरे। मैं तो हालात की तपिश और ज़िम्मेदारियों का भरम पाल बैठा हूं, लगा हुआ हूं.. चल रहा हूं... ज़िंदगी में कुछ हासिल करने की होड़ में ना-ना करते मैं भी शामिल हो ही गया। मैं वो वादा तोड़ चुका हूं, जिसमें तुमसे और सिर्फ़ तुमसे चाहत का क़रार हुआ था... ऐसा नहीं कि तुमसे मेरी चाहत में किसी भी तरह की कमी आई हो... हुआ तो बस इतना है कि मुझे एहसास हो गया है कि ज़िंदगी सिर्फ़ और सिर्फ़ माशूका की ज़ुल्फों तले नहीं गुज़ारी जा सकती। और भी कई हैं, जो मुझमें, खुद की उम्मीदें देखते हैं... और भी हैं जो ये सोचते हैं कि मैं हूं ना.... । कैसे उनकी उम्मीदों से छल कर लूं
, कैसे सिर्फ़ खुद की सोचूं, कैसे ये कह दूं कि मैं नहीं हूं।

ख़ैर, तुमसे मिले लंबा वक़्त गुज़र चुका है, इस बीच मैनें तो कुछ ख़ास हासिल नहीं किया लेकिन उम्मीद है तुम्हें वो सब मिल रहा होगा.. जिसकी ख़्वाहिश तुमने की थी। मैं उस वक़्त तो नहीं कह पाया, लेकिन यक़ीन मानो तुम्हारे जाने से जो खालीपन मेरी ज़िदंगी में आया है, जाने क्यों वो जाता ही नहीं। शायद मैं ही इस सूनेपन से दिल लगा बैठा हूं, वैसे ये भी है कि इस खालीपन ने मुझे हमेशा इस बात का एहसास कराया है कि जो मेरा है वो कितना ख़ास है, और उसके खो जाने या छूट जाने पर कितनी तकलीफ़ होती है। तुम समझ रही हो ना...। अरे, ये क्या कह रहा हूं, तुम भला क्यूं समझोगी... तुमने कभी समझा ही कहां... और मैं भी ना चाहते हुए, तुम्हे समझा ही तो रहा हूं। ख़ैर छोड़ो, हम क्यों उलझ रहे हैं,
लंबा वक़्त निकल गया पिछली उलझन को सुलझाने में। यक़ीनन तुम्हारे दिलों दिमाग़ में ये सवाल ज़रूर आया होगा कि मैनें तुम्हे ख़त लिखने का कैसे सोचा, कैसे तुम्हे उसी हक़ से प्रिये कहा... जवाब बड़ा आसान है, हालात तुम्हारे लिए बदले होंगे, लेकिन मैं तो अब भी उसी मोड़ पर खड़ा हूं। वक़्त के गुज़रते लम्हे भी मेरी चाहत को कम करने में बेअसर साबित हुए, यूं समझो कि किसी वीराने में खुद को पनाह देती पुरानी आहटें आज भी पुरअसर तरीके से गूंज रही हैं।

मैनें तो हर पल तुम्हे सोचा, मेरे ख़्वाब-ख़याल, मेरा मक़सद.. सभी कुछ तो तुमसे मिला था, तुम ही तो थीं जो मुझसे कहती थी कि फलां ठीक है, और फलां ग़लत... और मैं हमेशा की तरह कुछ नहीं कह रहा होता। लेकिन सच तो ये है कि मेरा आज उसी दौर में लिख दिया गया था... उन्ही ख़ुशगवार लम्हों ने आने वाले कल की इबारत लिख दी थी।
आज भी मेरे सच और झूठ, सही और ग़लत का पैमाना वही है जो तुमने सिखाया था। तुम भूल चुकी होगी, यक़ीनन तुम्हे याद न हो... लेकिन तुम्हारी हर बात अब मेरा किस्सा है। कुछ कमियां मैं आज भी दूर नहीं कर सका हूं
, शायद दूर करना भी नहीं चाहता... मुझे ताउम्र अफ़सोस रहेगा कि मैं तुम्हे वो भरोसा नहीं दिला सका जो तुम चाहती रही। जिस एक अफ़साने पर मोहब्बत टिकी होती है, वो अफ़साना कब शुरू हुआ, कहां जाकर ख़त्म भी हो गया, पता ही नहीं चला... अब सोचता हूं कि रिश्तों का जो ताना-बाना हमने बुना था, क्या वो इतना कमज़ोर था। नहीं वो कमज़ोर नहीं हो सकता.. फिर कैसे दरक गई ये दीवार, जिसकी नींव गुलशन से चुने गए ताज़े फूलों पर रखी गई थी। लगता है उन फूलों में पहले जैसी बात नहीं रही, लेकिन सुना तो कुछ और ही था कि मुहब्बत के बासी फूल ज़िंदा सांसों से भी ज़्यादा असर रखते हैं।

कभी हालात मेहरबां हुए तो उम्मीद करता हूं कि फ़िज़ां फिर बदलेगी, सूख चुके दरख़्तों पर फिर कोपलें खिलेंगी, अरसे से सन्नाटे का दामन थामे मेरे दरो-दीवार किसी आहट को महसूस करेंगे, तेज़ चलती आंधियों में खुद का वजूद तलाशते क़दमों के निशान फिर कहेंगे कि यहां भी कोई चलता है। बुलबुल फिर कब्रगाह बन चुके मेरे आशियाने का रुख़ करेगी। जब तुम आओगी तो देखोगी, वक़्त के लम्हे आज भी वहीं ठहरे हुए हैं जहां तुम उन्हे छोड़कर गईं थी। हां एक बात और मेरे आंगन के सबसे कोने में एक ईंट है, उसके नीचे सुनहरे रंग की डिब्बी में एक पर्चा लिखा मिलेगा, उसे पढ़ना.. सोचना... और हां आंसू मत छलकने देना... क्योंकि मैं अगर ज़िंदा होता तो शायद तुम्हे रोने न देता।

तुम्हारा
..............

साभार गृहीत- aapaskibat-nishant.blogspot.com

Saturday, June 18, 2011

परम्पराओं का आग्रह और शिक्षा




लार्ड मेकाले की शिक्षा पद्धत्ति को पाश्चात्य दृष्टि से देखने पर हम कह सकते हैं की आज रूढ़ीवाद, धर्मान्धता, कट्टरवाद का अंत हुआ है पर गहराई में जाकर विचार करने से हम देखते हैं कि कुछ नहीं बदला सिवा कलेवर के।

ऊपर से जींस-टी शर्ट पहने नजर आ रही संस्कृति आज भी उसी कच्छे-बनयान में हैं। सारा mordanization खान-पान बोलचाल और पहनावे तक सीमित है विचारों पर आज भी जंग लगी है। तमाम शिक्षा संस्थानों में महज साक्षरता का प्रतिशत बढाया जा रहा है शिक्षित कोई नहीं हो रहा है। इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट कॉलेज में दाखिला लेकर छात्र रचनात्मकता के नाम पर बस हालीवुड की फ़िल्में देखना और सिगरेट के धुंए का छल्ला बनाना सीख रहे हैं सोच तो मरी पड़ी है।

शिक्षा सफलता के लिए है सफलता स्टेटस पर निर्भर है स्टेटस सिर्फ अर्निंग और प्रापर्टी केन्द्रित है। ऐसे में कौन विचारों कि बात करे, कैसे नवीन सुसंगातियो का प्रसार हो? यहाँ तो विसंगतियों का बोझा परम्पराओं के नाम पर ढ़ोया जा रहा है। शिक्षा का हथोडा कोने में खड़े परम्पराओं के स्तम्भ को नहीं तोड़ पाता मजबूरन उस स्तम्भ पर छद्म-आधुनिकता का डिस्टेम्पर पोतना पड़ता है।

दिल में पैठी पुरानी मान्यताएं महज जानकारी बढ़ाने से नहीं मिटने वाली, सूचनाओं की सुनामी से समझ नहीं बढती। जनरल नालेज कभी कॉमन सेन्स विकसित नहीं करता। जनरल नालेज बहार से आता है कॉमन सेन्स अन्दर पैदा होता है। विस्डम कभी सूचनाओं से हासिल नहीं होता। भोजन बाहर मिल सकता है पर भूख और भोजन पचाने की ताकत अन्दर होती है। इन्फार्मेशन एक्सटर्नल हैं पर विचार इन्टरनल। अभिवयक्ति आउटर होती है पर अनुभूति इनर।

पर आज हालात सिर्फ इमारतों को मजबूत कर रहे हैं नींव का खोखलापन बरक़रार है। इसी कारण चंद संवेदनाओं के भूचाल से ये इमारतें ढह जाती हैं। फौलादी जिस्म के आग्रही इस दौर में श्रद्धा सबसे कमजोर है। उस कमजोर श्रद्धा का फायदा उठाने ठगों की टोली हर चौक-चौराहों पर बैठी है। गले में ताबीज, हाथ में कड़ा, अँगुलियों में कई ग्रहों की अंगूठियाँ पहनकर लोग किस्मत बदलना चाहते हैं। व्रत, उपवास, पूजा, अर्चना बरक़रार है पर नम्रता, शील, संयम आउटडेटेड हो गए हैं। जितनी भी तथाकथित धार्मिकता की आग धधक रही है वह लोगों के दिमाग में पड़े भूसे के कारण जल रही है इनमें तर्क कहीं नहीं है।

गोयाकि वेस्टर्न टायलेट पर बैठने का स्टाइल खालिश भारतीय है। ऐसे में खुद को माडर्न बताने का राग आलाप जा रहा है। नए वक्त में परम्पराएँ पुरानी ही है और उन परम्पराओं का अहम् भी है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर सड़ी हुई रूढ़ियाँ धोयी जा रही हैं और न्यू-माडर्नस्म के नाम पर नंगापन आयात किया जा रहा है। इन्सान की फितरत भी समंदर सी हो गयी है परिवर्तन बस ऊपर-ऊपर है तल में स्थिति जस की तस है।

विचारों के ज्वार-भाटे परम्पराओं की चट्टानों से माथा कूट-कूटकर रह जाते हैं पर सदियों से उन चट्टानों में एक दरार तक नहीं आई। शिक्षा पद्धति की उत्कृष्टता का बखान करने वाले लोगों के लिए ये सांस्कृतिक शुन्यता आईना दिखाने का काम करती है।

Monday, June 13, 2011

अभिव्यक्ति और अनुभूति

एक विचारणीय sms कुछ इस प्रकार है- "किलोग हमें हमारे प्रस्तुतिकरण से आंकते हैं, हमारे अभिप्रायों से नहीं जबकि ईश्वर हमें हमारे अभिप्रायों से आंकते हैं प्रस्तुतिकरण से नहीं"। विज्ञापन के इस दौर में जो दिखता है वही बिकता है। संस्कार सम्पन्नता महज एक दिखावा है जिसे so called manners कहते हैं।

अभिव्यक्ति पूर्णतः अचेतन प्रक्रिया है जिसे चेतन इंसानी पुतलों ने अपना लिया है। शुभेच्छाए, प्यार, सम्मान, विनम्रता सब अभिव्यक्ति तक सीमित है। सूचनाएँ जीवन को अनुशाषित कर रही है पर नैतिक कोई नहीं हो रहा। अनुशाषन भी so called manners है। प्रैक्टिकल होने के उपदेश दिए जाते हैं, इमोशंस सबसे बड़ी कमजोरी बताई जाती है। डिप्लोमेटिक होने के लिए मैनेजमेंट की शिक्षा है सत्य को पर्स में दबाकर रखना ही समझदारी है। बस आप वही कहिये जो लोग सुनना चाहते हैं वह नहीं जो सुनाना चाहिए। गर्दन को सलामत रखना है तो सत्य छुपाकर रखिये।

भर्तहरी, चाणक्य, सुकनास के सिद्धांतो पर फेयोल और कोटलर कि शिक्षा भारी हो गयी है। रामायण और गीता के चीरहरण का दौर जारी है। संवेदन शुन्यता को परिपक्वता का पर्याय माना जाता है। ख़बरों की बाढ़ के चलते खबर का असर होना बंद हो गया है। गोयाकि बासी रोटी गरम करके बेंची जा रही है या गोबर की मिठाई पर चांदी की वर्क चढ़ी हुई है।

पढ़-सुनकर हम अच्छे वक्ता हो रहे है या फिर अच्छे लेखक, पर घटनाएँ अनुभूत नहीं हो रही है। प्रेम की परिभाषा रटने वाले या प्रेम पर पी एच डी करने वाले जीवन भर प्रेम से अछूते रहते हैं। तथाकथित प्रेमप्रदर्शन के तरीके ईजाद हो रहे हैं पर मौन रहकर महसूस किया जाने वाला उत्कृष्ट अहसास कहाँ हैं? मदर्स डे फादर्स वेलेंटाइन डे से लेकर कुत्ते-बिल्ली को पुचकारने वाले दिन तक उत्साह से सेलिब्रेट किये जा रहे हैं पर माँ-बाप का असल सम्मान नदारद है। प्रातःकालीन चरण स्पर्श पर ग्रीटिंग कार्ड्स का अतिक्रमण है। सम्मान के बदले गिफ्ट्स के लोलीपोप पकड़ा दिए जाते हैं। श्रवण कुमार को कौन याद करता है? तमाम ताम-झाम अभिव्यक्ति की मुख्यता से हैं।

अभिव्यक्ति की चकाचौंध में अनुभूति भी दूषित हो रही है। सहानुभूति शब्द सर्वाधिक बदनाम हो गया है। दुःख में सहानुभूति सांत्वना पुरुस्कार सरीखी लगती है एक sms, scrap या readymade email ही सहानुभूति के लिए काफी है। समझ नहीं आता इस अभिव्यक्ति में अनुभूति कहाँ है? विपदा में सहानुभूति तो बहुत मिल जाती है पर साथ नहीं मिलता। एक्सपेक्टेशन बहुत हावी हैं इंटेंशन पर। सहज प्रेम, करुणा, त्याग गयी गुजरी बात बन गये हैं।

उसूल सिर्फ बघारने के लिए हैं जिन पर ताली बजती है जीवन जीने के लिए 'सब चलता है' के जुमले बोले जाते हैं। किसी ने कहा भी है-"झूठ न कहें, चोरी भी न करें..पेट भरने के लिए क्या उसूल सेंककर खायेंगे" भैया उसूलों से चलकर पेट भर जाता है अलबत्ता पेटी न भर पाए। नवसंस्कृति मशीनी हो गयी है और मशीनों के अनुभूति नहीं होती। इस संस्कृति ने दादी-नानी को वृद्धाश्रम में छोड़ दिया है, पुराने साहित्य और पुराणों के पन्ने समोसे के नीचे पड़े हैं, पुरानी धरोहरें, इमारतें टूटकर कोम्प्लेक्स और शापिंग माल में बदल गयी हैं ऐसे में पुरा संस्कारों के समस्त स्त्रोत अपाहिज हो गए हैं।

बहरहाल, इस शुन्यता के माहौल में भी कहीं न कहीं भावनाओं का दीपक टिमटिमा रहा है जो राहत देता है। जो आधुनिकता की आंधी को ललकार रहा है ....और यही संवेदना, संस्कारो और भावनाओं का दिया मजबूर कर रहा है हमें आश्चर्य करने पर कि जो असंवेदना और संस्कारविहीनता के सूरज को सिद्धांतों की रौशनी दिखाने का उद्यम कर रहा है।

Thursday, April 7, 2011

मैं कोई कवि नही....

कविता करना कोई मजाक नही

जो हम जैसे नौसिखिये कर सके

ये तो एक साधना है

जो संगिनी है साधकों की...

बेचैन हूँ मै पर,

मैं कोई कवि नही...............


जब चरम तन्हाईयों के दौर में

दोस्त हो जाते हैं दूर

तो कागजों से बातें करता हूँ

कविता के जरिये

हैरान हूँ मैं पर

मैं कोई कवि नही...........


जब भर जाता है दिल दर्द से लबालब

तो छलकने लगता है वो

रूह के प्यालों से शराब बनकर

और फ़ैल जाता है वो

इन कागजों की जमीं पर

मतवाला हूँ मैं पर

मैं कोई कवि नही.................


जब अपनों की दगा से

प्रियतम की झूठी वफ़ा से

जगता है मन में रोष

तो इन कागजों के समंदर में

शब्दों के पत्थर फेंक देता हूँ....

दीवाना हूँ मैं पर मैं कोई कवि नही..................


(c) अंकुर 'अंश'

Tuesday, February 15, 2011

प्रेम- फिजिक्स,केमिस्ट्री,फिलोसफी या कुछ और......?


कालिदास के प्रेम रस से सराबोर नाटको से लेकर शेक्सपीयर की अमर रोमांटिक कृतियों तक...मीरा की भक्ति से लेकर जायसी के विरह बारहमासों तक, गुरुदत्त की अमर कृति 'प्यासा' से लेकर संजय लीला भंसाली की 'गुजारिश' तक, शाहजहाँ के 'ताजमहल' से लेकर लन्दन के 'एलिनर क्रासेस' तक....ये धरती यदि किसी एक भाव से सर्वसामान्य होती है तो वो है-प्यार।

दुनिया भले प्यार से बनती नहीं लेकिन प्यार से चलती जरुर है। चाहत ही इन्सान को प्राणिजगत की तमाम कृतियों से अलग करती है। दिल की हरकतें ही इन्सान को कही ताकत देती है तो कही कमजोर करती हैं या कहे की इन्सान को इन्सान बनाये रखती है। इन्सान की जिन्दगी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले भाव को ही आज तक इस तरह से परिभाषित नहीं किया जा सका जिसे एकमत से स्वीकार किया जा सके।

कोई इसके अपने ही वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करता है आक्सीटोसिन नामके हारमोंस को प्रेम होने का जिम्मेदार बताया जाता है। तो कोई इसके पीछे नेचुरल फिजिक्स को दोषी करार देता है....कही इसे आध्यात्मिकता से जोड़कर दार्शनिक रूप में प्रस्तुत किया जाता है...तो किसी के लिए ये मन की परतो में उत्पन्न अनेक परिणामो में से एक मनोविज्ञान माना जाता है। कभी ये महज साहित्य का वचन-व्यापर है तो कभी एक पागलपन...और आज की नवसंस्कृति में बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए महज उत्कृष्टतम मनोरंजन।

गोयाकि आत्मिक मनोभाव पर परतें चढ़ा दी गयी है...और उन परतों के अन्दर प्रेम भी पसीज रहा है। कभी ये जीने का मकसद है तो कभी मरने का कारण....और प्रेम में आकंठ लिप्त इन्सान जो भी कर गुजरे सब सही है। इस दशा में फैसले सारे सही होते हैं बस कुछ के नतीजे गलत निकल आते हैं। everything is fair in love n war के जुमले बोले जाते हैं। प्रेम में सफल इन्सान सातवे आसमान में होता है तो असफल रसातल में। और असफलता में जन्मी कुंठा निर्ममता को जन्म देती है तब इन्सान न खुद से प्यार करता है न उस शख्स से जिसके लिए कभी जान देने की बात करता था। इस दशा में वो युक्ति चरितार्थ होती है-''रिश्ते-नाते, प्यार-वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या..."

दरअसल प्रेम जीवन को पूर्णता देने वाला हो तो ठीक है...तबाही प्रेम का मकसद नहीं होना चाहिए। सापेक्ष प्रेम शाश्वत नहीं हो सकता..प्रेम में निरपेक्षता निरंतरता की वाहिनी होती है। आज की नवसंस्कृति में बढ़ रहे युवाओं के लिए प्रेम की पारलौकिकता समझाना दूसरे गृहों की बातों जैसा है। आज के सम्भोग केन्द्रित विश्व में प्रेम कालीन के नीचे तड़प रहा है। आज प्रेम आदर्श है और सेक्स नवयथार्थ। रोमांस आधुनिकता है और प्यार गुजरे ज़माने की बात।

जीवन का स्वर्णिम दौर मोहब्बत का सोपान होता है...उत्साह से इन्सान का चेहरा कुछ ऐसा खिल जाता है कि बिना सौन्दर्य प्रसाधनों के भी चमक दोगुनी हो जाती है। बकौल जयप्रकाश चौकसे इस दरमियाँ चेहरे पे इतना नूर जमा हो जाता है कि ठोड़ी पे कटोरी रखके सारा नूर समेट लेने को जी चाहता है। ''आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे...
जैसी हालत होती है उल्फत बदल जाती है रंगत जुदा हो जाती है...ख्यालों में यही गुनगुनाहट होती है-"ख्याल अब अपना ज्यादा रखता हूँ, देखता हूँ मैं कैसा लगता हूँ...कुछ तो हुआ है, कुछ हो गया है"

चाहत कब कहाँ किससे हो जाये इस पे दिल का जोर नहीं चलता...दिल्लगी आशिकी तो है पर गुनाह नहीं। हाँ अपनी उस चाहत को पाने के जतन जरुर गुनाह करवा देते हैं...लेकिन प्रेम में हासिल करने कि मोह्ताजगी नहीं होती...बस एक साइलेंट केयरिंग होती है जिसमे दिल से बस दुआएं निकलती है। प्रेम खता नहीं, दुआ है और ''खता तो तब हो कि हम हाले दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं....

एक और जहाँ ये प्रेम उत्साह का संचार करता है तो दूसरी ओर इससे जन्मी तड़प भी कोई कम दर्द नहीं देती....एक ओर इंतजार बेचैनी बढ़ाता है तो दूसरी ओर वेवफाई का डर व्याकुल किये रखता है। वही आपकी मोहब्बत को आप तो समझते हैं पर उसे दुनिया को समझा पाना कठिन होता है...."ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लो..इक आग का दरिया है और डूब के जाना है"...नफरत की आग तो भस्म करती ही है पर इश्क की सुलगती चिंगारी भी कृष करने में कोई कसर नहीं छोडती....इसलिए इश्क कभी करियो न कहा जाता है...साथ ही ये भी कहते हैं कि "ये राग आग दहे सदा तातें समामृत सेइये"...समझाइशों की फेहरिस्त यही ख़त्म नहीं होती आगे कहते हैं-''छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए...प्यार से भी बड़ी कई चीज हैं प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए''

बहरहाल इस प्यार न अपने कई कलेवर बदले पर ये हर काल में कायम रहा...लेकिन आज के इस मशीनी युग में ये कुछ ज्यादा ही जख्मी हो गया है क्योंकि मशीनें दिल नहीं लगाती। हम २०५० के लिए सपने बुन रहे हैं...हमारी धरती इतनी बोझिल लगने लगी है कि मंगल और चाँद पे जीवन तलाश रहे हैं...पर २०५० कि कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देती है...क्या पता २०५० में प्यार, इश्क, लव, चाहत, मोहब्बत जैसे शब्द डायनासोर कि प्रजातियों कि तरह विलुप्त तो नहीं हो जायेंगे......................

Sunday, January 23, 2011

सिनेमाई परंपरा को तोड़ती फ़िल्में : नो वन किल्ड जेसिका और धोबी घाट

हिंदी सिनेमा ने २०१० के विदाई के साथ ही एक दशक को विदा कह दिया। २०११ के साथ एक नया दशक नयी उम्मीदों के साथ सामने हैं...पिछले दशक ने न्यू-एज्ड सिनेमा के रूप में हमें एक नए तरह के सिनेमा से मुखातिब कराया और अब एक बार फिर कुछ ऐसे ही नयेपन की आस है...और इस आस को २०११ के पहले माह में रिलीज फिल्मों ने और अधिक बढ़ा दिया है...बात 'नो वन किल्ड जेसिका' और 'धोबी घाट' की करना है.......

पहले तो बता दूँ कि कैसे ये फ़िल्में सिनेमाई परंपरा को तोड़ती है...दोनों फ़िल्में मार-धाड, रोमांटिक सीन, गीत-संगीत, इश्क-मोहब्बत या शीला-मुन्नी-चुलबुल पांडे टायप के मसालों से रहित हैं...न पूरा यथार्थ है जिससे ये वृत्तचित्र सिनेमा नहीं है और नाही पूरी कल्पना है जिससे ये खालिश व्यावसायिक सिनेमा भी नहीं रह जाता। ये यथार्थ के रोल में कल्पना का क्रीम डालकर तैयार किया ऐसा क्रीमरोल है जो असल मानवीय स्थिति-परिस्थिति, जज्बातों के करीब जान पड़ता है। सिनेमा देखने वाला सारा दर्शक वर्ग इस पर मुग्ध नहीं होगा, इसका लक्षित दर्शक वर्ग सीमित है।

'नो वन किल्ड जेसिका' एक यथार्थपरक घटना पर निर्मित एक बेहतरीन दस्ताबेज बन गया है। जिसे देख दर्शक जेसिका के मर्डर से खुद को जोड़ उस घटना के लिए आक्रोशित होता है। उसे सिस्टम के आगे पिसते आम आदमी की घुटन महसूस होती है...और दिल में इस व्यवस्था के खिलाफ हुंकार भरने की कुलबुलाहट होती है। फिल्म देखते वक़्त उसका खून भी खोलता है पर थियेटर के बाहर आकर उसे असल का बोध होता है कि इस बड़े से तंत्र में वह एक पुर्जा भर है। निर्देशक राजकुमार गुप्ता का सधा हुआ निर्देशन एक सीन भी मिस करने से रोकता है...और फिल्म के आगे बढ़ते जाने के साथ दर्शक भी अपनी सीट पे आगे की ओर खिंचा चला जाता है। रही सही कमी रानी मुखर्जी और विद्या बालन के दमदार अभिनय से पूरी हो जाती है।

ठीक इसी तरह का नयापन 'धोबीघाट' में है...नयेपन की आस तो हालाँकि तब से ही थी जब से इसके साथ आमिर का नाम जुड़ा था। लेकिन आमिर को पसंद करने वाले विशाल दर्शक वर्ग में से एक हिस्से को निराशा मिली जो दर्शक वर्ग गजनी और फ़ना वाले आमिर को चाहता हैं। एकलठाठिया सिनेमा का हुल्लड़, मनमौजी दर्शक भी खुद को ठगा हुआ महसूस करेगा... क्योंकि ये फिल्म न हसाती है, न उकसाती है, न नचाती है ये तो बस बताती है और क्या बताती है ये भी दर्शक को अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार तय करना होगा। दरअसल ये एक ऐसी पेंटिंग है जो किसी के लिए सिर्फ रंगों का धब्बा है तो किसी के लिए इसमें आशावादी छवियाँ उभरती हैं तो किसी के लिए निराशावादी। इसे पसंद करने वाला मल्टीप्लेक्स सिनेमा का, नजरदार दर्शक होगा...ये फिल्म एक ऐसा आर्ट है जिसमे सिनेमाई ट्रेंड्स शामिल है।

प्रतीक बब्बर और मोनिका डोंगरा के बेमिसाल अभिनय का सुरूर सर चढ़कर बोलता है। यहाँ फिल्म समीक्षक दीपक असीम की बात याद करना चाहूँगा कि "जितना अभिनय कैटरीना कैफ अपनी १०० फिल्मों में नहीं कर पाएंगी उतना अभिनय मोनिका ने एक-२ फ्रेम में किया है"। इन दो कलाकारों का नाम लेकर मैं आमिर खान की महिमा कम नहीं कर रहा..दरअसल आमिर की क्षमताओं से हम परिचित हैं और उनसे तो बेहतरी की उम्मीद होती ही है...मैं बस ये बताना चाहता हूँ कि आमिर से प्रतीक, मोनिका और कृति मल्होत्रा उन्नीस साबित नहीं हुए और आमिर ने भी उनके रोल पर अतिक्रमण की कोशिश नहीं की... और इन सब अदाकारों के बीच सबसे खूबसूरती से अभिनय करती नजर आई है-मुंबई नगरिया। ऐसा लगता है मुंबई की मोनो एक्टिंग पर कोई पीछे से वाइस आवर दे रहा हो। कुछ दृश्य तो लाजवाब बन पड़े हैं। फिल्म में इंटरवल नहीं है क्योंकि मध्यांतर के होने से जज्बातों का वो रेशा टूट जाता जिसे ये फिल्म होले-होले करीने से बुन रही थी। फिल्म देखने के बाद स्तब्ध से हो जाते हैं समझ से परे होता है क्या सोचे, क्या बोले, क्या प्रतिक्रिया दे?

इन दोनों फिल्मों ने भारतीय सिनेमा के रुख को भले बदला न हो पर एक हल्का सा पेंच जरुर दिया है। मैं ये नहीं कहूँगा की इन फिल्मों में कोई कमियां नहीं हैं...वे हैं पर उद्देश्यों की महानता में कमियों को नजरंदाज कर देना चाहिए...और आज के दौर में जहाँ 'गुजारिश' जैसा सार्थक सिनेमा फ्लॉप होता है और चुलबुल पांडे की अतार्किक दबंगई चलती है वहां 'धोबी घाट' और 'जेसिका' का बनाया जाना तारीफेकाबिल है।

बहरहाल, ये तो साल की शुरुआत भर है हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में कुछ और नगीने हमारे सामने होंगे...जो सिनेमा की दशा और दिशा दोनों के निर्धारण में सहायक साबित होंगे। हमें मलाल शीला और मुन्नी से नहीं..नाही हम दबंग, हाउसफुल और तीसमारखां से चिढ़ते है...ये सारी फ़िल्में बने और खूब फले-फूले...लेकिन गोलमाल और तीसमारखां में भरे सिनेमाहाल देखने के बाद 'अ वेडनेसडे', 'आमिर' और 'धोबीघाट' जैसी फिल्मों में खाली सीटें देखना खलता जरुर है......

Friday, January 21, 2011

तुम्हे खोने का ख्याल....(कविता)


खैरियत खफा है हमसे
अब
तो यहाँ हाल बेहाल है,
जबाव
अब किसी एक का
हुए
खड़े कई सवाल है
मिलकर भी बिछड़ने का
होता
अक्सर मलाल है,
तुम्हे
खोने से भी भयंकर
तुम्हे
खोने का ख्याल है। ।

बंद होंठो से भी होती बातें हजारों
बहके
कदम अब इन्हें संभालो यारों,
दिमाग
है दीवाना और दिल में सलवटें हैं
नींद
है बिस्तरों पे बस खाली करवटें हैं
ये कैसी खुश-मिजाजी
जिसमे
ख़ुशी है कम और दर्द विशाल है,
तुम्हे
खोने से भी भयंकर
तुम्हे
खोने का ख्याल है। ।

मंजिल
वही है लेकिन रस्ते खो गए हैं
जागे
हैं सपने सारे पर हम ही सो गए हैं,
ये
तिलिस्मी नीर कैसा जिसे पीके प्यास बढ़ रही है
ये
शिखर उत्तंग कैसा छूके जिसे श्वांस चढ़ रही है
तड़प-बेचैनी-बेखुदी बस यही
इस
जज्बात की मिसाल है,
तुम्हे
खोने से भी भयंकर
तुम्हे
खोने का ख्याल है। ।

खैरियत खफा है हमसे.........

Monday, January 17, 2011

मुझे नफरत है अपने सपनो से...(कविता)


हालाँकि मैं कोई कवि नहीं, न साहित्य जगत में अपनी रचनाओं से कुछ अवदान करने की हिमाकत करता हूँ...बस कभी-कभी कुछ बेचैनियाँ तंग करती है तो उन्हें कागजों पे उतारने की निरर्थक कोशिश कर लेता हूँ...उन बेचैनियों को मेरे मित्र कविता कह देते हैं...और मैं भी मजबूरन उनकी ये बात मान लेता हूँ- बहरहाल ऐसी ही एक बेचैनी प्रस्तुत है जिसे मजबूरन आपको झेलना पड़ेगा...

वे हर रात
ड़डाते हैं मेरी
दिल
की दीवारों पर
चमगादड़ बनकर
और
उस ड़फड़ाहट के
शोर में नहीं सो पाता मैं, अपने सपनों के चलते
मुझे
नफरत है अपने सपनों से
कही कुछ पाने के
बहुत दूर जाने के
इस
दुनिया पे छाने के
सपने
ही हैं
जो
जगाये रखते हैं मुझे
मुझे
नफरत है अपने सपनो से
इन सपनो में समायी
आस
की ज्वाला
जलाती
है मुझे
हर
पल-हर छिन
एक
प्यास
जो
बुझती कभी
बस
बढती है
हर
पल-हर दिन,
इन
सपनो की आस में
मिटने वाली प्यास में
गुजर
जाती है
मेरी
एक और रात
यूँ
ही
बिना
सोये
करवट
बदलते। । ।