Saturday, September 28, 2013

जायकेदार "लंचबॉक्स"

तकरीबन एक हफ्ता बीतने को है जब मैंने रितेश बत्रा निर्देशित इस फिल्म को देखा था...लेकिन इस 'लंचबॉक्स' का टेस्ट कुछ ऐसा है कि एक हफ्ता बीतने के बाद भी इसके टेस्ट को महसूस किया जा सकता है और कई बार किसी बेहतरीन जायके को खाते वक्त उसकी जो महिमा आती है उससे कही ज्यादा महिमा उसे पूरा खत्म करने के बाद अनुभूत होती है वैसा ही कुछ 'लंचबॉक्स' के साथ है।

संवेदनाओं और महीन अनुभूतियों से कदमताल मिलाते आगे बढ़ती इस फिल्म के कथ्य से आप बरबस ही चिपक से जाते हैं और प्रस्तुतिकरण कुछ ऐसा है कि सभी पात्र और घटनाएं अपने आसपास की सी प्रतीत होती हैं। फिल्म का सारा कथानक महज साढ़े पाँच पात्रों के ईर्द-गिर्द घूमता नज़र आता है और इन साढ़े पाँच किरदारों ने ही मनोरंजन का वो संमा बांधा है कि अच्छी-अच्छी मल्टीस्टारर फिल्में पानी मांगती दिखाई पड़े। जिन्होंने इस फिल्म को देखा होगा वो निश्चित ही अचंभित होंगे कि भला साढ़े पांच किरदार भी कहाँ है इस फिल्म में..लेकिन मैंने इन साढ़ें पाँच किरदारों की बेहतरीन भूमिका के चलते ही फिल्म का असंख्य आनंद अनुभव किया है। एक अधेड़ उम्र के आदमी के किरदार में इरफान ख़ान, एक तन्हा पत्नी के किरदार में निरमत कौर, फर्नांडीज (इरफान ख़ान) के मित्र का किरदार निभा रहे नवाजुद्दीन सिद्दकी तथा इनके साथ ही फिल्म का चौथा पात्र खुद मुंबई शहर, पाँचवा टिफिन का डब्बा और आधा मगर दमदार किरदार निभाती अदृश्य देशपांडे आंटी, जिनकी महज आवाज से ही हम रुबरू होते हैं। 

भीड भरे मुंबई जैसे कई हाईटेक शहरों में.. जहाँ एकतरफ विशाल जनसैलाब पसरा हुआ है, मनोरंजन के हाईटेक साधन फैले पड़े हैं, चौड़ी सड़कें, ऊंची इमारतें और अर्थव्यवस्था को नई ऊंचाईयाँ देते अनेक उद्योग भरे पड़े हैं..पर इस सघन फैलाव के बीच इन शहरों में बिखरी है कभी न ख़त्म होने वाली तन्हाई...अकेलापन, लाचारी, बेवशी और अपनों के बीच ही हर क्षण सर्प की भांति डसती खामोशी तथा अजनबीपन का भाव। जहाँ गर जुवाँ है तो उनमें लफ्ज़ नहीं है, गर लफ्ज़ हैं तो उनमें अर्थ नहीं है और गर अर्थ हैं तो वे भावनाओं से शून्य हैं। बौद्धिकता निरंतर अपने चरम को छू रही हैं पर अनुभूतियाँ कालीन के नीचे तड़फड़ा रही हैं। उन अनुभूतियों को ही दूर कहीं से तलाशने के सफर में निकल पड़ता है 'लंचबॉक्स'। ये लंचबॉक्स पहले पेट को संतृप्त करता है और फिर उस रास्ते से ही दिल में दस्तक देता है..क्योंकि कहा जाता है कि आदमी के दिल का रास्ता पेट से होकर ही गुजरता है। 

इस भीड़ भरे सूने बीहड़ में लाखों महिलाओं की तरह इला (निरमत कौर) भी शुमार है..जिसकी शादी को कई बरस बीत चुके हैं पर अब उसका अपने पति से रिश्ता, महज उसके लिये लंचबॉक्स पैक करने तक सिमट कर रह गया है..उसके पास अपने पति के आलिंगन का इकलौता ज़रिया, पसीने की गंध लिये पति के वो कपड़े हैं जिनकी महक वो अक्सर उन्हें धोते वक्त लेती है..और इस महक के बीच ही उसे अपनी सौत की महक आ जाती है और अपने एकाकीपन, पति की बेरुखी व अपने प्रणयनिवेदनों को ठुकराये जाने के कारणों से वो वाकिफ हो जाती है। सालों से अपने पति के मुख से तारीफ के दो लफ्ज़ सुनने को बेकरार, इस तन्हा पत्नि को उसके हुनर की तारीफ और अपने अकेलेपन का साथी मिलता है...तो कुछ वक्त के लिये उसके जीवन में भी बसंत की बहार का सा अनुभव होता है। एकाकीपन में मिले ऐसे तमाम साथ कब हमारी आदत औऱ फिर जिंदगी बन जाते हैं, हमें खुद पता नहीं चलता। बिना मिले, बिना देखे, बिना जाने एक अनजान व्यक्ति अपने निकट के लोगों से भी ज्यादा अपना लगने लगता है और आसपास के लोग बेगाने नज़र आने लगते हैं। लंचबॉक्स में चिट्ठियों की अदला-बदली के बेहतरीन दृश्य, आज के हाईटेक टेलीकम्युनिकेशन वाले युग को पारंपरिक माध्यमों के द्वारा मूँह चिढ़ाते से नज़र आते हैं। 

वहीं एक अधेड़ उम्र के पुरुष साजन फर्नांडीज़ (इरफान ख़ान), जिसकी जिंदगी अब सिर्फ अपने ऑफिस और सूने घर के बीच किसी यंत्र की तरह डोल रही है। जिसके पास न कोई ऐसा शख्स है जो ऑफिस जाते वक्त उसको टिफिन लगाकर रवाना करे और न ही घर में कोई ऐसा है जो उसके वापस लौटने का इंतज़ार करे। हर रात अपनी तन्हाई में वो अपने सामने वाले घर की चहल-पहल को निहारता है जो उसके एकाकीपन को हर रात तमाचा मारती है..इन हालातों में इंसान अंधेरा तलाशता है क्योंकि उजालों में अक्सर तन्हाई के जख्म नज़र आने लगते हैं और वैसे भी जब ज़हन में गहन अंधकार छाया हो तो भला कौन निगाहों के सामने रोशनी देखना पसंद करेगा। लेकिन लंचबॉक्स इस इंसान के जीवन में भी कुछ पल के लिये खुशहाली लाता है..और बंजर हो चुकी दिल की जंमी पे फिर प्रेम की पींगे फूटती हैं।

प्रेम का ये नवांकुर निश्चित ही आनंद देता है..लेकिन उस अंकुर को पल्लवित होने के लिये उपयुक्त माहौल की बेहद दरकार होती है। इला और फर्नांडीज दोनों ज़िंदगी के उस दौर में खड़े हैं जहाँ उनकी स्वयं की अंतरात्मा और समाज उन्हें प्रेम को पल्लवित करने की इजाजत नहीं देता। प्रेम एकबार फिर मंजिल बन पाने में नाकाम ही होता है क्योंकि मंजिल पे पहुंचना प्रेम की फितरत नहीं है। एकाकीपन शाश्वत है और प्रेम-प्रदत्त खुशहाली क्षणिक। एकबारगी इन दोनों एकाकी पात्रों के मन में भौतिकता को दरकिनार कर प्रेम की आध्यात्मिकता को साकार करने का साहसी विचार आता है..पर यथार्थ के आईने में जब हालातों का दर्शन होता है तो अपने उस विचार का गला घोंटने पे उन्हें मजबूर होना पड़ता है। ये हिन्दुस्तान की 'सकल घरेलु उत्पाद' वाली अवधारणा से दूर, भूटान की 'सकल घरेलू खुशहाली' वाली विचारणा का आलिंगन करना चाहते हैं पर जल्द ही दोनों इस बात से वाकिफ हो जाते हैं कि GDP यथार्थ है और GNH (Gross National Happiness) एक स्वपन।

बहरहाल, एक अनजानी तलाश से शुरु हुई फिल्म, उसी अनजानी तलाश के साथ ही ख़त्म हो जाती है पर हमारी जिंदगी के कई संवेदनात्मक सुप्त पहलुओं को हिलाकर जगा जाती है। कमाल की कवितामयी प्रस्तुति है शायद इसी वजह से कई अंतर्राष्ट्रीय फिल्म समारोहों में ये सराही गयी है। फिल्म के सभी पात्रों के अभिनय में उत्कृष्टता की पराकाष्ठा देखी जा सकती है..और ये कई मुख्यधारा के पॉपुलर अभिनेता-अभिनेत्रियों के लिये अभिनय के स्कूल की तरह है। संवाद लाजवाब हैं..संवादों मे मौजूद विट ही हास्य का मुख्य जरिया है और संवाद ही भावनात्मकता को परोसने वाले मुख्य अस्त्र हैं। फिल्म में कोई गीत नहीं है और इस कथा को गीतों की ज़रूरत भी नहीं थी। स्क्रीनप्ले सीधा-सहज और फिल्म का प्रवाह अत्यंत सुदृढ़ है जिसके चलते हमें इंटरवल में मिला ब्रेक भी बाधा पहुंचाता सा नज़र आता है। बहुत कुछ कहना तो इस लघु समीक्षा में संभव नहीं है क्योंकि अनुभूतियों को लफ्जों में सर्वांगीणता से पिरोना बहुत मुश्किल होता है। 

अपनी रूह की भावनात्मक अभिव्यक्ति को लयबद्ध ढंग से सुनना है तो लंचबॉक्स को ज़रूर देखा जाना चाहिये..यकीन मानिये इस 'लंचबॉक्स' के जायके से आपको कतई अपच नहीं होगी।   

Monday, September 23, 2013

महानतम फिल्म ‘ग्रैंड मस्ती’ की सुलोचनात्मक समीक्षा

(अपने इस ब्लॉग पे अब तक कई समीक्षा मैंने लिखी हैं..क्योंकि ये मेरा पसंदीदा शगल है। लेकिन ग्रैंड मस्ती की समीक्षा करने का कतई मन नहीं था क्योंकि इसे मैं समीक्षा किये जाने के काबिल ही नहीं मान रहा था..फिर भी कुछ चीज़ें हैं जो मुझे कुछ कहने से नहीं रोक पा रही बस इसलिये मैं इस ब्लॉग पर इस बेबुनियाद, पतित, विध्वंसक, फूहड़ सी फिल्म पे एक पोस्ट आपके सामने पेश कर रहा हूँ...हाल ही में रिलीज़ हुई इस फ़िल्म "ग्रैंड मस्ती" का मैंने महज ट्रेलर देखा था और उस ट्रैलर से ही फिल्म की प्रकृति को भलीभांति समझा जा सकता है..ट्रैलर देखने के दौरान ही इसे न देखने का मेरा निर्णय था क्योंकि इस तरह की वाहियात फिल्मों का मैं धुर विरोधी हूँ..सार्थकता के प्रति मेरा तीव्र आग्रह है और सार्थक मनोरंजन का ही हिमायती हूँ..चैन्नई एक्सप्रेस यकीनन एक छद्म मनोरंजक फिल्म थी पर वाहियात नहीं थी..उस फिल्म की कमाई के आंकड़ो को देख, पहले ही मन व्यथित था और कुछ बची कसर को पूरा करने के लिये 'ग्रैंड मस्ती' के व्यवसायिक आंकड़े देखने की और देर थी...ऐसी फिल्मों का भारतीय जनमानस द्वारा पसंद किया जाना और दर्शकों के मनोरंजन व हास्य का ये पैमाना, गहन मंथन को मजबूर करता है..और वर्तमान की युवा पीढ़ी की इस पसंद में समाज के भविष्य का प्रतिबिम्ब बखूब नज़र आता है...हमें सोचना होगा कि हम आखिर किस चीज़ पे हँस रहे हैं, हमारे मनोरंजन की हर एक वजह पे मंथन ज़रूरी है।


 समाज का एक अहम् हिस्सा और इस प्रकृति में मानव की अर्धांगिनी का दर्जा रखने वाली नारी के प्रति दिखाये जाने वाले इस छद्म प्रस्तुतिकरण पर हमारे हाथों से बजने वाली तालियाँ तथा हमारी जेबों से निकल बॉक्स ऑफिस पे खर्च होने वाले रुपये..हमारी मानवता और नैतिकता का आखिर कैसा चरित्र प्रस्तुत करता है ये विचारना होगा...खैर मैंने ये फिल्म वाकई में नहीं देखी है पर लोगों और अखबारों से इसकी लोकप्रियता की झलकियाँ लगातार मिल रही हैं..सोशल नेटवर्किंग के इस संजाल पे एक बेहतरीन व्यंग्य इस फिल्म पे मिला है..इसे पढ़कर सिर्फ हंसियेगा नहीं बल्कि कुछ विचारिगा भी- प्रस्तुत है ग्रैंड मस्ती की सुलोचनात्मक समीक्षा- )


ग्रैंड मस्ती’ देखकर आज दिल भर आया! इस अनूठे
मील के पत्थर की अनुशंसा में देह के हर प्रकार के
भाव कुत्तों सी मुद्रा में फफक- फफक कर रो रहे हैं!
इस फिल्म से समस्त नारी जाति का जो सम्मान
बढ़ा है वो फिल्म इतिहास में हमेशा स्मरण
किया जाएगान केवल इस फिल्म में नारी के
भावों और आहों का हर एक कोण से
गरिमामयी चित्रण किया है बल्कि उसके अंग-प्रत्यंग
की भंगिमाओं का बड़े आध्यात्मिक तरीके से
प्रस्तुतिकरण किया गया है! नारी सशक्तिकरण और
नारी की स्वतंत्रता व उत्थान की दिशा में
क्रन्तिकारी कदम है!
एक और अनुकरणीय कदम शिक्षा के क्षेत्र में
भी देखने को मिलाइस महाचलचित्र में चालचलन व
चरित्र के अनूठे मोती पिरोये गए हैं जो कि यौन-
शिक्षा के क्षेत्र में नए प्रतिमान स्थापित करने के
सभी गुण रखता है! ABCD के नए नए
अर्थों को प्रस्तुत करके प्राथमिक स्तर पर बाल-
शिक्षा के प्रोत्साहन के लिए भी इसमें अथाह बल
प्रदान किया है!
कौन कहता है कि हमारे छात्र टाट पर बैठ टीन
की छत वाले विद्यालयों में शिक्षा ग्रहण करते हैं!
फिल्म के कॉलेज को बकिंघम पैलेस से भी श्रेष्ठ और
खूबसूरत दिखाकर निर्माता ने विश्व भर में
भारतीयों की शान को बढाया है और कॉलेज के प्रांगण
में कन्याओं को अधोवस्त्र पहनकर अध्ययन करने
आये हुए दिखाकर उसने ऐसे
फिसड्डी विद्यार्थियों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने
के लिए लालायित करने का सफल प्रयास किया है
जो कंप्यूटर के सामने ही ऐसे महान
क्रिया कलापों की अग्न में मग्न रहते थे!
चिकित्सा के क्षेत्र में योगदान देने के लिए भी यह
फिल्म भूरि-भूरि प्रशंसा के काबिल है! पूर्ण विश्वास
है कि जिन बुजुर्गों की रक्त धमनियों में रक्त जम
गया हो तो इस प्रेरणादायक चलचित्र को दिन में तीन
बार देखने पर वे हर प्रकार से चलायमान होंगे और
उनके जीवन में नव संचार होगानया सूर्य उदय
होगाआयु-वृधि होगी!
इति श्री ग्रैंड मस्तियाय !! समस्त ठरकी-गण
को समर्पिताय !!

Thursday, September 5, 2013

हिन्दी सिनेमा में अध्यापक के बदलते प्रतिमान

(टीचर्स डे के विशेष उपलक्ष्य में प्रस्तुत, भारतीय सिनेमा में अध्यापक की बदलती छवि को बयाँ करती प्रस्तुति-)

यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान..सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान  साहित्य में गुरु के सम्मान की परंपरा तो तबसे है जबसे इंसान ने सभ्यता का चोगा ओड़ा है। अपना सिर कटाने पर भी एक सच्चा अध्यापक का मिलना बड़ा सस्ता सौदा माना गया है। वक्त की बदलती करवटों में गुरु के रूप में भी आमूलचूल परिवर्तन आये पर एक शिक्षक की अहमियत हर काल और हर क्षेत्र में जस की तस बनी रही। गुरु-चेले की इस अमिट-सनातन परंपरा पे हर भाषा के साहित्य में काफी पन्ने काले किये गये..और जब सिनेमा का इस भौतिक जगत में आविर्भाव हुआ तो वो भला इस पावन परंपरा से कैसे अछूता रह सकता था।

यूं तो अध्यापक के मायने समझाने के लिये हमने भारत में चुंबकीय व्यक्तित्व के धनी, दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को चुना..किंतु सही अर्थों में अध्यापक की विभिन्न छवियों से हमारा परिचय कराया हिन्दी सिनेमा ने। आजादी के बाद पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम काल माना जाता है..इसी दौर में प्रदर्शित सत्येन बोस द्वारा निर्देशित जागृति फिल्म समाज के सामने अध्यापक के बदले स्वरूप को प्रदर्शित कर रही थी। इस फिल्म में अभि भट्टाचार्य द्वारा निभाया गया अध्यापक का किरदार सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता है..जहां वो एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद को गैरपरंपरागत शिक्षा पद्धत्ति से जीवन मूल्यों का ज्ञान कराते हैं। यही वो फिल्म थी जिसमें गुरु-शिष्य के संवादों के ज़रिये बच्चों को प्रेरणा देने वाले दो महान् गीतों का समावेश किया था..आओ बच्चों तुम्हें दिखाये झांकी हिन्दुस्तान की और हम लाये हैं तूफान से कश्ती निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के आज भी ये गीत देश की आजादी के जयघोष माने जाते हैं।

बाद में कई फिल्में ऐसी भी आई जिनमें अशोक कुमार, जगदीप, असरानी जैसे अभिनेताओं ने अध्यापक के रूप में चरित्र भूमिकाएं की। यूँ तो ये कहानी के नायक के समानांतर नहीं थे पर इन फिल्मों में नायक के जीवन पे अध्यापक का प्रभाव बेहतर ढंग से परिलक्षित हुआ। इस कड़ी में बड़ा परिवर्तन आया राजकपूर की मेरा नाम जोकर से..जिसमें अध्यापक और छात्र के रिश्तों ने एक अलग ही लिबास अख्तियार किया। कौमार्य के अगले दौर में कदम रखता छात्र अपनी अध्यापिका के प्रेमपाश में ही पढ़ जाता है। एक अध्यापक के भावनात्मक पक्ष का इस फिल्म में बखूब प्रदर्शन किया गया है। गुलजार द्वारा निर्देशित परिचय और किताब भी ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें अध्यापक और विद्यार्थियों के रिश्तों का ताना-बाना समझा जा सकता है। माँ-बाप के बिना नाजुक उम्र में पैदा होने वाले बगाबती तेवरों से एक अध्यापक कैसे जूझता है इसका बेहतरीन चित्रांकन गुलजार की इन फिल्मों में किया गया है। विनोद खन्ना द्वारा इम्तिहान में निभाये गये एक आदर्शवादी प्रोफेसर के किरदार को भला कौन भूल सकता है...जहाँ अपने जीवन मूल्यों और सकारात्मक दृष्टिकोण की छाप वो अपने छात्रों पे छोड़ता है। इस फिल्म का गीत रुक जाना नहीं तू कहीं हार केआज भी जनमानस के लवों पे जिंदा है। इसी तरह फिल्म गुड्डी का क्लासरूम में फिल्माया गया वो गीत भी आँखों के सामने बरबस ही आ जाता है जिसमें जया भादुड़ी अपने खिलंदड़ अंदाज में हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करेगाती नज़र आती हैं।

हिन्दी सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना ने भी सुनहरे परदे पे अपने रोमांटिज्म के परे एक अध्यापक के किरदार को खूबसूरती से जिया है। उनकी फिल्म रोटी और मास्टरजी में हम ये झलक देख सकते हैं। जहाँ ये बखूब देखा जा सकता है कि किस तरह अपने छात्रों की प्रताड़नाओं का शिकार एक अध्यापक को होना पड़ता है। सिनेमा में अध्यापक की यात्रा की बात करें और इसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नाम न आये ऐसा नहीं हो सकता। भला कौन भूल सकता है फिल्म चुपके-चुपके के उस अंग्रेजी के अध्यापक को, जिसे हालातों के नाटकीय बदलावों के चलते वनस्पति विज्ञान पढ़ाने की जिम्मेदारी सौंप दी जाती है और वो अपने बेहतरीन अध्यापन कौशल से अपनी इस जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। बच्चन जी के अध्यापन की ये श्रंख्ला कस्मे-वादे से होती हुई मोहब्बतें, ब्लैक और फिर आरक्षण तक देखी गई। मोहब्बतें में दो पीढ़ियों के अध्यापकों के वैचारिक अंतर्द्वंद को देखा जा सकता है..तो ब्लैक का अध्यापक अपनी मूक-बधिर छात्रा को जीने लायक बनाने के लिये अपना सारा जीवन न्यौछावर कर देता है। वहीं आरक्षण के डाक्टर प्रभाकर आनंद समस्त व्यवसायिकता से परे अध्यापन को अपना धर्म मानकर इसे साकार करते हैं।

मुख्य धारा के परे भी समय-समय पे ऐसी फिल्में बनती रही हैं जिनमें शिक्षक की महत्ता को देखा जा सकता है। महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सारांश और सर इस कड़ी की दो प्रमुख फिल्में हैं..जहाँ सारांश में एक रिटायर्ड गाँधीवादी अध्यापक की देश के पॉलिटिकल सिस्टम के खिलाफ लड़ाई को दर्शाया गया है जिसमें वो अपने मूल्यों से समझौता किये बगेर व्यवस्था के विरुद्ध लड़ता है। तो वहीं फिल्म सर का अध्यापक अपनी हकलाहट से पीड़ित छात्रा को उसका खोया आत्मविश्वास वापस लाने में मदद करता है। राजकुमार अभिनीत बुलंदी भी एक महत्वपूर्ण फिल्म हैं जिसमें कि एक अध्यापक अपने शिक्षण कौशल से छात्रों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिये प्रेरित करता है। इसके अलावा राज बब्बर अभिनीत आज की आवाज भी कुछ ऐसे ही कथ्य को दिखाने वाली है इसमें भी एक अध्यापक अपने ज्ञान का प्रयोग भ्रष्ट व्यवस्था के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिये करता है।

आज के इस हाईटेक युग में अध्यापक भी हाईटेक हो गये हैं और गुरु के अंदाज भी परिवर्तित हुए हैं। अब कुर्ता-पायजामा पहने, झोला टांगे अध्यापक नज़र नहीं आते और न ही वे प्राचीन ग्रंथों और साहित्यों का पारंपरिक ज्ञान देते देखे जाते..पर उनकी अहमियत आज भी वैसी ही है जैसी कि सालों पहले थी। कुछ-कुछ होता है कि मिस ब्रिगेंजा अपने छात्रों को प्यार और दोस्ती का फर्क समझाती नज़र आती हैं तो मैं हूँ न की ग्लैमरर्स सुष्मिता सेन क्लासरूम में ही मॉडलिंग करती प्रतीत होती हैं। इसी तरह बात यदि स्टूडेंट ऑफ द ईयर के प्रिंसिपल की करें तो वो भी पुरानी मान्यताओं से कोसों दूर एक आधुनिक ख़यालात वाला व्यक्ति है जिसके लिये मनोरंजन, जीवन के किताबी मूल्यों से कई बढ़कर है।

अध्यापक की ये महत्ता सिर्फ क्लासरूम में ही जाया नहीं होती, उनका महत्व जीवन के दूसरे हिस्सों में भी महसूस किया जा सकता है। मसलन इकब़ाल फिल्म के नसरुद्दीन शाह द्वारा अभिनीत उस कोच के किरदार को क्या किसी अध्यापक से कम माना जायेगा जो अपने ज्ञान का प्रयोग एक गूंगे-बहरे युवक को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर बनाने में करता है। इसी तरह चक दे इंडिया का कोच कबीर ख़ान भला किसे याद नहीं आयेगा जो आपसी गुटों में लड़-भिड़ रही लड़कियों में टीम भावना विकसित कर उन्हें हॉकी का विश्वकप जितवाता है। भाग मिल्खा भाग में कोच का किरदार निभा रहे पवन मल्होत्रा का ज़िक्र करना भी आवश्यक है क्योंकि वही एक ऐसा शख्स था जिसे मिल्खा की काबलियत पे शुरुआत से यकीन रहता है।

बदलाव के इस दौर में कुछ परंपराएं जस की तस हैं और शिक्षक के सम्मान में भी आज कोई बदलाव नहीं आया है। दो दूनी चार के मध्यम वर्गीय अध्यापक ने अपने जीवन में बहुत ज्यादा पैसा नहीं कमाया पर सम्मान उसे भरसक मिला है। स्वदेश फिल्म की वेल एजुकेटेड उस अध्यापिका का स्मरण करना भी ज़रूरी है जो अपने ज्ञान का प्रयोग पैसा कमाने के लिये न कर, उस गाँव के बच्चों को शिक्षित करने में करती हैं जहाँ उसका जन्म हुआ है। तारे जमीं पर में आमिर ख़ान द्वारा निभाया गया निकुम सर का किरदार कैसे भूला जा सकता है जिसमें वह डिस्लेक्सिया से पीड़ित अपने छात्र को जिंदगी की मुख्यधारा में लाते हैं और माता-पिता को परवरिश का पाठ पढ़ाते हैं।


अपने पारंपरिक मूल्यों के चलते अध्यापक की तानाशाही छवि को भी सिनेमा ने प्रदर्शित किया है। जिसे हम मुन्नाभाई एमबीबीएस के डीन और थ्री इडियट्स के प्रोफेसर वीरु सह्स्त्रबुद्धे में देख सकते हैं। जो अपनी पुरातन सोच के जरिये ही सफलता के प्रतिमान स्थापित करने की बात कहते हैं..लेकिन वे भी बाद में तार्किकता के सहारे अपनी पुरातन मान्यताएं बदलने पे मजबूर हो जाते हैं और बदलाव को स्वीकार करते हैं। बहुलता में तो सिनेमा अध्यापक की जीवटता और महत्ता को दिखाता ही नज़र आया है...और इसने गुरु के प्रतिमान उसी रूप में कायम रखें हैं जैसे कि भारतीय संस्कृति में माने जाते हैं। भिन्न-भिन्न फिल्मों में भले एक शिक्षक को दर्शाने वाले स्वर अलग हों किंतु सिनेमा की सदाबहार धुन आज भी भारतीय साहित्य के सुर से सुर मिलाती हैं और वो सुर बस यही है कि-गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। बलिहारी गुरु आपनै, गोबिंद दियो बताय॥

Sunday, September 1, 2013

मेरी प्रथम पच्चीसी : तीसरी किस्त

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(गुजरे हुए जीवन के अनुभव का चिट्ठा प्रस्तुत कर रहा हूँ..यद्यपि अभी अपनी उम्र के लिहाज से खुद को इस योग्य नहीं मानता कि जीवन का एक समीक्षात्मक विवरण दे सकूं..लेकिन फिर भी अपनी उत्तमोत्तम क्षमताओं से इस कार्य को कर रहा हूँ..जीवन के प्रथम नौ वर्षों का चिट्ठा अपनी पिछली किस्तों के ज़रिये देने की कोशिश की है..इस कड़ी में अब में उस नाजुक उम्र के कुछ बदलते अहसासों और काल्पनिक लोक के विचरण करने वाले मनोभावों की एक झांकी प्रस्तुत करने का प्रयास करुंगा..जो अक्सर दिल की ज़मीं पे खलबली मचाए रहते हैं)

गतांक से आगे-

"बाल्यावस्था के एक पड़ाव पर ऐसा भी समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..रेलगाड़ी को देख उसमें बैठ लंबी सैर पे जाने का मन करता है, कभी आसमान में उड़ते हवाईजहाज और रॉकेट एक नवीन काल्पनिक संसार का निर्माण करते हैं लगता है इनमें बैठ आसमान का सीना फाड़ के ये देखें कि इस अनंत के पार आखिर क्या है। दादी-नानी की कहानियों में अक्सर चर्चा का विषय रहने वाले भगवान को भी देख आने को जी चाहता है..तारों का टिमटिमाना, आसमान में अनेक आकृतियाँ बनाते बादल, बिजली की चमक, पहाड़ो के पीछे नज़र आने वाला दूर कहीं आकाश का क्षितिज..अनेकानेक मनभावन कल्पनाओं को जन्म देता है और उन कल्पनाओं से हम खुद में ही कोई निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं जिसे अक्सर अपने स्कूल और मोहल्ले के हमउम्र दोस्तों को चटकारे लेके सुनाते हैं। उन्हें सुनाते वक्त हमारी भावभंगिमाएं पूरी तरह गंभीरता को धारण किये रहती हैं..और कहीं भी उनमें मिथ्या बखान का पुट नहीं रहता। अर्थी को देख श्मशान तक जाने की चाहत होती हैं कि वहां जाके देखे, आखिर क्या होता है। मदारी और बहरूपियों को देख-देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती। भूत-पिशाचों की कई कपोल कल्पनाएं गढ़ते हैं और कई बार ख़यालों में ही भूतों और चुड़ेलनों से दो-दो हाथ कर उन्हें परास्त भी कर देते हैं। फिल्में देख हीरो की शक्ति खुद में महसूस कर, अकेले ही मनगढ़ंत फाइटिंग करते हुए विलेन को परास्त कर देते हैं। ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...और ऐसी विषमता भी महसूस होती है कि रात को सड़कों पे पहरेदारी करने वाले वॉचमेन की सीटी की आवाज सुन सिहरन पैदा हो जाती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी खुद ही परिवार के मुखिया हो जाते हैं तो कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं। मगर कल्पनाओं का ये स्वपनलोक यथार्थ से कही ज्यादा खूबसूरत होता है...और इसे देख पता चलता है कि कभी भी भयानकता और खूबसूरती यथार्थ में नहीं, बल्कि महज ख़यालों में ही बसर करती है।

मैं इन अनुभूतियों से कतई अछूता नहीं था..अपनी उम्र के उस पड़ाव में, कल्पनाओं के इस लोक में जी भर के मैंने विचरण किया। मुझे अच्छे से याद है कि मेरे पांचवी कक्षा की परीक्षा (जो उस समय तक बोर्ड परीक्षा के रूप में महत्वपूर्ण मानी जाती थी) ख़त्म होने पे, मेरे पापा द्वारा मुझे सर्वप्रथम साइकिल लाके दी थी..उसे पाके जो मैंने खुशी महसूस की थी मुझे याद नहीं आता कि वैसी खुशी मैंने फिर कभी महसूस की हो..उस साइकिल से अकेले ही बंजारों की भांति गाँव की गलियों और अलग-अलग मोहल्लों में घूमा करता था..गाँव के पास लगने वाले मेले में जाने के लिये दिल बेहद बेकरार रहता था। उस छोटे से मेले से प्रायः गड़गड़िया, रंगीन पन्नी से निर्मित एक चश्मा और लाइलप्पा लेके आते थे..पर उन्हें खरीदने से पैदा हुई प्रसन्नता, आज मॉल और शापिंग कॉम्पलेक्स से खरीदे हुए महंगे-ब्रांडेड कपड़ों और कई बेशकीमती चीज़ों को पाके भी नहीं होती।

हर शुक्रवार को गाँव का बाज़ार भरा करता था..और हमें भी कुछ पैसों का प्रलोभन देके घर के सामने ही स्थित अपनी दुकान में बैठने के लिये तैयार किया जाता था। यकीन मानिये जब शाम को हमें पुरुस्कार स्वरूप अपने पापा से पाँच या दस रुपये मिलते तो लगता कि दुनिया की कोई भी चीज़ हम खरीद सकते हैं उन पैंसो को जोड़-जोड़ अपनी गुल्लक में पटकते जाते और जब कुल जमा रुपये 50 या 100 के आंकड़े तक पहुंच जाते तो अपनी बिरादरी के सबसे रईस शख्स हम ही बन जाते थे। उन पैसों को पा हमें कुछ ऐसा अहंकार हुआ करता था जैसा कि आज हज़ारों की सैलरी पाने के बाद भी नहीं होता, और अपनी ये सैलरी हमें हमेशा कम ही जान पड़ती है..इसलिये हर पाँच-छह महीने में अपने बॉस को इंक्रीमेंट की अर्जी पकड़ाते रहते हैं। पैसा आता तो लालच भी कुछ कम नहीं बढ़ता था, यदि धोखे से पता चल जाये कि हमारे किसी मित्र के पास हमसे ज्यादा पैसे हो गये हैं तो अपने घर में जिद का सहारा भी लिया जाता और यदि वो जिद पूरी नहीं होती तो पैसे चुराने से भी नहीं हिचके...जी हाँ, उम्र के उस दौर में चुपके से अलमारी में से पैंसे भी चुराए। नाजुक उम्र के यही कुछ हिस्से होते हैं जिनके कारण बच्चे भटकने लगते है इस दौर में उन्हें सही दिशा मिलना बहुत ज़रूरी है। मैं खुशनसीब था कि संध्याकाल में गाँव की धर्मशाला में लगने वाली एक पाठशाला में पढ़ने जाया करता था जहाँ कई धार्मिक-नैतिक शिक्षाएं हमें सीखने मिलती। तब तो हम उस पाठशाला में पढ़ाया गया पाठ महज रटा करते थे लेकिन यही रटी हुई बातें हमें बुरी चीज़ों के प्रति एक डर पैदा करती थी। पाँच पाप - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के साथ चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ के प्रति हमारे अंतस में घृणा बुद्धि पैदा की जाती और प्रारंभिक इसी शिक्षा का कमाल है कि हम भटकाव से बच पाये..अन्यथा कहानी कुछ और भी हो सकती थी। 

लेकिन कई कोशिशें करने के बाद भी हमें अपने स्कूल और मोहल्ले में ऐसा माहौल मिल ही जाता है जो हमें विसंगतियों की ओर आकर्षित करता है..कई बड़े-बूढ़ों को गाली देते सुनते तो खुद भी माँ-बहन की अति दुर्दांत गालियों का इस्तेमाल अपने मित्रों पे कर दिया करते..एक बार गालियों का ऐसा ही प्रयोग करते हुए, स्कूल के अध्यापक ने पकड़ लिया था और जमके रिमांड हुई थी और घर पे शिकायत भी की गई..फिर घर जाके पिताजी की भी जमकर लताड़ सुनी थी..अपने बचपन में पापा के गुस्से से ज्यादा और किसी चीज़ से डर नहीं लगता था उनकी आँख का इशारा ही हमारी पैंट गीली करने के लिये काफी था। बाद में सत्संगति के मिलने और पारिवारिक समझाईशों ने मेरी गाली देने की प्रवृत्ति पे विराम लगाया। इसी तरह अपने कई निकटवर्ती बड़े भईया लोगों को स्मोकिंग करते देखते और फिल्मों में भी ऐसे ही दृश्यों को देखकर, खुद भी स्मोकिंग कर धूँए का छल्ला बनाने को जी चाहता। लेकिन उस उम्र मे इसे कर पाना संभव नहीं था इसलिये कागज की बीड़ी बनाके, उसमें आग लगा धुंआ उड़ाने की नकल किया करते और जब मूँह में से धुंआ निकलता तो बड़ी प्रसन्नता होती। इससे एकबात बहुत स्पष्ट होती है कि मनुष्य का सहज आकर्षण बुरी चीज़ो की तरफ ज्यादा होता है ऐसे में अगर उसे सत्संगति का निरंतर समागम न मिले तो उसके सही ट्रैक पे आगे बड़ने की संभावना बहुत कम होती हैं। मेरे परिवार और आगामी जीवन में मिलने वाली सत्संगतियों का ही प्रभाव था कि सिगरेट, गुटका, शराब जैसी चीज़ें मेरे होंठो तक पहुंचना तो दूर कभी मेर हाथों के स्पर्ष तक नहीं पहुंची। 

अपने भाईयों के साथ की नोंक-झोंक और मस्ती के कुछ पल भी याद आ रहे हैं..अक्सर रात में लाईट जाने के बाद जब छत पे संग सोया करते तो कई मनगढ़ंत कल्पनाओं और बेबुनियाद की बातों को आपस में शेयर करके जमके हंसी-ठिठोली होती..इसी तरह कभी मम्मी के द्वारा खाने हेतु बनाई गई कोई स्पेशल चीज़ या फल अथवा चॉकलेट को अपने भाई से ज्यादा पाने के लिये जो तिकड़म लगाई जाती, वो बड़ी रोचक होती और कभी एक या दो अंगूर अथवा एक-आध लड्डू ज्यादा पा लेते तो उसे खाने का आनंद बड़ा निराला होता था। मोहल्ले के कई बच्चों का जमघट भी घर पे लगा रहता जिनके साथ अपनी दुकान पे बैठ कभी अष्टा-चंगा, चोर-पर्ची, लंगड़ी जैसे पारंपरिक खेलों का मजा लिया जाता तो कभी कैरम, चैस, ताश जैसें आधुनिक गैम्स पे भी हाथ आजमाये जाते। इसके ही साथ हमारी बमुश्किल तीन सौ फिट की छत पे क्रिकेट खेलने का जायका तो अद्बुत ही हुआ करता था..हमारे लिये छत का ये ग्राउंड लार्डस और ईडन-गार्डन से कम नहीं था..और पूरे विधि-विधान के साथ पूरे जोश-खरोश से क्रिकेट खेला जाता। हमारे इस खेल से घर से जुड़े हुए पड़ोसियों के अन्य घरों के लोगों को खासी दिक्कत होती लेकिन उनकी डांट खाने के बाद भी हमारा ये शगल बनिस्बत ज़ारी रहता।

ये सारी घटनाएं उम्र के दसवे-ग्यारहवे बसंत के पार करने के दरमियाँ की होंगी..इनमें से कुछ तो जिंदगी के साथ आगे भी लंबे समय तक जुड़ी रही तो कुछ उम्र के इस पड़ाव पे ही अपना दम तोड़ गई। लेकिन जो भी, जैसा भी था जिंदगी की खूबसूरतियों में कहीं कोई कमी नहीं थी..और इसका कारण शायद यही था कि बचपन समझदारी भरा नहीं होता, समझदारी आ जाने पे सबसे पहले जीवन की रंगीनिया दूर भागती हैं और तनाव का बसेरा हो जाता है। बचपन में आंखों में आंसू तो होते हैं पर दिल में कोई टीस नहीं होती..वहीं बड़े हो जाने पे दिल कई कसक लिये जीता है भले चेहरे पे मुस्कानों के लबादे ओढ़े हुए हों...और वैसे भी टूटे हुए सपनों से बेहतर टूटे हुए खिलौने होते हैं....

जारी.............