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(गुजरे हुए जीवन के अनुभव का चिट्ठा प्रस्तुत कर रहा हूँ..यद्यपि अभी अपनी उम्र के लिहाज से खुद को इस योग्य नहीं मानता कि जीवन का एक समीक्षात्मक विवरण दे सकूं..लेकिन फिर भी अपनी उत्तमोत्तम क्षमताओं से इस कार्य को कर रहा हूँ..जीवन के प्रथम नौ वर्षों का चिट्ठा अपनी पिछली किस्तों के ज़रिये देने की कोशिश की है..इस कड़ी में अब में उस नाजुक उम्र के कुछ बदलते अहसासों और काल्पनिक लोक के विचरण करने वाले मनोभावों की एक झांकी प्रस्तुत करने का प्रयास करुंगा..जो अक्सर दिल की ज़मीं पे खलबली मचाए रहते हैं)
गतांक से आगे-
"बाल्यावस्था के एक पड़ाव पर ऐसा भी समय आता है जब उद्दंडता की धुन सवार रहती है...इसमें युवाकाल की सुनिश्चित इच्छा नहीं होती, उसकी जगह एक विशाल आशावादिता होती है जो दुर्लभ को सरल और असाध्य को मुंह का कौर समझती है..भांति-भांति की मृदु कल्पनाएँ चित्त को आंदोलित करती रहती है..सैलानीपन का भूत सा चढ़ा रहता है..रेलगाड़ी को देख उसमें बैठ लंबी सैर पे जाने का मन करता है, कभी आसमान में उड़ते हवाईजहाज और रॉकेट एक नवीन काल्पनिक संसार का निर्माण करते हैं लगता है इनमें बैठ आसमान का सीना फाड़ के ये देखें कि इस अनंत के पार आखिर क्या है। दादी-नानी की कहानियों में अक्सर चर्चा का विषय रहने वाले भगवान को भी देख आने को जी चाहता है..तारों का टिमटिमाना, आसमान में अनेक आकृतियाँ बनाते बादल, बिजली की चमक, पहाड़ो के पीछे नज़र आने वाला दूर कहीं आकाश का क्षितिज..अनेकानेक मनभावन कल्पनाओं को जन्म देता है और उन कल्पनाओं से हम खुद में ही कोई निष्कर्ष भी निकाल लेते हैं जिसे अक्सर अपने स्कूल और मोहल्ले के हमउम्र दोस्तों को चटकारे लेके सुनाते हैं। उन्हें सुनाते वक्त हमारी भावभंगिमाएं पूरी तरह गंभीरता को धारण किये रहती हैं..और कहीं भी उनमें मिथ्या बखान का पुट नहीं रहता। अर्थी को देख श्मशान तक जाने की चाहत होती हैं कि वहां जाके देखे, आखिर क्या होता है। मदारी और बहरूपियों को देख-देख जी में उत्कंठा होती है कि हम भी गले में झोली लटकाए देश-विदेश घूमते और ऐसे ही तमाशे दिखाते..अपनी क्षमताओं पर ऐसा विश्वास होता है कि बाधाएँ ध्यान में ही नहीं आती। भूत-पिशाचों की कई कपोल कल्पनाएं गढ़ते हैं और कई बार ख़यालों में ही भूतों और चुड़ेलनों से दो-दो हाथ कर उन्हें परास्त भी कर देते हैं। फिल्में देख हीरो की शक्ति खुद में महसूस कर, अकेले ही मनगढ़ंत फाइटिंग करते हुए विलेन को परास्त कर देते हैं। ऐसी सरलता होती है जो अलादीन का चिराग ढूंढ़ लेना चाहती है...और ऐसी विषमता भी महसूस होती है कि रात को सड़कों पे पहरेदारी करने वाले वॉचमेन की सीटी की आवाज सुन सिहरन पैदा हो जाती है। इस काल में अपनी योग्यता की सीमायें अपरिमित होती है..विद्या क्षेत्र में हम तिलक को पीछे हटा देते हैं, रणक्षेत्र में नेपोलियन से आगे बढ़ जाते हैं...कभी जटाधारी योगी बनते हैं, कभी खुद ही परिवार के मुखिया हो जाते हैं तो कभी टाटा से भी धनवान हो जाते हैं। मगर कल्पनाओं का ये स्वपनलोक यथार्थ से कही ज्यादा खूबसूरत होता है...और इसे देख पता चलता है कि कभी भी भयानकता और खूबसूरती यथार्थ में नहीं, बल्कि महज ख़यालों में ही बसर करती है।
मैं इन अनुभूतियों से कतई अछूता नहीं था..अपनी उम्र के उस पड़ाव में, कल्पनाओं के इस लोक में जी भर के मैंने विचरण किया। मुझे अच्छे से याद है कि मेरे पांचवी कक्षा की परीक्षा (जो उस समय तक बोर्ड परीक्षा के रूप में महत्वपूर्ण मानी जाती थी) ख़त्म होने पे, मेरे पापा द्वारा मुझे सर्वप्रथम साइकिल लाके दी थी..उसे पाके जो मैंने खुशी महसूस की थी मुझे याद नहीं आता कि वैसी खुशी मैंने फिर कभी महसूस की हो..उस साइकिल से अकेले ही बंजारों की भांति गाँव की गलियों और अलग-अलग मोहल्लों में घूमा करता था..गाँव के पास लगने वाले मेले में जाने के लिये दिल बेहद बेकरार रहता था। उस छोटे से मेले से प्रायः गड़गड़िया, रंगीन पन्नी से निर्मित एक चश्मा और लाइलप्पा लेके आते थे..पर उन्हें खरीदने से पैदा हुई प्रसन्नता, आज मॉल और शापिंग कॉम्पलेक्स से खरीदे हुए महंगे-ब्रांडेड कपड़ों और कई बेशकीमती चीज़ों को पाके भी नहीं होती।
हर शुक्रवार को गाँव का बाज़ार भरा करता था..और हमें भी कुछ पैसों का प्रलोभन देके घर के सामने ही स्थित अपनी दुकान में बैठने के लिये तैयार किया जाता था। यकीन मानिये जब शाम को हमें पुरुस्कार स्वरूप अपने पापा से पाँच या दस रुपये मिलते तो लगता कि दुनिया की कोई भी चीज़ हम खरीद सकते हैं उन पैंसो को जोड़-जोड़ अपनी गुल्लक में पटकते जाते और जब कुल जमा रुपये 50 या 100 के आंकड़े तक पहुंच जाते तो अपनी बिरादरी के सबसे रईस शख्स हम ही बन जाते थे। उन पैसों को पा हमें कुछ ऐसा अहंकार हुआ करता था जैसा कि आज हज़ारों की सैलरी पाने के बाद भी नहीं होता, और अपनी ये सैलरी हमें हमेशा कम ही जान पड़ती है..इसलिये हर पाँच-छह महीने में अपने बॉस को इंक्रीमेंट की अर्जी पकड़ाते रहते हैं। पैसा आता तो लालच भी कुछ कम नहीं बढ़ता था, यदि धोखे से पता चल जाये कि हमारे किसी मित्र के पास हमसे ज्यादा पैसे हो गये हैं तो अपने घर में जिद का सहारा भी लिया जाता और यदि वो जिद पूरी नहीं होती तो पैसे चुराने से भी नहीं हिचके...जी हाँ, उम्र के उस दौर में चुपके से अलमारी में से पैंसे भी चुराए। नाजुक उम्र के यही कुछ हिस्से होते हैं जिनके कारण बच्चे भटकने लगते है इस दौर में उन्हें सही दिशा मिलना बहुत ज़रूरी है। मैं खुशनसीब था कि संध्याकाल में गाँव की धर्मशाला में लगने वाली एक पाठशाला में पढ़ने जाया करता था जहाँ कई धार्मिक-नैतिक शिक्षाएं हमें सीखने मिलती। तब तो हम उस पाठशाला में पढ़ाया गया पाठ महज रटा करते थे लेकिन यही रटी हुई बातें हमें बुरी चीज़ों के प्रति एक डर पैदा करती थी। पाँच पाप - हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के साथ चार कषाय- क्रोध, मान, माया, लोभ के प्रति हमारे अंतस में घृणा बुद्धि पैदा की जाती और प्रारंभिक इसी शिक्षा का कमाल है कि हम भटकाव से बच पाये..अन्यथा कहानी कुछ और भी हो सकती थी।
लेकिन कई कोशिशें करने के बाद भी हमें अपने स्कूल और मोहल्ले में ऐसा माहौल मिल ही जाता है जो हमें विसंगतियों की ओर आकर्षित करता है..कई बड़े-बूढ़ों को गाली देते सुनते तो खुद भी माँ-बहन की अति दुर्दांत गालियों का इस्तेमाल अपने मित्रों पे कर दिया करते..एक बार गालियों का ऐसा ही प्रयोग करते हुए, स्कूल के अध्यापक ने पकड़ लिया था और जमके रिमांड हुई थी और घर पे शिकायत भी की गई..फिर घर जाके पिताजी की भी जमकर लताड़ सुनी थी..अपने बचपन में पापा के गुस्से से ज्यादा और किसी चीज़ से डर नहीं लगता था उनकी आँख का इशारा ही हमारी पैंट गीली करने के लिये काफी था। बाद में सत्संगति के मिलने और पारिवारिक समझाईशों ने मेरी गाली देने की प्रवृत्ति पे विराम लगाया। इसी तरह अपने कई निकटवर्ती बड़े भईया लोगों को स्मोकिंग करते देखते और फिल्मों में भी ऐसे ही दृश्यों को देखकर, खुद भी स्मोकिंग कर धूँए का छल्ला बनाने को जी चाहता। लेकिन उस उम्र मे इसे कर पाना संभव नहीं था इसलिये कागज की बीड़ी बनाके, उसमें आग लगा धुंआ उड़ाने की नकल किया करते और जब मूँह में से धुंआ निकलता तो बड़ी प्रसन्नता होती। इससे एकबात बहुत स्पष्ट होती है कि मनुष्य का सहज आकर्षण बुरी चीज़ो की तरफ ज्यादा होता है ऐसे में अगर उसे सत्संगति का निरंतर समागम न मिले तो उसके सही ट्रैक पे आगे बड़ने की संभावना बहुत कम होती हैं। मेरे परिवार और आगामी जीवन में मिलने वाली सत्संगतियों का ही प्रभाव था कि सिगरेट, गुटका, शराब जैसी चीज़ें मेरे होंठो तक पहुंचना तो दूर कभी मेर हाथों के स्पर्ष तक नहीं पहुंची।
अपने भाईयों के साथ की नोंक-झोंक और मस्ती के कुछ पल भी याद आ रहे हैं..अक्सर रात में लाईट जाने के बाद जब छत पे संग सोया करते तो कई मनगढ़ंत कल्पनाओं और बेबुनियाद की बातों को आपस में शेयर करके जमके हंसी-ठिठोली होती..इसी तरह कभी मम्मी के द्वारा खाने हेतु बनाई गई कोई स्पेशल चीज़ या फल अथवा चॉकलेट को अपने भाई से ज्यादा पाने के लिये जो तिकड़म लगाई जाती, वो बड़ी रोचक होती और कभी एक या दो अंगूर अथवा एक-आध लड्डू ज्यादा पा लेते तो उसे खाने का आनंद बड़ा निराला होता था। मोहल्ले के कई बच्चों का जमघट भी घर पे लगा रहता जिनके साथ अपनी दुकान पे बैठ कभी अष्टा-चंगा, चोर-पर्ची, लंगड़ी जैसे पारंपरिक खेलों का मजा लिया जाता तो कभी कैरम, चैस, ताश जैसें आधुनिक गैम्स पे भी हाथ आजमाये जाते। इसके ही साथ हमारी बमुश्किल तीन सौ फिट की छत पे क्रिकेट खेलने का जायका तो अद्बुत ही हुआ करता था..हमारे लिये छत का ये ग्राउंड लार्डस और ईडन-गार्डन से कम नहीं था..और पूरे विधि-विधान के साथ पूरे जोश-खरोश से क्रिकेट खेला जाता। हमारे इस खेल से घर से जुड़े हुए पड़ोसियों के अन्य घरों के लोगों को खासी दिक्कत होती लेकिन उनकी डांट खाने के बाद भी हमारा ये शगल बनिस्बत ज़ारी रहता।
ये सारी घटनाएं उम्र के दसवे-ग्यारहवे बसंत के पार करने के दरमियाँ की होंगी..इनमें से कुछ तो जिंदगी के साथ आगे भी लंबे समय तक जुड़ी रही तो कुछ उम्र के इस पड़ाव पे ही अपना दम तोड़ गई। लेकिन जो भी, जैसा भी था जिंदगी की खूबसूरतियों में कहीं कोई कमी नहीं थी..और इसका कारण शायद यही था कि बचपन समझदारी भरा नहीं होता, समझदारी आ जाने पे सबसे पहले जीवन की रंगीनिया दूर भागती हैं और तनाव का बसेरा हो जाता है। बचपन में आंखों में आंसू तो होते हैं पर दिल में कोई टीस नहीं होती..वहीं बड़े हो जाने पे दिल कई कसक लिये जीता है भले चेहरे पे मुस्कानों के लबादे ओढ़े हुए हों...और वैसे भी टूटे हुए सपनों से बेहतर टूटे हुए खिलौने होते हैं....
जारी.............
यात्रा बड़ी ही रोचक है, जीवन की। न जाने कितने पड़ाव आँखों के सामने घिर आते हैं।
ReplyDeleteधन्यवाद प्रवीणजी...
Deleteयात्रा जारी रखे ,सुन्दर
ReplyDeleteशुक्रिया कौशल जी...
Deleteरोचक ..........,सुन्दर
ReplyDeleteअशोकजी धन्यवाद...
Deleteअच्छी वर्णन शैली .....
ReplyDeleteशुक्रिया निवेदिता जी...
Deleteकाश आपकी यह यात्रा आज से पचास वर्ष पूर्व शुरु हुई होती तो उस समय के बच्चों के लिए सामाजिक तो नहीं कह सकता पर हां खाने-पीने,घूमने और पढ़ने के लिए अच्छे अवसर थे। लेकिन अपना बचपन बड़े होकर याद आने पर अच्छा ही लगता है।
ReplyDeleteशुक्रिया विकेशजी...
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