(गांधी जी की 150वी जयंती वर्ष में प्रकाशित हो रही एक पत्रिका के विशेषांक के लिए लेख तैयार किया है इसलिए ब्लॉग के पाठकों के लिए जरूरत से ज्यादा लम्बा है। अतः स्वयं की रिस्क पे ही प्रवेश करें। यदि पूरा पढ़ते हैं तो यकीन मानिए कुछ तो नया प्रमेय अवश्य प्राप्त करेंगे।)
कुछ महापुरुष तटस्थ होकर चिंतन करते हैं और अन्वीक्षण, चिंतन, मनन, विश्लेषण, संश्लेषण आदि के आधार पर नई व्यवस्था की कल्पना करते हैं तथा नये मूल्यों, नये आदर्शों तथा नई आस्थाओं का सृजन करते हैं। नई व्यवस्था देने वाले ऐसे तटस्थ चिन्तक धन्य होते हैं क्योंकि केवल आलोचना करते रहना तो सरल है किन्तु उपाय बताना कठिन है। मार्क्स ने कुछ उपाय बताये और लेनिन ने उन्हें मूर्त रूप दिया। रूसो, लास्की आदि ने भी उपाय बताये, उन्हें साकार करना अन्य जन पर निर्भर रहा। किन्तु कुछ महापुरुष इससे और भी आगे गये। उन्होने केवल उपाय नहीं बताया बल्कि स्वयं एकनिष्ठा से उस पर आचरण करने के लिये जुट गये। महात्मा गांधी ने जो समझा वही कहा, और जो कहा वही किया। उनके विचार, कथनी और करनी एक ही थे। उनमें अपनी बात कहने और आचरण करने का साहस था। उनका जीवन अपने सुझाये हुये उपायों एवं आदर्शों के आधार पर विहित प्रयोगों और अनुभवों की सजीव श्रृंख्ला है। महात्मा गांधी काल के प्रवाह के साथ नहीं बहे, वे युग प्रवर्तक हो गये। इसी ने गांधी को महान और अलौकिक पुरुष सिद्ध किया।
महात्मा गांधी को लेकर प्रस्तुत उपरोक्त चिंतन उनके जीवन के व्यवहारिक पक्ष को प्रदर्शित करने के साथ साथ उनकी आंतरिक वृत्ति को भी उजागर करने का एक जरिया है। महात्मा गांधी की इसी आंतरिक और बाह्य वृत्ति के साम्य के चलते अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना भी मुश्किल होगा कि महात्मा गांधी की तरह हाड़ मांस का कोई ऐसा भी मानव धरती पर जन्मा था। आज गांधी जी के जन्म के करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद भी महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और उनके सिद्धांतों की जरुरत यह बताती है कि महात्मा गांधी जितना भौतिक रूप में सामने नजर आये उससे कई गहरे वह आंतरिक स्तर पर समझने लायक हैं। बापू के भौतिक जीवन में उनकी आध्यात्मिक चेतना की सुगंध है। इसलिये महात्मा गांधी को समझने के लिये राजनीतिक लिबास में बैठे आध्यात्मिक व्यक्तित्व को समझना जरुरी है।
अहिंसा, सत्याग्रह, खादी, स्वदेशी, अनशन, ब्रह्मचर्य, स्वावलंबन, स्वच्छता, समता, अपरिग्रह जैसे सिद्धांत और प्रतीकों को गांधी के जीवन में साकार होते देखा जा सकता है और आदर्श को अपने जीवन का यथार्थ बनाने के कारण ही वे महात्मा कहलाये। हालांकि बापू के साथ महात्मा शब्द का प्रयोग हमें उनसे दूर होने का अहसास कराता है और कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि वे महात्मा थे इसलिये ऐसा कर पाये लेकिन हमें यह समझना होगा कि वे भी हमारी तरह ही एक आम आदमी थे, उनमें भी एक आम इंसान की ही तरह कमिया और विसंगतियां थीं लेकिन अपनी उन कमियों को समझ कर, उन्हें दूर कर महान् आध्यात्मिक सिद्धांतों को जिस तरह से उन्होंने जी कर दिखाया उसी ने उन्हें महात्मा बनाया।
उनकी इस आध्यात्मिक चेतना का जो आधार है उसी पर उन्होंने प्रतिबद्धत्ता के साथ गमन किया और वही दर्शन गांधी दर्शन के नाम से जाना गया। इससे कोई ये न समझे कि गांधी ने किसी दर्शन का प्रवर्तन किया हो, बल्कि वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। वे कहते थे कि जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, कि अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है। लेकिन समझने लायक बात यह है कि गांधी की राम पर दृढ़ आस्था होने के बावजूद, गांधी के राम किसी पर थोपे नहीं जाते थे। उनमें अपनी आस्तिकता को लेकर कोई हठ नहीं था बल्कि वे जितना सम्मान अपनी आस्तिकता से करते थे उतना ही किसी अन्य की नास्तिकता भी उनके लिये सम्माननीय थी। यह बल महज धार्मिक होने से नहीं आ सकता बल्कि इसके लिये कोई सघन और गहन आध्यात्मिक चेतना चाहिये। गांधी के लिये राम महज वंदनीय नहीं थे बल्कि राम उनके लिये अनुमोदनीय व अनुकरणीय थे यही वजह है कि राम की सहजता, समता, निराभिमानिता, उदारता, सत्यनिष्ठा जैसे गुणों को उन्होंने अपने जीवन में साकार करने की चेष्टा की।
महात्मा गांधी की दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। वही सत्य, वही शिव और सुंदर है। जो सुंदर है उसे शिवमय होना चाहिए। उन्होंने यह माना है कि सदा से मनुष्य अपने शरीर को, अपने भोग को, अपने स्वार्थ को, अपने अहंकार को, अपने पेट को और अपने प्रजनन को प्रमुखता प्रदान करता रहा है। पर जहाँ ये प्रवृतियाँ मनुष्य में हैं, जिनसे वह प्रभावित होता है। वहीं उसी मनुष्य में उत्सर्ग और त्याग, प्रेम और उदारता, नि:स्वार्थता तथा व्यष्टि को समष्टि में लय करके अहंभाव का सर्वथा त्याग करने की और विराट में लय हो जाने की दैवीय भावना भी प्रवर्तमान है। इन भावों का उद्बोधन तथा उन्नयन दानव पर देव की विजय का साधन है। इसी में अनैतिकता का पराभव और अजेय नैतिकता की जीत गर्भित है।
महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना और उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते हैं कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। स्वार्थ, दंभ, लोलुपता, अहंकार, भोग की प्रवृत्ति, तृप्ति के लिए किए गए शोषण, प्रभुता तथा अधिकार और अपने को ही सारे सुखों, संपदाओं और वैभव तथा ऐश्वर्य का दावेदार समझने की प्रवृत्ति उनकी दृष्टि में वे पशुभाव हैं जो मनुष्य को पशुता, अमानवता और अनैतिकता की ओर ले जाते हैं। उनकी अहिंसा केवल आदर्श तक ही परिमित नहीं है। वे उसे ही लक्ष्य की संसिद्धि के लिए शक्तिमय साधन के रूप में भी देखते हैं। अहिंसा को पशुता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करने और उसे अजेय तथा अमोघ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में गांधी जी की प्रतिभा अपनी अभूतपूर्व अभिनवता प्रदर्शित करती है। उनकी अहिंसा केवल जीवहिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परम शक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। अन्याय और अनीति के सम्मुख मस्तक झुकाना पाप है। पशुता को प्रश्रय मत दो पशुता के सामने सिर न झुकाओ, अनीति और पशुता का सामना अनैतिकता और पशुता के द्वारा मत करो क्योंकि वह पशुता पर पशुता की विजय होगी। पशुता पर देवत्व की विजय तब होगी जब नैतिक और शुभ अस्त्रों से अनैतिक और दानव भाव की पराजय हो। शस्त्र से शस्त्र का, हिंसा से हिंसा का, क्रोध से क्रोध का पराभव नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसा निष्क्रिय नहीं सक्रिय है। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई सत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है।
उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी अहिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। शस्त्र का सहारा लेकर अहिंसक वीर की आत्मा का दलन करने में कोई सत्ता, साम्राज्य अथवा शक्ति समर्थ नहीं हो सकती। अहिंसा नैतिकता पर आश्रित है, अत: सत्य है और सत्य ही सदा विजयी होगा। इस प्रकार संसार के सामने अहिंसा के रूप में उन्होंने उज्वल, महान और नैतिक पथ निर्मित किया। जिसने मनुष्यसमाज और जगत को गतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की। वे उन समस्त मान्यताओं, धारणाओं और दृष्टियों के प्रतिवाद हैं जिनका आधार भौतिकवाद है। वे प्रतीक हैं उन समस्त भावों के जो मनुष्य को पशुता की ओर नहीं, देवत्व की ओर बढ़ने की दिशा का संकेत करते हैं।
गांधी जी की एकांत प्रियता उनकी आध्यात्मिक उन्नत्ति को समझने का एक अहम् जरिया है वे कहते हैं अकेलापन कई बार अपने आप से अनेक सार्थक बातें करता है, वैसी सार्थकता भीड़ में या भीड़ के चिंतन में नहीं मिलती। जो व्यक्ति आत्मिक तौर पर कमजोर है वह हमेशा भीड़ का आग्रही होता है उसे महफिलों की तलाश होती है पर गांधी एकांत में आत्मचिंतन और स्वयं को समझने के प्रयास में तल्लीन रहा करते थे। बापू कहते थे जो कला आत्मा को आत्मदर्शन की शिक्षा नहीं देती, वह कला नहीं है। उनकी नजर में वे सभी प्रतिभाएं और कौशल अर्थहीन हैं जो आध्यात्मिक यात्रा पर न ले जा सकें। वे भौतिक उड़ान को महत्व न देते हुये अंतर की गहराई में उतरने को तवज्जो दिया करते थे। अपने जीवन को ही अपना संदेश कहना और मौन को ही सर्वोत्तम भाषण बताना यह सिद्ध करता है कि महात्मा गांधी खुद को भौतिक तौर पर जाहिर करना कतई नहीं चाहते थे बल्कि वे उस व्यक्ति को ही वरीयता देते थे जो उनके आंतरिक व्यक्तित्व, उनकी आध्यात्मिक गहराई को समझ सके।
महात्मा गांधी निरपेक्ष, आडंबरहीन और सहज जीवन जीने के हिमायती थे। वे इच्छा को सभी विसंगतियों का मूल मानते थे। बापू कहते थे कि- इच्छा से दुख आता है, इच्छा से भय आता है, जो इच्छाओं से मुक्त है वह न दुख जानता है और न ही भय। उन्होंने आत्मबल को दुनिया के हर बल की तुलना में अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं; सत्य, दया और आत्मबल पर टिका हुआ है।
महात्मा गांधी साध्य से अधिक साधन पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि यदि साध्य पवित्र और मानवीय है तो साधन भी वैसा ही शुद्ध, वैसा ही पुनीत और वैसा ही मानवीय होना चाहिए। हम देखते हैं कि साध्य और साधन की समान पवित्रता पर बल देना और उसका आश्रय ग्रहण करना उनकी साधना रही है। उनके इन मौलिक विचारों ने मानव समाज के विकास के इतिहास में एक अत्यंत उज्वल ओर पवित्र अध्याय की रचना की है। गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम, महावीर का अपिरग्रह और अहिंसा एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँचे-ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरुषों की समस्त उच्चता गांधी जी में निहित दिखाई देती हैं।
उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी, इसी कारण संत स्वभाव के बावजूद उनमें राजनीतिक सक्रियता भी देखने को मिली। आध्यात्मिक समाजवाद के पक्षधर महात्मा ने इतिहास की आध्यात्मिक व्याख्या की है। यह उतना ही पुराना है जितना पुराना व्यक्ति की चेतना में धर्म का उदय। उन्होंने केवल बाह्य क्रियाकलापों या भौतिकवाद को सभ्यता-संस्कृति का वाहक नहीं माना बल्कि गहन आंतरिक विकास पर बल दिया।
रचनात्मक संघर्ष में असीम विश्वास रखने वाले गांधीजी मानते थे कि जो जितना रचनात्मक होगा स्वतः ही उसमें उतनी संघर्षशीलता के गुण आएंगे। स्वतंत्र राष्ट्र ही दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ मिलकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना फलीभूत कर सकेंगे। वो स्वराज के साथ अहिंसक वैश्वीकरण के पक्षधर थे जिससे दुनिया में स्वस्थ, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हो। गांधीजी मानते थे कि पश्चिमी समाजवाद, अधिनायकतंत्र है जो एक दर्शन से ज्यादा कुछ नहीं। जबकि गांधी जी के जीवन में दर्शन से ज्यादा आध्यात्मिक चेतना का महत्व था। वास्तव में उनकी आध्यात्मिक चेतना ही उनका दर्शन माना गया।
वरिष्ठ लेखक शंभुनाथ शुक्ल आध्यात्मिक चेतना के संदर्भ में गांधी और स्वामी विवेकानंद की तुलना करते हुये लिखते हैं- भारतीय चेतना का मुख्य आधार अध्यात्म है। अध्यात्म जीवन से हटा लीजिए तो जो बचेगा वह न्यायसंगत नहीं होगा, समाज के लिए हितकर नहीं होगा और हमारी चेतना को नष्ट कर देने वाला होगा। भारतीय मिथकों और महाकाव्यों में जो भी नायक है, वह चेतना से युक्त है। उसमें सत्यनिष्ठा है, वचनबद्धता है और समर्पण है। अगर मनुष्य इनसे हीन है तो वह देखने में मनुष्य भले हो लेकिन मनुष्यता उसके अंदर नहीं होगी। ज्यादा दूर नहीं जाएं तो आप पाएंगे कि स्वामी विवेकानंद और मोहनदास करमचंद गांधी दो ऐसे लोग हुए हैं जिनकी आत्माएं अध्यात्म चेतना से युक्त थीं। यह अलग बात है कि एक धर्म की तरफ गया और दूसरा राजनीति में। इसीलिए स्वामी विवेकानंद कर्मयोगी कहलाए व गांधी जी महात्मा। इस कड़ी में और भी तमाम लोग हैं लेकिन यहां उन्हीं महापुरुषों को लिया गया है जिन्होंने अपनी अध्यात्म चेतना के बूते देश में क्रांति का बिगुल बजाया। देश अगर स्वतंत्र हुआ तो गांधी जी की आत्मनिष्ठा और आध्यात्मिक चेतना के चलते और समस्त भारतीय समाज में यूरोप के सामने जिस तरह की हीन भावना थी, उससे मुक्त कराया तो स्वामी विवेकानंद ने।
इस तरह के देखते हैं कि गांधी जी के समूचे आचार, विचार और व्यवहार में उनकी आध्यात्मिक चेतना निहित थी। उनका धार्मिक विश्वास भी आध्यात्मिक चेतना के आधार पर खड़ा था। गांधी जी को समझने के लिये यह स्पष्टतः समझ लेना होगा कि गांधीवाद के नीचे धर्म की एक ठोस बुनियाद है, जिसके बारे में उनका मानना था कि इसके संस्कार उन्हें अपनी माता से मिले। गांधी जी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि सार्वजनिक जीवन के आरंभ से ही उन्होंने जो कुछ कहा और किया है, उसके पीछे एक धार्मिक आध्यात्मिक चेतना और धार्मिक उद्देश्य रहा है। राजनीतिक जीवन में भी उनके धार्मिक विचार, उनके राजनीतिक आचरण के लिये पथ-प्रदर्शक बने रहे। वे स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनका कहना था कि मेरा धर्म तो वह है जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है। जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट संबंध में बाँध देता है और जो सदैव पाक-साफ करता है। गांधी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम करना सिखाता है। न्याय तथा शांति की स्थापना के लिये खुद के बलिदान की प्रेरणा देता है। उनकी निगाह में धर्म निर्बल का बल तथा सबल का मार्गदर्शक है।
महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना से निकले सिद्धांतों में कितना बल था इसका प्रमाण हमें बीसवीं शताब्दी में दुनिया के कई अन्य महान् नेताओं मे देखने को मिला जिन्होंने गांधी के ही सत्याग्रह और अहिंसा को अपना हथियार बनाया। 20वीं शताब्दी के प्रभावशाली लोगों में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मिखाइल गोर्बाचोव, अल्बर्ट श्वाइत्ज़र, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग (जू.), आंग सान सू की, पोलैंड के लेख वालेसा आदि ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने-अपने देश में गांधी की विचारधारा का उपयोग किया और अहिंसा को अपना हथियार बनाकर अपने इलाकों, देशों में परिवर्तन लाए। यह प्रमाण है इस बात का कि गांधी के बाद और भारत के बाहर भी अहिंसा के ज़रिये अन्याय के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी गई और उसमें विजय भी प्राप्त हुई।
गांधी जी अपने में इन आध्यात्मिक संस्कारों के सृजन का अहम् श्रेय श्रीमद् राजचन्द्र जी को देते हैं जो उस वक्त के शताब्धानी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध थे और अनासक्त व एक योगी की भांति जीवन जीने के लिये जाने जाते थे। गांधी जी को सर्वप्रथम गीता पढ़ने की प्रेरणा भी उन्हीं ने दी थी और श्रीमद् भगवत् गीता का गांधी जी की आध्यात्मिक चेतना पर गहरा असर पड़ा। गीता के कई श्लोकों को उन्होंने न सिर्फ कंठस्थ किया बल्कि किसी भी विषम परिस्थिति में उसके सहारे संबल प्राप्त किया। अपनी आत्मकथा में गांधी जी एक श्लोक उद्धृत करते हैं-
अर्थात्- विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
उक्त श्लोक का स्मरण यह दिखाता है कि इस श्लोक में कहे गये कथ्य का किस तरह उनके जीवन में प्रभाव था और यही उनकी अनासक्तता और आध्यात्मिक चेतना के विकसित करने में सहायीभूत रहा है।
गांधी जी अपने को अध्यात्म में रमा मानते थे पर उनका अध्यात्म उनकी शख्सियत और उनकी दैनिक जिंदगी में पूरी तरह रच बस गया था। वह खुद को यानी आदमी को अहिंसा और सत्य के आदर्श का अभ्यासी या उसके पथ का यात्री मानते थे। वे सत्य और अहिंसा को अभिन्न मानकर चलते थे। उनका समीकरण था अपने प्रति सच्चाई अहिंसा से ही आती है। उनकी मानें तो अहं केंद्रित आत्मबोध छिछला होता है, जो क्षणिक सुख से जुडा होता है। इसकी जगह वे आत्मसमर्पण या कहें अहं को विगलित करने को कहा करते हैं। अपने ऊपर ओढ़ी गई तरह तरह की झूठी पहचानों को उतारने को कहते हैं। जातिगत अन्याय, संप्रदायवाद, अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को उन्होंने रचनात्मक ढंग से दुत्कारा है। उनका मानना था अहम् को खोकर ही वास्तविक आत्मबोध हो सकता है, इस बात को उन्होंने हिंदू के रूढ़िगत अर्थ से उबार कर चरितार्थ किया। वे व्यक्ति की अवधारणा को हमेशा समाज में उसकी भूमिका और उससे जुड़े दायित्वों के साथ ही देखते थे।
महात्मा गांधी की धार्मिक आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि देखने के लिये सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के साथ का यह वाक्या समझना बहुत जरुरी है- कंटेपररी इंडियन फिलॉस्फी’ के लिए राधाकृष्णन ने गांधी से तीन सवाल पूछे थे- (1) आपका धर्म क्या है, (2) आप धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए और (3) सामाजिक जीवन पर इसका क्या असर रहा है? प्रश्नों की प्रकृति से ही संकेत मिलते हैं राधाकृष्णन ने गांधी को धर्म-विश्वासी मानकर सवाल किए। गांधी जी के उत्तर इसके अनुकूल ही थे।
गांधी जी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा 'मैं धर्म से हिंदू हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का श्रेष्ठतम शामिल है। दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया- 'मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते प्रवृत्त हुआ। यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरू किया है क्योंकि ईश्वर को लोग नकार सकते हैं लेकिन सत्य को नकारा नहीं जा सकता। यहां तक कि मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है। हम सब सत्य की कौंध हैं, इस कौंध का सकल-समग्र- यानी अज्ञात सत्य, ही ईश्वर है। मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट पहुंचता हूं.'
और, तीसरे प्रश्न के उत्तर में गांधी जी ने सत्य यानी ईश्वर से जुड़ी अपनी राजनीति का खुलासा किया। गांधीजी ने कहा- 'ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निःस्व करना पड़ता है। सत्य का साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है, इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है।'
अपनी किताब ‘अकाल-पुरुष गांधी’ में साहित्यकार जैनेंद्र ने महात्मा के बारे में लिखा है कि 'गांधी जी ने एक बार कहा था कि मेरा सबकुछ ले लो मैं रहूंगा। हाथ काट लो, आंख और कान ना रहें तब भी रहूंगा। सिर जाए तब भी कुछ पल रह जाऊं, पर ईश्वर गया कि तब तो मैं उसी दम मरा हुआ ही हूं।'
जैनेंद्र ने गांधी जी की इस बात का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा कि—‘राजनीति और धर्म में भेद है, विग्रह भी है लेकिन गांधीजी उन दोनों के अभेद हैं और संग्रह हैं। वह जीवित उदाहरण हैं इस सत्य के कि जीवन संयुक्त, समग्र और सिद्ध है तो वहां जहां वह निस्व (निःस्वार्थ) है। इस मूल निष्ठा को पाकर फिर गांधीजी का बस एक प्रयत्न रहा है वह यह कि अपने समूचेपन और तन को लेकर उस निष्ठा से तत्सम हो जायें। इस तरह दुनिया में रहकर गांधी जी सदा परीक्षा में हैं और उनके हाथों में राजनीति भी सदा परीक्षा में ही है।
महात्मा गांधी 20वीं शताब्दी के दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक और आध्यात्मिक नेताओं में से एक माने जाते हैं। वे पूरी दुनिया में शांति, प्रेम, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, मौलिक शुद्धता और करुणा तथा इन उपकरणों के सफल प्रयोगकर्त्ता के रूप में याद किये जाते हैं, जिसके बल पर उन्होंने उपनिवेशवादी सरकार के खिलाफ पूरे देश को एकजुट कर आज़ादी की अलख जगाई। गांधी ने अपने जीवन के समस्त अनुभवों का प्रयोग भारत को आज़ाद कराने में किया। वास्तव में गांधी का आध्यात्मिक चेतना, भारत की आध्यात्मिक चेतना की ही प्रतिछाया है। इस देश की आध्यात्मिक विरासत ही गांधी जी में साकार होते देखी गई है। उनका कहना था कि भारत की हर चीज़ मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएँ रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिये जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
भारत यानी भाव, राग और ताल का समन्वय। भाव का संबंध मन से है, राग का वचन से है और ताल का संबंध तन से है। गांधी जी इसी भारत के समन्वय या एक्य के प्रतीक थे। जिनके मन, वचन और तन अर्थात् काया की चेष्टाएं एक सम थीं और यही उनकी आध्यात्मिक चेतना की संजीवनी थी। इस आध्यात्मिक चेतना का ही असर उनके जीवन के समस्त दर्शन और सिद्धांतों में दिखा और वही आध्यात्मिक चेतना अपने विभिन्न रूपों में आज गांधी जी के जन्म के डेढ़सौ वर्ष बाद भी पूरी निष्ठा के साथ पूजी जा रही है।
कुछ महापुरुष तटस्थ होकर चिंतन करते हैं और अन्वीक्षण, चिंतन, मनन, विश्लेषण, संश्लेषण आदि के आधार पर नई व्यवस्था की कल्पना करते हैं तथा नये मूल्यों, नये आदर्शों तथा नई आस्थाओं का सृजन करते हैं। नई व्यवस्था देने वाले ऐसे तटस्थ चिन्तक धन्य होते हैं क्योंकि केवल आलोचना करते रहना तो सरल है किन्तु उपाय बताना कठिन है। मार्क्स ने कुछ उपाय बताये और लेनिन ने उन्हें मूर्त रूप दिया। रूसो, लास्की आदि ने भी उपाय बताये, उन्हें साकार करना अन्य जन पर निर्भर रहा। किन्तु कुछ महापुरुष इससे और भी आगे गये। उन्होने केवल उपाय नहीं बताया बल्कि स्वयं एकनिष्ठा से उस पर आचरण करने के लिये जुट गये। महात्मा गांधी ने जो समझा वही कहा, और जो कहा वही किया। उनके विचार, कथनी और करनी एक ही थे। उनमें अपनी बात कहने और आचरण करने का साहस था। उनका जीवन अपने सुझाये हुये उपायों एवं आदर्शों के आधार पर विहित प्रयोगों और अनुभवों की सजीव श्रृंख्ला है। महात्मा गांधी काल के प्रवाह के साथ नहीं बहे, वे युग प्रवर्तक हो गये। इसी ने गांधी को महान और अलौकिक पुरुष सिद्ध किया।
महात्मा गांधी को लेकर प्रस्तुत उपरोक्त चिंतन उनके जीवन के व्यवहारिक पक्ष को प्रदर्शित करने के साथ साथ उनकी आंतरिक वृत्ति को भी उजागर करने का एक जरिया है। महात्मा गांधी की इसी आंतरिक और बाह्य वृत्ति के साम्य के चलते अल्बर्ट आइंस्टीन जैसे महान् वैज्ञानिक ने कहा था कि आने वाली पीढ़ियों को यह विश्वास करना भी मुश्किल होगा कि महात्मा गांधी की तरह हाड़ मांस का कोई ऐसा भी मानव धरती पर जन्मा था। आज गांधी जी के जन्म के करीब डेढ़ सौ वर्ष बाद भी महात्मा गांधी की प्रासंगिकता और उनके सिद्धांतों की जरुरत यह बताती है कि महात्मा गांधी जितना भौतिक रूप में सामने नजर आये उससे कई गहरे वह आंतरिक स्तर पर समझने लायक हैं। बापू के भौतिक जीवन में उनकी आध्यात्मिक चेतना की सुगंध है। इसलिये महात्मा गांधी को समझने के लिये राजनीतिक लिबास में बैठे आध्यात्मिक व्यक्तित्व को समझना जरुरी है।
अहिंसा, सत्याग्रह, खादी, स्वदेशी, अनशन, ब्रह्मचर्य, स्वावलंबन, स्वच्छता, समता, अपरिग्रह जैसे सिद्धांत और प्रतीकों को गांधी के जीवन में साकार होते देखा जा सकता है और आदर्श को अपने जीवन का यथार्थ बनाने के कारण ही वे महात्मा कहलाये। हालांकि बापू के साथ महात्मा शब्द का प्रयोग हमें उनसे दूर होने का अहसास कराता है और कोई व्यक्ति यह सोच सकता है कि वे महात्मा थे इसलिये ऐसा कर पाये लेकिन हमें यह समझना होगा कि वे भी हमारी तरह ही एक आम आदमी थे, उनमें भी एक आम इंसान की ही तरह कमिया और विसंगतियां थीं लेकिन अपनी उन कमियों को समझ कर, उन्हें दूर कर महान् आध्यात्मिक सिद्धांतों को जिस तरह से उन्होंने जी कर दिखाया उसी ने उन्हें महात्मा बनाया।
उनकी इस आध्यात्मिक चेतना का जो आधार है उसी पर उन्होंने प्रतिबद्धत्ता के साथ गमन किया और वही दर्शन गांधी दर्शन के नाम से जाना गया। इससे कोई ये न समझे कि गांधी ने किसी दर्शन का प्रवर्तन किया हो, बल्कि वे भारत के मूलभूत कुछ दार्शनिक तत्वों में अपनी आस्था प्रकट करके अग्रसर होते हैं और उसी से उनकी सारी विचारधारा प्रवाहित होती है। वे कहते थे कि जिस प्रकार मैं किसी स्थूल पदार्थ को अपने सामने देखता हूँ उसी प्रकार मुझे जगत के मूल में राम के दर्शन होते हैं। एक बार उन्होंने कहा था, कि अंधकार में प्रकाश की और मृत्यु में जीवन की अक्षय सत्ता प्रतिष्ठित है। लेकिन समझने लायक बात यह है कि गांधी की राम पर दृढ़ आस्था होने के बावजूद, गांधी के राम किसी पर थोपे नहीं जाते थे। उनमें अपनी आस्तिकता को लेकर कोई हठ नहीं था बल्कि वे जितना सम्मान अपनी आस्तिकता से करते थे उतना ही किसी अन्य की नास्तिकता भी उनके लिये सम्माननीय थी। यह बल महज धार्मिक होने से नहीं आ सकता बल्कि इसके लिये कोई सघन और गहन आध्यात्मिक चेतना चाहिये। गांधी के लिये राम महज वंदनीय नहीं थे बल्कि राम उनके लिये अनुमोदनीय व अनुकरणीय थे यही वजह है कि राम की सहजता, समता, निराभिमानिता, उदारता, सत्यनिष्ठा जैसे गुणों को उन्होंने अपने जीवन में साकार करने की चेष्टा की।
महात्मा गांधी की दृष्टि में जो कुछ अशुभ है, असुंदर है, अशिव है, असत्य है, वह सब अनैतिक है। जो शुभ है, जो सत्य है, जो शुभ्र है वह नैतिक है। वही सत्य, वही शिव और सुंदर है। जो सुंदर है उसे शिवमय होना चाहिए। उन्होंने यह माना है कि सदा से मनुष्य अपने शरीर को, अपने भोग को, अपने स्वार्थ को, अपने अहंकार को, अपने पेट को और अपने प्रजनन को प्रमुखता प्रदान करता रहा है। पर जहाँ ये प्रवृतियाँ मनुष्य में हैं, जिनसे वह प्रभावित होता है। वहीं उसी मनुष्य में उत्सर्ग और त्याग, प्रेम और उदारता, नि:स्वार्थता तथा व्यष्टि को समष्टि में लय करके अहंभाव का सर्वथा त्याग करने की और विराट में लय हो जाने की दैवीय भावना भी प्रवर्तमान है। इन भावों का उद्बोधन तथा उन्नयन दानव पर देव की विजय का साधन है। इसी में अनैतिकता का पराभव और अजेय नैतिकता की जीत गर्भित है।
महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना और उनका दर्शन एक प्रकार से जीवन, मानव समाज और जगत का नैतिक भाष्य है। इसी की गर्भ दृष्टि से उनकी अहिंसा का प्रादुर्भाव हुआ है। उनकी अहिंसा प्राचीन काल से संतों और महात्माओं की अहिंसा मात्र नहीं है। उनकी अहिंसा शब्दप्रतीक रूप में उच्चरित होती है जिसमें उनकी सारी दृष्टि भरी हुई है। वह मानते हैं कि जगत में जो कुछ अनैतिक है वह सब हिंसा है। स्वार्थ, दंभ, लोलुपता, अहंकार, भोग की प्रवृत्ति, तृप्ति के लिए किए गए शोषण, प्रभुता तथा अधिकार और अपने को ही सारे सुखों, संपदाओं और वैभव तथा ऐश्वर्य का दावेदार समझने की प्रवृत्ति उनकी दृष्टि में वे पशुभाव हैं जो मनुष्य को पशुता, अमानवता और अनैतिकता की ओर ले जाते हैं। उनकी अहिंसा केवल आदर्श तक ही परिमित नहीं है। वे उसे ही लक्ष्य की संसिद्धि के लिए शक्तिमय साधन के रूप में भी देखते हैं। अहिंसा को पशुता के विरुद्ध विद्रोह के रूप में प्रस्तुत करने और उसे अजेय तथा अमोघ शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित करने में गांधी जी की प्रतिभा अपनी अभूतपूर्व अभिनवता प्रदर्शित करती है। उनकी अहिंसा केवल जीवहिंसा न करने तक ही परिमित नहीं है, प्रत्युत जहाँ कहीं हिंसा हो, अन्याय हो, पशुता हो, उसका मुकाबला करने के लिए परम शक्ति के रूप में अग्रसर होती हैं। अन्याय और अनीति के सम्मुख मस्तक झुकाना पाप है। पशुता को प्रश्रय मत दो पशुता के सामने सिर न झुकाओ, अनीति और पशुता का सामना अनैतिकता और पशुता के द्वारा मत करो क्योंकि वह पशुता पर पशुता की विजय होगी। पशुता पर देवत्व की विजय तब होगी जब नैतिक और शुभ अस्त्रों से अनैतिक और दानव भाव की पराजय हो। शस्त्र से शस्त्र का, हिंसा से हिंसा का, क्रोध से क्रोध का पराभव नहीं किया जा सकता। उनकी अहिंसा निष्क्रिय नहीं सक्रिय है। वह कायर पलायनवादी अथवा शस्त्र से भयभीत होनेवाले के लिए निकल भागने का मार्ग प्रस्तुत करने के निमित्त नहीं आयोजित होती। वह वीरता, दृढ़ता, संकल्प और धैर्य को आधार बनाकर खड़ी होती है जो अन्याय और अनाचार को, जगत की सारी शस्त्रशक्ति को और द्वेष तथा दंभ से अधीर हुई सत्ता की सारी दमनात्मक प्रवृत्ति को चुनौती देती है।
उनकी इस चिंतनधारा से असहयोग और सत्यागह का जन्म हुआ। यही उनकी अहिंसक क्रांति, रक्तहीन विप्लव और हिंसाहीन युद्ध का मूर्त रूप है। उनकी दृष्टि में अहिंसा अमोघ शक्ति है जिसका पराभव कभी हो नहीं सकता। सशस्त्र विद्रोह से कहीं अधिक शक्ति अहिंसक विद्रोह में है। शस्त्र का सहारा लेकर अहिंसक वीर की आत्मा का दलन करने में कोई सत्ता, साम्राज्य अथवा शक्ति समर्थ नहीं हो सकती। अहिंसा नैतिकता पर आश्रित है, अत: सत्य है और सत्य ही सदा विजयी होगा। इस प्रकार संसार के सामने अहिंसा के रूप में उन्होंने उज्वल, महान और नैतिक पथ निर्मित किया। जिसने मनुष्यसमाज और जगत को गतिशील होने की प्रेरणा प्रदान की। वे उन समस्त मान्यताओं, धारणाओं और दृष्टियों के प्रतिवाद हैं जिनका आधार भौतिकवाद है। वे प्रतीक हैं उन समस्त भावों के जो मनुष्य को पशुता की ओर नहीं, देवत्व की ओर बढ़ने की दिशा का संकेत करते हैं।
गांधी जी की एकांत प्रियता उनकी आध्यात्मिक उन्नत्ति को समझने का एक अहम् जरिया है वे कहते हैं अकेलापन कई बार अपने आप से अनेक सार्थक बातें करता है, वैसी सार्थकता भीड़ में या भीड़ के चिंतन में नहीं मिलती। जो व्यक्ति आत्मिक तौर पर कमजोर है वह हमेशा भीड़ का आग्रही होता है उसे महफिलों की तलाश होती है पर गांधी एकांत में आत्मचिंतन और स्वयं को समझने के प्रयास में तल्लीन रहा करते थे। बापू कहते थे जो कला आत्मा को आत्मदर्शन की शिक्षा नहीं देती, वह कला नहीं है। उनकी नजर में वे सभी प्रतिभाएं और कौशल अर्थहीन हैं जो आध्यात्मिक यात्रा पर न ले जा सकें। वे भौतिक उड़ान को महत्व न देते हुये अंतर की गहराई में उतरने को तवज्जो दिया करते थे। अपने जीवन को ही अपना संदेश कहना और मौन को ही सर्वोत्तम भाषण बताना यह सिद्ध करता है कि महात्मा गांधी खुद को भौतिक तौर पर जाहिर करना कतई नहीं चाहते थे बल्कि वे उस व्यक्ति को ही वरीयता देते थे जो उनके आंतरिक व्यक्तित्व, उनकी आध्यात्मिक गहराई को समझ सके।
महात्मा गांधी निरपेक्ष, आडंबरहीन और सहज जीवन जीने के हिमायती थे। वे इच्छा को सभी विसंगतियों का मूल मानते थे। बापू कहते थे कि- इच्छा से दुख आता है, इच्छा से भय आता है, जो इच्छाओं से मुक्त है वह न दुख जानता है और न ही भय। उन्होंने आत्मबल को दुनिया के हर बल की तुलना में अधिक महत्व दिया। उनका मानना था कि दुनिया का अस्तित्व शस्त्रबल पर नहीं; सत्य, दया और आत्मबल पर टिका हुआ है।
महात्मा गांधी साध्य से अधिक साधन पर ध्यान देना आवश्यक मानते थे। उनका कहना था कि यदि साध्य पवित्र और मानवीय है तो साधन भी वैसा ही शुद्ध, वैसा ही पुनीत और वैसा ही मानवीय होना चाहिए। हम देखते हैं कि साध्य और साधन की समान पवित्रता पर बल देना और उसका आश्रय ग्रहण करना उनकी साधना रही है। उनके इन मौलिक विचारों ने मानव समाज के विकास के इतिहास में एक अत्यंत उज्वल ओर पवित्र अध्याय की रचना की है। गांधी जी में युग युग से मनुष्यता के विकास द्वारा प्रदर्शित आदर्शों का प्रादुर्भाव समवेत रूप में ही दिखाई देता है, उनमें भगवान राम की मर्यादा, श्रीकृष्ण की अनासक्ति, बुद्ध की करुणा, ईसा का प्रेम, महावीर का अपिरग्रह और अहिंसा एक साथ ही समाविष्ट दिखाई देते हैं। ऊँचे-ऊँचे आदर्शों पर, धर्म और नैतिकता पर, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना पर जीवनोत्सर्ग करनेवाले महापुरुषों की समस्त उच्चता गांधी जी में निहित दिखाई देती हैं।
उनकी आध्यात्मिक चेतना समाज और व्यक्ति से जुड़ी थी, इसी कारण संत स्वभाव के बावजूद उनमें राजनीतिक सक्रियता भी देखने को मिली। आध्यात्मिक समाजवाद के पक्षधर महात्मा ने इतिहास की आध्यात्मिक व्याख्या की है। यह उतना ही पुराना है जितना पुराना व्यक्ति की चेतना में धर्म का उदय। उन्होंने केवल बाह्य क्रियाकलापों या भौतिकवाद को सभ्यता-संस्कृति का वाहक नहीं माना बल्कि गहन आंतरिक विकास पर बल दिया।
रचनात्मक संघर्ष में असीम विश्वास रखने वाले गांधीजी मानते थे कि जो जितना रचनात्मक होगा स्वतः ही उसमें उतनी संघर्षशीलता के गुण आएंगे। स्वतंत्र राष्ट्र ही दूसरे स्वतंत्र राष्ट्रों के साथ मिलकर वसुधैव कुटुम्बकम की भावना फलीभूत कर सकेंगे। वो स्वराज के साथ अहिंसक वैश्वीकरण के पक्षधर थे जिससे दुनिया में स्वस्थ, सुदृढ़ अर्थव्यवस्था हो। गांधीजी मानते थे कि पश्चिमी समाजवाद, अधिनायकतंत्र है जो एक दर्शन से ज्यादा कुछ नहीं। जबकि गांधी जी के जीवन में दर्शन से ज्यादा आध्यात्मिक चेतना का महत्व था। वास्तव में उनकी आध्यात्मिक चेतना ही उनका दर्शन माना गया।
वरिष्ठ लेखक शंभुनाथ शुक्ल आध्यात्मिक चेतना के संदर्भ में गांधी और स्वामी विवेकानंद की तुलना करते हुये लिखते हैं- भारतीय चेतना का मुख्य आधार अध्यात्म है। अध्यात्म जीवन से हटा लीजिए तो जो बचेगा वह न्यायसंगत नहीं होगा, समाज के लिए हितकर नहीं होगा और हमारी चेतना को नष्ट कर देने वाला होगा। भारतीय मिथकों और महाकाव्यों में जो भी नायक है, वह चेतना से युक्त है। उसमें सत्यनिष्ठा है, वचनबद्धता है और समर्पण है। अगर मनुष्य इनसे हीन है तो वह देखने में मनुष्य भले हो लेकिन मनुष्यता उसके अंदर नहीं होगी। ज्यादा दूर नहीं जाएं तो आप पाएंगे कि स्वामी विवेकानंद और मोहनदास करमचंद गांधी दो ऐसे लोग हुए हैं जिनकी आत्माएं अध्यात्म चेतना से युक्त थीं। यह अलग बात है कि एक धर्म की तरफ गया और दूसरा राजनीति में। इसीलिए स्वामी विवेकानंद कर्मयोगी कहलाए व गांधी जी महात्मा। इस कड़ी में और भी तमाम लोग हैं लेकिन यहां उन्हीं महापुरुषों को लिया गया है जिन्होंने अपनी अध्यात्म चेतना के बूते देश में क्रांति का बिगुल बजाया। देश अगर स्वतंत्र हुआ तो गांधी जी की आत्मनिष्ठा और आध्यात्मिक चेतना के चलते और समस्त भारतीय समाज में यूरोप के सामने जिस तरह की हीन भावना थी, उससे मुक्त कराया तो स्वामी विवेकानंद ने।
इस तरह के देखते हैं कि गांधी जी के समूचे आचार, विचार और व्यवहार में उनकी आध्यात्मिक चेतना निहित थी। उनका धार्मिक विश्वास भी आध्यात्मिक चेतना के आधार पर खड़ा था। गांधी जी को समझने के लिये यह स्पष्टतः समझ लेना होगा कि गांधीवाद के नीचे धर्म की एक ठोस बुनियाद है, जिसके बारे में उनका मानना था कि इसके संस्कार उन्हें अपनी माता से मिले। गांधी जी ने अपने अखबार ‘यंग इंडिया’ में लिखा था कि सार्वजनिक जीवन के आरंभ से ही उन्होंने जो कुछ कहा और किया है, उसके पीछे एक धार्मिक आध्यात्मिक चेतना और धार्मिक उद्देश्य रहा है। राजनीतिक जीवन में भी उनके धार्मिक विचार, उनके राजनीतिक आचरण के लिये पथ-प्रदर्शक बने रहे। वे स्वधर्म के साथ अन्य सभी धर्मों का समान आदर करते थे। उनका कहना था कि मेरा धर्म तो वह है जो मनुष्य के स्वभाव को ही बदल देता है। जो मनुष्य को उसके आंतरिक सत्य के अटूट संबंध में बाँध देता है और जो सदैव पाक-साफ करता है। गांधी के अनुसार धर्म सबसे प्रेम करना सिखाता है। न्याय तथा शांति की स्थापना के लिये खुद के बलिदान की प्रेरणा देता है। उनकी निगाह में धर्म निर्बल का बल तथा सबल का मार्गदर्शक है।
महात्मा गांधी की आध्यात्मिक चेतना से निकले सिद्धांतों में कितना बल था इसका प्रमाण हमें बीसवीं शताब्दी में दुनिया के कई अन्य महान् नेताओं मे देखने को मिला जिन्होंने गांधी के ही सत्याग्रह और अहिंसा को अपना हथियार बनाया। 20वीं शताब्दी के प्रभावशाली लोगों में नेल्सन मंडेला, दलाई लामा, मिखाइल गोर्बाचोव, अल्बर्ट श्वाइत्ज़र, मदर टेरेसा, मार्टिन लूथर किंग (जू.), आंग सान सू की, पोलैंड के लेख वालेसा आदि ऐसे लोग हैं जिन्होंने अपने-अपने देश में गांधी की विचारधारा का उपयोग किया और अहिंसा को अपना हथियार बनाकर अपने इलाकों, देशों में परिवर्तन लाए। यह प्रमाण है इस बात का कि गांधी के बाद और भारत के बाहर भी अहिंसा के ज़रिये अन्याय के खिलाफ सफलतापूर्वक लड़ाई लड़ी गई और उसमें विजय भी प्राप्त हुई।
गांधी जी अपने में इन आध्यात्मिक संस्कारों के सृजन का अहम् श्रेय श्रीमद् राजचन्द्र जी को देते हैं जो उस वक्त के शताब्धानी पुरुष के रूप में प्रसिद्ध थे और अनासक्त व एक योगी की भांति जीवन जीने के लिये जाने जाते थे। गांधी जी को सर्वप्रथम गीता पढ़ने की प्रेरणा भी उन्हीं ने दी थी और श्रीमद् भगवत् गीता का गांधी जी की आध्यात्मिक चेतना पर गहरा असर पड़ा। गीता के कई श्लोकों को उन्होंने न सिर्फ कंठस्थ किया बल्कि किसी भी विषम परिस्थिति में उसके सहारे संबल प्राप्त किया। अपनी आत्मकथा में गांधी जी एक श्लोक उद्धृत करते हैं-
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते।
संगात्संजायते कामः, कामात्क्रोधोऽभिजायते।।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो, बुद्धिनाशात्प्रणश्यति।।
अर्थात्- विषयोंका चिन्तन करनेवाले मनुष्यकी उन विषयोंमें आसक्ति पैदा हो जाती है। आसक्तिसे कामना पैदा होती है। कामनासे क्रोध पैदा होता है। क्रोध होनेपर सम्मोह (मूढ़भाव) हो जाता है। सम्मोहसे स्मृति भ्रष्ट हो जाती है। स्मृति भ्रष्ट होनेपर बुद्धिका नाश हो जाता है। बुद्धिका नाश होनेपर मनुष्यका पतन हो जाता है।
उक्त श्लोक का स्मरण यह दिखाता है कि इस श्लोक में कहे गये कथ्य का किस तरह उनके जीवन में प्रभाव था और यही उनकी अनासक्तता और आध्यात्मिक चेतना के विकसित करने में सहायीभूत रहा है।
गांधी जी अपने को अध्यात्म में रमा मानते थे पर उनका अध्यात्म उनकी शख्सियत और उनकी दैनिक जिंदगी में पूरी तरह रच बस गया था। वह खुद को यानी आदमी को अहिंसा और सत्य के आदर्श का अभ्यासी या उसके पथ का यात्री मानते थे। वे सत्य और अहिंसा को अभिन्न मानकर चलते थे। उनका समीकरण था अपने प्रति सच्चाई अहिंसा से ही आती है। उनकी मानें तो अहं केंद्रित आत्मबोध छिछला होता है, जो क्षणिक सुख से जुडा होता है। इसकी जगह वे आत्मसमर्पण या कहें अहं को विगलित करने को कहा करते हैं। अपने ऊपर ओढ़ी गई तरह तरह की झूठी पहचानों को उतारने को कहते हैं। जातिगत अन्याय, संप्रदायवाद, अस्पृश्यता जैसे मुद्दों को उन्होंने रचनात्मक ढंग से दुत्कारा है। उनका मानना था अहम् को खोकर ही वास्तविक आत्मबोध हो सकता है, इस बात को उन्होंने हिंदू के रूढ़िगत अर्थ से उबार कर चरितार्थ किया। वे व्यक्ति की अवधारणा को हमेशा समाज में उसकी भूमिका और उससे जुड़े दायित्वों के साथ ही देखते थे।
महात्मा गांधी की धार्मिक आध्यात्मिक अंतर्दृष्टि देखने के लिये सर्वपल्ली राधाकृष्णन् के साथ का यह वाक्या समझना बहुत जरुरी है- कंटेपररी इंडियन फिलॉस्फी’ के लिए राधाकृष्णन ने गांधी से तीन सवाल पूछे थे- (1) आपका धर्म क्या है, (2) आप धर्म में कैसे प्रवृत्त हुए और (3) सामाजिक जीवन पर इसका क्या असर रहा है? प्रश्नों की प्रकृति से ही संकेत मिलते हैं राधाकृष्णन ने गांधी को धर्म-विश्वासी मानकर सवाल किए। गांधी जी के उत्तर इसके अनुकूल ही थे।
गांधी जी ने पहले सवाल के जवाब में लिखा 'मैं धर्म से हिंदू हूं जो मेरे लिए मानवता का धर्म है और जिसमें मुझे ज्ञात सारे धर्मों का श्रेष्ठतम शामिल है। दूसरे प्रश्न के उत्तर में उन्होंने बताया- 'मैं इस धर्म में सत्य और अहिंसा यानी व्यापक अर्थों में प्रेम के रास्ते प्रवृत्त हुआ। यह कहने की जगह कि ‘ईश्वर सत्य है’, हाल-फिलहाल मैंने अपने धर्म को परिभाषित करने के लिए ‘सत्य ईश्वर है’ कहना शुरू किया है क्योंकि ईश्वर को लोग नकार सकते हैं लेकिन सत्य को नकारा नहीं जा सकता। यहां तक कि मनुष्यों में जो सर्वाधिक अज्ञानी हैं, उनमें भी कुछ सत्य है। हम सब सत्य की कौंध हैं, इस कौंध का सकल-समग्र- यानी अज्ञात सत्य, ही ईश्वर है। मैं अनवरत प्रार्थना के सहारे रोज ही इसके निकट पहुंचता हूं.'
और, तीसरे प्रश्न के उत्तर में गांधी जी ने सत्य यानी ईश्वर से जुड़ी अपनी राजनीति का खुलासा किया। गांधीजी ने कहा- 'ऐसे धर्म के प्रति सच्चा होने के लिए प्रत्येक जीवन की अनवरत-अविराम सेवा में स्वयं को निःस्व करना पड़ता है। सत्य का साक्षात्कार जीवन के अनंत सागर में विलीन हुए और इससे तदाकार हुए बिना असंभव है, इसलिए समाज-सेवा से मेरी निवृति नहीं है।'
अपनी किताब ‘अकाल-पुरुष गांधी’ में साहित्यकार जैनेंद्र ने महात्मा के बारे में लिखा है कि 'गांधी जी ने एक बार कहा था कि मेरा सबकुछ ले लो मैं रहूंगा। हाथ काट लो, आंख और कान ना रहें तब भी रहूंगा। सिर जाए तब भी कुछ पल रह जाऊं, पर ईश्वर गया कि तब तो मैं उसी दम मरा हुआ ही हूं।'
जैनेंद्र ने गांधी जी की इस बात का निष्कर्ष निकालते हुए लिखा कि—‘राजनीति और धर्म में भेद है, विग्रह भी है लेकिन गांधीजी उन दोनों के अभेद हैं और संग्रह हैं। वह जीवित उदाहरण हैं इस सत्य के कि जीवन संयुक्त, समग्र और सिद्ध है तो वहां जहां वह निस्व (निःस्वार्थ) है। इस मूल निष्ठा को पाकर फिर गांधीजी का बस एक प्रयत्न रहा है वह यह कि अपने समूचेपन और तन को लेकर उस निष्ठा से तत्सम हो जायें। इस तरह दुनिया में रहकर गांधी जी सदा परीक्षा में हैं और उनके हाथों में राजनीति भी सदा परीक्षा में ही है।
महात्मा गांधी 20वीं शताब्दी के दुनिया के सबसे बड़े राजनीतिक और आध्यात्मिक नेताओं में से एक माने जाते हैं। वे पूरी दुनिया में शांति, प्रेम, अहिंसा, सत्य, ईमानदारी, मौलिक शुद्धता और करुणा तथा इन उपकरणों के सफल प्रयोगकर्त्ता के रूप में याद किये जाते हैं, जिसके बल पर उन्होंने उपनिवेशवादी सरकार के खिलाफ पूरे देश को एकजुट कर आज़ादी की अलख जगाई। गांधी ने अपने जीवन के समस्त अनुभवों का प्रयोग भारत को आज़ाद कराने में किया। वास्तव में गांधी का आध्यात्मिक चेतना, भारत की आध्यात्मिक चेतना की ही प्रतिछाया है। इस देश की आध्यात्मिक विरासत ही गांधी जी में साकार होते देखी गई है। उनका कहना था कि भारत की हर चीज़ मुझे आकर्षित करती है। सर्वोच्च आकांक्षाएँ रखने वाले किसी व्यक्ति को अपने विकास के लिये जो कुछ चाहिये, वह सब उसे भारत में मिल सकता है।
भारत यानी भाव, राग और ताल का समन्वय। भाव का संबंध मन से है, राग का वचन से है और ताल का संबंध तन से है। गांधी जी इसी भारत के समन्वय या एक्य के प्रतीक थे। जिनके मन, वचन और तन अर्थात् काया की चेष्टाएं एक सम थीं और यही उनकी आध्यात्मिक चेतना की संजीवनी थी। इस आध्यात्मिक चेतना का ही असर उनके जीवन के समस्त दर्शन और सिद्धांतों में दिखा और वही आध्यात्मिक चेतना अपने विभिन्न रूपों में आज गांधी जी के जन्म के डेढ़सौ वर्ष बाद भी पूरी निष्ठा के साथ पूजी जा रही है।
महात्मा गाँधी ने देश के जन -जन का अपने विचारों के माध्यम से सफल जीवन के मार्ग को प्रशस्त किया है ।वो अपने लिए कम देशवासियों के लिए जिए हैं ।गाँधी आध्यात्म, सत्य, अहिंसा के हमेशा पक्षधर रहें हैं ।
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