Tuesday, June 25, 2013

धर्म और राजनीति की संकरी गलियों से गुजरती प्रेमकथा : रांझणा

जहाँ प्रेम है वहां दीवारें भी होंगी...और दीवारें हैं तो उनमें दरारें भी बनेंगी। बिगड़ती-सुधरती दीवारों और दरारों के दरमियां गुजरती हुई अपने गंतव्य तक पहुंचने का सफ़र करती है हर एक प्रेमकथा...पर प्रेम, सफर हो सकता है, पड़ाव हो सकता है, गतिअवरोधक हो सकता है, गतिप्रदायक हो सकता है लेकिन गंतव्य कभी नहीं हो सकता। किंतु इन समस्त तथ्यों से अपरिचित बना रहकर हमेशा से ही प्रेम, एक अपरिभाषित गंतव्य की तलाश करता आया है। इसलिये प्रेम जिंदा है, प्रेम पर लगने वाले पहरे भी जिंदा हैं और जिंदा हैं बस इसी वजह से प्रेमकथायें।

रांझणा, कोई अपवाद नहीं है। इससे पहले भी मौसम, रॉकस्टार, दिल, DDLG जैसी सैंकड़ो फ़िल्में बन चुकी हैं..कहीं धार्मिक विभेद, कहीं आर्थिक विषमताएं, तो कहीं दूसरी सामाजिक लकीरें प्रेम को बांटती आई हैं। अधिकतर मामलों में फ़िल्मी प्रेम कथाएं अंत में सफल हुई हैं तो कुछ मामलों में दुखांत इन फ़िल्मों का सच रहा है। रांझणा, दुखांत है पर फ़िल्म के अंतिम दृश्य में पार्श्व में सुनाई देते नायक के संवाद, किसी को सुखांत की अनुभूति भी दे सकते हैं...नायक अब उठना नहीं चाहता और वो अपनी मर्जी से हमेशा के लिये सो जाना चाहता है...नायक के सिरहाने बैठा उसका प्यार, यदि आवाज दे तो वो उठ भी सकता है पर अब उठकर प्यार-इजहार-इंकार-इकरार की सारी प्रक्रिया उसे बहुत थकाने वाली और कष्टकर लग रही है..बस इसलिए उसे सुकून यूं लेटे रहने में ही मिल रहा है...पर फिर भी वो एक अदद आराम के बाद बनारस की गलियों में दोबारा लौट आने का वादा करता है..अपनी अधूरी ख्वाहिशें पूरी करने की चाहत जताता है। प्रेम, पूर्णता को अर्जित करने के बाद भी हमेशा एक अधूरी ख्वाहिश ही बना रह जाता है और इंसान इसे सदा पूरा करने के लिये बार-बार इस धरती पर आना चाहता है।

चाहतें बड़ी बेवकूफ होती हैं और मनमौजी भी। ये जिस दिल में पैदा होती हैं उसे भी बावरा बना देती हैं और दिल का ये बावरापन दिमाग का अस्थि-पंजर भी हिला देता है और इंसान अपनी बुद्धि गिरवी रखके पागलों सरीका हो जाता है। शायद इसलिये कहते हैं कि प्रेम, बुद्धिमान इंसान की मूर्खता और मूर्ख इंसान की बुद्धिमत्ता है। रांझणा का नायक कुछ ऐसा ही है। इस बेचारे को तो समझदार बनने का मौका ही नहीं मिला और बचपन में ही इसे प्रेम ने अपनी गिरफ्त में ले लिया। अब इसके जीवन का लक्ष्य बस इसका प्यार है और वो गाता भी है 'मेरी हर मनमानी बस तुम तक, बातें बचकानी बस तुम तक..मेरी हर होशियारी बस तुम तक, मेरी हर तैयारी बस तुम तक'। अपना सबकुछ लुटाने के बाद, अपनी सारी चाहतें कुर्बान कर देने के बाद भी, अगर प्यार इतनी आसानी से नसीब हो सकता तो इस दुनिया में एक भी प्रेमकथा न होती। बंधन होते ही होते हैं और वो यहाँ भी हैं...जिनमें से हिन्दुस्तानी जमीं पर पाया जाने वाला सबसे प्रसिद्ध बंधन है-धर्म। नायक एक विशुद्ध, पूजा-पाठ वाले ब्राह्मण परिवार से है और नायिका है मुस्लिम। कई और कहानियां भी इस पृष्ठभूमि पर बन चुकी हैं पर इस प्रेम कहानी का प्रस्तुतिकरण कुछ अलग है...इसका नायक मस्तमौला, खिलंदड़ व्यक्तित्व का धनी है और वो अपनी विषमताओं को जानता-समझता हुआ, उनकी खिल्लियां उड़ाता हुआ..अपने प्यार का इज़हार करता है। फुल कंसस्टेंसी के साथ नायिका के थपाड़े खाता है और नायिका से प्यार का इकरार भी करवा लेता है...पर ये नायक-नायिका का कौमार्य था असल जवानी तो आना बाकी थी..और साथ ही बाकी थी समझदार हो जाने के बाद खड़ी होने वाली दीवारें।

नायिका बाहर पढ़ लिखकर समझदार बन चुकी है और अब उसकी नज़र में अपने बचपन का प्यार निहायती गंवार और जाहिल है...पर लड़का उसी शिद्दत से अपनी प्रेमिका का आठ साल तक इंतजार करता है जिस शिद्दत से उसने बचपन में प्यार किया था। यही वजह है कि उसे अपनी बचपन की साथी, हमजात और नायक को बेहद चाहने वाली लड़की का प्यार भी मंजूर नहीं। नायिका, अब किसी और से प्यार करती है पर उसे भी अपने प्यार को पाने में अनेक बंधन हैं और इसलिये वो नायक का इस्तेमाल करती है। इस गांवठे बनारसी युवक ने पढ़ाई नहीं की है बस इसलिये उसमें कुछ मानवीय संवेदनाएं जीवित हैं, वो प्रेक्टिकल नहीं है, जिसे आजकल के समय में नासमझी माना जाता है। अपने इस व्यक्तित्व के चलते वो प्यार के लिये त्याग करता है और उसका त्याग ही ये है कि वो अपने प्यार को भुला के नायिका को उसके प्रेमी से मिला दे।

घटनाक्रम में यहीं पर गहन नाटकीयता है और एक स्थिति ये आती है कि अब उसके पास गंवाने के लिये कुछ नहीं है और जब किसी के पास गंवाने के लिये कुछ नहीं होता तो वह इंसान बेहद क्रियाशील और खतरनाक हो जाता है और ऐसे ही हालात से गुजरते हुए इस फ़िल्म के नायक को वो माहौल मिल जाता है जिसमें वो अनायास ही प्रसिद्धि के सोपानों पर चढ़ने लगता है। प्रेम से मिली तड़प बहुत कुछ करवा देती है नायक अब राजनीति में है और अपनी पार्टी का नेता बन चुका है। फ़िल्म में नायक का संवाद है 'हमारे देश में नेताओं की कितनी कमी है जहां हमारे जैसा गंवार ही नेता बन जाता है' देश के नेतृत्व पे तीखा व्यंग्य करता है।

कुछ मानवीय संवेदनाएं भी फ़िल्म का रेशा बुनती हैं जैसे-ईर्श्या, आत्मग्लानि, पश्चाताप आदि। नायक से नफरत करती नायिका को उसका आगे बढ़ना रास नहीं आता, उसका अच्छा होना भी उसे बुरा लगता है और बस इसलिये वो नायक के पतन का षड्यंत्र रचती है और इसमें कामयाब होने के बाद जब नायक के त्याग और समर्पण का अहसास उसे होता है तो उसके मन में आत्मग्लानि भी है। नायक, बिना वजह नायिका के प्रेमी की मौत का जिम्मेदार खुद को मानता है और इस पश्चाताप की आग में तपते हुए वो अपने ब्राह्मणत्व के विपरीत झाड़ू लगाने, बर्तन मांजने जैसे कामों को भी सेवाभाव से करता है। जहाँ प्यार होता है वहाँ दूसरे विकारी भाव भी आते ही आते हैं और कई बार कुछ दूसरे अच्छे मनोभाव भी आ जाते हैं। प्रेम के साथ ईर्श्या, नफरत आना स्वाभाविक है तो त्याग और समर्पण भी सच्चे प्रेम के साथ आसरा पाते हैं। ये सभी भाव इंसान को इंसान बनाये रखते हैं, न वो देवता बन पाता है और न ही दानव।

बहरहाल, पारंपरिक प्रेमकथा होने पर भी मजेदार फ़िल्म है। पहला आधा भाग तो बेहद कसा हुआ और मनोरंजक है। संवादों से पैदा विद आपको बारबार हंसने पर मजबूर करता है। आनंद एल रॉय की पहली फ़िल्म 'तनु वेड्स मनु' की तरह इस फ़िल्म का निर्देशन भी बेहतरीन है। दूसरे भाग में राजनीति के गलियारे में घूमते हुए फिल्म थोड़ी भटकी है पर फिर भी हम अंत तक इसे देखने को लालायित रहते हैं। नायक के किरदार में धनुष की यह पहली बॉलीवुड फ़िल्म है और उनकी तारीफ में काफी कसीदे इन दिनों मीडिया में पढ़े जा रहे हैं और वे इसके हकदार भी हैं। सोनम कपूर का काम ठीक है पर वे अपनी सीमित प्रतिभा के दायरे में ही डोलती रहती है फिर भी निर्देशक ने उनके किरदार को मजबूती देकर उनसे अच्छा काम निकलवाया है। अभय देओल महत्वपूर्ण रोल में है और उन्होंने संक्षिप्त मगर अच्छा काम किया है। उन्होंने किसी भी तरह फ़िल्म के मुख्य किरदारों पे अतिक्रमण का प्रयास नहीं किया। अभिनय के मामले में सबसे दमदार काम किया है जीशान अयूब और स्वरा भास्कर ने जोकि फिल्म में नायक के दोस्त बने हुए हैं। ए आर रहमान का संगीत है पर उनके नाम के अनुरूप नहीं है...बनारस की गलियां और होली के दृश्यों को सिनेमेटोग्राफर ने बखूब फिल्माया है। कुल मिलाकर दर्शनीय फिल्म है जिसे ज़रूर देखा जाना चाहिए। इसे देखने के बाद यथार्थ की मजबूरियों में उलझा इंसान कुछ देर के लिये कल्पनालोक की मौज में तो आ ही जायेगा...और यही तो सिनेमा का उद्देश्य होता है................

Saturday, June 22, 2013

दर्द के उफान में मृत संवेदनाओं के मरहम

उत्तराखंड दर्द से कराह रहा है। धीरे-धीरे ज़ख्म की गहराई का पता चल रहा है। सरकारी आंकड़ा 500-600 लोगों के मरने की बात कह रहा है। कुछ राजनीतिक हुक्मरान ये तादाद पांच-छह हजार होना बता रहे हैं। जो भी है इस आपदा से बचकर लौटे लोगों के संस्मरण भयानक हैं। अपनी आँखों के सामने किसी की पत्नी-बच्चे बह गये तो किसी के हाथों में भूख से बिलखते भाई ने दम तोड़ा, किसी की माँ उससे चंद लम्हों में दूर हो गई तो किसी ने अपने दुधमुंहे बच्चे को काल के गाल में समाते देखा। भयंकर मंज़र और हर दिन के अखबार के साथ मिलती इस त्रासदी की दुखद ख़बरें। 

हम यहाँ बैठे सिर्फ उस दर्द का अंदाजा लगा सकते हैं और जता सकते हैं चंद मरी हुई संवेदनाएं, जिन्हें अखबार पढते हुए हम बड़े कराहते स्वर में जताते हैं पर इन्हें जताते वक्त भी हमारे चाय का स्वाद फीका नहीं पड़ता। मेरी ये बात शायद किसी को नागवार गुजरे लेकिन असल यही है हमारी सहानुभूति और संवेदनाएं नितांत झूठी हैं बिल्कुल उसी तरह जैसे हैं सरकार द्वारा दिये गये राहत के दिलासे। अगर ये सच्ची होती तो ये दिखती हमारी जीवनशैली में, अगर ये सच्ची होती तो नजर आती हमारे रवैये में जो हमारा प्रकृति के लिए है, अगर ये सच्ची होती तो प्रगट होती हमारे इंसानों और पशुओं के प्रति किये जाने वाले व्यवहार में। बात हजम होना थोड़ा मुश्किल हो रहा होगा न, कि उत्तराखंड की इस आपदा का भला क्या लेना-देना है हमारे इंसानों, जानवरों और प्रकृति के प्रति किये जाने वाले व्यवहार से।

लेकिन प्रकृति प्रदत्त ये आपदा हमारी क्रियाओं की ही प्रतिक्रिया है। हमने हमारी लग्जरी की चिंता में प्रकृति की राह में खड़े किये असंख्य रोड़े और जब प्रकृति ने अपने रास्ते को पाने की जिद पकड़ी तो उखड़ गये वो तमाम रोड़े और बन उठी ये हमारे लिये एक भीषण आपदा। इन नदियों, पहाड़ों के आंचल में जाके हमने बेहिसाब अतिक्रमण किया और जब उस अतिक्रमण का हिसाब प्रकृति ने हमसे मांगा तो हमें चुकाना पड़ा अनेक जिंदगियां, हमारे सारे मिट्टी-गारे के निर्माण और प्रकृति में घुसपैठ कर रहे नगरों को। हमें हमारी विलासिता के लिए इसकी चौखट पे बनाना है शापिंग मॉल, आलीशान होटल, हैलीपैड जिससे हमारी अय्याशियों में कमी न आ सके। हमें ले जाना है वहाँ हमारी सहुलियत के सारे साजो-सामान और फिर बचे हुए कचरे को पटक देना है उस प्रकृति की ही गोद में। हमें पैसा कमाने के लिये लगाना है वहाँ फैक्टरियां और बड़े-बड़े प्लांट और देना है प्रकृति को उन फैक्ट्रियों के मूंह से छूटा हुआ गंदा कचरा और सड़ा हुआ धुआं। ऐसे में कब तक बर्दाश्त करें ये उन ज़ख्मों को, जो हम पल-पल प्रकृति को दे रहे हैं।हमारी ज़रूरतों को पूरा करने की क्षमता तो प्रकृति में बखूब है पर हमारी बेतहाशा इच्छाओं को पूरा करने की कतई नहीं। इस सबके बावजूद भी हम संवेदनशील होने का ठप्पा लगाये रखना चाहते हैं। गोया कि संवेदनशीलता अब एक भावना नहीं, उपाधि बन गई है।

हम बहुत अच्छे से जानते हैं कि हिमालय की तलहटी के ये इलाके अति संवेदनशील क्षेत्रों में शुमार है तो फिर आखिर कैसे हम यहां इस कदर अंधाधुंध निर्माण कर सकते हैं?  ईकोफ्रेंडली होने का दंभ तो हम खूब भरते हैं तो फिर आखिर कैसे हमारा तंत्र प्रकृति की ओर बढ़ते इस इंसानी अतिक्रमण की अनदेखी करता है? हमने हर क्षेत्र का ध्यान रखने के लिये सरकारी विभागों की स्थापना कर रखी है जहाँ अपने-अपने क्षेत्रों के जानकार भी ऊंची सैलरी पे बैठा रखे हैं तो क्या प्रकृति पर होने वाले इन अत्याचारों से हमारे भू-विद, पर्यावरण-विद् और मौसम वैज्ञानिक अनजान हैं? क्या हमारे नेता जो देश की, जनता की सेवा करने की कसमें खातें हैं, संविधान पे आस्था और श्रद्धा रखने की शपथ लेते हैं उनका ध्यान इस ओर नहीं जाता। संविधान पे श्रद्धा रखने की कसम तो खाली पर क्या कभी इन्होंने अपने संविधान को पढा़ भी है जहाँ अनुच्छेद 48 के अंदर पर्यावरण के संरक्षण, संवर्धन एवं वन तथा वन्यजीवों की रक्षा की बात कही गई है? निश्चित ही पढ़ा होगा तभी तो इन्होंने वन संरक्षण अधिनियम,1980 और राष्ट्रीय वन नीति,1988 जैसे कानून बनाये हैं पर क्या रंचमात्र भी इन कानूनों का पालन हो रहा है? क्या हमारे सारे नीतिनिर्माता, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों ने अपनी आँखें मूंद ली है या फिर इनकी नजरों के सामने पैसा, पद और प्रतिष्ठा का परदा आ गया है जिससे चाह के भी ये मानवसमाज और प्रकृति का विनाश नहीं देख पा रहे है।

उत्तराखंड की इस तबाही पे 1000 करोड़ के  मुआवजे की घोषणा सरकार द्वारा की जा चुकी है जोकि सरकार का खुद को संवेदनशील बताने का एक अहम् जतन है। लेकिन लोगों के बचाव की ये घोषणा भी ठीक वैसी ही है जैसी घोषणाएं सरकार द्वारा पर्यावरण के बचाव के लिए की जाती है। हजारों लोग इस समय उत्तराखंड के विभिन्न पहाड़ी इलाकों में फंसे हुए हैं सेना द्वारा उनको निकालने के प्रयास भी ज़ारी हैं पर ये सब इस आपदा की भयावहता के आगे नाकाफी है। सिर्फ कुछ हैलीकॉप्टर और सेना के चंद जवानों के ज़रिये इस विशाल जनसमूह को निकालपाना नामुमकिन है ऐसे में नेताओं और अफसरों के संवेदनात्मक बयान मरहम की बजाय दर्द देने का ही काम कर रहे हैं। जितने हैलीकॉप्टर इस समय बचाव कार्य में लगे हैं उससे दोगुने हैलीकाप्टर नेताओं की चुनावी सभा में देखे जा सकते हैं और कुछ हैलीकॉप्टरों से इन दिनों चंद नेता बड़ी बेशर्मी के साथ हवाई सर्वेक्षण करने में व्यस्त हैं।

हम अक्सर एक बात सुनते हैं कि 'जिसपे बीतती है बस वही जानता है'। ऐसे में हम तो लोगों के उस दर्द का आकलन कर ही नहीं सकते जिसे वे पल-पल भोगने पर मजबूर हैं। ऐसे में नेताओं का अपने एयरकंडीशनर कमरों में बैठकर लोगों को धैर्य रखने की सीख देना, ज़ख्म पे नमक का काम कर रही है। वैसे भी लोग तो धैर्य रखे ही हुए हैं अब इसके अलावा उनपे चारा भी क्या है? सहने, सहने और सिर्फ सहने के अलावा वो कर भी क्या सकते हैं? प्रकृति भी तो आखिर सह ही रही थी हमारी करतूतों को, अब जब प्रकृति ने अपना रंग दिखाया है तो हमें भी सहना ही तो पड़ेगा। लेकिन उत्तराखंड की ये आपदा हमें आत्ममंथन का अवसर उपलब्ध करा रही है कि जैसा व्यवहार हम खुद अपने लिये नहीं चाहते वैसा व्यवहार हम किसी और के साथ कैसें कर सकते हैं? जब हम प्रकृति की आपबीती सुनने से इंकार कर देते हैं तो हमें भी ये हक नहीं जो हम शिकायत करें कि हमारी आपबीती  को कोई नहीं समझ सकता। यदि हमारा जीवन है तो वन, वन्य जीवों, नदी, पहाड़, समुंदर आदि का भी अपना जीवन है। जब हम हमारे परिक्षेत्र में किसी की घुसपैठ नहीं पसंद करते तो फिर क्यों हम इन प्राकृतिक क्षेत्रों में घुसपैठ करते हैं। याद रखिये हमने आज तक प्रकृति को कुछ नहीं दिया है पर प्रकृति ने जो हमें दिया है उसका कोई हिसाब नहीं है और अगर हम इसे कुछ दे नहीं सकते तो इससे कुछ अनावश्यक हथियाने का भी हमें कोई अधिकार नहीं है।

भले लंबा समय लगे पर इस आपदा के दिये ज़ख्म भी भर जायेंगे और हम सब कुछ भूल के फिर अपनी करतूतों में मशगूल हो जायेंगे क्योंकि हमारी आदत ही भूलने की बन चुकी है। यही वजह है कि भुज के भूकंप, दक्षिण की सुनामी, मुंबई की भीषण बारिश जैसी समस्त आपदाओं को भुलाके हम वही करते हैं जो हम करते आ रहे हैं। अपनी हरकतों पे विराम लगाने का हमारा कतई इरादा नहीं है। हमेशा की तरह मगरमच्छ के आंसू, झूठी संवेदनाएं और आरोप-प्रत्यारोप के साथ हम दर्द के इस उफान पर मरहम लगाने का काम करेंगे। इस मरहम से शायद कुछ वक्त के लिये दर्द की तासीर बदल जायेगी पर हालात और हमारी फितरत कभी  बदलने वाली नहीं है.......

Monday, June 17, 2013

भ्रष्टतंत्र के चट्टे-बट्टे...!!!!


साहित्य की एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत बचपन से ही सुनते आ रहे हैं कि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इस कहावत को कभी भी सकारात्मक हालात को बताने में प्रयोग नहीं किया जाता और हमेशा ही इससे नकारात्मक हालात एवं व्यक्तित्व का ही चरित्र चित्रण किया जाता है। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे आज तक ईमानदार, सच्चे, देशभक्त, आदर्शवादी नज़र नहीं आये, वे हमेशा ही चोर, ठग, दगाबाज, बेईमानी से ही लबरेज रहे हैं। देश के वर्तमान हालात में भी हम कुछ ऐसे ही सिस्टम के चट्टे-बट्टों के कारनामे सुन रहे हैं। इनकी तादाद कुछ इस कदर बढ़ गई है कि अब तंत्र के इन चट्टे-बट्टों को भ्रष्ट कहने से बात नहीं बन रही, सारे तंत्र को ही भ्रष्ट कहना पड़ रहा है।

आईपीएल के करोड़ो की घोटालेबाजी से मीडिया भरा पड़ा है और जैसे-जैसे इस घोटाले की परतें उखाड़ी जा रही है हर दिन नये-नये नाम सामने आ रहे हैं। अब तो डर लगा रहता है कि इन उधड़ती परतों में कहीं उस शख्स का भी ज़िक्र ना हो जाये जिसे हम रोलमॉडल माने हुए अब तक पूजते चले आ रहे थे। पिछले पांच सालों में घोटालों और भ्रष्टाचार के लगातार बढ़ते मामलों को सुनते-सुनते अब इसकी आदत कुछ ऐसी हो गई है कि अपने आसपास से भी भ्रष्टतंत्र की सड़ाध महसूस की जा सकती है। आश्चर्य होता है कि देश की सैंतीस प्रतिशत आबादी बड़े आराम से 32 रुपये प्रतिदिन से कम में अपना गुजारा कर लेती है और सत्ता में बैठे मुट्ठीभर लोगों को करोड़ो रुपयों की आय भी कम पड़ जाती है जो अपनी पैसों के लिये जन्मी हवस में ये नये-नये घोटालों को जन्म देते हैं।

अभी पूर्व रेलमंत्री पवन बंसल और विधिमंत्री अश्विनी कुमार की भ्रष्ट करतूतों की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि विश्व के सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड के सरदार श्रीनिवासन के कारनामों की फाइल खुलकर सामने आ गई। ऐसा नहीं है कि श्रीनिवासन के घर खाने के लाले पड़ रहे हों जो उन्हें कुछ पैसों के लिए अनर्गल सौदेबाजी करनी पड़े या उस सौदेबाजी में किसी का साथ दें, वे पहले से ही एक बड़े उद्योगपति है लेकिन बावजूद इसके उनका अपने दामाद मयप्पन के क्रियाकलापों से अनभिज्ञ रहना और अपने सर के नीचे हुई इस घोटालेबाजी में आंखें मूंदे खड़े रहने की बात कहना रास नहीं आती।

गत वर्ष अरविंद केजरीवाल और कैग प्रमुख विनोद रॉय ने एक के बाद एक कई धमाके कर सत्ताधीषों की पोलपट्टी खोली थी। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं के साम्राज्य को ध्वस्त होते हमने देखा, कर्नाटक में भ्रष्टाचार के चलते ही सत्तापरिवर्तन हुआ, नितिन गड़करी को भाजपा की कमान से हाथ धोना पड़ा ऐसे न जाने कितने उदाहरण हमारे सामने आये जिसमें हमने सत्ता के कर्णधारों के भ्रष्टाचार की आग में हाथ जलते देखे। बावजूद इसके इन वर्चस्वप्रधान लोगों की पद, प्रतिष्ठा और पैसे के लिए बेहिसाब भूख ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही और आये दिन वे अपने ज़मीर को गिरवी रख किसी न किसी भ्रष्ट षड्यंत्र में खुद को बड़े आराम से शामिल कर लेते हैं। आज हमारे लोकतंत्र के हालात बेहद भयानक दिशा की ओर बढ़ रहे हैं। जहां मंत्रिमण्डल के आला हुक्मरान अपने-अपने विभागों में सामाजिक उत्तरदायित्व को भुलाकर पैसा कूटने में मशगूल हैं और विपक्ष भी इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के बजाय न जाने क्यों चुप्पी साधे बैठा है। जिस ऊर्जा के साथ विपक्ष को इन मुद्दों पर स्वर मुखर करना चाहिए वो दिखाई ही नहीं देती। विधायिका की कमीज तो मैली है ही पर हमारी कार्यपालिका और देश के ब्युरोक्रेट्स भी इस भ्रष्टाचार की नाली में अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से खुद के हाथ धोने में पीछे नहीं हट रहे। वहीं इस सारे तामझाम में न्यायपालिका का धीमा एवं लचर रवैया भी समझ से परे हैं। हालांकि इन सबमें कहीं-कहीं कुछ सुखद अपवाद भी है पर इतने बड़े तंत्र में वे नाकाफी हैं। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ अपने कर्तव्यों से विमुख तो नजर आ ही रहे हैं पर इस तंत्र का चौथा स्तंभ भी अपाहिजों सा ही बर्ताव कर रहा है और ऐसा लगता है कि मीडिया भी इन हुक्मरानों द्वारा संचालित है। कई मीडिया समूहों और आला मीडियाकर्मियों का भ्रष्ट करतूतों में नाम उछलना पत्रकारिता की गरिमा को मटियामेट करने के लिये काफी है। आखिर ऐसे परिवेश में कौन भ्रष्टतंत्र के खिलाफ आवाज उठायेगा? अंधकार के घनघोर साये में किससे रोशनी की उम्मीद की जाये, जबकि सभी सद्चरित्र व शिष्टता का दीपक बुझाने पर आमादा हैं।

सत्ता के गलियारों से लेकर खेल के मैदानों तक में जो एक बात सर्वसामान्य ढंग से उजागर हो रही है वो है लोगों की निरंतर गिरती सांस्कृतिक अस्मिता और आकांक्षाओं की बेतहाशा बढ़ती आग में मूल्यों का राख हो जाना। संस्कृति की नियंत्रण शक्तियां पूर्णतः क्षीण हो चुकी है और सारा समाज ही दिग्भ्रमित या अन्य निर्देशित होता जा रहा है। यही वजह है कि अब तो अपने साये पर भी विश्वास करने का मन नहीं होता। उंचे पदों पर आसीन सत्ता के इन हुक्मरानों का इन दुर्दांत घोटालों में शामिल होना हमारे देश की संपूर्ण बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है साथ ही ये हमारे तथाकथित आदर्शवादी शिक्षातंत्र पर भी तमाचा है क्योंकि ये तमाम दिग्गज हुक्मरान हमारे देश के बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और उच्च शिक्षित सोसायटी से आये हुए हैं। मूल्यों की स्थापना में हमारी शिक्षा पूरी तरह से असफल हो चुकी है और इस शिक्षातंत्र से डॉक्टर, इंजीनियर, आईएस, नेता, अभिनेता सब निकल रहे हैं पर एक अदद इंसान को पैदा करने में हमारा शिक्षातंत्र पंगू हो चुका है। वैसे भी सभ्यता के जन्म से लेकर हमारा ये इतिहास रहा है कि अजब-गजब भारत को कभी भी किसी अनपढ़, लाचार, गंवार इंसान ने नहीं लूटा। इसकी अस्मिता पर हमला करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी और सक्षम हुक्मरान लोग ही रहे हैं।

सब कुछ विज्ञापन और प्रसार केन्द्रित हो गया है हम वही मान रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है नाकि वो जो असल में है। तंत्र की लचर पड़ी दीवारों पर समृद्धि का डिस्टेमपर पोतकर आदर्शवाद का भ्रम निर्मित किया जा रहा है और उसी दिखाई दे रहे भ्रम को सच मानकर हम आदर्श कल के सपने बुन रहे हैं। वक्त के साथ सत्ता बदल जाती है, व्यक्ति बदल जाता है, नये हुक्मरान आ जाते हैं पर हालात बदलने का नाम ही नही लेते। हर पांच साल बाद एक उम्मीद के साथ आम आदमी वोट देकर अपने कल के बदलने का सपना देखता है पर सत्ता की काली कोठरी में प्रविष्ट हुए उजले व्यक्ति को फिर उसी कालिमा में लिपटते हुए देखता है क्योंकि सभी उस एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो हैं। ये बड़े उत्साह और जोश के साथ अपने गम को भुलाने के लिये खेलों को देखता है पर यहां भी उस बेचारे को ठग लिया जाता है क्योंकि जिस खेल को अप्रत्याशित और हुनरमंदों का खेल मानकर वो तालियां पीट रहा था वो पहले से ही चंद पैसे वालों की उंगलियों पर नाच रहा है जहां सबकुछ फिक्स है।

ये विज्ञापन और प्रसार की शक्तियां हमारी मानसिकता को ही घात पहुंचा रही हैं जिनमें वशीकरण और सम्मोहन की अद्भुत शक्ति है। हम इनके वशीभूत होकर अपनी उत्पादकता जहां नष्ट कर रहे हैं वहीं हमार स्वतंत्र विचारशक्ति भी शून्य हो रही है। ये पैसों के बड़े-बड़े घोटाले सिर्फ आर्थिक स्तर पर ही चोट नहीं पहुंचाते बल्कि ये वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर भी कड़ा प्रहार करने वाले हैं। प्रसार के इस बहाव में संस्कृति का फैलाव हो रहा है, सपनों को पंख लग रहे हैं, इच्छाओं की दाह प्रबल हो रही है लेकिन प्रश्न है कि आखिर इस फैलाव का परिणाम क्या होगा? हमारे सीमित संसाधनों का होने वाला ये अपव्यय घोर चिंता का विषय है।

भौतिक विकास की आंधी में होने वाले हमारी संस्कृति के इस ह्रास के चलते हम लक्ष्यभ्रम से पीड़ित हो चुके हैं। हम विकास के विराट लक्ष्यों से पीछे हट रहे हैं और झुठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का ही पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएं टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केन्द्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है और भोग की आकांक्षाऐं आसमान छू रही हैं। ये अंधाधुंध दौड़ न जाने कहाँ जाकर रुकेगी?

बहरहाल, 2जी, सीजी, कोल आवंटन, रेलवे से लेकर क्रिकेट तक के ये तमाम घोटाले न सिर्फ सत्ता को बल्कि देश की तमाम जनता को एक आत्ममंथन के लिये मजबूर कर रही है कि हम माया की इस झूठी चमक में किस कदर सम्मोहित हैं? और अपने इन भौतिक हितों को साधने के अलावा क्या हमारा कोई और महान् उद्देश्य है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ईमानदारी, सच्चाई, आदर्शवाद और संस्कारों की बातें आज सिर्फ किताबों में ही सिमट कर रह गई हैं? हमारा अपना व्यक्तित्व ही आज हमें मूंह चिढ़ाने का काम कर रहा है क्योंकि हैं तो हम सब भी इस एक ही भ्रष्टतंत्र के चट्टे-बट्टे।

Tuesday, June 4, 2013

कौन सुनेगा पर्यावरण की आवाज....???

 संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण कार्यक्रम के अंतर्गत प्रारंभ किये गए विश्व पर्यावरण दिवस को हम 1973 से मनाते चले आ रहे हैं। हर साल तरह-तरह के कामचलाउ और उत्सवी आयोजन करके हम इस दिन पर्यावरण के प्रति अपनी गंभीरता प्रगट करने का बखूब ढोंग रचते हैं। इंसानी संवेदनाएं आज सिर्फ दिनों की मोहताज हो गई है और हर एक जज्बात, रिश्तों, जिम्मेदारियों और यादों को दिनों का गुलाम बना दिया गया है। इन दिनों पे कुछ समारोह, संगोष्ठी या जलसे का आयोजन करके खुद को सामाजिक और संवेदनशील साबित करने के तमाम जतन हमारे द्वारा किये जाते हैं। इन आयोजनों में इंसान का शोर ही इतना तीव्रतम होता है कि पर्यावरण की आवाज को सुनने की जहमत कोई नहीं उठाता।

विकास की नई-नई इबारतें लिखने में मशगूल मानव को ये पता ही नहीं है कि वो अपने विनाश का गड्डा खोद कर विकास का जश्न मना रहा है। पिछले कुछ दशकों से महसूस किया जा रहा जलवायु परिवर्तन निरंतर खतरे की घंटी बजा रहा है लेकिन फिर भी इससे बेखबर मानव अपने तथाकथित विकास और महत्वकांक्षा के नाम पर जमकर प्रकृति का शोषण कर रहा है। मानव की इस तीव्रतम भौतिक प्यास और लालची प्रवृत्ति ने उसे अंधा बना दिया है और अपने आसपास मंडरा रहे खतरे के बादल उसे नज़र ही नहीं आ रहे हैं। क्योटो, रियो द जेनेरियो और कोपेनहेगन जैसे सम्मेलन पर्यावरण की सुरक्षा के नाम पर किये जाते हैं पर वहां महज कुछ कागजी संधियों और जलवायु में आ रहे परिवर्तनों के आंकड़े प्रदर्शन के अलावा और कुछ होता नहीं देखा जा रहा।

पर्यावरण संरक्षण के लिए जागरुकता फैलाने की बात की जाती है। हमने हमारे देश में प्रायः हर कक्षा के पाठ्यक्रम में पर्यावरण को एक विषय के रूप में स्थान दे दिया है किंतु पर्यावरण संरक्षण का सतही ज्ञान हो जाने मात्र से समस्या का समाधान नहीं निकाला जा सकता। जब तक पर्यावरण के प्रति सच्ची संवेदना लोगों के हृदय में पैदा नहीं होगी और पर्यावरण के क्षरण से होने वाली हानियों का सही मायनों में भावभासन नहीं होगा तब तक पर्यावरण के प्रति दिखाई जाने वाली हमारी चिंता महज बौद्धिक जुगाली के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। 

वनों की अंधाधुंध कटाई, भुमि का कांक्रीटीकरण, नदियों में फैलने वाला औद्योगिक और मानवकृत कचरा, भुमिगत जल का अंधाधुंध दोहन ये कुछ ऐसी चीजें हैं जो प्रकृति की उत्पादकता को कमजोर बना रही हैं। मानव अपनी बेइंतहा भौतिक विकास की हवस में सब कुछ भुलाकर सिर्फ अपना आज बेहतर करने के प्रयास में अपनी आने वाली पीढ़ियों को एक दूषित वातावरण में जीने को मजबूर बना रहा है। इंसान की अगली पीढ़ी क्या डॉलर से अपना पेट भरेगी? क्या इंफ्रास्ट्रकचर उसे ऑक्सीजन देगा? या फिर अपनी प्यास बुझाने के लिये उसे टैक्नोलॉजी की मदद लेना होगी? ऐसे कई प्रश्न है जो मानव के अस्तित्व के ऊपर प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। डायनासोर के करोड़ो साल पहले विलुप्त होने का शोक आज मानव मना सकता है पर आज से करोड़ो साल बाद मानव के विलुप्त होने का शोक कौन मनाएगा?

अपनी विलासिता के लिये एयर कंडीशनर, रेफ्रीजरेटर, हाईटेक कार, बाइक और न जाने कितने साधन मानव ने तैयार कर लिये हैं और उनका अनियंत्रित उपभोग भी कर रहा है। इन तमाम वस्तुओं के अनावश्यक उपयोग से कॉर्बन डाइ ऑक्साइड, क्लोरो फ्लोरो कॉर्बन, मीथेन, नाइट्रेट ऑक्साइड जैसी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन इंसान की इस विलासिता पूर्ण जीवनशैली के कारण हो रहा है। जिससे निरंतर भूतापीयता में वृद्धि हो रही है। पृथ्वी पर बढ़ने वाली ये गर्मी कई तरह के नकारात्मक जलवायु परिवर्तन की तरफ इशारा करती है। एक शोध के अनुसार यदि पृथ्वी की सतह का औसत वार्षिक तापमान यदि छः डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाये जोकि अभी 14 डिग्री के आसपास है तो कई समुद्री तटवर्ती क्षेत्र और छोटे द्वीप समुद्र का जलस्तर बढ़ने से जलमग्न हो जायेंगे। हिमपर्वतों के ग्लेशियर के पिघलने से कई देशों में तीव्रतम बाढ़ के हालात बनेंगे। मरुस्थलीय इलाकों में भीषण सूखा और पर्वतीय क्षेत्रों में भयंकर बारिश, चक्रवात जैसी प्रलयकारी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा। इसका सबसे ज्यादा असर दक्षिणी गोलार्ध के देशों यथा भारत, इंडोनेशिया, फिलीपीन्स, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका और कई छोटे द्वीपीय देशों में देखने को मिलेगा। जहां की अरबों की जनसंख्या के जीवन पे संकट मंडराएगा परिणामस्वरूप उत्तरी गोलार्ध में पलायन की प्रवृत्ति देखने को मिलेगी। जबकि उत्तरी गोलार्ध में इस बड़े जनसंख्या घनत्व को सह पाने की क्षमता, रहने योग्य स्थान व प्राकृतिक विविधता न के बराबर है। प्राकृतिक आपदाओं के कुछ उदाहरण तो हम पिछले कुछ दशकों में देख ही चुके हैं।

पर्यावरण संकट का एक अहम् पक्ष जैवविविधता को होने वाला नुकसान भी है जिसके कारण आज कई जन्तुओं की प्रजाति या तो विलुप्त हो चुकी है या फिर विलुप्तता की कगार पर है। जीव-जन्तुओं की प्रजातियों पर आने वाला ये संकट सीधे तौर पर खाद्य श्रंख्ला पर असर डालता है और इस खाद्य श्रंख्ला के संकट का जिम्मेदार भी कहीं न कहीं मानव ही है जिसने खेती और अन्य खाद्य पदार्थों के उत्पादन में कई तरह के जहरीले रसायनिकों का प्रयोग कर खाद्य श्रंख्ला के प्राथमिक उत्पादकों को ख़त्म करने में भूमिका निभाई। इसी तरह मानवबस्ती के निर्माण हेतु एवं स्थानांतरी कृषि के लिए जंगलों की कटाई ने कई बड़े मांसभक्षी जीवों शेर, चीता, भालू आदि के जीवन पर संकट पैदा किया। पहले के समय में आसानी से दिखाई देने वाले भंवरा, तितली जैसे जीव जो कि वनस्पति विविधता हेतु प्रमुख कारण माने जाते थे आज दिखना मुश्किल हो गये हैं क्योंकि इनके रहने योग्य स्थान ही अब ख़त्म हो चुके हैं। इसी तरह शापिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स और लग्जरी अपार्टमेंट के निर्माण वाले इस दौर में प्राकृतिक सौंदर्य के नजारे देखना मुश्किल हो गया है यहां तक कि शहरों में प्रकाश और धुंध के कारण होने वाले प्रदूषण के चलते अब आकाश भी तारों से रहित दिखाई देता है।

पर्यावरण में होने वाले ये बदलाव नजरअंदाज नहीं किये जा सकते। पर्यावरण का ये नुकसान हमारी अपनी हानि है। यदि हम आने वाले भविष्य हेतु हमारी अगली पीढ़ी को स्वस्थ वातावरण नहीं दे सकते तो हमें कोई हक़ नहीं कि हम उस पीढ़ी को इस धरती पर लेकर आयें। आने वाली पीढ़ी अपने बुजुर्गों की इन करतूतों पर हमें गाली ही देने वाली है। प्रकृति के हर संसाधन के प्रति गहन संवेदना प्रदर्शित करना बेहद आवश्यक है। इसकी शुरुआत किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर नहीं बल्कि हमारे अपने घरों और हमारे छोटे-छोटे से क्रियाकलापों से होगी। अपनी जीवनशैली में परिवर्तन लाकर अपने हर एक क्रियाकलाप को ईकोफ्रेंडली बनाना जरुरी है। पर्यावरण की सुरक्षा के लिये लिया गया आपका एक संकल्प ही असल मायनों में पर्यावरण दिवस को मनाना है। 

आज इंसान चाँद और मंगल जैसे ग्रहों पर जीवन की खोज कर रहा है। पृथ्वी को दूषित करने के बाद दूसरे ग्रहों पर जीवन की खोज करने की ये छटपटाहट देखना आश्चर्यजनक नहीं लगता। लेकिन ये इंसान इतना भयंकर प्राणी है जो अपनी लालची प्रवृतियों के चलते एक दिन उन ग्रहों पर कहर ढाने से भी बाज नहीं आएगा......