Monday, June 17, 2013

भ्रष्टतंत्र के चट्टे-बट्टे...!!!!


साहित्य की एक बहुत ही प्रसिद्ध कहावत बचपन से ही सुनते आ रहे हैं कि सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। इस कहावत को कभी भी सकारात्मक हालात को बताने में प्रयोग नहीं किया जाता और हमेशा ही इससे नकारात्मक हालात एवं व्यक्तित्व का ही चरित्र चित्रण किया जाता है। एक ही थैली के चट्टे-बट्टे आज तक ईमानदार, सच्चे, देशभक्त, आदर्शवादी नज़र नहीं आये, वे हमेशा ही चोर, ठग, दगाबाज, बेईमानी से ही लबरेज रहे हैं। देश के वर्तमान हालात में भी हम कुछ ऐसे ही सिस्टम के चट्टे-बट्टों के कारनामे सुन रहे हैं। इनकी तादाद कुछ इस कदर बढ़ गई है कि अब तंत्र के इन चट्टे-बट्टों को भ्रष्ट कहने से बात नहीं बन रही, सारे तंत्र को ही भ्रष्ट कहना पड़ रहा है।

आईपीएल के करोड़ो की घोटालेबाजी से मीडिया भरा पड़ा है और जैसे-जैसे इस घोटाले की परतें उखाड़ी जा रही है हर दिन नये-नये नाम सामने आ रहे हैं। अब तो डर लगा रहता है कि इन उधड़ती परतों में कहीं उस शख्स का भी ज़िक्र ना हो जाये जिसे हम रोलमॉडल माने हुए अब तक पूजते चले आ रहे थे। पिछले पांच सालों में घोटालों और भ्रष्टाचार के लगातार बढ़ते मामलों को सुनते-सुनते अब इसकी आदत कुछ ऐसी हो गई है कि अपने आसपास से भी भ्रष्टतंत्र की सड़ाध महसूस की जा सकती है। आश्चर्य होता है कि देश की सैंतीस प्रतिशत आबादी बड़े आराम से 32 रुपये प्रतिदिन से कम में अपना गुजारा कर लेती है और सत्ता में बैठे मुट्ठीभर लोगों को करोड़ो रुपयों की आय भी कम पड़ जाती है जो अपनी पैसों के लिये जन्मी हवस में ये नये-नये घोटालों को जन्म देते हैं।

अभी पूर्व रेलमंत्री पवन बंसल और विधिमंत्री अश्विनी कुमार की भ्रष्ट करतूतों की आग ठंडी भी नहीं पड़ी थी कि विश्व के सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड के सरदार श्रीनिवासन के कारनामों की फाइल खुलकर सामने आ गई। ऐसा नहीं है कि श्रीनिवासन के घर खाने के लाले पड़ रहे हों जो उन्हें कुछ पैसों के लिए अनर्गल सौदेबाजी करनी पड़े या उस सौदेबाजी में किसी का साथ दें, वे पहले से ही एक बड़े उद्योगपति है लेकिन बावजूद इसके उनका अपने दामाद मयप्पन के क्रियाकलापों से अनभिज्ञ रहना और अपने सर के नीचे हुई इस घोटालेबाजी में आंखें मूंदे खड़े रहने की बात कहना रास नहीं आती।

गत वर्ष अरविंद केजरीवाल और कैग प्रमुख विनोद रॉय ने एक के बाद एक कई धमाके कर सत्ताधीषों की पोलपट्टी खोली थी। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं के साम्राज्य को ध्वस्त होते हमने देखा, कर्नाटक में भ्रष्टाचार के चलते ही सत्तापरिवर्तन हुआ, नितिन गड़करी को भाजपा की कमान से हाथ धोना पड़ा ऐसे न जाने कितने उदाहरण हमारे सामने आये जिसमें हमने सत्ता के कर्णधारों के भ्रष्टाचार की आग में हाथ जलते देखे। बावजूद इसके इन वर्चस्वप्रधान लोगों की पद, प्रतिष्ठा और पैसे के लिए बेहिसाब भूख ख़त्म होने का नाम नहीं ले रही और आये दिन वे अपने ज़मीर को गिरवी रख किसी न किसी भ्रष्ट षड्यंत्र में खुद को बड़े आराम से शामिल कर लेते हैं। आज हमारे लोकतंत्र के हालात बेहद भयानक दिशा की ओर बढ़ रहे हैं। जहां मंत्रिमण्डल के आला हुक्मरान अपने-अपने विभागों में सामाजिक उत्तरदायित्व को भुलाकर पैसा कूटने में मशगूल हैं और विपक्ष भी इसके खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के बजाय न जाने क्यों चुप्पी साधे बैठा है। जिस ऊर्जा के साथ विपक्ष को इन मुद्दों पर स्वर मुखर करना चाहिए वो दिखाई ही नहीं देती। विधायिका की कमीज तो मैली है ही पर हमारी कार्यपालिका और देश के ब्युरोक्रेट्स भी इस भ्रष्टाचार की नाली में अपनी-अपनी सहूलियत के हिसाब से खुद के हाथ धोने में पीछे नहीं हट रहे। वहीं इस सारे तामझाम में न्यायपालिका का धीमा एवं लचर रवैया भी समझ से परे हैं। हालांकि इन सबमें कहीं-कहीं कुछ सुखद अपवाद भी है पर इतने बड़े तंत्र में वे नाकाफी हैं। लोकतंत्र के तीनों स्तंभ अपने कर्तव्यों से विमुख तो नजर आ ही रहे हैं पर इस तंत्र का चौथा स्तंभ भी अपाहिजों सा ही बर्ताव कर रहा है और ऐसा लगता है कि मीडिया भी इन हुक्मरानों द्वारा संचालित है। कई मीडिया समूहों और आला मीडियाकर्मियों का भ्रष्ट करतूतों में नाम उछलना पत्रकारिता की गरिमा को मटियामेट करने के लिये काफी है। आखिर ऐसे परिवेश में कौन भ्रष्टतंत्र के खिलाफ आवाज उठायेगा? अंधकार के घनघोर साये में किससे रोशनी की उम्मीद की जाये, जबकि सभी सद्चरित्र व शिष्टता का दीपक बुझाने पर आमादा हैं।

सत्ता के गलियारों से लेकर खेल के मैदानों तक में जो एक बात सर्वसामान्य ढंग से उजागर हो रही है वो है लोगों की निरंतर गिरती सांस्कृतिक अस्मिता और आकांक्षाओं की बेतहाशा बढ़ती आग में मूल्यों का राख हो जाना। संस्कृति की नियंत्रण शक्तियां पूर्णतः क्षीण हो चुकी है और सारा समाज ही दिग्भ्रमित या अन्य निर्देशित होता जा रहा है। यही वजह है कि अब तो अपने साये पर भी विश्वास करने का मन नहीं होता। उंचे पदों पर आसीन सत्ता के इन हुक्मरानों का इन दुर्दांत घोटालों में शामिल होना हमारे देश की संपूर्ण बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिन्ह लगाता है साथ ही ये हमारे तथाकथित आदर्शवादी शिक्षातंत्र पर भी तमाचा है क्योंकि ये तमाम दिग्गज हुक्मरान हमारे देश के बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं और उच्च शिक्षित सोसायटी से आये हुए हैं। मूल्यों की स्थापना में हमारी शिक्षा पूरी तरह से असफल हो चुकी है और इस शिक्षातंत्र से डॉक्टर, इंजीनियर, आईएस, नेता, अभिनेता सब निकल रहे हैं पर एक अदद इंसान को पैदा करने में हमारा शिक्षातंत्र पंगू हो चुका है। वैसे भी सभ्यता के जन्म से लेकर हमारा ये इतिहास रहा है कि अजब-गजब भारत को कभी भी किसी अनपढ़, लाचार, गंवार इंसान ने नहीं लूटा। इसकी अस्मिता पर हमला करने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी और सक्षम हुक्मरान लोग ही रहे हैं।

सब कुछ विज्ञापन और प्रसार केन्द्रित हो गया है हम वही मान रहे हैं जो हमें दिखाया जा रहा है नाकि वो जो असल में है। तंत्र की लचर पड़ी दीवारों पर समृद्धि का डिस्टेमपर पोतकर आदर्शवाद का भ्रम निर्मित किया जा रहा है और उसी दिखाई दे रहे भ्रम को सच मानकर हम आदर्श कल के सपने बुन रहे हैं। वक्त के साथ सत्ता बदल जाती है, व्यक्ति बदल जाता है, नये हुक्मरान आ जाते हैं पर हालात बदलने का नाम ही नही लेते। हर पांच साल बाद एक उम्मीद के साथ आम आदमी वोट देकर अपने कल के बदलने का सपना देखता है पर सत्ता की काली कोठरी में प्रविष्ट हुए उजले व्यक्ति को फिर उसी कालिमा में लिपटते हुए देखता है क्योंकि सभी उस एक ही थैली के चट्टे-बट्टे जो हैं। ये बड़े उत्साह और जोश के साथ अपने गम को भुलाने के लिये खेलों को देखता है पर यहां भी उस बेचारे को ठग लिया जाता है क्योंकि जिस खेल को अप्रत्याशित और हुनरमंदों का खेल मानकर वो तालियां पीट रहा था वो पहले से ही चंद पैसे वालों की उंगलियों पर नाच रहा है जहां सबकुछ फिक्स है।

ये विज्ञापन और प्रसार की शक्तियां हमारी मानसिकता को ही घात पहुंचा रही हैं जिनमें वशीकरण और सम्मोहन की अद्भुत शक्ति है। हम इनके वशीभूत होकर अपनी उत्पादकता जहां नष्ट कर रहे हैं वहीं हमार स्वतंत्र विचारशक्ति भी शून्य हो रही है। ये पैसों के बड़े-बड़े घोटाले सिर्फ आर्थिक स्तर पर ही चोट नहीं पहुंचाते बल्कि ये वैचारिक और भावनात्मक स्तर पर भी कड़ा प्रहार करने वाले हैं। प्रसार के इस बहाव में संस्कृति का फैलाव हो रहा है, सपनों को पंख लग रहे हैं, इच्छाओं की दाह प्रबल हो रही है लेकिन प्रश्न है कि आखिर इस फैलाव का परिणाम क्या होगा? हमारे सीमित संसाधनों का होने वाला ये अपव्यय घोर चिंता का विषय है।

भौतिक विकास की आंधी में होने वाले हमारी संस्कृति के इस ह्रास के चलते हम लक्ष्यभ्रम से पीड़ित हो चुके हैं। हम विकास के विराट लक्ष्यों से पीछे हट रहे हैं और झुठी तुष्टि के तात्कालिक लक्ष्यों का ही पीछा कर रहे हैं। मर्यादाएं टूट रही हैं, नैतिक मानदंड ढीले पड़ रहे हैं। व्यक्ति-केन्द्रिकता बढ़ रही है, स्वार्थ परमार्थ पर हावी हो रहा है और भोग की आकांक्षाऐं आसमान छू रही हैं। ये अंधाधुंध दौड़ न जाने कहाँ जाकर रुकेगी?

बहरहाल, 2जी, सीजी, कोल आवंटन, रेलवे से लेकर क्रिकेट तक के ये तमाम घोटाले न सिर्फ सत्ता को बल्कि देश की तमाम जनता को एक आत्ममंथन के लिये मजबूर कर रही है कि हम माया की इस झूठी चमक में किस कदर सम्मोहित हैं? और अपने इन भौतिक हितों को साधने के अलावा क्या हमारा कोई और महान् उद्देश्य है या नहीं? कहीं ऐसा तो नहीं कि ईमानदारी, सच्चाई, आदर्शवाद और संस्कारों की बातें आज सिर्फ किताबों में ही सिमट कर रह गई हैं? हमारा अपना व्यक्तित्व ही आज हमें मूंह चिढ़ाने का काम कर रहा है क्योंकि हैं तो हम सब भी इस एक ही भ्रष्टतंत्र के चट्टे-बट्टे।

4 comments:

  1. सच एक थैली में शायद सकारात्मकता समाती ही नहीं....
    चट्टे-बट्टे बुरे और भ्रष्ट ही होते हैं :-)

    सार्थक लेखन.
    अनु

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  2. क्योंकि हैं तो हम सब भी इस एक ही भ्रष्टतंत्र के चट्टे-बट्टे।,,,

    RECENT POST: जिन्दगी,

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  3. राजनीति गतिमान है,
    स्थिरता अपमान है।

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  4. राजनीति के थैले में ईमानदार समाता ही नहीं ... चट्टे बट्टे बिना कहाँ काम हो पाता है .... सार्थक लेख

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