Wednesday, August 29, 2012

क्या सच में बातों से ज़िंदगी नहीं चलती....???

हिन्दुस्तानी फ़िल्मों, साहित्य और कई बार घरों की चारदीवारी के अंदर भी अक्सर एक संवाद सुनने को मिलता है..."बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। ज़िंदगी अपने आप में ही एक बड़ा संगीन मुद्दा है और ये कैसे चलती है इस प्रश्न का जबाब खोजने में सैंकड़ो दर्शन, धर्म, ग्रंथ, पुराणों का जन्म हो गया...और इन तमाम चीजों से कई तरह के विवादों का ज़न्म हो गया, पर आज तक इस प्रश्न के एक सार्वभौमिक जबाब का जन्म नहीं हो पाया कि ज़िन्दगी कैसे चलती है? 

बहरहाल, भले इस बात का पता न चला हो कि ज़िन्दगी कैसे चलती है पर इस सार्वभौमिक बात को सब ही कहते मिल जाते हैं कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"। गर बातें नहीं है तो स्वाभाविक तौर पर ख़ामोशी होगी तो सवाल खड़ा होता है कि क्या ख़ामोशी से ज़िन्दगी चलती है ? जबाब मिलना मुश्किल है। कुछ और जमाने के प्रसिद्ध संवाद है- 'ज़िंदगी तो भैया पैसों से चलती है' या फिर 'प्यार से ज़िंदगी चलती है' या 'रिश्तों का नाम ज़िंदगी है'...सब बड़ा गड्डमगड्ड है। ज़िंदगी...ज़िंदगी...जिंदगी...कमबख़्त एक ऐसा शब्द है ये, जिस शब्द को शुरुआत में या मुख्य केन्द्र में लेकर हजारों शायरियां, गज़लें, कविताएं और फ़िल्मी गीतों का निर्माण हुआ है...इस ब्लॉग जगत पे भी कम से कम सौ-दो सौ ब्लॉग होंगें जिन्होंने अपने ब्लॉग में ज़िंदगी शब्द का इस्तेमाल किया होगा...हर कोई ज़िंदगी की पड़ताल कर रहा है और सब अपनी-अपनी राग आलाप रहे हैं कि ज़िंदगी ऐसे चलती है और ऐसे नहीं चलती है। अपने लेख को आगे बढ़ाने से पहले मैं आपको बता दूं कि मैं अपने इस लेख में ज़िंदगी के संबंध में कोई नई रिसर्च प्रस्तुत करने नहीं जा रहा...दरअसल आज इस शब्द पे एक खुन्नस सी आ रही थी बस इसलिए अपने दिल की भड़ास ज़िंदगी पर...माफ कीजिए ज़िंदगी शब्द पर निकाल रहा हूं।

खैर फिलहाल हमारा मुद्दा है कि क्या बातों से ज़िंदगी नहीं चलती...प्रसिद्ध संचार विशेषज्ञ डेविड बर्लो का कहना है कि मानव अपने जाग्रत समय में से सत्तर फीसदी समय का प्रयोग शाब्दिक संचार के साथ करता है। इसमें वो बोलना-सुनना, पढ़ना-लिखना आदि काम करता है। सीधा सा मतलब है वो अपना समय किसी न किसी तरह बातों के साथ बिताता है और ये सत्तर फीसदी समय तब गिना गया है जबकि इसमें सिर्फ शाब्दिक संचार को शामिल किया गया है गर अशाब्दिक संचार को भी शामिल करें तो ये गणना सौ फीसदी हो जाती है..और दिल में घुमड़ने वाली वे लाखों बचैनियां, कसमसाहटें, परेशानियां, जज़्बात और असंख्यात विचार जो किसी न किसी तरह बातों से ही जन्में है और खुद को शब्द देने के लिए मारे-मारे फिर रहे हैं..उन्हें हम आखिर कैसे बातों से अलग कर सकते है। लेकिन इन बातों को थामें फिर भी जिंदगी चल रही है...और यही ज़िंदगी की सबसे अच्छी बात है कि वो चलती रहती है और शायद यही सबसे बुरी बात भी।

संसद में सैंकड़ो योजनाएं बन रही है, अन्ना हजारे, बाबा रामदेव से लेकर विपक्ष तक सरकार के खिलाफ आंदोलन कर रहे हैं..रैलियां निकल रही हैं...बीस चैनलों पर दो सौ बाबा इंसान को मुक्ति का पाठ पढ़ा रहे हैं...लाखों स्कूल-कॉलेज पढ़ा-पढ़ाकर समाज में साक्षर बेरोजगारों की फौज खड़ी कर रहे हैं...कई बड़े बिजनस प्रोजेक्ट तैयार हो रहे हैं...एक्टर-क्रिकेटर-स्मगलर सबकी कांफ्रेंस हो रही है..ऑफिस में, घर में, सड़क पर सब जगह मीटिंग्स का दौर चालु है...ग्लोबल वार्मिंग, पर्यावरण संरक्षण, से लेकर ग्लोबलाइजेशन जैसी बड़ी-बड़ी समस्याओं से निपटने के सम्मेलन आयोजित हो रहे हैं..शादी-व्याह, जन्म-मरण और दसियों त्यौहारों का सेलीब्रेशन या कोई न कोई उत्सव हो रहा है..फ़िल्मों, अखबारों, विज्ञापनों, रास्तों पर चस्पा पोस्टरों, किताबों से लेकर शहर के नुक्कड़ो, गांव की चौपालों में कुछ न कुछ प्रसारित, प्रचारित किया जा रहा है....अरे भैया ये सब क्या है ? बातें...बातें...और सिर्फ बातें। और इन सबके साथ कालीन के नीचे छुपी-थकी-हारी, वेवश, फ्रस्टयाई, इगनोर की हुई, बेचारी ज़िंदगी चल रही है।

एक घरेलु हिंसा के खिलाफ विज्ञापन टीवी पर आया करता था जिसके अंत में संदेश दिया जाता था-"चुप्पी तोड़ो"। एक अन्य सेलफोन कंपनी का विज्ञापन था जिसका स्लोगन था- "बात करने से ही बात बनती है" क्यों..आखिर क्यों चुप्पी या ख़ामोशी तोड़ने की बात की जा रही है जबकि बातों से कहां जिंदगी चलती है..?? अक्सर हम दुनिया में ऐसे लोगों को भी देखते हैं जो चुप है या हालतों, समाजों या रिवाजों ने उन्हें ख़ामोश बना दिया है ऐसे वो तमाम लोग हासिए पर फेंक दिए जाते हैं...नाम-शोहरत, वाहवाहियां उसे ही नसीब हो रही हैं जो बोलना जानता है...वही अपने हक, ज़माने से ले पाता है जिसे कहना आता है...सर्वत्र बोलने वाले ही तो अपना काम निकाल पा रहे हैं या कहें कि तथाकथित 'ढंग की ज़िंदगी' जी पा रहे हैं। फिर क्यों आखिर ये जुमला बोला जाता है कि "बातों से ज़िंदगी नहीं चलती"।

एक डॉक्टर की दवा से ज्यादा कई बार रोगी को उसके दिए दिलासे काम करते हैं..किसी का साथ निभाने का वादा दिल को कितना संबल देता है..भगवान के दर पर प्रार्थना कर दिल को कितना सुकुन मिलता है...प्यार का इज़हार-इकरार कितना रुमानी होता है...उत्सव के गीत, मुस्काते शब्द, मां की लोरियां, मजाक-मस्ती, दोस्तों के जोक्स ये सब क्या है....महज बातें ही तो है लेकिन ये बातें वो काम कर जाती है जो कि बड़ी-बड़ी चीजें नहीं कर पाती...फिर आखिर कैसे बातों से ज़िंदगी नहीं चलती???

अंत में उपकार फ़िल्म का इक गीत याद आ रहा है-"कोई किसी का नहीं ये झूठे, नाते हैं नातों का क्या..कसमें-वादे प्यार-वफा सब, बातें हैं बातों क्या " और तो आप पूरा गाना खुद सुन लीजिएगा, ये सारी 'बातों और ज़िंदगी' का झमेला अपने तो पल्ले नहीं पड़ता। भगवान और इस जमाने के बुद्धिजीवी जाने की ज़िंदगी कैसे चलती है..अपन को तो बस इत्ती-सी बात समझ आती है- ज़िंदगी, ज़िंदगी से चलती है..कभी हंसती है तो कभी रोती...और जो नहीं चलती, वो ज़िंदगी नहीं होती।

Friday, August 17, 2012

इक्कीसवी सदी की नारी और महिलासशक्तिकरण के छलावे

देश की स्वतंत्रता 65 वर्ष की हो चुकी है...काफी कुछ बदला पर कुछ चीजें जस की तस की है। उन्हीं में से एक है आज भी महिलाओं की स्थिति, महिलाओं के प्रति पुरुष की सोच। यकीनन आज के दौर में ये बात करना बड़ा अजीब लगता है जबकि आज जहां महिलाएं अंतरिक्ष में पहुंच रही हैं, ओलंपिक में मेडल जीत रही है, राजनीति और सिविल सर्विसेस में नाम कमा रही हैं।

ये सच हैं कि आज सतीप्रथा, अशिक्षा, बेमेल विवाह जैसे मामले सुनने में नहीं आते। महिलाओं के प्रेम संबंधों, अंतर्जातीय विवाह जैसी चीजों को समाज का कुछ समृद्ध और शिक्षित वर्ग दकियानूस नज़रों से नहीं देखता...लेकिन फ़िर भी पुरुष की तथाकथित मर्दाना सोच आज भी उसे ज़िस्म से ऊपर और यौन संतुष्टि से परे मानने को तैयार नहीं है। निश्चित तौर पर समाज में एक ऐसा भी पुरुष वर्ग है जो महिलाओं को आदर, सम्मान की नज़र से देखता है पर उस वर्ग की तादाद बहुत कम हैं। को-एड एजुकेशन से शिक्षित होती, मल्टीनेशनल कंपनी में काम करती, आगे बढ़ती महिला पुरुष के साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़ती दिख रही है... लेकिन क्या वाकई में ऐसा है? क्या सच में आज महिला और पुरुष एक ज़मीन पर खड़े हैं? इन प्रश्नों पर थोड़ी गहराई में जाकर विचार करें तो हमें समझ आए कि महिलासशक्तिकरण शब्द कितना बड़ा छलावा है।

हर दिन बसों, ट्रेनों और अन्य पब्लिक ट्रांसपोर्ट के साधनों में अनचाही छूअन से गुज़रती महिला.. कॉलेज, ऑफिस और सड़कों पर महिला के बदन का पोस्टमार्टम करती पुरुष की निगाहें...तीखे, अनचाहे कानों में पड़ते शब्दवाण...अश्लील एसएमएस, कमेंट्स और जोक्स को सहती नारी जब रात में नींद लेने जाती होगी तो उस छुअन, उन निगाहों और शब्दों के सांपों को अपने बदन में लिपटता हुआ महसूस करती होगी...और ये वो सांप है जिसका ज़हर बिना डसे तड़प पैदा करता है।

किसी नौकरी में ऊंचे पद पर आसीन महिला के ऊपर भी उस ऑफिस के निचले दर्जे के कर्मचारी द्विअर्थी जोक्स मारने से परहेज़ नहीं करते..उन पुरुषों की निगाहें अपनी बॉस को भी पहले छद्म निगाहों से देखती है फिर उसे अपना बॉस मानती है। पुरुष मानसिकता आज भी महिला पर शासन जमाने को अपना हक़ समझती है...महिला से स्वयं का शासित होना उसे बर्दाश्त नहीं। 

आज अपने करियर में एक मुकाम बनाने की चाह रखने वाली महिला को किन मानसिक प्रताड़नाओं से गुज़रना पड़ता है ये शायद सिर्फ वही जानती है...और अगर अत्यधिक महत्वकांक्षी नारी हो तो उसे दलदल में उतरने से गुरेज़ नहीं। ऊंचे महकमों पे तैनात आला अफसरों की ज़िस्मानी भूख मिटाने का भोजन नारी बनती है...जहां उसे नाम, शोहरत, पैसा सब कुछ तो मिलता है पर नारीत्व ही समाप्त हो जाता है। कुछ महिलासशक्तिकरण के ठेकेदार नारी के इस कृत्य की वकालत करते पाए जाते हैं...उनके द्वारा स्त्री के कई लोगों से संबंध, विवाहेतर संबंध रखना आदि भी उदारवादी नज़रों से देखा जाता है, इसे वे महिला की प्रगतिवादी सोच कहते हैं। आश्चर्य होता है कि चारित्रिक पतन को कैसे महिलासशक्तिकरण का पर्याय माना जा सकता है और ख़ास तौर पर उस देश में जहां दुर्गा, सरस्वती और सीता की पूजा होती है। महिलासशक्तिकरण और महिलाविकास का राग आलापने वाले ये महानुभव..ऐसे विचार प्रगट कर अपनी हवस में आने वाले राह के रोड़ो को साफ करने की मंशा रखते हैं... और इनकी दिली तमन्ना यही होती है कि महिला की सोच इसी तरह तथाकथित प्रगतिवादी बने। गंदगी साफ करने के लिए कीचड़ में उतरना ज़रुरी होता है पर कीचड़ खाकर गंदगी साफ करना समझदारी नहीं है। महिला का सबसे बड़ा गहना उसका चरित्र है उस गहने को बेंचकर महिलासशक्तिकरण पाना, बहुत महंगा सौदा है।

अफसोस, कि भले सरकार और हमारी शिक्षा प्रणाली आज महिला को समाज की मुख्यधारा में लाने के जी-तोड़ जतन कर रही है पर पुरुष मानसिकता को बदलने में सब नाकाम है..और इस पुरुष वर्चस्व प्रधान समाज में, घर के बाहर की बात तो रहने ही दो...घर-परिवार के अंदर ही महिला इस पुरुष मानसिकता का शिकार है जहां उसे अपनी पसंद, अपनी इच्छाओं, जिजीविषाओं का गला हरक्षण घोंटना पड़ता है। शादी से पहले तक वह परिवार में बोझ है और घर की इज़्जत का जिम्मा भी बेचारी इस अबला पर है और शादी के बाद वो एक भोग्या है और यहां भी घर की इज़्जत की ठेकेदार ये अबला है...पर आश्चर्य, जिस पर घर की इज्जत टिकी है उसकी ही घर में इज्जत नहीं है। इसी पुरुष मानसिकता की देन है कई छुपे हुए गहन अपराध..यथा-भ्रुणहत्या, दहेज, महिलाउत्पीड़न, घरेलू हिंसा आदि।

हमारा सिनेमा, विज्ञापन, अखबार और तमाम मीडिया महिला को एक वस्तु की तरह ही पेश करते हैं..हर जगह नारी लुभाने की एक वस्तु है और मार्केटिंग का अहम् ज़रिया। पुरुष मानसिकता इस क़दर समाज में घुल गई है कि महिला भी आज इस मानसिकता के प्रति सकारात्मक सोच रखने लगी है...उसे खुद के इस्तेमाल होने से गुरेज़ नहीं...और अपने भौंडे प्रदर्शन को वो खुद की तरक्की समझ बैठी है। आज उसके मूंह पे भी पुरुषों की भांति गाली है, जेब में हथियार है, चाल में ऐंठन हैं और ये सारी चीजें उसके लिए महिलासशक्तिकरण का प्रतीक है...पर इन सारी क्रियाओं में नारी कहां है? पुरुष और नारी दोनों का अपना अलग स्वतंत्र व्यक्तित्व है, अपना ही संसार है और इन दोनों के स्वतंत्र व्यक्तित्व से ही संतुलन है। नारी खुद में पुरुष के गुण समाहित करके अगर सोचे कि वो सशक्त हो गई है तो ये एक भूल है...और वो भी उन गुणों को जो पुरुष में भी होना अच्छा नहीं है। नारी की अस्मिता उसकी कोमलता, शर्म, प्रेम, करुणा, ममता से जानी जाती है इन गुणों का ह्रास होना भला कैसा महिलासशक्तिकरण है। 

खैर, भले एकतरफ महिलासशक्तिकरण के लिए हमारा तंत्र अपनी पीठ थपथपाता रहे..पर आए दिन भंवरीदेवी, गीतिका जैसी महिलाओं के साथ घटी घटनाएं हमारे तंत्र को आइना दिखा देती है...और इन घटनाओं में शुमार हमारे कानून और राजनीति के ठेकेदारों को भी उनकी गिरेबान में झांकने पे मजबूर कर देती है। इन सब चीजों से एक बात समझ में आती है कि महिलासशक्तिकरण, कभी भी महिला की सोच बदलने से नहीं आ सकती...महिलासशक्तिकरण के लिए पुरुष की सोच बदलना ज़रुरी है। ये ठीक उसी तरह है कि अपराध का जड़ से सफाया, पुलिस के कदमों पर नहीं...अपराधीयों के कदमों पर निर्भर है।