Wednesday, December 22, 2010

कांच की बरनी और दो कप चाय


जीवन में जब सबकुछ जल्दी-२ करने की इच्छा होने लगती है। सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है..और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ने लगे हैं...उस समय ये बोध कथा "कांच की बरनी और दो कप चाय " याद आती है-
दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज उन्हें जिन्दगी का एक ख़ूबसूरत पाठ पढ़ाने जा रहे हैं। उन्होंने अपने साथ ली एक कांच की बरनी (जार) टेबल पे रखी और उसमे टेनिस की गेंद तब तक डालते रहे जब तक उस जार में एक भी गेंद के समा सकने की जगह नहीं बची। फिर उन्होंने छात्रों से पूछा की क्या बरनी भर गई?
आवाज आई- हाँ!!
फिर प्रोफ़ेसर साहब ने कुछ छोटे-२ कंकर उस बरनी में भरने शुरू किये...और वे कंकर भी बरनी में जहाँ-जहाँ जगह थी वहां समा गए। प्रो. साहब ने फिर पुछा क्या बरनी भर गई?
छात्रों की आवाज आई- हाँ!!
अब प्रो.साहब ने उस बरनी में रेत भरना शुरू किया...और देखते ही देखते वो रेत भी उस बरनी में समा गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे। प्रो.साहब ने फिर पुछा-अब तो बरनी भर गई ना?
इस बार सारे छात्रों की एक स्वर में आवाज आई- हाँ अब भर गई!!
प्रो.साहब ने टेबल के नीचे से २ कप निकालकर उसमे स्थित चाय को बरनी में उड़ेल दिया..बरनी में वो चाय भी जगह पा गई....
विद्यार्थी भौचक्के से देखते रहे!!!
अब प्रो.साहब ने समझाना शुरू किया- "इस कांच की बरनी को तुम अपनी जिन्दगी समझो...टेनिस की गेंदे सबसे महत्त्वपूर्ण भाग मतलब भगवान, परिवार, रिश्ते-नाते, स्वास्थ्य, मित्र, शौक वगैरा। छोटे कंकर मतलब नौकरी, कार, बड़ा मकान या अन्य विलासिता का सामान...और रेत का मतलब और भी छोटी-मोटी बेकार सी बातें, झगडे, मन-मुटाव वगैरा।
अब यदि तुमने रेत को पहले जार में भर दिया तो उसमे टेनिस की गेंद और कंकरों के लिए जगह नहीं रह जाती, यदि पहले कंकर ही कंकर भर दिए होते तो गेंदों के लिए जगह नहीं बचती, हाँ सिर्फ रेत जरुर भरी जा सकती।
ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है यदि तुम छोटी-२ बातों के पीछे पड़े रहोगे और अपनी उर्जा और समय उसमे नष्ट करोगे तो जीवन की मुख्य बातों के लिए जगह नहीं रह जाती। मन के सुख के लिए क्या जरुरी है ये तुम्हे तय करना है।
धर्म-अध्यात्म में समय दो, परिवार के साथ वक़्त बिताओ, व्यसन मुक्त रहकर स्वास्थ्य पर ध्यान दो कहने का मतलब टेनिस की गेंदों की परवाह करो। बाकि सब तो रेत और कंकर हैं....
इसी बीच एक छात्र खड़ा हो बोला की सर लेकिन आपने ये नहीं बताया कि 'चाय के दो कप क्या हैं?'
प्रोफ़ेसर मुस्कुराये और बोले मैं सोच ही रहा था कि किसी ने अब तक ये प्रश्न क्यूँ नहीं पूछा.....इसका उत्तर ये है कि जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट क्यूँ ना लगे लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा बचा कर रखना चाहिए.........
क्यूंकि आगे बढ़ने की चाह में करीबी रिश्तों को भुला देना समझदारी नहीं है...करीबी मित्र के साथ बिताये चंद लम्हों का सुख इस चराचर जगत का उत्तम आनंद है...इस आनंद के लिए वक़्त बचाए रखिये................

Tuesday, December 21, 2010

इक्कीसवी सदी का पहला दशक और बालीवुड


२०१० के ख़त्म होने के साथ ही इक्कीसवी सदी का पहला दशक हमसे विदा हो जाएगा। यूँ तो गुजरा वक़्त दोबारा लौट के नहीं आता लेकिन उस गुजिश्ता दौर से हम कई चीजें सीखकर आने वाले कल में नए ढंग से कदम रख सकते हैं...गोयाकि आत्ममंथन नयी संभावनाओं के निर्माण में सहायक साबित होता है...बहरहाल

बात यहाँ हिंदी सिनेमा के सन्दर्भ में करना है...बीते कई दशकों की तरह इस दशक में भी हमारे हिंदी सिनेमा की सफलता का प्रतिशत तकरीबन पांच ही रहा। लेकिन यही पांच प्रतिशत कामयाबी नए लोगों और विभिन्न कार्पोरेट सेक्टर्स को फिल्म निर्माण के लिए ललचा रही है... और इसके चलते ही आज तकरीबन १०० वर्ष बाद भी भारतीय सिनेमा अपनी खास पहचान बनाये हुए है।

बीते दशक पे गौर किया जाय तो इस दशक में हम एक नए तरह के सिनेमा से रूबरू हुए, जो न तो पारम्परिक व्यावसायिक सिनेमा है नाही ये सामानांतर सिनेमा की तर्ज का है...ये अपने ही तरह का नया सिनेमा है जिसे विशेषज्ञ न्यूएज्ड सिनेमा कहते हैं। ये सिनेमा भी आज की युवा पीढ़ी की तरह सीधी-सपाट, खुली बातें करने वाला असल मानवीय चित्रण करता है...जहाँ मानव को उसकी खूबियों और कमजोरियों के साथ-साथ प्रस्तुत किया जाता है। इन फिल्मों के निर्देशक भी आज की पीढ़ी के ही है जो युवामन और आज के हालातों से भली भांति परिचित हैं। फरहान अख्तर, इम्तियाज अली, अब्बास टायरवाला, अयान मुखर्जी, कुनाल कोहली इसी श्रेणी के चर्चित नाम हैं।

बीते दशक में मल्टीप्लेक्स संस्कृति के फलने-फूलने के कारण नए विषयों पर बनी कम बजट वाली फिल्मो को भी दर्शक नसीब हुए...और इन फिल्मों को विश्व स्तर पर सराहना मिली। खोसला का घोसला, भेजा फ्राई, देव डी, उडान, इकबाल जैसी फिल्मो ने मुख्य धारा के सिनेमा को चुनौती दी। फलतः बड़े बैनर और निर्देशकों ने इस तरह की फिल्मों में अपने हाथ आजमाए।

लेकिन इन कुछ फिल्मो की कामयाबीयों को छोड़ दे और सांगोपांग आकलन करे तो इस दशक में भी हमारा सिनेमा हमेशा की तरह चुनिन्दा सितारों के इर्द-गिर्द घूमता रहा। जिस कारण अच्छे लेखको और निर्देशकों को सितारा केन्द्रित होकर काम करना पड़ा। सीमित प्रतिभा द्वारा संचालित इस उद्योग ने नयी संभावनाओं को पनपने का अवसर नहीं दिया। इस कारण जमकर पिष्टपेषण हुआ मतलब पुरानी फिल्मों के रीमेक बने और सफल व्यावसायिक सिनेमा को फार्मूले की तरह प्रयोग कर सीक्वल बनाये गए। नए विषयों को अकाल बना रहा। धूम, हेरा-फेरी, गोलमाल इसी का नतीजा रही। इस श्रृंखला में 'मुन्ना भाई सीरिज' अपवाद रही। जो सीक्वल होते हुए भी उम्दा अभिव्यक्ति थी और दोनों फिल्मे गुणवत्तापरक थी।

सुभाष घई, राजकुमार संतोषी, डेविड धवन, महेश भट्ट जैसे निर्देशकों की जगह नए निर्देशकों ने अपने कदम जमाये। लगान, ब्लेक, दिल चाहता है, रंग दे बसंती, ३ इडियट्स जैसी फिल्मों से आशुतोष गोवारिकर, संजय लीला भंसाली, राजकुमार हिरानी, राकेश ओमप्रकाश मेहरा को ख्याति मिली। संगीतकारों में भी प्रीतम, सलीम-सुलेमान, विशाल-शेखर, साजिद-वाजिद ने अपना खास मुकाम बनाया। विभिन्न म्युजिक रियलिटी शो के जरिये गायकी में भी नयी प्रतिभाओ को अवसर मिले, जिससे उन्होंने भी बालीवुड के इस समंदर में खुद को स्थापित किया...सुनिधि चौहान, श्रेया घोषाल को सितारा हैसियत मिली।

शाहरुख़ खान, सलमान, अक्षय कुमार, अजय देवगन, हृतिक रोशन बुलंदियों पे रहे..लेकिन यदि दशक का सुपरस्टार चुनने की बात हो तो निर्विवाद रूप से आमिर खान श्रेष्ठ साबित होंगे...जिन्होंने लगान, रंग दे बसंती, तारे ज़मीन पर, दिल चाहता है, फ़ना, गजनी, ३ इडियट्स जैसे नगीने इंडस्ट्री को दिए, बस 'मंगल पांडे' इस दशक का उनके लिए हादसा रहा। संजय दत्त, अनिल कपूर लगातार तीसरे दशक में अपनी जगह बचाए रखने में सफल हुए।

भले ही नए निर्देशकों, लेखकों, संगीतकारों, गायकों का आगाज हुआ पर प्रतिष्ठित नाम भी अपनी उपस्थित दर्ज कराते रहे, और अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखा। यश चोपड़ा, श्याम बेनेगल, मणिरत्नम, सूरज बडजात्या, राम गोपाल वर्मा ने क्रमशः वीरजारा, जुबैदा, गुरु, विवाह, सरकार जैसी फिल्मों से खुद को मुख्य धारा में जोड़े रखा। तो वही a.r. रहमान, शंकर-अहसान-लॉय, उदित नारायण, सोनू निगम, लता मंगेशकर, अलका याग्निक जैसी हस्तियाँ अपनी मुस्तैदी के साथ बने रहे।

इस बीच अनुराग कश्यप, अनुराग बासु, मधुर भंडारकर जैसे फिल्मकारों ने लीग से हटकर फिल्म निर्माण कर तारीफें बटोरी...इनकी बनाई ब्लेक-फ्राईडे, मेट्रो, पेज ३ जैसी फिल्मो को काफी सराहना मिली। कई बी ग्रेड फिल्मे भी इस दरमियाँ आई जो अश्लीलता से लबरेज थी और उन्होंने मुख्यधारा के सिनेमा में आने की भरसक कोशिशें भी की। मर्डर, ख्वाहिश, शीशा जैसी कुछेक फिल्मे कमाई भी करने में सफल रही..पर बाद में इन पर ब्रेक लग गया, अब यदि ये बनती भी हैं तो मुख्य धारा से अलग रहकर इनका एक खास लक्षित दर्शक वर्ग होता है। इमरान हाशमी इस तरह की फिल्मो से सितारा बने। इस दशक की हास्य फिल्मो का जिम्मा प्रियदर्शन, अनीस बाजमी जैसे निर्देशकों ने संभाला। परेश रावल, राजपाल यादव, बोमन ईरानी प्रमुख चरित्र अभिनेता बनकर उभरे।

हमेशा की तरह महिला केन्द्रित फिल्मे न के बराबर बनी..लेकिन पुरुष केन्द्रित फिल्मों में नारी की छवि सशक्तता से प्रस्तुत हुई..जिससे बोल्ड होती नारी की महत्वकांक्षाएं खुलकर सामने आई। पिंजर, चमेली, लज्जा, फैशन, सलाम नमस्ते, पेज ३, जब वी मेट, लव आजकल जैसी फिल्मो में नारी अपने अधिकारों के लिए सजग नजर आई। आतंकवाद, नक्सल समस्या, समलैंगिकता, किसान आत्महत्या जैसे विषयों को लेकर फिल्म निर्माण हुआ। अ वेडनेसडे, मुंबई मेरी जान, आमिर, रक्तचरित्र, पीपली लाइव सफल रही।

कई कम बजट की अनापेक्षित फिल्मे सफल रही तो दूसरी ओर कई बड़े निर्देशकों की स्टारकास्ट से सजी महंगी फिल्मे औंधे मूंह गिरी। हालिया रिलीज काइट्स, खेलें हम जी जान से, रावण समेत मंगल पांडे, सांवरिया, रामू की आग, चांदनी चौक २ चाइना, पहेली, बिल्लू, कैश, लन्दन ड्रीम्स, ब्लू जैसी फिल्मे बुरी तरह फ्लॉप हुई...ये लिस्ट बहुत लम्बी है।

खैर, दस वर्षों के सिनेमा जगत पे महज एक लेख के जरिये कुछ नहीं कहा जा सकता। ये तो बस एक सरसरी निगाह दौड़ाने का प्रयास भर था। बस अब आने वाले वर्षों में हमारे सिनेमा से कुछ उम्दा, सार्थक, मनोरंजक फिल्मों की आशा रहेगी। क्योंकि ये सिनेमा हमारे लिए महज मनोरंजन का जरिया नहीं बल्कि हमारे समाज का दर्पण भी है। अंत में इन दस वर्षों की श्रेष्ठ फिल्मों के नाम याद कर विराम लूँगा.. ये श्रेष्ठ फिल्मे मेरी व्यक्तिगत पसंद पे आधारित है इन्हें विशेषज्ञों के मापदंडो पर न तौले-
लगान, दिल चाहता है, कोई मिल गया, मुन्नाभाई m.b.b.s., स्वदेश, रंग दे बसंती, जब वी मेट, तारे जमीन पर, नमस्ते लन्दन, ३ इडियट्स........................


(दैनिक पत्र 'राज एक्सप्रेस' एवं मासिक पत्रिका 'विहान' व 'सूचना साक्षी' में प्रकाशित)

Thursday, December 16, 2010

दर्द जो उभरा है अभी अभी ..जिसको समझा है अभी अभी!!!!

तू होगा समंदर -इ -इश्क किसी और के लिए फ़राज़ ..
हम तो रोज़ तेरे 'साहिल ' से प्यासे गुज़र जाते हैं !!
----------------------------------------

वापसी का सफ़र अब मुमकिन ना होगा “फ़राज़ ”
हम तो निकल चुके हैं आँख से आंसू की तरह !
-------------------------------------------------
यारों की वफाओं का भरोसा किया मैंने ..
फुल्लों मैं छुपाया हुवा खंजर नहीं देखा !!
-------------------------------------------------
इन्हीं रास्तों ने जिन पर कभी तुम थे साथ मेरे ..
मुझे रोक रोक के पूछा तेरा हमसफ़र कहाँ है ??"
-------------------------------------------------
वफ़ा की लाज मैं उसको मना लेता तो अछा था ..
दिल की जंग मैं अक्सर जुदाई जीत जाती है !!
-------------------------------------------------
मैं कभी ना मुस्कुराता जो मुझे ये इल्म होता ..
के हजारों ग़म मिलेंगे मुझे इक ख़ुशी से पहले !!
-------------------------------------------------
वो जिस के नाम की निस्बत से रौशन था वजूद ..
खटक रहा है वही आफताब आँखों में !!
---------------------------------------------------
वो रोज़ परिंदों की मिसाल देता है फ़राज़ ..
साफ़ नहीं कहता मेरा शेहेर छोड़ दे !!
----------------------------------------------

अनजान बन कर मुझसे पूछते है के कैसे हो ,
के मुझे जानता नहीं के मैं तुझी में रहता हूँ ..
--------------------------------------------
निकाल दे फ़राज़ दिल से ख्याल उस का . .
यादें किसी की तकदीर बदला नहीं करती !!
------------------------------------------
दिल की बस्ती भी अजीब बस्ती है ..
लूटने वाले को तरसती है !!
-------------------------------------------
इस तरह गौर से मत देख मेरे हाथ ऐ फ़राज़ ..
इन लकीरों मैं हसरतों के सिवा कुछ भी नहीं !!
------------------------------------------
मुझे भी शौक़ हुवा मोहब्बत का
अघाज़ -इ -मुहब्बत मैं ही जान गिरवी रखनी पड़ी .......
-------------------------------------------
अक्ल हर बार दिखाती थी जले हाथ अपने ..
दिल ने हर बार कहा आग पराई ले ले !!
--------------------------------------------
मुझे तिष्ना.. लबों की याद मे पीने नहीं देती
उठाता जा रहा हूँ .. टूटता जाता है पैमाना ..!!
-----------------------------------------------
शाम होते ही शमा को बुझा देता हूँ ..
इक दिल ही काफी है तेरी याद मैं जलने के लिए !!
--------------------------------------------------
खैरात मैं मिली ख़ुशी मुझे अच्छी नहीं लगती ..
मैं अपने ग़ममें रहता हूँ नवाबो की तरह !!
------------------------------------------------------
फ़राज़ ' अपने सिवा है कौन तेरा ..
तुझे तुझ से जुदा देखा ना जाए !!
------------------------------------------------------
मैं खुद को भूल चुका था मगर जहावाले ..
उदास छोड़ गए आईना दिखाके मुझे !!
--------------------------------------------------
किस तरह उसको मई दरिया की रवानी कर दूं ..
बर्फ है और वो पिघलना भी नहीं चाहता है !!
--------------------------------------------------
तेरे दस्त -इ -सितम का अज्ज़ नही ..
दिल ही काफिर था जिस ने आह ना की !!
-------------------------------------------------------
इसी में इश्क की किस्मत बदल भी सकती थी ..
जो वक़्त बीत गया मुझ को आज़माने में !!
-------------------------------------------------------
निजाम इस मैकदे का इस कदर बिगड़ा है ऐ साकी ..
उसी को जाम मिलता है जिसे पीना नहीं आता !!
-------------------------------------------------------
दिल भी इक जिद पे अड्डा है किसी बचे की तरह
या तो सब कुछ चाहिए , या फिर कुछ भी नहीं .
-------------------------------------------------------
वोह दिल का हमसफ़र है येही पहचान है उसकी ..
जहाँ से भी गुज़रता है सलीका छोड़ जाता है ! !
-------------------------------------------------------
हम ना बदलेंगे वक़्त की रफ़्तार के साथ फ़राज़ ..
हम जब भी मिलेंगे अंदाज़ पुराना होगा !!
-------------------------------------------------------
तुम तक़ल्लुफ़ को भी इखलास समझते हो 'फ़राज़ '..
दोस्त होता नहीं हर हाथ मिलानेवाला !!
-------------------------------------------------------
तू भी दिल को इक लहू की बूंद समझा है 'फ़राज़ '..
आँख गर होती तो कतरे में समंदर देखता !!
-------------------------------------------------------
नर्म जज़्बात , भली बातें , मोहज्ज़ाब लहजे ..
पहली बारिश में ही यह रंग उतर जाते हैं !!
-----------------------------------------------------
कल ख़ुशी थी दामन में , आज सिर्फ दर्द है उनका
वो भी था करम उनका , ये भी है करम उनका
-----------------------------------------------------
ये जो रात दिन की हैं गर्दिशें , यह जो रोज़ -ओ -शब् के हैं सिलसिले
हैं अज़ल से उन के नसीब मैं .. वही दूरियां वही फासले ..
-----------------------------------------------------
तो ये तय है के अब उम्र भर नहीं मिलना
तो फिर ये उम्र ही क्यूँ .. गर तुझ से नहीं मिलना !!
-----------------------------------------------------
किसी बेवफा की खातिर ये जनून फ़राज़ कब तक
जो तुम्हें भुला चूका है उसे तुम भी भूल जाओ
-----------------------------------------------------
थी खबर गर्म के ग़ालिब के उड़ेंगे तुकडे
देखने हम भी गए .. पर तमाशा ना हुआ !!
-------------------------------------------
मसरूफियत ये मेरी गर तुझसे नहीं , तोह जाया है ..
गम हुआ है तुझमे जो उस्सने खुदा को पाया है !!
-----------------------------------------------------
बंदिशें हम को किसी हाल गवारा ही नहीं ..
हम तो वो लोग हैं दीवार को दर करते हैं !
-----------------------------------------------------
रोने से और इश्क में बे -बाक हो गए ..
धोये गए हम ऐसे की बस पाक हो गए
-----------------------------------------------------
ग़ालिब ना कर हुज़ूर में तू बार -बार अर्ज़ ..
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर !!
-----------------------------------------------------
भटके हुए फिरते हैं कई लफ्ज़ जो दिल मैं ..
दुनिया ने दिया वक़्त तो लिक्खेंगे किसी दिन !!
----------------------------------------------------
जो तुम बोलो बिखर जायें , जो तुम चाहो संवर जायें ..
मगर यूं टूटना जुड़ना बुहत तकलीफ देता है
-----------------------------------------------------
कुछ ऐसे हादसे भी ज़िन्दगी में होते हैं 'फ़राज़ '..
के इंसान बच तो जाता है मगर जिंदा नहीं रहता !!
----------------------------------------------------
साभार गृहीत

Monday, December 13, 2010

२०११ क्रिकेट विश्वकप और टीम इंडिया की सम्भावनाओं का संसार


टेस्ट क्रिकेट में नम्बर १ और वनडे क्रिकेट में दूसरे पायदान पे विराजी टीम इण्डिया पूरे जोश और जज्बे के साथ वर्ष २०११ में प्रवेश कर रही है...जहाँ उसे विश्वकप जैसी बड़ी अग्निपरीक्षा से गुजरना है। हालिया आंकड़ो और प्रदर्शन को यदि देखा जाये तो लगता है कि ये टीम इण्डिया २४ साल के वनडे विश्वकप के सूखे को दूर करने का माद्दा रखती है।

ऐसा पहली बार हुआ है कि एक ही स्तर की समान क्षमताओं वाली दो टीमे हमारे पास है। अब हमारे पास कप्तानी का विकल्प है, विकेट कीपिंग का विकल्प है, बल्लेबाजी-गेंदबाजी, ओपनर्स, मिडिल ऑर्डर्स हर चीज के विकल्प है। अब हमारे क्षेत्ररक्षक कैच नहीं टपकाते, नाही हमारे बल्लेबाज शुरूआती झटकों के बाद लड़खड़ाते हैं। इस टीम की ताकत अब महज १-२ खिलाडी नहीं, बल्कि पूरी एकादश अब बहुत कुछ कर गुजरने को बेताब रहती है, तो वही टीम से बाहर बैठी बेंच स्ट्रेंथ भी जरा सा अवसर मिलने पर खुद को साबित करने का मौका नहीं गवाना चाहती।

अब हम सिर्फ घर में ही जीतना नहीं जानते बल्कि हमारे रणबांकुरो में विदेशी ज़मीं पर भी विरोधियों को धूल चटाना आता है। हमारे रिकार्ड्स अब सिर्फ ज़िम्बाब्वे और बंगलादेश जैसी टीमों को हराकर ही बेहतर नहीं होते, अब तो हमने आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका को भी हराना सीख लिया है और सामने यदि न्युजीलेंड जैसी टीम आ जाये तो उसकी तो गर्दन ही कलम कर दी जाती है।

ये सारी चीजें टीम इण्डिया के लिए आने वाले विश्वकप में एक ख़ूबसूरत संभावनाओं का संसार निर्मित कर रही हैं और इन्हें देख लगता है कि इन जोशीले जवानो ने क्रिकेट के भगवान मतलब सचिन तेंदुलकर को उनके इस अंतिम विश्वकप में वर्ल्डकप उपहार में देने की ठान ली है। ये युवा खिलाडी न सिर्फ दिमाग से खेलते हैं और नाही सिर्फ दिल से बल्कि इनके पास दिलोदिमाग का सही संतुलन मौजूद है। इस कारण इनके पास जोश, होश, जूनून और जज्बातों का सही तालमेल विद्यमान है जो इन्हें जहाँ जीतने का साहस देता है।

धोनी के ये धुरंधर गुरु गैरी के मार्गदर्शन में पूरे रुतबे के साथ आगे बढ़ रहे हैं। इन्हें अब सिर्फ जीतना गवारा नहीं है अब ये अधिकार पूर्ण जीत चाहते हैं। यही कारण है कि पहले टेस्ट में आस्ट्रेलिया का सूपड़ा साफ किया फिर वनडे में न्यूजीलेंड का। पिछले २-३ सालो में जो कामयाबी टीम को मिली है वो उससे पहले के १५ सालो में भी नसीब नहीं हुई। इसकी बानगी देखनी है तो इस साल के टेस्ट रिकार्ड पे ही नज़र डाली जा सकती है २०१० में हमने कुल १५ टेस्ट खेले जिनमे ८ जीते और सिर्फ २ हारे। और ये जीत हमने आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, श्रीलंका, न्यूजीलेंड जैसी टीमों को हराके हासिल की। वही वनडे में भी हमने पिछले वर्षों में नेटवेस्ट सीरिज, एशिया कप को जीता तो अफ्रीका, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया को कई बार धूल चटाई।

अब हमें जीतने के लिए सचिन-सहवाग के भरोसे रहना जरुरी नहीं है...अब कोहली, रैना, गंभीर में भी विरोधियो के सर में दर्द पैदा करने का दम है। अब कोई टीम शुरूआती विकेट जल्दी-जल्दी गिराके चैन की साँस नहीं ले सकती अब छठवे-सातवे नंबर तक हमारे पास मेच विनर मौजूद है न्युजीलेंड के खिलाफ हालिया संपन्न सीरिज के चौथे मेच में युसूफ पठान ने छठे नम्बर पे उतरकर भारत की प्रस्तावित हार को जीत में बदला। जब उनकी १२३ रनों की पारी की बदौलत टीम ने ३१६ रनों के पहाड़ जैसे स्कोर को फतह किया। पिछले सालो की टीम इण्डिया पे यदि गौर किया जाये तो इस टीम ने सचिन, सहवाग, द्रविड़, गंभीर, धोनी, युवराज जैसे सीनियर खिलाडियों के बिना भी जीत दर्ज की है और इस टीम की औसत उम्र २५-२६ साल के आसपास रही है। और जब कभी सचिन जैसे सीनियर खिलाडी टीम में खेले तो उन्होंने भी वनडे का पहला डबल लगाकर युवाओं में भरपूर उर्जा का संचार किया।

बहरहाल, वर्ल्डकप का काउंटडाउन शुरू हो चूका है, टीम इण्डिया अफ्रीका के दौरे पे है। वर्ल्डकप से पहले अपनी तैयारियों का जायजा लेने का संभवतः अंतिम मौका है, अफ्रीका के खिलाफ जीत दर्ज कर मनोबल को और ऊपर उठाया जा सकता है, लेकिन ध्यान रहे अति आत्मविश्वास घातक हो सकता है। अपनी सफलताओं के खुमार में कही हम अपनी कमियों को न नज़रन्दाज कर दे। आसमान में उड़ना है लेकिन ज़मीन का दामन थाम के....क्योंकि ऊँचाइयों से गिरने पर चोट भी गहरी लगती है।

GO....INDIA GO.......

(मासिक पत्रिका 'पालिटिकल स्पार्क' और समाचार पत्र 'राज एक्सप्रेस' में भी प्रकाशित)

Wednesday, November 24, 2010

आत्महत्या, मौत की गुजारिश और मृत्यु महोत्सव


सांवरिया के घोर हादसे से उबरकर आखिर संजय लीला भंसाली अपने पुराने फार्म में लौट ही आये...मर्सी किलिंग की पृष्ठभूमि पर बेहतरीन सिनेमा का निर्माण कर जता दिया की जीनियस लड़खड़ा तो सकते हैं पर उन्हें चित नहीं किया जा सकता। मौत की गुजारिश करते एक अपंग सितारे जादुगर की कथा अंततः सिखा जाती है कि हालात चाहे जैसे भी हों but life is good yar....

फिल्म देखते समय समझ नहीं आता कि मजबूरियां जिन्दगी पे हस रही हैं या जिन्दगी मौत को चिड़ा रही है...नायक को मोहब्बत है जिन्दगी से, लेकिन गुजारिश है मौत की...और इसी कारण ये मौत, महज मौत न होकर महोत्सव बन जाती है। मौत की ये गुजारिश आत्महत्या नहीं है क्योंकि नायक किसी से छुपकर जैसे-तैसे मरने का प्रयास नहीं करता, वो बाकायदा कोर्ट से मरने की इजाजत चाहता है। उसने अपनी इसी अपंग अवस्था में रहते हुए जज्बे के साथ जिन्दगी के १२ साल गुजारे हैं..और खूबसूरती से एक रेडियो चेनल का संचालन करते हुए कई अपाहिज, हताश लोगों के लिए प्रेरणा का काम किया है। उसका तो ये मानना है कि जिन्दगी चाहे कितनी भी क्यों न हो...वो १०० ग्राम हो या १०० पौंड, वो खूबसूरत ही होती है........

लेकिन अब उसमे और ताकत नहीं है कि इस घुटन को सह सके...और नाही उसके फिर से वापस पुरानी स्थिति में लौट सकने की उम्मीद है...इन हालातों के बीच अब जिन्दगी नहीं, मौत उसके लिए वरदान बन गयी है...और इसी वरदान को वो समाज और कानून से पाना चाहता है...कथानक का विकास कुछ इस तरह से किया गया है कि सिनेमाहाल में बैठा हर दर्शक इथन (हृतिक रोशन) के मौत की गुजारिश करने लगता है...

नायक की लड़ाई है समाज और हमारी संस्कृति द्वारा थोपी गयी उस अवधारणा से..जो हमें हर हाल में जिन्दा रहने की नसीहत देती है...फिल्म के एक दृश्य में नायक से कहा जाता है कि 'तुम्हे god के द्वारा दी गयी इस जिन्दगी से खेलने का कोई हक नहीं है'...जहाँ नायक का प्रत्युत्तर में कहना कि 'god को हमारी जिन्दगी से खेलने का हक किसने दिया'। समाज की सहानुभूतियाँ नायक के दर्द को न तो कम कर सकती हैं न ही महसूस कर सकती..उसकी जिन्दगी और उसका दर्द उसका अपना है...समाज उसे मजबूरन जीने के लिए विवश नहीं कर सकती...नायक शरीर से अपाहिज होने के चलते मौत की गुजारिश कर रहा है, वो हौसलों से अपाहिज नहीं है...दुनिया के अधिकतर आत्महत्या करने वालों के हौसले अपंग होते हैं...ये मौत की गुजारिश आत्महत्या नहीं है।

भारतीय दर्शन में भी कई जगह इस तरह की मौत के प्रावधान हैं..जैनधर्म में तो विधिवत सल्लेखना के नाम से इसका प्रकरण उद्धृत किया गया है...तत्संबंधी ग्रंथो और साहित्य से इस विषय में जानना चाहिए। फिल्म के कथानक में इन सबके बीच एक प्रेम-कथा भी तैर रही होती है...जो प्रेम भंसाली निर्मित पहले की फिल्मो वाली शैली का ही है...जिस प्रेम में कुछ हासिल करने की शर्त नहीं होती, उसमे तो बस लुटाया जाता है। जिस प्रेम का सुखद अहसास पाने के कारण नहीं देने के कारण है। ताउम्र नायक की सेवा एक नर्स बिना किसी बोझ के करने को तत्पर है..इसके लिए वो अपने पति से तलाक लेती है...ये सेवा बिना प्रेम के नहीं हो सकती। अंततः १२ साल के लम्बे साथ के बाद मरने से एक रात पहले इथन, सोफिया(ऐश्वर्या राय) को शादी के लिए प्रपोज करता है...ये प्रेम कुछ उसी तर्ज का है जो 'हम दिल दे चुके सनम' में एक पति अपनी पत्नी को उसके पुराने प्रेमी को सौपकर प्रदर्शित करना चाहता है...या 'देवदास' में चंद्रमुखी द्वारा प्रदर्शित है जो देवदास को पारो के बारे में जानते हुए भी चाहती है..या फिर इसे हम 'ब्लेक' के उस अध्यापक के प्रयास में देख सकते हैं जो सारा जीवन अपनी अंधी-बहरी और गूंगी शिष्या को जीवन जीने लायक बनाने के लिए करता है। इन सभी में प्रेम है पर हासिल करने की मोह्ताजगी नहीं..और ये आज के सम्भोग केन्द्रित इश्क से परे है...इस प्रेम में तो बस सच्चे दिल से दुआएं निकलती है, और एक silent caring होती है...जो आज की नवसंस्कृति में बढ़ रहे युवा के समझ में नहीं आ सकता, क्योंकि आज प्रेम आदर्श है और सेक्स नवयथार्थ...इस प्रेम में करुणा है, दया है, संवेदना है और इसी के चलते इथन अपने उस प्रतिस्पर्धी जादुगर के पुत्र को अपना कौशल सिखा जाता है जिसने उसे अपंग बनाया था... नफरत के लिए इसमें कोई जगह नहीं...

बहरहाल, एक बेहद गुणवत्तापरक फिल्म है...जो कदाचित कुछ मनचलों को रास न आये, क्योंकि यहाँ हुडदंग नहीं है और न यहाँ शीला की जवानी है..नाही यहाँ मुन्नी बदनाम हुई है। हृतिक और ऐश्वर्या के बेजोड़ अभिनय ने फिल्म को जीवंत बना दिया है..रवि के.चंद्रन की सिनेमेटोग्राफी कमाल की है...सेट डिज़ाइनिंग भंसाली की अन्य फिल्मों की तरह प्रतिष्ठानुरूप है... संगीत अलग से सुनने पर कोई प्रभाव नहीं छोड़ता, लेकिन फिल्म के साथ जुड़कर सुनने पर अद्भुत अहसास कराता है...कुछ दृश्य तो बेमिसाल बन पड़े है, जैसे-'हृतिक द्वारा नाक पर बैठी मक्खी हटाना, छत से टपकने वाले पानी से हृतिक की जद्दोजहद या 'उडी-उडी' गाने पर ऐश्वर्या का नृत्य आदि...

खैर..एक उम्दा पैकेज है...सार्थक सिनेमा के शौक़ीन लोगों को इसे जरूर देखना चाहिए...इस तरह की फिल्मों के कारण ही बालीवुड की प्रतिष्ठा बची हुई है...दबंग, वांटेड और कमबख्त इश्क जैसी फिल्मे पैसा तो कमा के दे सकती है...पर इज्जत नहीं बढ़ा सकती...


(मासिक पत्रिका 'सूचना साक्षी' में प्रकाशित)

Saturday, October 30, 2010

व्यक्ति का सच और सच का सामना


स्टार प्लस पर एक सीरियल प्रसारित हुआ करता था-सच का सामना..जो खासा चर्चा में भी रहा था। इसके पक्ष-विपक्ष में चर्चा करने वाले जहाँ-तहां नुक्कड़-चौराहों पर नज़र आ जाया करते थे। राजनीतिक दहलीज पर भी इस सीरियल के खिलाफ स्वर मुखरित हुए। लेकिन आश्चर्य की बात ये थी की इस कार्यक्रम की निंदा करने वाले भी देर रत अपने बच्चों को सुलाकर इसका मज़ा लूटा करते थे। खैर....बात कुछ और करना है....

इन्सान की दिली ख्वाहिश होती है दूसरे के मन का सच जानने की, लेकिन अपने सच पर वो हमेशा पर्दा डालना चाहता है, क्योंकि हमाम के अन्दर हर इन्सान नंगा है। इन्सान की इसी मनोभावना ने इस सीरियल का संसार तैयार किया था....

मानवमन बीसियों अंतर्विरोधों से होकर गुजरता है और इन अंतर्विरोधों में वह अपने ही अन्दर के सच को नाही जान पाता, उसे अपनी हसरतों, जरूरतों का ही पता नहीं होता, बस ताउम्र यही चीज उसे तडपाती है कि something is actualy missing....

वो समथिंग क्या है ये उसे नहीं पता। एक इन्सान के कई रूप होते हैं वो एक ही जीवन में कई जीवन जीता है। अगले क्षण वो कैसा जीवन जियेगा ये पता नहीं होता। ऐसे में वो कैसे अपना सच जन पाएगा। सच का सामना सीरियल में इन्सान के उस रूप को बेनकाब किया जाता था जिसे समाज, नीति या चरित्र विरुद्ध माना जाता है। लेकिन व्यक्ति का वो चेहरा उसका शाश्वत चेहरा नहीं होता। शायद इसीलिये हम इन्सान के उस रूप से घृणा नहीं कर सकते।

आज का इन्सान ऐसी बहुरूपिया प्रवृत्ति का धारक है कि मंच पर नैतिकता कि दुहाई देता है तो बंद कमरे में नैतिकता का चीरहरण करता है। हर इन्सान को ये पता है कि दूसरे को कैसा जीवन जीना चाहिए पर ये नहीं पता कि खुद को कैसा जीवन जीना चाहिए। सब चाहते हैं बुद्ध, महावीर, गाँधी पैदा हों पर अपने घर में नहीं, पडोसी के घर में। जीवन भर इन्सान अपने नकाब बदलता रहता है इसीलिए किसी शायर ने कहा है-"हर इन्सान में होते हैं बीस-तीस आदमी, जब भी किसी को देखना बार-बार देखना"।

सच का सामना करने के लिए फौलादी जिस्म चाहिए। सच का आकांक्षी इन्सान जब सच से रु-ब-रु होता है तो पैरों तले जमीन खिसक जाती है। इसलिए लोग सच को कडवा कहते हैं। भाई, सच तो अति मधुर है अब यदि लोगों को फरेबी का बुखार होने से मूंह कडवा है तो कोई क्या कर सकता है। यदि जल निश्छल भाव से कंठ में उतरे तो प्यास बुझाता है अब यदि किसी के कान में जाकर वह कष्टकर हो तो इसमें जल का दोष नहीं।

सच की अभिव्यक्ति से ज्यादा जरुरी सच की स्वीकारोक्ति है। सच यदि अभिव्यक्त है तो स्वीकृत हो ये जरुरी नहीं पर यदि स्वीकृत है तो अभिव्यक्त होगा ही होगा।

बहरहाल, 'सच का सामना' सीरियल के सम्बन्ध में मैं कोई राय नहीं रखूँगा। उसका निर्णय आप अपनी रूचि अनुसार लें। दरअसल मीडिया वही दिखाता है जो हम देखना चाहते हैं। इसलिए मीडिया को नैतिकता कि नसीहत देना बेमानी होगी, टीवी का रिमोट हमारे हाथ में हैं। अब यदि आप खुद साउंड कम करके इंग्लिश चेनल देखते हैं तो आप अपनी गिरेबान में झांक कर देखें।

वैसे अच्छा ही है कि सच सबके सामने नहीं है यदि हर इन्सान पूर्णतः प्रकट हो जाये तो सारा आचार-विचार-व्यवहार हिल उठेगा, क्योंकि इंसानी मन-मस्तिष्क में साजिशों का सैलाब हिलोरें ले रहा है उन साजिशों का मंजर कितना भयावह हो सकता है इसका अंदाजा लगाना बहुत मुश्किल है। इस सन्दर्भ को समझने के लिए कमलेश्वर के उपन्यास 'कितने पाकिस्तान' को पढना चाहिए। जहाँ अमूर्त साजिशों के मूर्त होने कि कल्पना की गयी है।

हर विचार को शब्द न मिल पाना कहीं न कहीं बहुत अच्छा है। इन्सान के मैले विचार मन में ही घुमड़कर ख़त्म हो जाते हैं यदि ये प्रगट हो जाए तो पूरा माहौल ही मैला हो जाए। चलिए, बहुत बातें हुई इन बातों को बहुत बढाया जा सकता है पर कम कहा, अधिक समझना, और समझना हो तो ही समझना नहीं तो मेरी बकवास जानकर आप जैसे में मस्त हो वैसे रहना। मूल मुद्दा खुश रहने का है वो ख़ुशी जहाँ से मिले वहाँ से लीजिये। पर ध्यान रहे वह ख़ुशी महज कुछ समय कि नहीं होना चाहिए....तलाश शाश्वत सुख की करना है.......अनंत को खोजना है......

Monday, September 6, 2010

सितारा सिंहासन और दबंग सलमान


फ़िल्मकार प्रीतिश नंदी ने कुछ दिनों पहले एक लेख में लिखा था कि वे जिस बेसब्री से फिल्म 'दबंग' का इंतजार कर रहे हैं ऐसा इंतजार उन्होंने सालो से किसी फिल्म का नहीं किया। कारण-इसके आकर्षक ट्रेलर और सलमानी प्रभाव। ये बात तो तय है कि भले ये फिल्म बॉक्स ऑफिस पे सफलता के झंडे गाढ़े, लेकिन ये खास गुणवत्तापरक फिल्मों में से एक नहीं होगी। पूरी तरह मसाला, एक्शन फिल्म होगी ये सब जानते हुए भी मैं इसे थियेटर में पहले दिन ही देखना चाहता हूँ...कारण वही- इसका सलमानी प्रभाव।

भारतीय हिंदी सिनेमा के पारंपरिक नायक की छवि का निर्वहन करने वाले सलमान इकलौते कलाकार हैं। दर्शक जिनमे अवतारी पुरुष की कल्पना करते हैं। सलमान की शख्सियत कुछ ऐसी भी रही की वे कभी सुपर सितारों की रेस में शामिल नहीं रहे...उन्हें कतई ऐतराज नहीं कि शाहरुख़ बालीवुड के बादशाह बने रहे, आमिर सबसे बुद्धिजीवी कलाकार माने जाये या अक्षय सबसे ज्यादा कमाई करने वाले स्टार कहलाये। इस बिगड़े शहजादे को तो बस दर्शकों के दिल में रहने से मतलब है। और इसका प्रमाण चाहिए तो आप दबंग की ओपनिंग देख लीजियेगा। 70mm के परदे पर जब अकड़ से भरी चाल के साथ ये बिगडैल एंट्री करता है....तो सारा सिनेमा हाल सीटियों और तालियों से गूँज उठता है।

दरअसल सलमान की अपनी ही अलग USP है जिसके कारण वे पिछले २१ सालो से बालीवुड में मजबूती से बने हुए हैं और अगले - साल तक तो कोई उनकी जगह छीनता नहीं दिखता। इसका कारण भी साफ है कि सलमान ने अपनी जगह किसी को रिप्लेस करके नहीं बनाई बल्कि उन्होंने अपना एक अलग ही मुकाम निर्मित किया है....तो जब उन्होंने किसी की जगह नहीं छीनी तो कोई उनकी जगह कैसे छीन सकता है। प्रख्यात फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे सलमान के हिंदी सिनेमा के प्रभाव को दक्षिण के रजनीकांत के प्रभाव के समतुल्य आंकते हैं। दोनों ही पारंपरिक नायक है और दोनों ही 'नेकी कर दरिया में डाल' की तर्ज पर दूसरों का भला करने के लिए जाने जाते हैं।

वैसे ये सलमान के लिए ही मै नहीं कह रहा हूँ बल्कि बालीवुड के सभी ४० पार के सितारों की अपनी ही अलग USP है- जिसके दम पर कोई नया सितारा इनके सिंहासनो को नहीं डिगा पा रहा। शाहरुख़ की अपनी अदाए और जुदा स्टारडम है...आमिर को हर चीज में परफेक्शन पसंद है...अक्षय के सामने कोई भी स्क्रिप्ट लाइए वे स्क्रिप्ट के झोल को अपनी अदाकारी और खिलंदड स्वरुप से दबाकर फिल्म चला ले जाते हैं...अजय के गाम्भीर्य और पुख्ता एक्टिंग का कोई जवाब नहीं। यही कारण है रणवीर, इमरान, शाहिद की यदा-कदा चलने वाली तूफानी हवाओं से इन्हें कुछ फर्क नहीं पड़ता।

सलमान की एक और खाशियत रही कि अपने २१ वर्षीय करियर में उन्होंने अपनी छवि कई बार बदली। 'मैने प्यार किया' का रोमांटिक प्रेम 'हम साथ-साथ हैं' के प्रेम और 'बागबान' के आलोक से अलग है....'हम दिल दे चुके सनम' का समीर 'तेरे नाम' के राधे से अलग है....अब ये 'वांटेड' सलमान 'वीर' बनकर 'दबंग' हो गया है। और आज के 'रंग दे बसंती', ' इडियट्स' और 'जब वी मेट' वाले बुद्धिजीवी सिनेमाई माहौल में अतार्किक 'दबंग' पेश कर धूम मचाने को तैयार हैं।
चलिए इस सलमानी प्रभाव का मजा थियेटर में ही लिया जायेगा....अभी के लिए इतना ही....

Saturday, August 14, 2010

आजाद भारत की गुलाम तस्वीर-"पीपली लाइव"


तेजी से बदलती संस्कृति, मिटती रूढ़ियाँ, नयी-नयी खोजें, बड़ी-बड़ी इमारतें, आलिशान मॉल-मल्टी प्लेक्स, सरपट दौड़ती मेट्रो ट्रेन...और जाने क्या-क्या हमने विकसित कर लिया है स्वतंत्रता की इस ६३वी वर्षगाठ तक पहुँचते-पहुँचते...लेकिन बहुत कुछ है जो अब भी नहीं बदला..शाइनिंग इंडिया विकसित हो रहा है पर पिछड़ा भारत जस का तस है। शिक्षा, रोजगार, औद्योगिकीकरण भारत का जितना बड़ा सच है उतना ही बड़ा सच है गरीबी, अन्धविश्वास, रूढ़िवादिता और तंगी में बढती आत्महत्याएँ। बहरहाल....

बात पीपली लाइव की करना है...मिस्टर परफेक्शनिस्ट की एक और खूबसूरत सौगात। आसमानी उचाईयों को छूने जा रहे हिन्दुस्तान की कडवी तस्वीर को बताती फिल्म...जो सरकार से सवाल करती है कि क्या वाकई हमें आजाद हुए ६३ वर्ष हो चुके हैं। एक गंभीर मुद्दे को हास्य-व्यंग्य से दिखाने का अनुषा रिज़वी का प्रयास सराहनीय है। जिस देश की अर्थव्यवस्था खेती पर ही सर्वाधिक निर्भर है उस देश का किसान ही जब कर्जे के बोझ से दबकर आत्महत्या करेगा तो फिर क्या होगा उस देश का? आजादी के ६३ सालो बाद भी हम एक ऐसा माहौल नहीं बना पाए जहाँ इन्सान सुख से जी सके। इन्सान की जिन्दगी को विलासितापूर्ण बनाने की बात तो दूर उसकी मूलभूत जरूरतों (रोटी-कपडा और मकान) का बंदोबस्त ही नहीं हो पाया है।

तो आखिर इन ६३ वर्षों में क्या किया हमने? ढेरों योजनायें बनाई, कई क्रांतियाँ चलाई, खूब आन्दोलन-प्रदर्शन किये...पर इन सब का लाभ आखिर किसको हुआ? क्या कारण है कि आज भी तकरीबन आधी आबादी गरीबी रेखा के नीचे जिन्दगी बसर कर रही है, क्यों किसान जिन्दगी की जगह मौत को चुन रहे हैं, क्यों करोड़ों ग्रामीण बच्चे अब भी शिक्षा से दूर है, क्यों अब भी भूख से मौतें हो रही है? इन तमाम प्रश्नों के जवाब ये फिल्म सरकार से, हम सबसे मांगती है। आखिर कब हम व्यक्तिगत हितों को भूलकर, भ्रष्टाचार विमुक्त हो राष्ट्रहित के बारे में सोचेंगे? आखिर कब हमारे विकास के मापदंड एक खास वर्ग तक सीमित न रहकर सारे देश को अपने में समाहित करेंगे?

हरिशंकर परसाई, शरद जोशी और श्रीलाल शुक्ल की व्यंग्य रचनाओं में भारत के विरोधाभास और विसंगतियां खूब साफ उभरकर आती हैं और ‘पीपली लाइव’ उसी शैली की सेल्युलाइड पर गढ़ी रचना है। हबीब तनवीर की शैली भी इस फिल्म में नज़र आती है। सरकार और मीडिया में फैली सड़ांध को बखूबी महसूस किया जा सकता है। जनता के दर्द पे ही राजनीति की रोटियां सिक रही है और यही दर्द टीआरपी बड़ा रहा है। सर्वत्र असंवेदनशीलता का माहौल है ऐसे में आखिर किस के सामने इस दर्द की गुहार लगाई जाये। यहाँ तो दर्द कि बिक्री शुरू हो जाती है। त्रासदियों के मेले लगाये जा रहे हैं। दर्द में आकंठ इन्सान के मूत्रत्याग करने तक की ख़बरें बनायीं जा रही हैं। देश और दुनिया की भयावह तस्वीर...जी हाँ हमें आजाद हुए ६३ साल हो चुके हैं।

अनुषा ने पटकथा और फिल्म की पृष्ठभूमि पर अच्छी मेहनत की है। ग्रामीण परिवेश की बारीकियों का खासा ध्यान रखा है। अनुषा के इस प्रयास के लिए प्रसिद्द फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे उन्हें मानद डॉक्टरेट की उपाधि देने की बात कहते हैं जो सही जान पड़ता है। वाकई ये एक फिल्म मात्र न रहकर शोधपत्र बन गई है।

फिल्म का संगीत बेहतरीन है जिसके कुछ गीत "महंगाई डायन" और "चोला माटी के राम" ने तो पहले ही काफी प्रसिद्धि पा ली थी। संवाद भी बड़े चुटीले है जो मध्य प्रदेश के रायसेन-सागर-विदिशा वेल्ट के गाँवो की स्थानीय भाषा में ही जस के तस गढ़े गए हैं...जैसे-'मुंह में दही जम गओ का' या 'अपनों तेल पटा पे धर लए और कढैया तुम्हे दे दए'...गालियों का प्रयोग है जो एक खास वर्ग को नागवार गुजरेगा पर ये उन गाँवो की हकीकत है। हर कलाकार का अभिनय कमाल का है-अम्माजी के किरदार में फारुख ज़फर और धनिया के रोल में शालिनी वत्स आकर्षित करती हैं...रघुवीर यादव अपनी प्रतिष्ठा के अनुरूप हैं।

कुछेक जगह पे फिल्म कमजोर पड़ती दिखाई दी है पर जल्द ही घटनाक्रम का बदलाव उस कमी को पूरा कर देता है। हो सकता है एक खास वर्ग को कुछ विशेष आग्रह के कारण ये फिल्म पसंद न आये लेकिन ओवरआल एक मनोरंजक और संदेशप्रद फिल्म है....जिसे सत्ता में बैठे देश के कर्णधारों को जरुर दिखाया जाना चाहिए....

(मासिक पत्रिका 'विहान' के प्रथम अंक में प्रकाशित)

Thursday, August 5, 2010

जोश-जुनून-जज्बात और जवानी


किसी ने कहा है-"youth is the best time to be rich & the best time to be poor...they are quick in feelings but weak in judgment"...

व्यक्ति के जवानी का दौर एक ऐसी संकरी पगडंडी है जिसके एकतरफ छलछलाते गर्म शोले हैं तो दूसरी ओर अथाह समंदर। एक तरफ भस्म हो जाएँगे तो दूसरी तरफ डूब जाएँगे। पगडंडी की संकरी गली से होकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। जबकि रास्ते में कई ऐसे मौके आते हैं जब आदमी फिसल सकता है।

जवानी में इन्सान नितांत भौतिकवादी होता है। नैतिकता और अनुशासन टिशु पेपर की तरह होते हैं जो बस कुछ देर के लिए खुद कों सभ्य दिखलाने का माध्यम होते हैं। हृदयस्तम्भ पर सपनो की लहरें आसमान छूने कों बेक़रार हैं। अंतस में समाया जुनून ज्वालामुखी बनकर फटना चाहता है। जज्बात श्वाननिद्रा की तरह होते हैं जरा सी भनक पड़ते ही जाग जाते हैं।

दिल, दिमाग पर हमेशा भारी रहता है। दरअसल दिल और दिमाग में से कोई भी एक यदि दुसरे पे भारी रहता है तो नुकसान ही उठाना पड़ता है। दिलोदिमाग का सही संतुलन बहुत जरुरी है। जोश, दिल में पैदा होता है दिमाग उसे होश देता है। महज जोश में सही फैसले नही होते उसके लिए होश जरुरी है और 'व्यक्ति की पहचान उसकी प्रतिभा से नही उसके फैसलों से होती है'। फैसले दिलोदिमाग के सही संतुलन का परिणाम है।

युवामन निरंकुश हाथी है अच्छी संगति उसे अंकुश में लाती है और गलत साथ निरंकुशता को और बढ़ा देता है। उस दशा में इन्सान को घर-परिवार, माँ-बाप, धर्म, संस्कृति, अनुशासन, सत्शिक्षा फांस की तरह चुभती है। अनुभवियों के उपदेश कान में गए पानी की तरह दर्द देते हैं। हर व्यक्ति अपनी गलतियों से ही सीखता है उसे समझाना एक नासमझी है। हर इन्सान खुद को वल्लम दुसरे को बेवकूफ समझता है।

भौतिकता में रंगा आधुनिक व्यक्ति आध्यात्मिक संत-महात्मा को पागल समझते हैं। आध्यात्मिकता में रंगे संत-महात्मा आधुनिक इन्सान को मोह-माया में पागल समझते है। दरअसल किसी के समझने से कुछ नही होता जो जैसा होता है बस वैसा होता है। इन्सान की कई तकलीफों में से एक तकलीफ ये भी है कि उसे हमेशा ये लगता है कि 'मुझे कोई नही समझता'। अब भैया किसी को क्या पड़ी है दूसरे को समझने की, यहाँ तो लोग खुद को ही नही समझ पाते, दूसरे को क्या खाक समझेंगे।

जवानी की दहलीज पर एक और खुद के सपनो को पूरा करने का दबाव होता है तो दूसरी तरफ दिल में समाये मोहब्बत के जज्बात। कई बार कोई जज्बात नही होते तो भी युवा जज्बातों को उकेरकर तैयार कर लेते हैं। पैर फिसलने की सम्भावना यहाँ सर्वाधिक होती है दरकार फिर सही निर्णय लेने की होती है।

गलत रास्तों पर भटके युवाओं को सही बात समझ आना, न आना मूल प्रश्न नही है, मूल प्रश्न ये है की सही चीज समझ में कब आएगी। देर से प्राप्त हर चीज दुरुस्त नही होती। जवानी तो मानसून का मौसम है यहाँ बोया गया बीज ही बसंत में बहार लाएगा। गर ये मानसून खाली चला गया तो पतझड़ के बाद वीरानी ही वीरानी है।

संस्कारो व सत्चरित्र का प्रयोग बुढ़ापे में नही, जवानी में ही होता है। संस्कारो के पालन से मौज-मस्ती बाधित नही होती बस मस्ती के मायने थोड़े अलग होते हैं। बार में बैठकर जिस्म में उतरती दारू-सिगरेट ही तो मस्ती नही है। दोपहर के तपते सूरज को देखकर ये आकलन हो सकता है कि शाम कितनी सुहानी होगी। जवानी दोपहर है और शाम बुढ़ापा। सुवह कि चमक तो हमने आँख मलते में ही गवां दी अब शाम कि लालिमा ही राहत दे सकती है।

कहते हैं जवानी, दीवानी होती है पर ये एक ख़ूबसूरत कहानी भी हो सकती है। जिसका मीठा रस हमें जीवन के संध्याकाल में मजा दे सकता है। इस मानसून के मौसम में आम और अनार के पेड़ लगा लीजिये, नागफनी के वृक्षों में क्यों अपना समय बर्बाद करते हैं...........

Monday, June 21, 2010

छत की अहमियत...(father's day special)


माँ को धरा का दर्जा दिया जाता है, और हमने भी सदा से धरती की पूजा की है। बेशक धरती की कीमत को आंकना आसान नहीं है लेकिन इस सबके बावजूद छत की अहमियत कभी कम नहीं हो जाती। इस बात को शायद वो इन्सान अच्छे से समझ पायेगा जिसके सर पे छत नहीं होती। उस सुकून को बयां करने वाले शब्द नहीं है जो पिता की छाया में मिलता है। हम कई बार सोचते हैं कि चरम तनाव, चिंता कि स्थितियां हम तक क्यों नहीं पहुँच पाती..यदि इसके तह में जाकर देखें तो वो पिता है जो ढाल बनकर इन सारी विपदाओं से हमें बचा रहे होते हैं।

पिता कि मज़बूरी है कि वो अपने बच्चों को बस दूर से चाह सकता है क्योंकि संवेदनाओं को जाहिर करने वाला सबसे बड़ा हथियार आंसूओ का वो सहारा नहीं ले सकता। बच्चे भी अपने मन की बात बस मां से बताते हैं, उसी के गले से लिपट के अपना प्यार इज़हार करते हैं। इस सारी स्थिति में पिता बस दूर से इन दृश्यों को निहारकर राहत महसूस करता है। पुरुष को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए तेज आवाज और गुस्से का सहारा ही लेना पड़ता है, वह रोता नहीं, नरमी नहीं दिखाता...इसलिए बच्चों पर अपनी भावनाएं व्यक्त करने की छटपटाहट उसे बेचैन किये रहती है। मजबूरन उसे बच्चों को सोते हुए निहारना ही चैन देता है। हमारी सफलता पर हम मां के गले लिपटकर ख़ुशी का इजहार करते हैं पर हमारा मुंह मीठा करने सबसे पहले मिठाई का डिब्बा पिता लेकर आते हैं।

पिता-पुत्र जीवन भर असंवाद की स्थिति में रहते हैं, फिर भी बिना कुछ कहे जाने कैसे पिता को अपने पुत्र की जरूरतों का ख्याल रहता है...बेटे के बड़े होते ही उसे साइकल दिलाना हो, मोबाइल या बाइक दिलाना हो या ATM में पैसे ख़त्म होने से पहले ही रुपये आ जाना हो सब कुछ बिना कहे ही हो जाता है। अपने सपने और अपनी जरूरतों का गला घोंटकर बस बच्चों कि परवरिश ही जिस इन्सान का एक मात्र उद्देश्य होता है वो है पिता। वो हमसे कभी नहीं कहते कि स्कूल कि फीस कैसे भरी या घर के खर्चे कैसे पूरे किये, या लेपटोप दिलाने के पैसे कहाँ से आये...वे नहीं कहते कि अब उनके घुटनों में दर्द होने लगा है, जल्दी थकान हो जाती है या ब्लड प्रेशर या सुगर बढ गयी है....नहीं, परिस्थितियों के बादलों से बरसी चिंता कि किसी बौछार को ये छत हम तक नहीं पहुँचने देती।

पिता बस पिता होता है उसकी तुलना किसी से नहीं है...अलग-अलग स्टेटस से लोग एक इन्सान के स्तर पर तो भिन्न-भिन्न हो सकते हैं पर पितृत्व के स्तर पे नहीं। एक करोडपति बिजनसमेन या एक झुग्गी के गरीब पिता की पितृत्व सम्बन्धी भावनाओं की ईमानदारी में कोई अंतर नहीं होता, उसके इजहार में भले फर्क हो। हर पुत्र के लिए उसका पिता ही सबसे बड़ा हीरो है, उस एक इन्सान के कारण ही बेफिक्री है, अय्याशी है, मस्ती है। पुत्र के लिए पिता का डर भी बड़ा इत्मिनान भरा होता है,एक अंकुश होता है। प्रायः पिता की हर बात उसे एक बंधन लगती है, पर उस बंधन में भी गजब का मजा होता है।

इन सब में पिता को क्या मिलता है...आत्मसंतोष का अद्भुत आनंद। पुत्र के बचपन से जवानी तक की दहलीज पर पहुचने की यादें मुस्कराहट देती है। बेटे की सफलताये खुद की लगती है। बेटे से मिली हार खुशनसीबी बन जाती है।
आश्चर्य होता है कैसे एक इन्सान खुद को किसी के लिए इतना समर्पित कर देता है? कैसे पूरा जीवन किसी और के जीवन को पूर्णता देने में बीत जाता है? सच कहा है- कि भगवान इन्सान को देखने हर जगह नहीं हो सकता था शायद इसलिए उसने मां-बाप को बनाया।

लेकिन दुःख होता है कि नासमझ इन्सान के सबसे बड़े हीरो यही मां-बाप समझदार इन्सान के लिए बोझ बन जाते हैं। अपने बुढ़ापे के दिन काटने के लिए उन्हें आश्रम तलाशना होता है। हमारे दोस्तों और नए सगे-सम्बन्धियों के सामने वे आउट-डेटेड नज़र आते हैं। ऑरकुट और फेसबुक पर सैंकड़ो दोस्तों का हाल जानने का समय है हमारे पास, पर इतना समय नहीं कि पिता की कमर दर्द या मां की दवा के बारे में पूंछ सके। बुढ़ापे के कठिन दौर में जहाँ सबसे ज्यादा अपनेपन की जरुरत होती है वहां यही बूढ़ा बाप किसी फर्नीचर की तरह पड़ा रहता है। और विशेष तो क्या कहूँ, अपनी संवेदनाओं को झंकृत करने के लिए अमिताभ की फिल्म "बागबान" और राजेश खन्ना की "अवतार" देखिये।
अंत में बागबान के एक संवाद के साथ विश्व के सभी पिताओं के चरणों में नमन करता हूँ "मां-बाप कोई सीढ़ी की तरह नहीं होते कि एक कदम रखा और आगे बढ़ गए, मां-बाप का जीवन में होना एक पेड़ कि तरह होता है, जो उस वृक्ष कि जड़ होते हैं उसी पर सारा वृक्ष विकसित होता है...और जड़ के बिना वृक्ष का कोई अस्तित्व नहीं है। "

Sunday, June 6, 2010

रणवीर के लिए "राजनीति" के मायने.


बॉक्स ऑफिस पर जून का पहला हफ्ता प्रकाश झा की "राजनीति" के रंग में सराबोर है। बड़े सितारे, भव्य दृश्य, बड़े-बड़े पोस्टर्स, आकर्षक ट्रेलर्स, जमकर प्रचार ने इस फिल्म को बहुप्रतीक्षित बना दिया था। हफ्ते की शुरुआत में सिनेमाघरों में जमकर बरसी भीड़ इसे सुपरहिट भी करा देगी। फिल्म से जुड़े हर शख्स के लिए मानसून खुशियाँ लेकर आएगा। खैर, फिल्म की विशेष समीक्षा करना मेरा उद्देश्य नहीं है काफी टिप्पणियाँ फिल्म के सम्बन्ध में की जा चुकी है। मै इस फिल्म के मायने रणवीर के लिए क्या होंगे इस पर विमर्श करना चाहूँगा...

लगातार चौथी हिट रणवीर की झोली में गिरी है इससे वे अपने समकालीन कई सितारों से बहुत ऊपर चले गए है और अपने से ४-५ साल सीनियर शाहिद और विवेक ओबेराय जैसे दूसरे सितारों को भी टक्कर दी है। बड़ी बात ये है कि वे प्रथम पंक्ति के नायक हैं, अरशद वारसी और तुषार कपूर जैसे द्वितीय पंक्ति के नहीं। "सांवरियां" जैसी भव्य फ्लॉप फिल्म से शुरुआत करने वाले रणवीर का उछलना कई फिल्म विश्लेषकों और इंडस्ट्री के लिए एक अनापेक्षित घटना की तरह है। लेकिन रणवीर ने नदी की पतली धार की तरह बालीवुड के इस मायावी संजाल में अपनी जगह बना ली। खुद के करियर को भी उन्होंने "राजनीति" के समरप्रताप की तरह सूझबूझ से दिशा दी।

"राजनीति" में बहुसितारा नायकों की भीड़ में वे ध्रुव तारे की तरह चमक रहे हैं। गोया कि महाभारत का अर्जुन भी वे हैं और कृष्ण भी वे हैं। जो शतरंज कि विसात पर सारे मोहरे खुद की रणनीति से आगे बढाता है। प्रकाश झा ने भी हिम्मत का काम किया जो अजय देवगन और नाना पाटेकर जैसे निष्णांत कलाकारों के बीच रणवीर को ये भूमिका दी। ऐसा नहीं है कि इसे रणवीर से बेहतर कोई नहीं निभा सकता था, लेकिन रणवीर ने भी झा के विश्वास के साथ न्याय किया। एक पढ़े-लिखे जोशीले महत्वाकांक्षी युवा के रूप में वे फब रहे थे।

"राजनीति" कई बुझते सितारों के लिए एक नयी रोशनी देगी जिनमे अर्जुन रामपाल, मनोज वाजपेयी शामिल है तो वही रणवीर के लिए ये नए पंख देने वाली फिल्म साबित होगी। जिसके दम पर वे हिंदी सिनेमा के विशाल आकाश में उड़ान भर सकेंगे। रणवीर को खुद की किस्मत का भी शुक्रिया अदा करना चाहिए जो उन्हें इतने बेहतर अवसर मुहैया करा रही है। इससे वे सारी फिल्म इंडस्ट्री के लिए 'एप्पल आई' बन गये हैं। "वेक अप सिड" में एक गैर ज़िम्मेदार युवा की भूमिका, "रोकेट सिंह" में हुनरमंद सेल्समेन और अब "राजनीति" के समरप्रताप सिंह...ये सारी अलग-२ भूमिकाएं उन्हें एक हरफनमौला अदाकार साबित कर रही है। हालाँकि मैं रणवीर की किस्मत की बात करके उनकी प्रतिभा पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रहा हूँ। वे प्रतिभा शाली है, और अमेरिका के एक फिल्म संस्थान से विधिवत 'मेथड एक्टिंग' का अध्ययन प्राप्त है। मै सिर्फ ये कहना चाहता हूँ कि कई बार अच्छी प्रतिभाओं को सही अवसर नहीं मिल पाते, ऐसा रणवीर के साथ नहीं है।

जिस तरह से रणवीर आगे बढ रहे हैं उसे देख लगता है कि १-२ साल में वे सितारा श्रेणी में आ जायेंगे जहाँ आज खान चौकड़ी, अक्षय, हृतिक बैठे हैं। लेकिन ये फिल्म इंडस्ट्री है यहाँ जो जितनी तेजी से ऊपर जाता है उससे दुगनी तेजी से नीचे आता है। फिल्म इंडस्ट्री के आसमान से कब कौनसा सितारा टूट जाये ये आकश को भी पता नहीं होता। इसलिए रणवीर ये ध्यान रखे कि खुद को कैसे प्रयोग करना है। स्वयं को अनावश्यक खर्च करने से बचें। इस मामले में आमिर खान को आदर्श बनाया जा सकता है।

बहरहाल, कपूर खानदान को २० साल बाद अपना असल बारिश मिला है। रणवीर को लेकर शायद किसी ऐसी फिल्म की योजना बने जो आर.के.बेनर को फिर जिंदा कर दे। रणवीर की कोशिश होगी कि वो भी अपने पिता और दादा की तरह एक संजीदा अभिनेता बने। "राजनीति " का समर प्रताप सिंह तो बस एक शुरुआत है।

खैर अंत में थोड़ी सी बात "राजनीति" की...भले ये फिल्म सुपरहिट हो, कमाई के कुछ रिकार्ड कायम करे पर ये झा की बेहतर कृति नहीं है। झा एक बहुत उम्दा फिल्म बनाने से चूक गये...एक अराजक, अतिरंजक फिल्म बन गयी जो यथार्थ का असल चित्रण नहीं है। "गंगाजल" और "अपहरण" वाले प्रकाश इसमें नज़र नहीं आये। इंटरवल तक प्रकाश ने अपने पत्ते अच्छे बिछाए थे बस उन्हें खोलने में रायता फ़ैल गया। फिर भी भव्य दृश्यों का फिल्मांकन और इतनी बड़ी स्टारकास्ट को साधना तारीफ के काबिल है। इतनी बड़ी स्टारकास्ट के बाद भी कोई भी स्टार गौढ़ नहीं किया गया है, सभी याद रखे जाते हैं। ढाई घंटे की फिल्म में इतना कुशल प्रबंधन है कि सब को अच्छे अवसर मिले है। और हाँ फिल्म के असली नायक की बात करना तो हम भूल ही गए-वो है भोपाल, जो फिल्म की नसों में रक्त बनकर प्रवाहित हो रहा है। कैमरे की आँख ने बड़ा ख़ूबसूरत भोपाल प्रस्तुत किया है, बड़ी आकर्षक लोकेशन है। कुछ खामियों को छोड़ दिया जाये तो कई खूबियों के लिए फिल्म देखी जा सकती है..........

Friday, June 4, 2010

ये है मुंबई मेरी जान.......


पिछले हफ्ते एक बेहद खुबसूरत शहर और करोड़ों लोगों की धड़कन मुंबई शहर को बेहद करीब से देखने का अनुभव हुआ । देखकर लगा कि आखिर क्यों इसे मायानगरी या नशीला शहर कहते हैं। हालाँकि ये मेरा पहला मुंबई भ्रमण नहीं था लेकिन पिछली बार यहाँ अपने कॉलेज के साथ शैक्षणिक भ्रमण पर आना हुआ था। उस समय तो दोस्तों के साथ मस्ती में ही कुछ यूँ मशगूल थे कि इस शहर को समझने का मौका ही नहीं मिला। तब इस शहर के सम्बन्ध में मेरी धारणा कुछ अलग थी, अब एक अलग धारणा है।

जितनी बार इस शहर का नाम बदला उससे कही ज्यादा बार इसकी संस्कृति,रीति-रिबाज़, रहन-सहन बदला अब ये शहर महज एक शहर नहीं बल्कि एक अलग ही स्वप्न संसार, एक अलग ही दुनिया बन गया है।
मुंबई ह़र काल में लोगों के आकर्षण का केंद्र रहा है,यह देश की व्यावसायिक राजधानी है। ये शहर अपने में जिंदगी के हर रंग समेटे है, मन के सभी रस, दिल की भावनाएं, दुनिया की खुशियाँ और दुनिया का दर्द हर चीज़ के दर्शन आपको इस नाचीज शहर में हो जायेंगे।

जी हाँ यही शहर है जहाँ सड़क से संसद तक की, अर्श से फर्श की, नालों से महलों तक, झुग्गी से बग्घी तक की जिंदगी के दर्शन हम कर सकते हैं। लाखों लोग यहाँ आते हैं और यहीं के हो जाते हैं। पहले वे इस शहर को पकड़ना चाहते हैं फिर ये शहर ही उन्हें पकड़ लेता है कि भले ही वे इसे छोड़ना चाहे पर यह शहर उन्हें नहीं छोड़ता। फिल्म texi no.9 2 11 में एक गीत कुछ इस प्रकार है-"लाख-लाख लोग आके बस जाते हैं इस शहर से दिल लगा के फंस जाते हैं, सोने की राहों पर सोने को जगह नहीं..शोला है या है बिजुरिया दिल की बजरिया मुंबई नगरिया..."

भले ही मुंबई के इर्द-गिर्द समुद्र है लेकिन उससे भी संगीन समुद्र यह मुंबई शहर खुद है जो अपने देश के हर वर्ग, हर क्षेत्र, हर संस्कृति के व्यक्ति को समाये हुए है और हर व्यक्ति के पेट के चूहे मार रहा है। यहाँ आकर हर व्यक्ति कुछ न कुछ पा जाता है कोई बहुत ज्यादा पाता है तो कोई थोडा कम। लेकिन इससे भी बड़ा सच है जो हमने 'मेट्रो' फिल्म के एक संवाद में सुना है "कि ये शहर जितना हमें देता है उससे कही ज्यादा हमसे छीन लेता है"।

दरअसल
जब भी किसी के दिमाग में मुंबई का चेहरा उभरता है तो उसकी नज़र बड़ी-बड़ी आलिशान बिल्डिंग, शोपिंग काम्प्लेक्स, मल्टी प्लेक्स पर तो जाती है पर हजारों वर्गफीट में फैली धारावी की झुग्गियां नहीं दिखती जहाँ समृद्ध लोगों की अपेक्षा कई गुना तादाद में लोग रहते हैंउसकी नज़र फिल्म सिटी, बालीवुड पर तो जाती है पर वह नाले किनारे बसने वाली जिंदगी से बेखबर हैवो बोम्बे स्टॉक एक्सचेंज को देखता है पर चौपाटी पर बड़ा पाव बेचता कल्लू उसे नहीं दिखताफैशन जगत की चकाचौंध तो दिखती है पर ट्रेफिक सिग्नल पर पेपर बेचता बच्चा और भीख मांगती अम्मा नहीं दिखतीयह किसी आश्चर्य से कम नहीं कि हम मुंबई जाके शाहरुख़ का 'मन्नत' और अमिताभ का 'जलसा' देखना चाहते हैं पर हमारे दिमाग में बिरजू नाई और भोलू हम्माल के वो आशियाने नहीं आते जिनमे वो जिंदगियां बसती है जो हमसे दो मीठे बोल को तरस रही हैइस शहर से उड़ने वाले वो विमान दिखते हैं जो अमेरिका, सिंगापूर, लन्दन जाते हैं पर लोकल ट्रेन की पेलमपेल पर नज़र नहीं जाती

दुर्भाग्य ये है कि जिन चीजों पर हमारी नज़र नहीं जाती वही असली मुंबई है, वही सच्ची और बृहद मुंबई है। हमने हमारी अंखियों के झरोखों से दिखने वाले नजारों को भी संकुचित कर लिया है और जिस शहर को देखा है वो तो पुस्तक का सिर्फ मुख पृष्ठ है अन्दर के पन्नो से हम अनजान है। मुंबई की असली जिंदगी तो इस शहर के कालीन के नीचे पल रही है। इस शहर में ट्रेफिक प्रॉब्लम के कारण गाड़ियों की रफ़्तार धीमी हो जाती है पर गाड़ियों की उस धीमी रफ़्तार के बीच जिंदगी भागती रहती है।

लोग कहते हैं यहाँ का इन्सान बहुत खड़ूस और चिड़चिड़ा होता है पर ऐसा कहने वालो के भी सिर और कंधे पर वजन रखकर, उनके पैर बांधकर दौड़ने को कहा जाय तो वे भी संगीत का मधुर तराना नहीं सुनायेंगे। मुंबई के आदमी की जिंदगी शायद ऐसी ही है, चिडचिडाहट आना लाजमी है। ये एक वो शहर है जो अपने में कई शहर, कई प्रदेश, कई देश या यूँ कहे कि कई दुनिया समेटे है। मुंबई को समझना सिर्फ मुंबई को समझना नहीं है एक अच्छी-खासी दुनिया को समझना है।

वैसे तो मुंबई महाराष्ट्र की राजधानी है, पर ये महज महाराष्ट्र की नहीं ये सारे राष्ट्र की है सारे देश का दिल इसमें बसता है पर राजनैतिक मुर्खता के परिचायक राज ठाकरे जैसे लोगों को ये कौन समझाए, जो अपने देश में ही सरहदें बना रहे हैं। समझ नहीं आता कि काम का बोझ सिर पर रखने के कारण कहीं इस इन्सान का दिमाग घुटनों में तो नहीं आ गया, शायद इसलिए आज घुटनों के दर्द की शिकायत बढ रही है।

खैर, मुंबई के व्यक्ति के लिए तो हम ये कह सकते हैं कि वो जिंदगी जीते समय अपने भगवान को ये नहीं बताता कि उसकी परेशानियाँ कितनी बड़ी है बल्कि अपनी परेशानियों को ये बताता है कि उसका भगवान कितना बड़ा है। यही सोचकर बस जिंदगी जीता चला जाता है।

ये मुंबई अपने आप में एक पुराण है, एक ग्रन्थ है, एक महाकाव्य है जब इसके भाव को विचारकर पड़ोगे तो आँखे नम भी होगी, दिल में गम भी होगा, थोड़ी ख़ुशी तो थोडा गुस्सा भी आएगा पर अंततः आप एक मजबूत और परिपक्व इन्सान बन जाओगे। मेरी कलम का इस मुंबई गाथा का बखान करने में दम फूल रहा है विशेष तो आप खुद इसे महसूस करके देखें...शायद आप खुद बेहतर ढंग से जन पाए। अंत में २ पंक्तिया याद कर विराम लूँगा-
इन बंद कमरों में मेरा दम घुटता है,
खिड़कियाँ खोलो तो ज़हरीली हवा अन्दर आती है....

Thursday, May 20, 2010

जब वक़्त का पहिया चलता है...


"वक़्त आता है वक़्त जाता है, वक़्त कभी न ठहर पाता है है...इस वक़्त को संभाल के रखिये क्योंकि वक़्त वेवक्त काम आता है।" किसी कवि के ये पंक्तियाँ हमारे सामने एक प्रश्न छोड़ जाती है कि आखिर कैसे वक़्त को संभाला जा सकता है।

वक़्त को थामने वाली भुजाओं का जन्म आज तक नहीं हुआ, इस चक्र को थामने वाला वीर अब तक पैदा नहीं हुआ। दरअसल वक़्त को संभालने का आशय ही यह है कि वक़्त के साथ हो जाना। आज तक सभी महापुरुष वक़्त को बदलकर नहीं उसके साथ चलकर महान हुए हैं।

ये वक़्त सर्वशक्तिमान है, सारी पृकृति की धारा बदलने वाला ये इन्सान इस वक़्त के हाथों ही मजबूर है। करोडो वर्षों से चली आ रही रेस में एकबार भी ये इन्सान इस वक़्त को पछाड़ नहीं पाया। दुनिया के रंगमंच पर इंसानी कठपुतलियों की डोर वक़्त के हाथ में है। इसलिए कहा है 'समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता।' इन्सान ने वक़्त की सारी गतिविधियाँ नहीं देखी पर वक़्त ने इन्सान की हर हलचल पर नज़र रखी है। जब इन्सान सो रहा होता है ये वक़्त तब भी चल रहा होता है।

किसी शायर की पंक्तियाँ है "बस एक गुजरने के सिवा इस वक़्त को आता क्या है" पर एक सच और है जो शायद इससे बड़ा है "वक़्त नहीं गुजरता हम उस पर से गुजर जाते हैं"। कहीं तो ये वक़्त पेचीदा गलियों सा है, कहीं ये अथाह छलछलाता समंदर। पर दोनों में समानता ये है कि गलियों की संकीर्णता और समंदर की व्यापकता में जटिलता एक सम है जिससे इन्सान पार नहीं पा पाता।

दरअसल ज्ञात-अज्ञात में या कहे प्रगट-अप्रगट में एक एक चीज उलझी पड़ी है दरअसल वह कुछ भी नहीं और सारी कवायद भी उसमें ही है और उसमें हम कुछ कर भी नहीं पाते। वह है हमारा वर्तमान जो प्रगट भूत और अप्रगट भविष्य के बीच में उलझा हुआ है। वास्तव में वह पल भर का है और 'यह वर्तमान है' इतना सोचते ही वह भूत बन जाता है। तो इन्सान का कर्म आखिर किस वर्तमान में होगा, इक पल के वर्तमान को पकड़ पाना आसान नहीं। आसान क्या, संभव नहीं।

ये एक ऐसा सच है जिसे कोई नहीं मानेगा क्योंकि हमने तो यही सुना है कि इन्सान अपनी तकदीर खुद बनाता है , इन्सान कि इच्छा शक्ति सृष्टि का निर्माण करती है, बगैरा-बगैरा। साया फिल्म के गीत का इक बोल है-" कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ-हर जगह , हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर"। जिसके आगे ये मजबूर है वो है वक़्त। वक़्त के दरिया में मज़बूरी इस कदर है कि लाख हाथ फडफड़ाने पर भी किनारा नहीं मिलता। सारी योजनायें बक्से में धरी रह जाती है, तमन्नाएँ दिल में ही कुलाटी मारते रह जाती है, होता वही है जो वक़्त को मंजूर होता है। एक बहुत बड़ा सच जो आइन्सटाइन ने जीवन के अंतिम समय में कहा था -"घटनाएँ घटती नहीं है वह पहले से विद्यमान है तथा मात्र कालचक्र पर देखी जाती है।

इस दुनिया की सफलता, तुम्हारा सुख सब वक़्त की देन है तथा तुम्हारा दुःख भी वक़्त की कृपा से है, दोनों में एक बात समान है दोनों सदा टिकते नहीं है। सबसे तेज़ गति से भागता हुआ होने पर भी वक़्त सा स्थिर इस दुनिया में कोई नहीं है। चलता हुआ कुम्हार का चका अपनी जगह पर स्थिर भी है, वैसा ही वक़्त है। शुन्य से शुरू हुई यात्रा शुन्य पर ही ख़त्म हो जाती है पुनः शुन्य से शुरू होने के लिए। इसलिए कहते हैं मृत्यु जीवन का अंत नहीं शुरुआत है।

खैर, इन्सान इस बात को मानने को तैयार नहीं, उसकी जिद है कि वो वक़्त को हराएगा। इसलिए लगा है वो नए-नए प्रयोगों में। इसकी हालत उस बच्चे से गयी बीती है जो चाँद से खेलने को मचल जाता है क्योंकि थाल में प्रतिबिंबित चाँद इसे संतुष्टि प्रदान नहीं कर रहा। इन्सान की इच्छाओं के अनुसार यदि सारी दुनिया चलने लगे तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी क्योंकि इंसानी इच्छाएं एक सामान नहीं है फिर किसकी कामनाएं पूरी हों?

जटिलताएं इतनी है कि उनमें सच कही दबा पड़ा है और हम उस सच का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं। ताउम्र हम अपने दिल की अवधारणाएं बदलते रहते हैं। उन बदलती अवधारणाओं में कभी हमें सच नहीं मिलता। हमें वक़्त का सच भी मंजूर नहीं। भैया, वक़्त और इन्सान में उतना अंतर है जितना मंजूरी और मज़बूरी में............

Friday, April 30, 2010

खिलंदड अक्षय, व्यावसायिक सिनेमा और हॉउसफुल

आईपीएल के भूत के सोने के बाद सिल्वर स्क्रीन पर रिलीज़ हुई हाउसफुल। साजिद खान द्वारा निर्देशित और अक्षय कुमार -दीपिका पादुकोण जैसे सितारों से सजी फिल्म के प्रोमो देख लगता था कि बोलीवुड को एक और उम्दा फिल्म मिलेगी। लेकिन अफ़सोस ये भी खिलंदड अक्षयनुमा फिल्म है जिसे कमबख्त इश्क, हे बेबी, दे दनादन टायप की फिल्मों में ही शुमार किया जा सकता है।

अक्षय कुमार की ब्रांड वैल्यू इस समय शाहरुख़, आमिर, हृतिक जितनी ही है बजाय इसके कि उनके हिस्से कोई भी महानतम फिल्म नहीं है जिसे चकदे, तारे ज़मीन पर या कोई मिल गया की कोटि में शामिल किया जा सके। लेकिन पिछले एक दशक की फिल्मों पर यदि नज़र डाली जाये तो हम पाएंगे की फिल्म इंडस्ट्री को सबसे ज्यादा कमाई यदि किसी ने करके दी है तो वो है अक्षय कुमार। सन २००७ में तो उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री को ५०० करोड़ की सौगात दी थी, और पिछले सालों में रिलीज़ उनकी टशन, कमबख्त इश्क, ब्लू जैसी फिल्मों की कमाई ६०-७० करोड़ के आसपास है जबकि इनको फ्लॉप या औसत कामयाब फ़िल्में माना गया है। तारे ज़मीन पर और वेलकम एक ही दिन रिलीज़ हुयी थी, तारे ज़मीन पर ने महान फिल्म होने के बावजूद बमुश्किल ५० करोड़ का व्यवसाय किया जबकि दूसरी ओर वेलकम की कमाई १०० करोड़ के ऊपर थी।

तो क्या इन सारे समीकरणों के चलते अक्षय कुमार को महान सितारा मान लिया जाये? क्या व्यावसायिकता को महानता का पर्याय समझा जाये? यदि ऐसा है तो एक वैश्या किसी शास्त्रीय न्रित्यांगना से महान होगी, जेम्स कैमरून, सत्यजीत रे से बड़े निर्देशक होंगे, आईपीएल टेस्ट क्रिकेट से अधिक श्रेष्ठ होगा, लेकिन ऐसा नहीं है। अक्षय कुमार ने समय के साथ खुद को काफी परिपक्व बनाया है और आज वे एक हरफनमौला अदाकार है लेकिन फिल्म चयन और समर्पण में वे मात खा जाते हैं। यही कारण है की २० साल के उनके करियर के बावजूद उनके पास कोई DDLJ, हम आपके हैं कौन, लगान, रंग दे बसंती जैसा नगीना नहीं है। अपने सारे करियर में वे अपने एक्शन और खिलंदड स्वरुप में जकड़े रहे। जिस इन्सान में इतनी क़ाबलियत थी की वह कई महान कृतियों को जन्म दे सकता था लेकिन वो ताउम्र कुछ औसत महान फिल्मों के इर्द-गिर्द घूमता रहा।

बहरहाल बात यदि हाउसफुल की करें तो यह फिल्म तो अक्षय की हेरा-फेरी, भूल-भुलैया,मुझसे शादी करोगी टायप की उम्दा फिल्मों में से भी नहीं है। ऐसा लगता है की साजिद मार-मारके जबरन हँसाने की कोशिश कर रहे हैं। शायद ये फिल्म हिट भी हो जाएगी क्योंकि फिल्म को हिट कराने वाले सजिदनुमा सभी मसाले इसमें पड़े हुए हैं और प्रारंभिक भीड़ देखकर यही लगता है। साजिद ने 'हे बेबी' की बची-कुची कसर इसमें निकाल ली है। लेकिन इन सारी चीजों के कारण फिल्म को बेहतर नही कहा जायेगा। अक्षय कुमार जिन्होंने इस फिल्म में पनौती का किरदार निभाया है उनकी रियल लाइफ की अच्छी किस्मत का फायदा फिल्म को जरूर मिलेगा। छोटे शहरों और कस्बों में अक्षय के दीवाने इसे हिट करा देंगे। लेकिन गुणवत्ता परक फिल्म देखने वालों को निराश होना पड़ेगा।
अब तो उम्मीदें हृतिक की 'काइट्स' और प्रकाश झा की 'राजनीति' से ही है.....

Saturday, March 27, 2010

यादों की जुगाली


अक्सर लोगों के सेल फोन में एक मैसेज पड़ने को मिलता है.."वादे और यादें में क्या फर्क है, जिसका उत्तर है-वादे इन्सान तोड़ते हैं, और यादें इन्सान को तोड़ती हैं।" क्या वास्तव में यादें इतनी निर्मम होती हैं जबकि इन्सान उन्हें रंगीन कहता है, उनके सहारे जिंदगी गुज़ारने की बात करता है। खैर.....

दरअसल इन्सान के नन्हे से दिल में स्थित स्मृतियों का समंदर ही उसे एक सामाजिक प्राणी बनाता है जिसके बल पर वह ताउम्र आचार-विचार और व्यवहार करता है। यादों का विसर्जन पागलपन की शुरुआत है। यादों का कमजोर होना इन्सान का कमजोर होना है। फिर कैसे उन्हें निर्मम कहा जा सकता है, जालिम कहा जा सकता है।

इन्सान का टूटना उसकी अपनी वैचारिक विसंगति है, उसमें यादों को दोष नहीं दिया जा सकता। अतीत की कड़वाहट का असर यादों पर नहीं पड़ता, इसलिए शायद कहा जाता है कि "अतीत चाहे कितना भी कड़वा क्यों हो उसकी यादें हमेशा मीठी होती है। दरअसल यादें तो मीठी होती है नाही कड़वी, यादें तो बस यादें होती है। इन्सान अपनी तत्कालीन परिस्थितियों के अनुसार उन पर अच्छा या बुरा होने का चोगा उड़ा देता है।

यादों का जीवन में अमूल्य स्थान है, यादें ही मनुष्य को कुदरत कि असीम संरचनाओं से अलग करती हैं। इन यादों पर ही गीत है, संगीत है, साहित्य है, संस्कृति है, धर्म है सारा समाज है। हिंदी फिल्मों में तो यादें समरूपता से नजर आने वाला विषय है। कालिदास के प्रसिद्ध नाटक "अभिज्ञान शाकुंतलम" का क्लाइमेक्स ही यादों के विस्मरण पर केन्द्रित है। यादों में इश्क है, नफरत है, दोस्ती है, दर्द है, ख़ुशी है, हसरत है और सबसे बड़ी चीज यादों में यादें हैं।

इन यादों के सहारे ही आदमी तन्हाइयों में भी तन्हा नहीं होता, तो कभी-कभी भीड़ में भी तन्हा हो जाता है। नमस्ते लन्दन फिल्म के एक गीत में जावेद अख्तर ने लिखा है-"कहने को साथ अपने इक दुनिया चलती है पर चुपके इस दिल में तन्हाई पलती है...बस याद साथ है तेरी याद साथ है" इस दुनिया से इन्सान चला जाता है पर कम्बख़त यादें नहीं जाती। लेकिन यादों का स्थायित्व भी सदा के लिए नहीं है दिल में बसने वाली यादें उसके रुकने के साथ ही ख़त्म हो जाती है।

दरअसल इन्सान यादों से दुखी नहीं होता, नाही उनसे टूटता है उसके दुःख का कारण यादों में छुपी हसरतों कि पूर्ति हो पाना है या यादों के माध्यम से सफलता की जुगाली है। सफल या सितारा व्यक्ति के सफल दिनों में गूंजा तारीफ का स्वर गैरसितारा दिनों में भी सुनाई देता है। सितारा दिनों में बजी तालियों की गडगडाहट, यादों में आज भी कायम रहती है। यादों की जुगाली में आज को जी पाना दुःख का कारण है। इन्सान को यादों का नहीं हसरतों का सैलाब तोड़ता है।

अतीत की यादों का हथोडा हम आज पर मारकर अपना भविष्य ज़ख्मी करते हैं। अतीत से हमें सिर्फ यादें मिलती हैं और यादों का कोई भविष्य नहीं होता। जिंदगी आज में जीने का नाम है, यादों की जुगाली से इसे गन्दा करना समझदारी का काम नहीं है।

दिल से यादों को नहीं अपनी इच्छाओं को समेटना होगा। मरकर भी किसी की यादों में जीने की हसरत मिटाना होगी, यश का लोभ समुद्र में विसर्जित करना होगा। इस झूटे संसार का राग भी झुटा है, इन्सान के मरने के बाद उसे यादों में भी जगह नहीं मिलती। आकाश के टूटते तारों से आकाश को कोई फर्क नहीं पड़ता, ज़मीन पर हमारी भी वही स्थिति है। कभी-कभी फिल्म के इक गीत में कुछ बोल इस तरह हैं-"क्यों कोई मुझको याद करे..क्यों कोई मुझको याद करे, मशरूफ ज़माना मेरे लिए क्यों वक़्त अपना बर्बाद करे...मै पल दो पल का शायर हूँ"
यादों की क्या अहमियत है, कितनी जरुरत है, निर्णय आप स्वयं करे, फैसला आप सब पर है। सबके फैसले अलग-अलग आयेंगे इससे मुझे आश्चर्य नहीं होगा। यादों की अहमियत सबके लिए जुदा-जुदा है। प्रतिक्रिया देकर यादों के विषय में ज़रूर बताएं........
अंकुर'अंश'

Tuesday, March 16, 2010

खान बनाम इडियट्स....




दो बड़े सितारे, दो बड़ी फ़िल्में मुकाबला महज फिल्म को हिट-सुपरहिट कराने का नहीं था, मुकाबला था बादशाहत का। मुकाबले में इंडस्ट्री के दो बड़े सितारे शुमार थे और ये इनके बीच पहला मुकाबला नहीं था। इससे पहले भी ये रब की जोड़ी और गजनी को मैदान में लड़ा चुके हैं। उस दौरान आमिर ने बाद में ज़िम्मा संभाला था इस बार शाहरुख़ बाद में मैदान में आये।

बहरहाल परिणाम सबके सामने आ चूका है 'इडियट्स ' हिंदी सिनेमा की सर्वकालिक महान फिल्मों में शामिल हो गयी है जबकि 'माय नेम इज खान' शाहरुख़ की खुद की फिल्मों में ही सर्वश्रेष्ठ नहीं है। न तो ये ' चकदे ' जैसी क्रिटिकली हिट है नाही DDLJ या 'कुछ-कुछ होताहै ' जैसी कमर्शियल हिट है। एक बेहद औसत फिल्म है जिसे शाहरुख़ महानतम होने का भ्रम पाल रहे हैं।

आमिर ने हमेशा आग में हाथ डालकर नगीने बाहर निकाले हैं। चाहे आशुतोष गोवारिकर की वो स्क्रिप्ट हो जिसे दर्जनों दरबाजों पर नकार दिया था उसी स्क्रिप्ट पर आमिर ने 'लगान' रचकर आस्कर का दरबाजा खटखटाया। 'तारे ज़मीन पर जैसे नान कमर्शियल सब्जेक्ट पर सिनेमा बनाकर वाहवाही लूटी। 'अक्स' जैसी फ्लाप फिल्म के निर्देशक से 'रंग दे बसंती' जैसी महान फिल्म बनवाई। वहीँ शाहरुख़ की सारी सफलता चोपड़ा केम्प के इर्द-गिर्द घूमकर दम तोड़ देती है और जब वे खुद फिल्म निर्माण में उतरते हैं तो 'हे राम', 'फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी' और 'बिल्लू' जैसे डिब्बों को जन्म देते हैं।
'माय नेम इज खान' का विषय उम्दा था और ये एक बेहद उम्दा फिल्म हो सकती थी अगर ये शाहरुख़ के प्रभाव से मुक्त होकर मात्र करण जौहर की फिल्म होती। प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने कहा था कि ''शाहरुख़ पूरी फिल्म में इस भाव से ग्रस्त नज़र आ रहे हैं मानो वे कोई इतिहास रचने जा रहे है' इस भाव के करण ही शाहरुख़ स्वाभाविक शाहरुख़ नहीं रह जाते।
सारी फिल्म एक विशिष्ट पक्ष की ओर झुकी है इस फिल्म से ज्यादा निष्पक्ष प्रस्तुतिकरण करण की 'कुर्बान' में देखने को मिला। फिल्म के संवाद और काजोल का अभिनय तारीफे काबिल है। बाकि पूरी फिल्म एक खास वर्ग की ही तालिया बटोरसकी। ये एक कम्प्लीट पैकेज नहीं हैं। शाहरुख़ को बाला साहेब का शुक्रिया अदा करना चाहिए जिनके कारण फिल्म को शुरूआती भीड़ मिल गयी। फिल्म देखकर मीडिया कि हकीकत भी जान पड़ती है जो वेश्यावत बर्ताव करती है। मीडिया चेनल जिस भांति फिल्म का महिमा मंडन कर रहे थे वैसा फिल्म में कुछ नहीं है। वे सभी चेनल फिल्म के मीडिया पार्टनर थे।

दूसरी ओर बात 'थ्री इडियट्स ' की हो तो नाम सुनते ही दिल में गुदगुदी होने लगती है। इस फिल्म कि सफलता का कारण मात्र आमिर हों ऐसी बात नहीं है वे तो बस इस सफलता में शुमार कई लोगों में से एक हैं। लेकिन फिल्म चयन और समर्पण उनका अपना है। लोग कहते हैं फिल्म निर्माण में आमिर दखलंदाजी करते हैं मगर इस फिल्म में यदि हिरानी सही थे तो उन्होंने कुछ सुधार नहीं किया तथा उनके हाथ कि कठपुतली बनना ही मंज़ूर किया।

शाहरुख़ और आमिर में कौन श्रेष्ठ है ये मैं बताना नहीं चाहता, ये सबकी अपनी-अपनी पसंद है। मैं सिर्फ उस फिल्म कि तारीफ कर रहा हूँ जो लोगों के लिए एक फिल्म से बढकर एक पुराण बन गयी। उस फिल्म के विषय में शाहरुख़ कहते हैं कि उन्होंने अब तक 'थ्री इडियट्स' नहीं देखी। आप हीसोचिये-क्या ऐसा हो सकता है? या यह महज झूठी बांग है। और यदि ये सच है तो शाहरुख़ के अभाग्य की महिमा हमसे तो नहीं कही जा सकती। शाहरुख़ ये फिल्म देखें और कुछ सीखने का प्रयास करें।

खैर, दोनों खान बढ़िया सितारे हैं। बस दोनों में जरा सा अंतर है। आमिर समझदार इन्सान है और शाहरुख़ ज्यादा समझदार इन्सान है।

Friday, March 12, 2010

एक देश-एक जूनून : IPL-3


आई पी एल -३ ने दस्तक दे दी है। पिछले वर्ष इसकी मार्केटिंग कुछ इस तरह हुई थी-"उपरवाले ने एक धरती बनाई हमने उस पर सरहदें बनाकर उसे कई देशों में बाँट दिया, लेकिन अब ये सरहदें मिटेंगी और सारे विश्व का एक देश एक जूनून होगा। " जी हाँ आई पी एल के ज़रिये दुनिया को एक करने का राग आलापा जा रहा है। इसे मनोरंजन का बाप कहा जाता है और इसका ग्लैमर कुछ ऐसा है की दिग्गज उद्योगपति और फ़िल्मी सितारे भी खुद को इसकी नाजायज़ औलादें बनाने पर आमदा है।


बड़े-बड़े संत महात्मा जो काम न कर पाए वो काम अब ललित मोदी की क्रिकेट लीग करने चली है। BCCI ने अपनी रईसी से दिग्गज क्रिकेट सितारों को तमाशा दिखाने इकठ्ठा कर लिया है। परिस्थितियों की बिसात पर रिश्तों का ताना-बना बुना जा रहा है। लक्ष्मी के आगे दोस्त, दुश्मन और दुश्मन, दोस्त बन रहे हैं। मनीपावर का ही खेल है जो एक भाई राजस्थान और दूसरा पंजाब से एक दुसरे के खिलाफ जंग लड़ रहे है। इतना सब होने पर भी सरहदें मिटने का राग आलापा जा रहा है।


दरअसल सरहदें ज़मीन पर नहीं इन्सान के दिमाग में होती है। दिमागी सरहदें ही इस दुनिया को आज तक बांटते चली आ रही हैं। एक घर में रहने वाले भाई, देवरानी-जेठानी, सास-बहु को यही सरहदें अलग करती है और इनके न होने पर कई बार दो दुनिया के लोग भी एक होते हैं। प्रसिद्द व्यंग्यकार सुरेन्द्र शर्मा कहते हैं-"लोग गलत कहते हैं दीवार में दरार पड़ती है दरअसल जब दिल में दरार पड़ती है तब दीवार बनती है।" आई पी एल के ज़रिये विश्व को एक करने की बात रास नहीं आती है। इसे देख लगता है की मोहल्ले की एकता के लिए घर में सरहदें बनायीं जा रही है।


"वसुधैव कुटुम्बकम" का सपना क्रिकेट से नहीं बल्कि "परस्परोपग्रह जीवानाम " अर्थात एक दुसरे के प्रति प्रेम और उपकार की भावना से पूरा होगा। इंसानियत के आलावा दूजा कोई विकल्प नहीं जो हमें एक कर सके। आई पी एल खिलाडियों और उद्योगपतियों को तो ख़ुशी दे सकता है पर आम आदमी इससे ठगाया ही जा रहा है। प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हमारी जेबों से निकला हुआ पैसा ही इन तमाश्गारों की तिजोरी हरी कर रहा है। सारा ताम-झाम विज्ञापन और टी आर पी का है।

ये क्रिकेट नातो राष्ट्र भावना का संचार करता है न ही ये विशुद्ध क्रिकेट है। मनोरंजन का बाप जब सुप्त अवस्था में जायेगा तो गंभीर-दिल्ली का, सचिन-मुंबई का और युवराज-पंजाब का नहीं ये सब अखंड भारत के सपूत होंगे। जब असली क्रिकेट कि बात होगी तो लोग पांच दिनी टेस्ट मैचों को ही ललचायेंगे। चीयरलीडर्स के कपड़ों की तरह छोटा किया गया ये क्रिकेट असली क्रिकेट के पिपासुओं कि प्यास नहीं बुझा सकता। इसकी बढती लोकप्रियता इसकी महानता का पैमाना नहीं है। दरअसल हम उस देश के वासी है जहाँ हर विचार हिट होता है। देश की दशमलव पांच प्रतिशत जनता किसी भी विचार को सुपर-डुपर हिट करने को काफी है। इस छोटे से आंकड़े को जुटाना बहुत मशक्कत का काम नहीं है।

इस क्रिकेट के होने से सरहदों के मिटने का भ्रम न पाले। सरहदों का निर्माण हमारी कुछ ज्यादा ही समझ का परिणाम है। विभाजन हमारे स्वार्थ से पैदा हुआ है। दीवारें हमारी कभी न मिटने वाली इच्छाओं का परिणाम है। गनीमत है हवा-पानी और ये ज़मीन खुद नहीं बटती नहीं तो इंसानी अस्तित्व ही खतरे में हो जाये। रिफ्यूजी फिल्म का एक गीत है "पंछी नदिया पवन के झोंके कोई सरहद न इन्हें रोके, सरहद इंसानों के लिए है सोचो मैंने और तुमने क्या पाया इन्सान होके" खुद से यही हमारा प्रश्न है कि इन्सान होके हमने कर क्या लिया? शिक्षित होकर हम वेवकूफ क्यों हो रहे हैं, हम पैदा तो ऐसे नहीं हुए थे।

खैर दुनिया की गतिविधियों के बारे में सोचना तो संभव है पर उन्हें बादल पाना मुश्किल। हर चीज का तार्किक होकर खुद को विचार करना है। सही-गलत का उत्तर हमें अपने-आप से ही मिलेगा। बहरहाल देखते हैं इस बार आईपीएल क्या रंग दिखाता है।