Tuesday, September 18, 2012

कुछ "बरफी" के बहाने से........

आनंद जितना ज्यादा अपने चरम पर पहुंच कर नीचे उतरता है वो उतना ही गहरा दर्द बन जाता है। ज़िंदगी की कश्मकश भी अजब है जिसमें सुख-दुख का ताना-बाना कुछ इस ढंग से बुना होता है जिसमें समझ पाना मुश्किल होता है कि जिंदगी की खुशियां, गम को मुंह चिड़ा रही हैं या दर्द के साये खुशियों को हराने की जुगत में लगे हैं। दरअसल ख़ुशी या ग़म के पैमाने हमारी नज़र तय करती है यही वजह है कि कई बार दूर से दिखने वाली त्रासदियां करीब से देखने पर हसीन जान पड़ती हैं तो कई बार दूर से दिखने वाली रंगीनियां पास जाने पर त्रासद नज़र आती हैं।

बरफी...हंसाती है, रुलाती है, तड़पाती है तो कई बार अपनी गिरेबान में झांकने पर मजबूर भी करती है। अनुराग बासु की ये डिश उनकी उस छवि से बिल्कुल अलग है जिस फ्लेवर का टेस्ट अनुराग ने हमें उनकी 'लाइफ इन अ मेट्रो', 'गैंगस्टर' और 'मर्डर' जैसी पिछली फ़िल्मों में चखाया था। 'मेट्रो' बेहतरीन थी पर उसमें चरपरापन था लेकिन फिर भी उसका तीखापन लुभाता है। 'गैंग्सटर' भी लाजबाब थी जिसका कड़वापन मुंह में रखते वक्त तो चुभता है पर गले से नीचे उतरने के बाद स्वाद याद आता है। 'मर्डर' का स्वाद कसायला था जो चखते वक्त और गले से नीचे उतरने के बाद भी रास नहीं आती लेकिन फिर भी इसे बार-बार चखने की क्युरोसिटी बनी रहती है और कई मनचलों ने इसे कई-कई बार चखा है। तो बरफी का टेस्ट पूरी तरह से अलग है जो बहुत-बहुत-बहुत ज्यादा मीठा है पर फिर भी डायबिटीज़ की संभावना शुन्य है। इस फ़िल्म को देखने के बाद लगता है कि निश्चित ही ये किसी बेहद संवेदनशील और ज़िंदगी के प्रति सकारात्मक रवैया रखने वाले इंसान की ही कृति हो सकती है...अनुराग की छवि को बदल कर रख देने वाला सिनेमा...बेमिसाल, अद्बुत।

एक गुंगे-बहरे इंसान से जीने की कला सीखी जा सकती है...जिंदगी ने उसके साथ इंसाफ नहीं किया है पर वो जिंदगी के साथ इंसाफ करना जानता है। ये गुंगा बेहद वाचाल है औऱ अत्यधिक तफरीबाज़ भी। एक आम युवा की तरह उजड्डीपन लिए हुए...उसी तरह लंपट, उद्दंड, लडंकीबाज़। ये बहरा वो चीजें सुनता है जो शायद कान वालों को सुनाई नहीं देती। यही वजह है कि ये बड़ी-बड़ी खुशियों के बजाय..छोटी-छोटी चीजों में खुशियां ढूंढता है...उसकी इस खूबसूरत फ़ितरत को बखूब बयां किया है स्वानंद किरकिरे ने-"इत्ती सी ख़ुशी, इत्ती सी हंसी..इत्ता सा टुकड़ा चांद का..."और ये चांद का इत्ता सा टुकड़ा, पूनम के चांद से ज्यादा रोशनी फैलाता है। इस अशक्त पात्र की खुशी को देखने की एक नज़र ये भी हो सकती है कि जिसके जीवन में इतनी बड़ी निशक्तता का दर्द है उसे अब कौन-सी दूसरी चीज़ परेशान कर सकती है।

इसके इसी खिलंदड़पन पर वो लड़की अपना दिल हार बैठती है जिसकी पहले से शादी तय हो चुकी है और उसके जीने का अंदाज बदल गया है। लेकिन जिस समाज में धन-दौलत, धर्म-जाति-वर्ग गत अंतरों के कारण प्यार की अस्वीकृति होती है वहां इतनी बड़ी शारीरिक विकलांगता के भेद कैसे स्वीकार किए जा सकते हैं। लड़की की मां नायक की ख़ामोशी को रिश्ते के ख़ामोश हो जाने की वजह बताती है और उसे एक खुशहाल जिंदगी चुनने की हिदायत देती है। जिस उदाहरण को प्रेम की विचारणा को त्यागने के लिए प्रस्तुत किया जाता है उससे प्रेमिका संतुष्ट भी हो जाती है और जिस खुशहाल ज़िंदगी को चुना जाता है वहां जुवां है, लफ़्ज हैं फिर भी सतत खामोशी है। यहीं लफ़्जों की खामोंशी और ख़ामोशियों के लफ़्ज समझ आते हैं। फ़िल्म के अंत में अपने इस फैसले पर पश्चाताप करते हुए प्रेमिका कहती है जिंदगी में हम खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम देखते है प्यार नहीं पर जहां प्यार होता है वहां खुशियां, संपन्नता, ऐशोआराम खुद ब खुद पीछे चले आते हैं।

कई छोटे-छोटे दृश्य बेमिसाल बन पड़े हैं..फ्रेम दर फ्रेम फ़िल्म गुदगुदाती हुई आगे बढ़ती है पर इस गुदगुदी में कुछ कतरा आंसू की बुंदे अनायास ही शामिल हो जाती है। फ़िल्म का एक छोटा सा नकारात्मक पक्ष फ़िल्म का संपादन है जो फ़िल्म की गति को धीमा करता है। रणवीर और प्रियंका का अभिनय उनके करियर के सर्वोत्तम शिखर पर है। रणवीर ने अपनी सितारा हैसियत का कद काफी उंचा कर लिया है..संवेदना से लबरेज दृश्यों और खिलंदड़ स्वरूप में वे कमाल करते हैं।अपने प्रेमप्रस्ताव को ठुकराए जाने के बाद बारिश में अपनी प्रियतमा के साथ वाले दृश्य में उनकी अदाकारी की संजीदगी देखी जा सकती है... प्रियंका का किरदार चुनौतीपूर्ण है क्योंकि एक मुख्यधारा की सितारा अभिनेत्रियां इस तरह के नॉन-ग्लैमरस् किरदार निभाने से कतराती है पर प्रियंका ने इस किरदार को बखूबी जिया है और खुद को शिखर की नायिका साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इंस्पेकटर के किरदार में सौरभ शुक्ला राहत देते हैं। नई अभिनेत्री इलियाना डिक्रुज़ खुबसूरत लगती हैं और अनुराग ने बड़ा सधा हुआ अभिनय उनसे करवाया है। फ़िल्म का संगीत बेहतरीन है और फिल्म देखते वक्त तो बेहद मधुरतम अहसास पैदा करता है। कुल मिलाकर फ़िल्म को एक क्लासिक दर्जा दिलाने वाले सारे तत्व मौजूद हैं।

खैर, अपनी तरह की एक अद्वितीय फ़िल्म है...गर न देखी हो तो ज़रूर देख कर आईये। भले बहुत कुछ फ़िल्म के बारे में कह दिया है पर ये ऐसी बरफी है जिसका स्वाद जिस ढंग से महसूस होता है उस ढंग से बता पाना मुश्किल है...पर यकीनन इस बरफी का स्वाद काफी बाद तक आपके ज़हन में रहेगा।

Wednesday, September 12, 2012

माय आइडियोलॉजी ऑल थ्रु द लाइफ, व्हाट वे यू कंन्विस....

अंग्रेजी का ये वाक्य मुझे फ़िल्म निर्देशक कबीर ख़ान के हाल ही में इंडिया टुडे को दिए एक इंटरव्यु के बाद याद आया। हालांकि मेरे अग्रज वरुण सर ने एक बार कबीर ख़ान की फ़िल्म 'एक था टाइगर' के रिलीज के वक्त इस सेंटेंस का ज़िक्र किया था लेकिन तब इसके भाव को मैं उतने अच्छे से नहीं समझ पाया था जितना कि उस इंटरव्यु को पढ़ने के बाद समझ पाया हुं...कबीर ख़ान का कहना था कि कोई इंसान चाहे कितना भी निष्पक्ष क्युं न हो किंतु सबके अपने-अपने पुर्वाग्रह होते हैं और वो अपनी अभिव्यक्ति में इस बात की कोशिश करता है कि सामने वाले को अपनी विचारप्रणाली से प्रभावित कर पाए। गोयाकि 'हम तो भाई जैसे हैं वैसे रहेंगे'।

 बहरहाल, इस वाक्य को यहां उद्धृत करने का मेरा उद्देश्य कुछ फ़िल्म निर्देशकों की विचारप्रणाली और उनकी फ़िल्मों की पड़ताल करना है। कबीर ख़ान की फ़िल्म 'एक था टाइगर' ब्लॉगबस्टर धमाल मचा चुकी है करोड़ो की बरसात से इसने यशराज कैंप और कबीर ख़ान के चेहरे पे खुशी ला दी है और कुछ खबरिया चैनल इसकी तुलना महान् 'थ्री इडियट्स' से करने की बचकाना हरकत कर रहे हैं जो कुछ ऐसा ही प्रतीत हो रहा है जैसे कि किसी वैश्या के मुजरे की तुलना शास्त्रीय नृत्यांगना के भरतनाट्यम से की जा रही हो। सफलता का पैमाना नोटों की बरसात को बनाया गया है। दरअसल सलमान की फ़िल्म सिर्फ सलमान की होती है वो किसी निर्देशक या प्रोडक्शन हाउस की फ़िल्म नहीं रह जाती। सलमान की लोकप्रियता का रसायन समझना दिमाग से बाहर की बात है। 

खैर, बात दुसरी करना है पाकिस्तान में 'एक था टाइगर' के प्रदर्शन पर रोक लगा दी गई थी क्योंकि आईएसआई का जिस ढंग से ज़िक्र किया गया है वो पाकिस्तान को नागवार गुज़रा। ये एक हठवादी फैसला ज़रुर लग सकता है लेकिन भारत को भी इस बात पर आपत्ति होना चाहिए थी कि आतंकवाद को बढ़ावा देने वाली आईएसआई की तुलना प्रतिष्ठित रॉ से करना कतई ठीक नहीं है। लेकिन अजब-गजब भारत में इस फ़िल्म ने कमाई के नए आयाम स्थापित किए। आईएसआई मुल्ला परस्ती के साये में आतंक और सिर्फ भारत के खिलाफ आतंक फैलाने में सहायक होती है। यह बात कई आतंकियों के पकड़े जाने के बाद अंतरराष्ट्रीय प्लेटफॉर्म पर भी साबित हो चुकी है। किंतु रॉ के बारे में अब तक ये बात साबित नहीं हो पाई है। लेकिन एक आम दर्शक वर्ग जो रॉ और आईएसआई की इन कुंडलियों से बेखबर है वो इस बात को मोटे तौर पे मानने लगा है कि ये दोनों संगठन एक समान हैं।

ऐसा नहीं है कि कबीर ख़ान आईएसआई के समर्थक हैं लेकिन उन्हें ऐतराज रॉ से भी है ये ज़ाहिर होता है। यही वजह है कि उन्होंने एक प्रेम कहानी की चासनी में डुबोकर इतना भारी डोज़ आम जनता को दिया है और लोगों की धारणा में ये बात कुछ हद तक जम भी गई है। कबीर ख़ान एक पत्रकार और डॉक्युमेंट्री निर्देशक के तौर पर कई सालों तक काम कर चुके हैं कई देशों का भ्रमण किया है और 9/11 के अमेरिकी हमले के बाद का वैश्विक परिदृश्य उन्होंने देखा है तथा मुस्लिम देशों और आवाम के साथ होने वाले सौतेले व्यवहार के प्रति उनके दिल में आक्रोश है। जिस आक्रोश को वो भारतीय परिवेश में ढालकर मीठे गुलगुलों के साथ अपनी फ़िल्मों में प्रदर्शित करते हैं। उनकी पिछली फ़िल्म 'न्युयार्क' में भी हम इस बात की झलक देख सकते हैं जहां पूरी फ़िल्म में वे एक मुस्लिम अमेरिकी प्रवासी द्वारा हमले की योजना और उसके उद्देश्य को महिमामंडित करते रहते हैं तथा अंत में एक धर्मनिरपेक्ष, समाजवादी विचारधारा के साथ फ़िल्म को ख़त्म करते हैं। लेकिन वे शायद ये भूल जाते हैं कि अमेरिका का ये कड़ा रवैया दूर से देखने पर भले तानाशाह और सामंतवादी नज़र आए लेकिन उनके इसी रवैये के कारण पिछले ग्यारह सालों में वहां आतंकी हमला, बमविस्फोट तो दूर एक दिवाली का संगोला भी कोई नहीं फोड़ पाया। कबीर की पहली फ़िल्म 'काबुल एक्सप्रेस' एक गुणवत्तापरक, बेहतरीन फ़िल्म थी लेकिन उस फ़िल्म में भी दो पत्रकारों के ज़रिए एक पाकिस्तानी और अफगानिस्तानी के बीच हुए संवाद ये जता रहे थे कि अमेरिकी नीतियां पूरी तरह ग़लत हैं और आतंक को पनाह दे रहे तालिबान पर की जा रही कार्यवाहियां ठीक नहीं हैं। हालांकि जिस प्लॉट पर फ़िल्म विकसित हो रही थी वो बहुत ही जायज़ और इंसानियत के नैतिक मुल्यों को लिए हुए था फिर भी कबीर के पुर्वाग्रहों की झलक हम उनमें देख सकते हैं और खास तौर पर तब वे पुर्वाग्रह और अधिक समझ आते हैं जब लोग 'एक था टाइगर' और 'न्युयार्क' देख चुके हों।

कोई भी निर्देशक या साहित्यकार जब अपनी पहली कृति प्रस्तुत करता है.. तो उसमें समाहित विषयवस्तु प्रथमबार में कुछ अनछुए पहलुओं को उजागर करने के कारण प्रशंसनीय मानी जाती है.. पर जब आप लगातार वही विचारधारा, उन्हीं पहलुओं को दिखाते हैं तो उनकी आलोचना होना स्वाभाविक हैं...क्योंकि 'वैसा है' ये तो माना जा सकता हैं लेकिन 'सबकुछ सिर्फ वैसा ही है' ये नहीं माना जा सकता। लेकिन निर्देशक अपने इन आग्रहों से बाहर नहीं आ पाते और जब कभी आना चाहते हैं तो वो सिनेमाई पटल पर वह कमाल नहीं दिखा पाते.. जो वो अपने आग्रहों का ट्रीटमेंट कर दिखाते हैं...क्योंकि अपनी विचारधारा से दूसरे को प्रभावित करने की खुशी काम में स्वाभाविकता ला देती है। 

सिर्फ कबीर ख़ान ही क्यों..हम कुछ दूसरे फ़िल्मकारों की फ़िल्मों को भी देख सकते हैं। महान् फिल्मकार बिमल रॉय ने अपनी फ़िल्मों में सदा उस प्रेम को प्रदर्शित किया जो परिस्थितियों को भलीभांति समझ कर, सहज, गैर-पारंपरिक ढंग से पैदा होता था उनकी फ़िल्मों में परिस्थितियां महत्वपूर्ण थी नाकि प्रेम या रिश्ते-नाते...जिसे शायद उन्होंने अपनी ज़िंदगी में अनुभव किया हो। राज-कपूर का अंदाज हमेशा दार्शनिकता लिए होता था...और वे अपनी फ़िल्मों के किरदारों को, प्रेम को, तनावों को, गरीबी को, यहां तक की संभोग को भी किसी दुसरी दुनिया में ले जाकर दार्शनिकता का चोगा पहना देते थे। कई असफल रिश्ते और प्रेम की नाकामयाब पारियां खेलने वाले गुरुदत्त कि हर फ़िल्म बस यही जताती थी कि 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है'। उनके दिल में एक टीस थी जिसे वो बखुबी परदे पर प्रस्तुत करते थे। फ़िल्म 'प्यासा' का लेखक हो या 'साहब बीबी और गुलाम' की बहुरानी दोनों एक कसक लिए जी रहे हैं। जिन्हें दुनिया में प्रेम की तलाश है लेकिन जो माहौल उनके ईर्दगिर्द है वहां वो प्रेम, अपनापन नहीं मिल रहा। उनकी इन फ़िल्मों में ही गुरुदत्त की आत्महत्या की वजह तलाशी जा सकती है। श्याम बेनेगल का कैमरा बेवफा पत्नी, वैश्याओं, अपराधी सरगनाओं को यथार्थ मानता है और इसे ही आज की दुनिया के समानांतर महसूस करता है। 'मंडी', 'मंथन', 'भुमिका' देख ये समझा जा सकता है। श्याम बेनेगल का हास्य भी कटु यथार्थ से पैदा होता है और वे 'वेलकम टु सज्जनपुर' और 'वेलडन अब्बा' का निर्माण करते हैं।

पुराने फ़िल्मकारों की बात छोड़ भी दे तो आज के फ़िल्मकारों ने भी अपनी कुछ लीक तय कर रखी है। सूरज बड़जात्या ने अपने घर में शायद हमेशा एक खुशनुमा माहौल देखा होगा इसलिए उन्हें हर तरफ हरा-हरा नज़र आता है। उनकी फ़िल्में रामायणनुमा आदर्श की स्थापना करती देखी जाती है पर वे महाभारतनुमा यथार्थ से कोसों दूर है उनके अपने पूर्वाग्रह है। तो रामगोपाल वर्मा 'सत्या' और 'कंपनी' में स्याह दुनिया दिखा कर कमाल करते हैं और जब कभी सीधी-सपाट प्रेमकहानी बनाने की कोशिश करते हैं तो फिजूल के डिब्बों को जन्म देते हैं। उन्हें अंडरवर्ल्ड के बाद भूत ही नज़र आते हैं सहज, शांत, आदर्श इंसान नहीं। तो ग्लैमर जगत की बखैया उधेड़ने में मधुर भंडारकर का कोई सानी नहीं...उन्होंने बड़े करीब से ग्लैमर वर्ल्ड की हकीकत जानी है तथा मधुर का नाम खुद एक बी ग्रेड फ़िल्म की नायिका के साथ विवादों में रह चुका है जिससे उन्हें इस चाकचिक्य की दुनिया के खासे अनुभव हैं और इसे लेकर अपनी ही एक विचारप्रणाली...यही वजह है कि कार्पोरेट, फैशन, फ़िल्म इंडस्ट्री से लेकर मीडिया जगत तक को वो नंगा कर चुके हैं। यश चोपड़ा और उनके नक्से कदम पर आगे बढ़े आदित्य चोपड़ा और करण जौहर का सिनेमा कश्मीर, स्विटजरलैंड, शिफॉन और करवाचौथ के नाम से मशहूर है ही। जिसकी मुख्य टारगेट ऑडियंस अप्रवासी भारतीय रहा करते हैं। दरअसल न तो सूरज बड़जात्या द्वारा प्रदर्शित हरियाली ही पूर्णतः सत्य है नाही भंडारकर और बेनेगल द्वारा वर्णित सामाजिक बंजरपन। दोनों बस एकदेश सामाजिक यथार्थ को बयां करते हैं।

खैर, इस वर्णन का कोई अंत नहीं है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वाले इस देश में सबको अपने पुर्वाग्रह परोसने का अधिकार है पर ये ध्यान रखना भी ज़रुरी है कि आपके पुर्वाग्रह किसी दूसरे इंसान को आहत न करें..कुछ आचार संहिताएं स्वयं से निर्धारित करने की ज़रुरत है। बात कबीर ख़ान से शुरु हुई थी और हमने इसमें कई निर्दशकों का पोस्टमार्टम कर डाला। वैसे हर निर्देशक की फ़िल्में देखने के मेरे अपने भी कुछ पुर्वाग्रह हैं और ये वर्णन भी उन पूर्वाग्रहों से अछूता नहीं रह सकता। वास्तव में तो हमारी नज़र ही इन पूर्वाग्रहों को सही या ग़लत ठहराती है। शेक्सपियर का एक वाक्य है जिससे अपनी बात ख़त्म करुंगा- "नथिंग इज गुड, नथिंग इस बैड...बट अवर थिंकिंग मेक इट सो"