ऑन योर मार्क..गेट सेट..गो- और तेजी से अपने साथी प्रतिस्पर्धियों को पछाड़ता हुआ, एक सरदार स्क्रीन के सामने आता है। टिकट लेकर बमुश्किल से सीट को ढूंढकर हम थियेटर में बैठते ही हैं..कि कई वाइड शॉट और एक्स्ट्रीम क्लोसअप में फिल्माये गये रेस के कई बेहतरीन दृश्य रोमांच पैदा कर देते हैं। लेकिन ये रेस, सेकेंड के सौवे भाग से मिल्खा सिंह हार जाता है...और चंद मिनटों बाद हम फ्लेशबैक में और फिर फ्लैशबेक के भी फ्लैशबेक में पहुंच जाते हैं...जिसमें छुपा हुआ है, पाकिस्तान के एक छोटे से गाँव पिंड में पैदा हुए सरदार की, मिल्खा सिंह बनने की कहानी का राज....
फ्लैशबेक में एक और दौड़ हमारे सामने आती है..इस बार मिल्खासिंह का मुक़ाबला राष्ट्रीय चैंपियन से हैं और इस बार भी मिल्खा, लगभग आधी रेस में आगे रहने के बावजूद हार जाता है...लेकिन फिर भी उसका राष्ट्रीय टीम के लिये चयन होता है क्योंकि आधी रेस के बाद, नंगे पैर भाग रहे मिल्खा सिंह के पैर में पत्थर चुभा होता है...उसके पास रेस में हार जाने का एक बहाना है लेकिन जिंदगी की राह में आने वाला हर पत्थर इतना बड़ा नहीं होता कि दुनिया की नज़र में आ जाये। दुनिया आपको सिर्फ हासिल की हुई उपलब्धियों से आंकती हैं रास्तों की बाधाओं से नहीं। दुनिया में सिर्फ हारे और जीते हुए लोगों के दो वर्ग होते हैं..एक को गालियाँ मिलती हैं तो दूसरे को तालियाँ। तीसरा कोई ग्रुप अपने संघर्ष और लाचारियों का वास्ता देकर लोगों की सहानुभूति नहीं हासिल कर सकता..दुनिया की यही असंवेदनशील प्रकृति ही दुनिया का सच है। देश को दर्जनों मेडल दिलाने वाले मिल्खा सिंह की तारीफों के पुल बाँधने वाले लोग, उसके रोम ओलंपिक में पराजित हो जाने पर पुतले फूंकते नज़र आते हैं क्योंकि दुनिया को इस हार की वजह बना वो पत्थर नज़र नहीं आता..जिसके अक्स अतीत में विद्यमान हैं..और उस चुभन देने वाले पत्थर की और मिल्खा सिंह के संघर्ष की, ही कहानी है भाग मिल्खा भाग।
रास्तों के पत्थरों से पहले चोटें मिलती हैं और फिर पराजय..पर इसके साथ ही मिलता है अनुभव। उस चोट को देखने के लिये आप जब-जब भी झुकेंगे, तब-तब हारेंगे..और उस चोट पे से नज़र हटाके गर अपने अनुभव के साथ, अपनी निगाहें आगे रखते हुए सिर्फ अपने लक्ष्य को देखेंगे तो हमेशा जीत नसीब होगी। हर एक इंसान के दिल में कई महीन पत्थर चुभे हुये हैं..जिनकी कसक सदा एक दर्द बनकर आये दिन उठती रहती है। ऐसे में आपके पास दो विकल्प हैं या तो उस कसक को अपनी राह का रोड़ा बनने दो..या फिर उस कसक को एक चिंगारी में बदल दो..जो चिंगारी रूह को रोशन तो करती ही है..साथ ही उससे पैदा होते हैं- "Hard Working, Will Power & Dedication और जिसके पास ये तीन मानवीय गुण हैं तो दुनिया का ऐसा कोई मुकाम नहीं जिसे वो हासिल न कर पाये"। मिल्खा सिंह की कही इस पंक्ति के साथ ही फ़िल्म ख़त्म होती है। लेकिन ख़त्म होने से पहले इस पंक्ति के मायने, मिल्खा सिंह के जीवन के ज़रिये हमें समझा जाती है...जो मायने शायद हम तब न समझ पाते, जबकि सामान्य ढंग से हमसे ये बात कही जाती।
भारत-पाक पार्टिशन का दंश झेलना, अपने परिवार के लोगों की मौत देखना और अपने पिता के द्वारा उस दौरान ही कहे गये ये तीन शब्द 'भाग मिल्खा भाग', जिससे मिल्खा दुश्मनों से अपनी जान बचा सके..ये शब्द हमेशा मिल्खा के कान में गूंजते हैं और जब ओलंपिक जैसे बढ़े मंच पर भी ये शब्द उसके कानों में पढ़ते हैं..तो उसके सामने रेस कोर्ट नहीं, बल्कि सन् 47 का वही काला मंज़र होता है..जिसके चलते मिल्खा आज तक भाग रहा है।
जीवन के कठिन संघर्ष को बयां करती ये कहानी, हमें अंत तक रोमांचित किये रहती है..राकेश ओम प्रकाश मेहरा का बेहतरीन निर्देशन फ़िल्म की मनोरंजकता बरकरार रखते हुए, फ्लाइंग सिक्ख मिल्खा सिंह की जीवनी को बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत करता हैं। कई बार हम हमारे बदन में भी एक सिहरन महसूस करते हैं, मानो हम मिल्खा सिंह की रेस को सीधे मैदान में बैठके देख रहे हों। इस तरह की फ़िल्मों में, जिसमें कि स्पोर्टस् का एक अहम् हिस्सा होता है...निर्देशक की ये बड़ी जिम्मेदारी होती है कि वो कथानक में वैसी ही तेजी दिखाये जैसी रफ्तार और उतार-चढ़ाव किसी खेल के अंदर होते हैं। सिनेमेटोग्राफर और विडियो एडीटर की भूमिका भी इन फ़िल्मों में काफी मायने रखती है...क्योंकि दृश्य के फिल्मांकन और संयोजन से ही ये संभव हो पाता है कि दर्शक उस माहौल को वर्तमान में महसूस करे। ऐसे में फिल्मांकन और संपादन के मामले में ये फ़िल्म अव्वल दर्जे की है...फिल्मांकन का ही कमाल है कि कई बार हम बरबस ही अपनी सीट से आगे की ओर खिंचे चले जाते हैं। फिल्म में प्रस्तुत लोकेशन उस काल को बखूब जीवंत बनाती हैं।
फरहान अख्तर ने कमाल का अभिनय किया है..इस फिल्म के लिये जिस डील-डोल का निर्माण उन्होंने किया है और जिस गेटअप में वो प्रस्तुत हुए हैं वो हूबहू मिल्खा सिंह की जवानी को तरोताजा करता है। दिव्या दत्ता, विजय राज, पवन मल्होत्रा ने भी अपने-अपने किरदार के अनुरूप कमाल का अभिनय किया है। यूं तो सोनम कपूर फिल्म की मुख्य नायिका है पर लगभग तीन घंटे की फिल्म में उनके हिस्से 20-25 मिनट का ही किरदार आया है..लेकिन अपने इस संक्षिप्त किरदार के साथ उन्होंने न्याय किया है। मिल्खा सिंह की त्रासद कहानी होने के बावजूद राकेश मेहरा ने हास्य के लिये फिल्म में अच्छी जगह बनाई हुई है और मिल्खा सिंह की प्रेम कहानी और कैंप के दृश्यों के दौरान दर्शकों को काफी गुदगुदाया भी है। प्रसून जोशी के संवाद और उनके लिखे गीत उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप हैं...इन गीतों को शंकर-अहसान-लॉय ने अपने संगीत से लयबद्ध किया है जो फिल्म देखते हुए काफी मनोरंजक और अर्थप्रधान महसूस होते हैं।
एक सार्थक सिनेमा है जिसे देखा जाना चाहिये...राकेश ओमप्रकाश मेहरा के लिये ये फ़िल्म 'दिल्ली-6' के हादसे से उबारने वाली साबित होगी..लेकिन फिर भी ये राकेश की नायाब फिल्म 'रंग दे बसंती' के स्तर की नहीं है...उस स्तर की तो खैर हो भी नहीं सकती क्योंकि रंग दे बसंती जैसी फ़िल्में बनाई नहीं जाती...बन जाती हैं।
पीछे मुडकर देखने वाला हर मिल्खा हारेगा
ReplyDeleteक्या बात है अंकुर आपका ...ज़वाब नही आपकी समीक्षा का ....पूरी पिक्चर का मज़ा आ गया
ReplyDeleteकायल हो गया हूँ ..आपके लेखन का !
शुभकामनायें!
सही कहा कि दुनिया केवल आपको आपकी उपलब्ध्यिों से नापती है.......रास्ते में आई बाधाओं से उसे कोई मतलब नहीं।
ReplyDeleteविचारात्मक अच्छी समीक्षा।
Delete"Hard Working, Will Power & Dedication और जिसके पास ये तीन मानवीय गुण हैं तो दुनिया का ऐसा कोई मुकाम नहीं जिसे वो हासिल न कर पाये"।
ReplyDeletevery right .
सच ही कहा आपके पास दो ही विकल्प है या तो उस कसक को राह का रोड़ा बनने दे या उस कसक को एक चिंगारी में बदल दें..... बहुत ही प्रेरणात्मक समीक्षा !!
ReplyDeleteमिल्खा सिंह की जिंदगी पर इससे बेहतर और सुंदर फिल्म बनाई जा सकती थी, इसे बनाने में मेहरा असफल रहे हैं। मुझे यह फिल्म दिल्ली ६ से भी बुरी लगी। आपने सच कहा कि रंग दे बसंती का जो रिकार्ड मेहरा ने कायम किया है उसे तोड़ना मेहरा के लिए भी मुश्किल है।
ReplyDeleteदुनिया आपको सिर्फ हासिल की हुई उपलब्धियों से आंकती हैं रास्तों की बाधाओं से नहीं।: very well said. now-a-days i read only ur reviews. Thanx 4 sharing.:-)
ReplyDeleteThnx Sangeeta Di :)
Deleteएक बेहतरीन फिल्म की बेहतरीन समीक्षा की है आपने ... बधाई इस प्रस्तुति के लिए
ReplyDeleteमेहनत करने वालों पर फिल्में देखकर अच्छा लगता है..
ReplyDeleteवाह ! शानदार प्रस्तुति . एक - एक शब्द का चयन बहुत ही खूबसूरती से किया गया है .बधाई .
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग स्वप्निल सौंदर्य अब ई-ज़ीन के रुप में भी उपलब्ध है ..एक बार विसिट अवश्य करें और आपकी महत्वपूर्ण टिप्पणियों व सलाहों का स्वागत है .आभार !
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-स्वप्निल शुक्ला