Tuesday, December 30, 2014

धोनी! बस एक यही सरप्राइस अच्छा नहीं लगा...

वर्ष 2014 का अंत इस ख़बर से होगा उम्मीद नहीं थी...क्रिकेट और क्रिकेट प्रेमियों के लिये शायद सबसे बड़ी ब्रेकिंग। लेकिन एक ऐसी ब्रेकिंग जो कतई अपेक्षित नहीं थी। हालांकि यह सही है कि आस्ट्रेलिया में चल रही मौजूदा टेस्ट सीरिज़ में इंडिया कुछ कमाल नहीं कर पा रही थी और हर कोई धोनी की कप्तानी पर सवाल उठा रहा था और उन्हें कप्तानी छोड़ने की नसीहतें दे रहा था। लेकिन वे महज कप्तानी ही नहीं बल्कि टेस्ट क्रिकेट को भी अलविदा कह देंगे ये किसी ने नहीं सोचा था। सिर्फ 33 वर्ष की उम्र में ये फैसला बहादुरी भरा है और धोनी के नज़रिये से देखा जाय तो यह सही भी होगा...पर क्रिकेट प्रेमियो को यह रास इसलिये नहीं आ रहा क्योंकि किसी को भी क्रिकेट के इस महानतम योद्धा को आलीशान विदाई देने का अवसर नहीं मिला..या कहें कि हम ठीक से अलविदा न कह सके...और जुदा होने से ज्यादा दुखदायी होता है किसी को ठीक से अलविदा न कह पाना।

वर्ष 2007। धोनी पहली मर्तबा कप्तान बने और यह सिलसिला तब से ही शुरु हुआ। भारत को न सिर्फ जीतना सिखाया..बल्कि अधिकारपूर्ण जीत और टीम का वर्चस्व कैसा होना चाहिये यह भी उन्होंने ही बताया अपने निर्णयों से सरप्राइज देने का सिलसिला भी उन्होंने पहले ही मैच से शुरु कर दिया। जब पहले टी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप के टाई हुए पहले मैच में अंतिम निर्णय बॉल आउट के ज़रिये होना था..और धुर विरोधी पाकिस्तान के खिलाफ धोनी ने अपने रेगुलर बॉलर्स की तुलना में सेहवाग और उथप्पा से गेंद फिकवाकर वो मैच जीता। इसी तरह उस वर्ल्ड कप के फाइनल में अंतिम और निर्णायक ओवर जोगिंदर सिंह जैसे चलताऊ गेंदबाज से करवाया...लेकिन बावजूद इसके टीम को जीत का स्वाद चखाया और आगे चलकर इसकी आदत डाली। इस तरह के सरप्राइजेस से भरा उनका पूरा करियर ही रहा।

जब कप्तानी मिली तो जिम्मेदारी भी बढ़ी और इस खिलाड़ी ने टीम हित में निजी स्वार्थों को ताक पर रखकर कई कड़े फैसले लिये। जैसे खुद की बैटिंग पोजिशन में बदलाव। शुरुआत में वे तीसरे नंबर पर खेलने आते थे और उस नंबर पर खेेलते हुए उन्होंने वनडे क्रिकेट की अपनी श्रेष्ठ पारियां (183 और 148 रन) खेली। लेकिन बाद में धोनी छठवे-सातवे नंबर पर सिर्फ इसलिये खेले ताकि निचले क्रम को मजबूती दे सके और परिस्थितियों के अनूरूप टीम को संबल प्रदान कर सकें। अपने बल्लेबाजी क्रम में ज़रूरत के मुताबिक बाद में भी कई परिवर्तन किये। कभी वे आठवे नंबर भी खेले और ज़रूरत पढ़ने पर चौथे या वापस तीसरे नंबर पर भी खेलने उतरे। 2011 के क्रिकेट वर्ल्ड कप का फायनल कौन भूल सकता है जहाँ तीसरे नंबर पर बेटिंग कर मुश्किल में फंसी टीम को न सिर्फ परेशानी से बाहर निकाला बल्कि नायाब 91 रन बनाकर भारत को अट्ठाईस साल बाद वनडे विश्व कप जिताया। 

धोनी, शुरुआत में अपनी आक्रामक शैली के लिये जाने जाते थे पर वक्त के साथ उन्होंने अपने रवैये में खासा परिवर्तन किया। कौन भूल सकता है 2007 में इंग्लैण्ड में हुए लार्ड्स टेस्ट मैच को..जब धोनी ने लगभग पूरे दिन बल्लेबाजी कर 203 गेंदों में मात्र 76 रन बनाये और निचले क्रम के साथ मिलकर तकरीबन हारा हुआ मैच ड्रा कराया। बाद मे भारत ने यह टेस्ट सीरिज़ 1-0 से जीती। इसी तरह मेलबोर्न में हुए अपने अंतिम मैच में भी धोनी ने अपने प्रवृत्ति के विरुद्ध बल्लेबाजी से अश्विन के साथ मिलकर मैच को ड्रा कराने में सफलता पाई। यह सारी चीज़ें सिर्फ टीम हित में..क्योंकि यदि धोनी हमेशा अपना स्वाभाविक गेम और बल्लेबाजी में ऊपरी क्रम पर खेलते तो उनके व्यक्तिगत रिकॉर्ड कई बेहतर हो सकते थे जो कि आज हैं। इन परिवर्तनों को देख हम कह सकते हैं कि वक्त के साथ वे अपनी युएसपी माने जाने वाले लंबे बालों को छोटा करते गये पर उनका कद लगातार बढ़ता गया। 

कैप्टन कूल के नाम से प्रसिद्ध इस खिलाड़ी की सबसे बड़ी विशेषताओं में से एक है इनकी सहजता। ये जीत को जितनी संजीदगी से स्वीकार करते हैं उतने ही धैर्य से अपनी हार और असफलताओं को भी लेते हैं। न इन्हें जीत में बौराना आता है न ही हार में बिखरना। मुझे अच्छे से याद है जब 2007 वनडे वर्ल्डकप में मिली शुरुआती हार के बाद लोगों ने धोनी के घर पर तोड़-फोड़ की थी तब धोनी ने कहा था एक दिन यही लोग मेरे घर की दीवार खड़ी करेंगे। 2011 विश्वकप के बाद यह सच साबित हुआ। इसी तरह 2011 विश्वकप जीतने के बाद जहाँ टीम के खिलाड़ियों के साथ पूरा देश खुशी में पागल हो रहा था तब धोनी के चेहरे पर मात्र एक संजीदा मुस्कान और साम्यता देखी जा सकती थी। गोयाकि धोनी अपने व्यक्तित्व से गीता के स्थिरप्रज्ञ की अवधारणा को जीवंत करते हैं। अनुशासन, धैर्य और लक्ष्य पर तीक्ष्ण नज़र ये चीज़ें भी धोनी से ग्रहण की जा सकती है। यही वजह है कि मैच की अंतिम गेंद तक वे आपा नहीं खोते और आखिर तक प्रयासरत रहते हैं।

एक बेहद सामान्य परिवार और पृष्ठभुमि से आये धोनी...यह साबित करते हैं कि सफलता, संसाधनों की मोहताज नहीं होती..और संसाधनों का पर्याय तो मिल सकता है पर प्रतिभा का पर्याय नहीं मिलता। असीम शोहरत और पैसा कमाने के बावजूद वे संयमित रहे...और कंट्रोवर्सी से दूर। आईपीएल घोटाले मामले में चैन्नई सुपर किंग का नाम उछला पर धोनी ने तब भी सिर्फ वहीं फोकस किया जो उनका वास्तविक काम था। उनके इसी आचरण ने किसी को भी उन पर उंगली उठाना के मौका नहीं दिया। वो कहते हैं न कि आप सिर्फ अपने चरित्र की रक्षा कीजिये आपका यश आपकी स्वयमेव रक्षा कर लेगा। कुछ ऐसा ही धोनी के साथ हुआ। सामान्य से चेहरे-मोहरे वाला युवा देश का स्टाइल आइकॉन बना, ट्रेन में टीटीई की नौकरी करने वाला ये युवा देश का सबसे अमीर सेलीब्रिटी भी बना, लड़कियों में उनका पागलपन छाया और बॉलीवुड में उनकी दीवानगी को बताने वाली 'हैट्रिक' जैैसी फ़िल्म भी बनी..पर इस तमाम चौंधियाने वाली शोहरत के बावजूद उनका ध्यान कभी अपने लक्ष्य से ओझल न हुआ। धोनी के ऐसे कई उदाहरण पेश किये जा सकते हैं जो आज के युवा के लिये प्रेरणादायी हो सकते हैं..क्योंकि सफलता और उसकी निरंतरता सिर्फ प्रतिभा पर निर्भर नहीं करती..उसके पीछे सतत् संघर्ष और मजबूत चरित्र बेहद ज़रुरी होता है।

बहरहाल, धोनी क्रिकेट के इस महत्वपूर्ण फॉरमेट को छोड़कर जा रहे हैं लेकिन अब भी वे हमें वनडे और टी-ट्वेंटी में नज़र आते रहेंगे और हम उम्मीद करेंगे कि इस एक फॉरमेट को छोड़ने से उनका वनडे और टी-ट्वेंटी करियर काफी लंबा हो..और अपनी कप्तानी में वे देश को 2015 का विश्वकप जिताकर एक बार फिर झूमने का मौका देंगे..यह काम धोनी के लिये कोई मुश्किल नहीं है क्योंकि टी-ट्वेंटी और वनडे विश्वकप, आईसीसी चैंपियंस ट्रॉफी, टेस्ट में टीम इंडिया को नंबर वन का खिताब के अलावा अपनी टीम चैन्नई सुपर किंग को दो बार आईपीएल और इतनी ही बार चैंपियंस लीग टी-ट्वेंटी का खिताब जिताया...कहते हैं जीतना एक आदत होती है और धोनी को यह लत बहुत पहले ही पड़ चुकी थी..उम्मीद है वे फिर जीतेंगे। धोनी के इस रिटायरमेंट पर उनके साथी खिलाड़ी सुरेश रैना द्वारा किया ट्वीट काफी सही साबित होता है कि धोनी ने बहादुरों की तरह अगुआई की और बहादुरों की तरह ही विदाई ली। 

Saturday, December 20, 2014

इक बूंद भी उसने न पी पर 'पीके' वो कहलाया था : टिंगा-टिंगा, नंगा-पुंगा दोस्त

वैश्विक परिदृष्य में इन दिनों पाकिस्तान में हुई आतंकवादी वारदात की ख़बर ताजी है..भारत में धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद आये दिन गरमाती रहती है, लव जेहाद जैसे मुद्दें बहस का विषय बने हैं, इसी तरह पाखंड-झूठ-दिखावा और स्वार्थ जैसी दुर्दांत वृत्तियां दुनिया को एक समुचित संतुलन से दूर रखे हुई हैं। इन्ही वजहों से कोई सब कुछ होते हुए भी अगाध तृष्णा के चलते दुखी है तो कोई अभावों के चलते पीड़ित। कोई न मिले हुए को हासिल करना चाहता है तो कोई मिले हुए को गंवाना नहीं चाहता....और इन हालातों में जो मनोभाव व्यक्तित्व का हिस्सा बनता है वो है डर और लालच। फिर इन्हीं मनोभावों से जन्म लेती है धर्म की तथाकथित परिभाषाएं, तथाकथित ईश्वर के रूप और पश्चात ईश्वर एवं धर्म के नाम पर असंख्य आडंवर...अनंत सरहदें।

पीके। आमिर ख़ान अभिनीत और राजकुमार हीरानी निर्देशित एक बेहतरीन फ़िल्म। इन दो लोगों का फ़िल्म से जुड़ा होने ही इसके सार्थक और मनोरंजक होने की गारंटी देती है। हीरानी ने अपनी पिछली फ़िल्मों की तरह इस बार भी अपने कद को और ऊंचा करने का ही काम किया है..या यूं कहें की उनके मन में समाज की दोहरी वृत्तियों को लेकर बेइंतहा छटपटाहट है जो किस्तों में बाहर आ रही है। 'पीके' भी मुन्नाभाई और थ्री इडियट्स की श्रंख्ला को ही आगे बढ़ाती है। हीरानी के नायक सभ्य-सुसंस्कृत समाज के प्रतिनिधि नहीं होते..ये तो गुंडे-मवाली, इडियट्स और दूसरे ग्रह के पियक्कड़ किस्म के नमूने होते हैं जो सभ्य समाज की तमाम संस्कृति की बखैया उधेड़ते हैं। 'पीके' भी कुछ ऐसी ही है। धर्म,  धर्मायतनों और धार्मिकों की सच्चाई बयां करने वाली। ईश्वर के नाम पर चल रहीं सैंकड़ों दुकानों और उनके ठेकेदारों की असल नस्ल का परिचय देने वाली। भगवान के नाम पर इंसान से उसका हक छीनने वालों को उनकी गिरेबान में झांकने पर मजबूर करने वाली।

धर्म, इंसान को नैतिक बनाने के लिये था...ईश्वर, इंसान को अभिमानी बनने से रोकने के लिये था लेकिन अब इस धर्म के नाम पर ही नैतिकता का चीरहरण और इंसान का अभिमान पुष्ट हो रहा है। 'पीके' में कई ज्वलंत सवाल उठाते हुए एक बात कही गई है कि हम उस भगवान को माने जिसकी वजह से हमारी हस्ती, हमारे आचार-विचार और व्यवहार हैं न कि उस ईश्वर को अपनी आस्था का केन्द्र बनाये जिसे हमने अपने-अपने पक्ष पोषण के लिये पैदा किया है। आज धर्म और ईश्वर के नाम पर व्यवसाय हो रहा है, राजनीति हो रही है, बंटवारा हो रहा है, विवाद, लड़ाई-झगड़े और असीम हिंसा हो रही हैं लेकिन धर्म के नाम पर कहीं धर्म नहीं हो रहा। बेशक, हमें धार्मिक होना चाहिये...लेकिन पंथों में बंटे किसी एक ईश्वर का पिछलग्गु होकर नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता या कहें कि समस्त वसूधा को अपने प्रेम में समेटते हुए धार्मिक होना चाहिये। धर्म अपने अस्तित्व का बोध कराने के लिये था लेकिन उस धर्म की प्राप्ति के जतन आज खुद की और कई बार दूसरों की भी हस्ती मिटाकर किये जा रहे हैं। 

हीरानी ने अपनी पिछली फ़िल्मों लगे रहो मुन्नाभाई और थ्री इडियट्स की तरह इस फ़िल्म में भी अपना सिग्नेचर मार्क छोडा है। जैसे उन फ़िल्मों को देखने के बाद गेट वेल सून और ऑल इज वेल जैसे मंत्र ज़हन में छूट जाते हैं वैसे ही 'पीके' देखने के बाद 'राँग नंबर' दिल में चस्पा हो जायेगा..इस राँग नंबर के जरिये निर्देशक ईश्वर को पाने के उन तमाम जतनों पर सवाल उठाता है जिसके चलते देश-दुनिया में धर्म का व्यापार चल रहा है। मसलन फ़िल्म में कुछ ऐसे ही एक गीत के बोल हैं- "दुनिया नशे में टल्ली थी यह होश में उसे लाया था, थर्रा दे जो पूरी धरती को, वो सवाल उसने उठाया था...टिंगा-टिंगा-नंगा-पुंगा दोस्त"

'पीके' समझदारों के बीच भटका है और उसकी सबसे बड़ी मुश्किल इन समझदारों को ही समझना है। तन पर पहने जाने वाले भांत-भांत के वस्त्राभूषण की तरह लोगों ने अपने व्यक्तित्व पर भी असंख्य प्रकार के आवरण डाल रखे हैं और व्यक्तित्व की इन परतों में असल इंसान कौन है यही समझ पाना सबसे जटिल काम है। ज़मीन पर जो इंसान पैदा हुआ था वो ऐसा कतई नहीं था बल्कि जमाने ने समाजीकरण की प्रक्रिया करते हुए इस इंसान को गढ़ा है। जो अत्यंत छली है, असंतुष्ट है, स्वार्थी है और झूठा है और यदि इसने जैसे को तैसा कहना सीख लिया तो यह दुनिया इस पर मूर्ख होने का तमगा ठोंकते देर नहीं करेगी। डिप्लोमेटिक और प्रेक्टिकल होना ही आज की ज़रूरत है और ऐसा बन जाने पर मानवीयता और प्रेम का अक्स आपके व्यक्तित्व में बना रहे ऐसा हो पाना नितांत दुर्लभ है।

पीके में प्रेम कथा भी है...और बड़ी संजीदगी से निर्देशक ने बताया है कि प्रेम सिर्फ सन्निकटता का मोहताज होता है, मात्र सहृदयता का आकांक्षी होता है..इसके अलावा कोई शर्त उसपे नहीं लगाई जा सकती। लेकिन मौजूदा दौर के प्रेम में धर्म, जाति, वर्ग, देश जैसी न जाने कितनी बंदिशें है...धर्म के नाम पर बनाये गये तमाम रिवाज़ परतंत्र बनाये रखने के लिये हैं...प्रेम, स्वतंत्रता का हिमायती है इसलिये प्रेम पर भी धर्म की लकीरों से ही सबसे ज्यादा सरहदें बनाई जाती हैं। आश्चर्य होता है इस छोटे से जीवन और इस तनिक सी दुनिया में जाने कैसे इतनी सरहदें इस इंसान ने बना रखी हैं? 'पीके' का नायक दूसरी दुनिया के इंसान से प्यार कर बैठता है उसकी वजह सिर्फ सहृदयता है समानता कतई नहीं। 

बहरहाल, ज्यादा कुछ कहकर फ़िल्म का चिट्ठा इस पोस्ट में बयां नहीं करना चाहता..और ऐसा मैं कर भी नहीं सकता क्योंकि फ़िल्म के अर्थ बेहद गहरे हैं। एक शब्द में कहें तो ये बेमिसाल है। जिसका जल्द से जल्द थियेटर में जाकर मजा उठाया जाना चाहिये। आमिर खान के करियर में ऐसे अनेक नगीने हैं जो उन्हें दूसरे अभिनेताओं से अलग करते हैं यह फ़िल्म उनका कद समकालीन अभिनेताओं से और भी ऊपर ले जाने वाली है और 'हैप्पी न्यू ईयर' जैसे हादसे रचने वालों को तो ये प्रेरणा देने वाली है। फ़िल्म में कई जगह आमिर का अभिनय बदन में अनायास ही झुनझुनी पैदा कर देता है। खुद को कैसे किरदार में ढाला जाता है यह कोई आमिर से सीखे..नवोदित अभिनेताओं के लिये तो वे एक युनिवर्सिटी बन गये हैं।

विधु विनोद चोपड़ा भी बधाई के पात्र हैं जो इन सार्थक फ़िल्मों पर शिद्दत से काम करते हैं और वर्षों में भले एक फ़िल्म देते हैं लेकिन गुणवत्ता से समझौता नहीं करते। राजकुमार हीरानी के बारे में जो भी कहे वो कम है..संभवतः वे अपने दौर के इकलौते फ़िल्मकार हैं जो विषय की गंभीरता और मनोरंजन दोनों में से किसी को भी अपनी फ़िल्म में कमजोर नहीं पड़ने देते। अन्यथा, विषय के कारण मनोरंजन गौढ़ हो जाता है या मनोरंजन के कारण विषय..पर हीरानी अपवाद है। संगीत आनन्द देने वाला है..और हीरानी की दूसरी फ़िल्मों की तरह सांदर्भिक भी। अनुष्का में ताजगी है..और फिल्म देखने के बाद उनका अभिनय भी याद रखा जायेगा। दूसरे कलाकारों के लिये ज्यादा स्पेस नहीं है...पर जितना है उसमें वे अपने रोल से न्याय करते हैं। कुल मिलाकर कंप्लीट पैकेज। जो कमियां हैं भी तो उन्हें इग्नोर करना ही समझदारी है।

और ज्यादा क्या कहूँ...कुछ दिनों बाद आप खुद देख लीजियेगा कि ये 'पीके' किस तरह लोगों के दिलो-दिमाग पर छाने वाला है...यदि आप अब तक इस नायाब सिनेमा के दीदार से दूर हैं तो शीघ्रता करें..हो सकता है ये नंगा-पुंगा दोस्त पूर्वाग्रहों में भटके आपके दृष्टिकोण को भी सही दिशा दे दे..............

Tuesday, December 16, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : दसवी किस्त


(शुरुआती नौ किस्तों में जीवन के प्रारंभिक अठारह वर्षों की दास्तां सुना चुका हूँ, अब तक की ज़िंदगी के अनुभव बहुत ज्यादा हैपनिंग तो नहीं रहे पर जैसे भी रहे उनमें सिखाने का माद्दा बहुत था। अपने परिवार से निकलकर जिस हॉस्टल में स्नातक किया वहाँ भी माहौल काफी कुछ सुरक्षित ही था और लगभग एक जैसे वर्ग, संस्कृति और प्रकृति वाले लोगों के साथ रहा। अपने हॉस्टल लाइफ का विवरण एक अन्य ब्लॉग पर स्मारक रोमांस और Pinkish Day in Pinkcity नाम से लिखी पोस्ट में कर चुका हूं। इसलिये यहाँ ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा, सीधे आगे की किस्सागोई शुरु करता हूँ। चुंकि पहले कह चुका हूँ मेरी प्रथम पच्चीसी स्वांतसुखाय ही लिखी जा रही है इसलिये किसी से भी जबरदस्ती इसमें प्रवेश करने का आग्रह नहीं करुंगा। अपनी रुचि और समय के अनुकूल ही इसमें प्रविष्ट हों।)

गतांक से आगे....

ज़िंदगी उस वक्त सबसे ज्यादा कठिन हो जाती है..जब सीधे चल रहे रास्तों के बाद अचानक कोई मोड़ आता है। जब फैसले लेेने की घड़ी आती है। जब हमें ऐसे चौराहों पर छोड़ दिया जाता है जहां रास्तों का पता बताने वाले बोर्ड  नहीं लगे होते। लेकिन आप जहाँ हो वहाँ आप रह नहीं सकते और आगे बढ़ने को लेकर निरंतर संशय की स्थिति बनी रहती है। ज़िंदगी हर हाल में फैसले की दरकार कर रही होती है और ऐसे चौराहों से जीवन में पहली बार मुलाकात हो रही थी। हालांकि हाई स्कूल या हायर सेकेंडरी के बाद इस तरह की परिस्थितियां बनती हैं जब फैसला करना होता है लेकिन तब हमारे ज्ञान और विवेक की बजाय माँ-बाप के लिये गये फैसलों की अहमियत ज्यादा होती है। पर स्नातक की परीक्षा करने के बाद पूर्णतः स्वंय की समझ और हिम्मत से ही चुनाव करना पड़ता है। जयपुर के टोडरमल स्मारक में पांच साल पूरे करने के बाद अब फैसले की घड़ी थी, बदलाव की घड़ी थी और बदलाव हमेशा आपको विचलित करता है।

उस परिसर में रहते हुए कभी सोचा नहीं था कि इक दिन इसे छोड़कर किसी और तलाश में निकलना होगा।  दोस्तों का साथ, फुरसत के लम्हे और ऐशो-आराम की घड़ियां अब इतिहास बनने जा रही थी। संघर्ष का सफ़र शुरु हो रहा था। इसलिये मन बड़ा बेचैन था और इन बेचैनियों के दौर में ही आपको अपने सफ़र का अगला रास्ता तय करना होता है। यदि अच्छी किस्मत, हौंसला और हिम्मत न हो तो इस दौर में लिये गये फैसले पूरी ज़िंदगी को ही अंधेरों के भंवर में धकेल सकते हैं। इसलिये जिम्मेदारी ज्यादा थी। जो छूट रहा था उसका ग़म था, जो हो रहा था वो बहुत तनावपूर्ण था और जो हासिल करना है वो बहुत ही कन्फ्युसिंग था। ऐसी मानसिक स्थिति के बीच मैंने ग्लैमर की चकाचौंध में मुग्ध होकर मीडिया को अपना करियर बनाने का मन बनाया। अपने हॉस्टल में मैं स्टार माना जाता था, अच्छा वक्ता, तार्किक दक्षता वाला और कुछ हद तक बुद्धिमान भी समझा जाता था...पर उस छोटे से दायरे में मैं कूपमंडूक ही था और खुद को मिली तनिक सी प्रशंसा में उन्मादी हो रहा था। उस उन्माद ने ही मुझमें ये आत्मविश्वास भरा था कि मैं मीडिया में भी स्टार बन सकता हूँ। लेकिन जैसे ही उस छोटे से कूँए से निकल कर दुनिया के समंदर में पहुंचा तो अपने अदने से कद का ज्ञान हुआ और पता चला कि मियां! यहाँ तो तुमसे कई बेहतर बल्लम खाँ पहले से ही अपनी मंजिल को पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।

बहरहाल, टोडरमल स्मारक के छूटने के साथ ही अब एक नया शहर और नया सफ़र मुझे मिल चुका था। भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में दाखिला लेने जा रहा था और इस युनिवर्सिटी के सामान्य से इंट्रेंस एक्साम ने ही मुझे अपनी गिरेबान में झांकने का अवसर प्रदान कर दिया और ये पता चल गया कि अपने इस झूठे आत्मविश्वास को जितने जल्दी खुद से बाहर किया जा सके उतना बेहतर है क्योंकि ये आत्मविश्वास नहीं अहंकार है और अहंकार के साथ कभी कुछ सीखा नहीं जा सकता। विनम्रता से ही ज्ञान प्राप्त करने की पात्रता प्रगट होती है और विनम्रता ही ज्ञान या शिक्षा का परिणाम होना चाहिये। इंट्रेस टेस्ट में मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ और मध्यप्रदेश का होने के कारण स्टेट कोटे के कारण वेटिंग लिस्ट में भी अंतिम स्थान मिला था। बाद में किस्मत और थोड़ी मिन्नतों के बाद जैसे-तैसे उस युनिवर्सिटी में पढ़ने का अवसर मिला। इससे पहले के कुछ दिन बेहद कठिन और किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाले थे।

6 अगस्त 2007, युनिवर्सिटी में अपनी पहली क्लास अटेंड करने पहुंचा। सब कुछ अलग और नया था। अब तक जो पढ़ा था उसका रत्तीभर भी यहाँ काम नहीं आना था, और जो यहाँ की ज़रूरत थी उसका तनिक भी ज्ञान नहीं था। जो साथी मेरे साथ थे उनमें से कोई दिल्ली विश्विद्यालय, इलाहबाद विश्वविद्यालय और फर्ग्युसन इंस्टीट्युट जैसे देश के नामी-गिरामी शिक्षा संस्थानों से अध्ययन करके मेरे साथ बैठे थे। जिनकी देश-दुनिया के गहनतम मुद्दों पर होने वाली चर्चा मेरे लिये किसी दूसरे ग्रह की बात लगती थी। संस्कृत, अंग्रेजी साहित्य और दर्शनशास्त्र के अध्ययन करने से मैं संस्कारी और चरित्रवान तो था पर बुद्धिमान कतई नहीं। अभी तक सिर्फ ब्वायस् हॉस्टल और कॉलेज में पढ़ाई की थी तो कन्याओं के सानिध्य से ही डर लगता था। लेकिन अब माहौल बदल गया था और ज़िंदगी ओवर फ्रेंक होने की डिमांड कर रही थी। फ्रेंक और बोल्ड होना ज़रुरी तो था पर ये सब रातों-रात तो हो नहीं सकता था। इसलिये अपनी क्लास पढ़कर तुरंत घर भाग लेता। दो-चार ऐसे लोगों से दोस्ती ज़रूर हो गई थी जो मेरी ही तरह अपने अस्तित्व की तलाश कर रहे थे। तब लड़कियों से दूर भागने का कारण मैं लोगों को ये बताता कि मैंं इन सब चीज़ों में अपना टायम वेस्ट नहीं करना चाहता पर सच्चाई यह थी कि मुझमें न तो हिम्मत थी और न लड़कियों से बात करने का हुनर। अन्यथा दिल तो बहुत करता..कि मेरी भी इन सबसे यारी हो, मैं भी मस्तमौला बन यहां-वहाँ घूमो, मैं भी किसी से प्यार करूं और जीभर के अपना समय बरबाद करूं।

लगभग इसी तरह अपना पहला सेमेस्टर गुजार दिया और जयपुर को छोड़े लगभग साल भर हो जाने के बाद भी आये दिन पुराने साथियों और गुजरे दिनों की यादें परेशान करती। वक्त बदल चुका था पर मैं नहीं बदल पा रहा था। अपने पहले सेमेस्टर में कुछ अच्छा हुआ तो वो बस यही कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित एक वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये मेरा चयन युनिवर्सिटी से हुआ और दिल्ली के एक बड़े मंच पर युनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। जिससे अपनी कक्षा के लोगों के बीच कुछ गुमनामी जरूर कम हुई पर तेजी से बन रहे छोटे-छोटे ग्रुप में से किसी भी ग्रुप का सदस्य मैं नहीं बन सका और लड़कियों से दोस्ती अब तक महरूम ही थी। आज सोचता हूँ तो लगता है एक बेहद मूर्खतापूर्ण ख्वाहिश के लिये मैंने कई-कई घंटे फिजूल की हरकतों और विचारों में ज़ाया किये। एक 25-30 लोगों की कक्षा का खेमों में बंटना अपने-आप में बुरा है जिससे हमारे संबंधों और सोच का दायरा भी सिकुड़कर बेहद छोटा हो जाता है और इस तरह छोटे से दायरे में सिमट जाने से सीखने की संभावनाएं भी कम होती है क्योंकि अधिकतम का सानिध्य हमें ज्यादा समझ प्रदान करता है। लेकिन उम्र के उस दौर में यह सब चीज़ें समझ नहीं आती, हम किसी मजबूत और रुतबेदार ग्रुप का सदस्य बनना चाहते हैं और खेमों में बंटकर कब हम स्वार्थी और ओछी प्रवृत्तियां करने लगते हैं पता ही नहीं चलता। खुद को सुपीरियर दिखाने की चाहत में कई दिखावे और झूठे शिगूफे भी हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं।

खैर, किसी ग्रुप्स का सदस्य न होने का दर्द था तो खुशनसीबी भी थी कि ग्रुपिंग में बरबाद होने वाले समय से बचा रहा जिससे कि इस सेमेस्टर में कई किताबें पढ़ी, फ़िल्में देखी जिससे अपने साथियों के बीच का मेरा पिछड़ापन कुछ कम ज़रूर हुआ। पर समझ का दायरा सिर्फ किताबों तक ही सीमित था, ज़िंदगी की समझ तो गलतियां करने और ठोकर खाने से ही बढ़ती है। इस सेमेस्टर के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ज़िंदगी के कई अहंकार और टूटे। जिसके चलते जीवन की महत्ता का आंशिक अहसास हुआ। उन घटनाओं के ज़िक्र के चलते ये किस्त काफी लंबी हो जायेगी, बस इसी विस्तार भय से अभी यहीं रुकना मुनासिब समझता हूँ..पर शायद ज़िंदगी की असली 'साढ़े साती' की शुरुआत अब होने वाली थी। जीवन की क्षणभंगुरता और लम्हों की अहमियत क्या होती है यह समझ आ रहा था..सेहत, समय और संबंधों की कद्र बताने वाली घटनाएं घटना शुरु हो रही थी....उन तमाम घटनाओं के साथ जल्द लौदूंगा..क्योंकि मेरी पच्चीसी का असल सार तो उन घटनाओं में ही है........................

Saturday, November 22, 2014

'वेस्ट ऑफ टाइम' की 'इम्पॉर्टेंस'

राजकुमार हिरानी निर्देशित और आमिर खान अभिनीत साल की सबसे प्रतीक्षित फ़िल्म 'पीके' अपनी रिलीज़ से पहले ही जमकर सुर्खियां बटोर रही हैं। जिनमें हाल ही में बाहर आया फिल्म का संगीत और खास तौर पर 'लव इज वेस्ट ऑफ टाइम' खासा आकर्षित करता है। कोई गहरी और दार्शनिक बात न करते हुए गीत के बोल सिर्फ उन जज़्बातों को बयां करते हैं जो हर युवामन के अनुभूत हैं। युवामन की फितरत को भली भांति समझते हुए गीतकार जहाँ प्यार-व्यार को वेस्ट ऑफ टाइम कहता है तो वहीं आई वांट टू वेस्ट माय टाइम, आई लव दिस भेस्ट ऑफ टाइम कहता भी नज़र आता है।

यकीनन, जब दार्शनिको द्वारा ये कहा जाता है कि प्रेम बुद्धिमानों की मूर्खता और मूर्खों की बुद्धिमानी है। तो इस पंक्ति में प्रेम को वक्त की बरबादी के साथ उसकी उपयोगिता को भी वे बड़े डिप्लोमेटिक तरह से बयां कर देतेे हैंँ। इस दुनिया में अब तक जितना कुछ भी सुना-समझा और अनुभव किया है उसमें इक चीज़ समझ आई है कि ज़िंदगी के अनेक विषयों में से प्रेम ही एकमात्र ऐसा विषय है जिस पर कही गई हर बात सही है। प्रेम पर व्यक्त तमाम नज़रिये अपनी-अपनी जगह सही है और कहीं न कहीं गलत भी। ये जरुरी भी है, मजबूरी भी। इसमें खुशी भी हैं, ग़म भी। इसमें देवत्व भी है और पाशविकता भी। ये ताकत भी देता है और कमजोर भी करता है। ये खुदा की बरकत भी है और अभिषाप भी। ये जीने की वजह भी है और मरने का कारण भी। ऐसी तमाम एक-दूसरे से विरुद्ध लगने वाली चीज़ों का निवास प्रेम में होता है और इनमें से कोई भी नज़रिया यदि प्रस्तुत किया जा रहा है तो वे सब अपनी-अपनी जगह सही है और प्रेम के इन्हीं तमाम रूपों को लेकर हिन्दी सिनेमा में हर तरह के गीत प्रस्तुत हुए हैं। साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं लिखी हैं। साहित्य और सिनेमा के इसी क्रम का एक और सोपान प्रतीत होता है ये गीत जिसमें प्रेम को 'वेस्ट ऑफ टाइम' कहते हुए भी 'एक बार तो इस जीवन मां करना है वेस्ट ऑफ टाइम' जैसे बोल पिरोये गये हैं।

जीवन के सबसे सृजनात्मक समय में होने वाली सबसे गैर-उत्पादक अनुभूति का नाम है प्रेम। लेकिन इस अनुभूति को पा लेने के बाद व्यक्ति में जिस रचनात्मकता की वृद्धि होती है वो बिना इसके हासिल किये नहीं हो सकती। इसलिये शायद कहा है कि इंसान के जीवन में सबसे क्रांतिकारी परिवर्तन तब होते हैं जब उसके जीवन में या तो कोई लड़की आ जाती है अथवा जीवन से चली जाती है। दोनों ही कंडीशन में किसी हमदर्द की जीवन में मौजूदगी तो जरुरी है ही क्योंकि जाने के लिये भी उसे आना होगा ही। प्रेम परिपक्वता देता है और जीवन को सतही सोच से परे ले जाकर कई ऐसे गहरे अनुभवों का दीदार कराता है जो बिना प्रेम के संभव नहीं। प्यार के जीवन में आविर्भाव के बाद हम अपने प्रेमी को कितना समझ पाते हैं यह तो फिर भी एक विवादित प्रश्न है लेकिन हम खुद के व्यक्तित्व की कई अनगढ़ परतों से अपना परिचय पा लेते हैं। रविन्द्र सिंह के उपन्यास 'आई टू हेड लव स्टोरी' के मुखपृष्ठ पर एक पंक्ति है- 'तेरे जाने का कुछ ऐसा असर हुआ मुझपे, तुझको खोजते-खोजते मैंने खुद को पा लिया' और यह हकीकत है कि प्रेम करने के बाद हम खुद को ज्यादा बेहतर तरीके से समझने लगते हैं। यह प्रेम ही है जो एक भले इंसान में से उसके अच्छे व्यक्तित्व की परतें उतारकर, छुपी हुई बहसी परतों को बाहर निकाल देता है और कई मर्तबा एक बुरे इंसान से उसके व्यक्तित्व की विषाक्त परतें उतारकर, उसकी दबी पड़ी दैवीय परतें उभार देता है।

प्रेम के सफल या असफल होने से ज्यादा मायने रखता है प्रेम का होना, क्योंकि सफलता और असफलता का निर्धारण बाहर से देखी गई दृष्टि से किया जाता है। जबकि प्यार को अंतर्तम से देखा जाये तो उसमें ऐसे भेद ही नहीं है वो बस प्रेम है। कहा ये भी जाता है कि असफल प्रेम अक्सर नफरत में बदल जाता है लेकिन ये भी उसी सतही नज़रिये का कथन है क्योंकि प्रेम, उपेक्षा में तो बदल सकता है पर नफरत में कभी नहीं। निश्चित ही प्रेम स्वार्थी होता है लेकिन यह स्वार्थी होकर भी अंतस में सबसे ज्यादा त्याग की भावना का संचार करता है। वक्त के साथ प्रेम पर भी अपने दौर के रंग देखने को मिलते हैं और इसकी अनुभूति और अभिव्यक्ति में भी फर्क देखा जाता है लेकिन फिर भी कुछ ऐसा भी होता है जो सर्वत्र एक समान होता है। प्रेम का ऐसा सार्वभौमिक, शाश्वत अहसास पूर्णतः अमूर्त है और सैंकड़ो परते चढ़ाने-उतारने के बावजूद वो सदा एक महक बनकर जीवंत रहता है। यही वजह है कि इस 'वेस्ट ऑफ टाइम' का 'इम्पार्टेंस' किसी भी दूसरे 'युसफुल टाइम' से बढ़कर है। प्रेम की इसी उपयोगिता को देखते हुए सैंकड़ो साल पहले कबीर को कहना पड़ा- 'पोथी पढ़-पढ़ जग मुआ, पंडित भया न कोय। ढाई आखर प्रेम का, पढें सो पंडित होय।।'

अकेले में भी जो किसी के संग होने का अहसास दे और कई मर्तबा महफिलों में भी तन्हा कर दे, ऐसा जादूगर प्रेम से बढ़कर कोई नहीं हो सकता। ये प्रेम ही है जिसमें 'मिलके भी हम न मिले' वाले जज्बात जागते हैं और इसमें ही 'जितना महसूस करूं तुमको, उतना ही पा भी लूं' वाले अहसासों से वास्ता होता है। 'पीके' के इस गीत में ही कुछ पंक्तियां हैं 'बैठे-बैठे बिना बात मुस्कायें, क्या है माजरा कुछ भी समझ न आये' इसलिये लव इज वेस्ट ऑफ टाइम। बट आय लव दिस वेस्ट ऑफ टाइम। 

दरअसल, हम हर उस चीज़ को व्यर्थ करार देते हैं जिसके अर्थ बुद्धि के विषय नहीं बनते। लेकिन बुद्धि के परे भी बहुत कुछ होता है और यदि हम प्रेम को भी बुद्धि का विषय न बना संबुद्धि से जाने..और इसका विश्लेषण न कर संश्लेषण करने की कोशिश करें तो शायद प्रेम भी हमें वेस्ट ऑफ टाइम न लगकर बहुत प्रॉडक्टिव लगने लगेगा। यह दुनिया बहुत प्रेक्टिकल हो गई यहां समय का सदुपयोग सिर्फ पैसे और संसाधनों की कमाई को माना जाता है पर प्रेम इन सब चीज़ों को नहीं, जज़्बातों को कमाकर देने वाली चीज़ है। भौतिकवादिता के प्यालों में सिर्फ शारीरिक सुखों का घूंट पीने वालों के लिये 'व्यक्ति का भावनात्मक होना' वेस्ट ऑफ टाइम ही है। चुंकि प्रेम पे लिखी तमाम पाण्डुलिपियां 'सिक्स सिग्मा' जैसे किसी प्रबंधन का सिद्धांत न बन हमारे व्यवसायिक उपयोग में नहीं आती। इसलिये प्रेम के तमाम आचार, विचार और संस्कार बस वेस्ट ऑफ टाइम ही लगते हैं। 

बहरहाल, किसी कवि की कुछ पंक्तियां हैं- 'मैं जो लिखता हूँ वो व्यर्थ नहीं है...हूँ जहाँ खड़ा वहाँ गर तुम आ जाओ, तो कह न सकोगे कि इसका कोई अर्थ नहीं है।' प्रेम पे लिखी किसी लेखनी को वेस्ट ऑफ टाइम कहना या प्रेम से संतृप्त किसी अहसास को वेस्ट ऑफ टाइम कहने वालों के लिये उपरोक्त पंक्तियां सर्वोत्तम जबाव देती हैं। वैसे भी जब हम समय को खुद से बांधने की कोशिश करते हैं तब ही प्रेम की उपयोगिता और अनुपयोगिता का निर्धारण कर सकते हैं पर जब समय से खुद को बाँध देते हैं तब वेस्ट ऑफ टाइम का आकलन करने वाली बुद्धि ही ख़त्म हो जाती है। प्रेम में होने का मतलब है खुद की हस्ती, वक्त के हवाले कर देना। फिर वक्त अपने हिसाब से आपको दिशा दे देता है और हमें नियति की सच्चाई पता चल जाती है कि 'हम भले हाथ में घड़ी बांध वक्त को थामने का गुरुर कर ले, पर हाथ में हमारे एक लम्हा भी नहीं है.............

Saturday, October 11, 2014

स्वार्थी वृत्तियो पर हो मलाल, तभी संभव है जीवन का सत्यार्थ

युद्ध की विभीषिका, प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़, संसाधनों को हथियाने के लिये लालायित बुर्जुआ वर्ग के अधिपति, विस्तारवाद की राजनीति औऱ ऐसे माहौल के बीच ही ख़बर आती है एक भारतीय और एक पाकिस्तानी के नोबल शांति पुरुस्कार मिलने की। सीमा पे युद्ध के आशंकित बादलों को कवर करने के लिये उतावला बैठा मीडिया अचानक, उन व्यक्तित्वों की तह में उतरने लगता है जिसके चलते इन शख्सियतों ने इस प्रतिष्ठित अंंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार को हासिल किया। शांति, हमेशा युद्ध से खूबसूरत, दैदीप्यमान और वजनदार होती है।

मलाला युसुफजई और कैलाश सत्यार्थी। अपने पीछे संघर्ष का एक विस्तृत इतिहास छोड़ा है इन्होंने, तब जाकर इस चमकदार उपलब्धि को हासिल किया है और निश्चित ही ये प्रयत्न जब शुरु किये गये थे तो इन प्रयत्नों का उद्देश्य कतई ये नहीं था कि इन्हें वैश्विक स्तर पर सम्मानित किया जायेगा। यदि ये पुरुस्कार न भी मिला होता तब भी ये संघर्ष इतना ही महान होता जितना आज माना जा रहा है। भले ही इसे इतनी व्यापक पहचान न मिली होती। इस पुरुस्कार के परे भी कई ऐसे लोग हैं जिन्हें कभी कोई सम्मान नहीं मिला लेकिन फिर भी वे अपने प्रयासों से एक सुंदर जहाँ रचने का प्रयत्न कर रहे हैं। सफलता या सम्मान मिल जाने के बाद हमें लोगों का संघर्ष नजर आने लगता है अन्यथा संघर्ष तो कई जगह व्याप्त है। उपलब्धियां सिर्फ उत्कृष्ट प्रयत्नों पर मोहर लगा देती हैं पर ये मोहर न भी हो तब भी उन प्रयासों की सत्यता से इंकार नहीं किया जा सकता।

मेरे इस लेख का उद्देश्य इस पुरुस्कार और पुरुस्कार पाने वालों पर कुछ कहना नहीं है क्योंकि ये बात मीडिया बखूब कर रहा है और पुरुस्कार को सही-गलत ठहराने वाले कई समीक्षात्मक दृष्टिकोण इस प्रचारतंत्र में नजर आ रहे हैं। इन व्यक्तित्वो का सम्मान होना चाहिये था या नहीं, ये अलग विषय है। नोबेल महानता का पैमाना तय करे ये सही नहीं है क्योंकि कई व्यक्तित्व अपने कार्यों से खुद इतने महान हो जाते हैं कि नोबेल जैसे पुरुस्कार ही उनके आगे बौने नजर आते हैं। क्या गाँधी, विवेकानंद की महानता का पैमाना कोई नोबेल तय कर सकता है? 

यहाँ बात है जीवन के सत्यार्थ की, जीवन के असल प्रयोजन की। मौजूदा दौर, जीवन की अगाध व्यापकता को संकुचित कर चंद छद्म स्वार्थों तक सीमित करने वाला है। मैं, मेरा घर, मेरा परिवार, मेरी जाति, कुल, वंश या देश...ऐसे न जाने कितने 'मैं, मेरे और मुझ' के दायरे हमने बना रखे हैं इस 'मेरेपन' या अंधी आत्ममुग्धता में क्या किसी को वसुधैव कुटुंबकम् की संकल्पना समझ आ सकती है। बेशक, हमारे अपने कुछ कर्तव्य उन लोगों के प्रति होते हैं जो हमसे जुड़े हैं लेकिन अपने उस दायरे के भौतिकवादी विस्तार के कारण हम अनायास ही दूसरों के अधिकार क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाते हैं और इस स्वार्थी वृत्ति के परिणाम स्वरूप पैदा होती है अनंत तृष्णा, शोषण, भ्रष्टाचार, अन्याय और अंत में युद्ध। ये जीवन का सत्यार्थ कतई नहीं है।

एक उक्ति है यदि 'हासिल करो तो बांटो, और कुछ सीखो तो सिखाओ'। तमाम प्राप्तियों और हुनर का सर्वोत्तम प्रयोग बस यही है कि जिसमें देने का भाव निहित है। त्याग, करुणा, परोपकारिता और अंत में इन्हीं गुणों से बढ़ते हुए वीतरागता, निर्मोहीपना या स्थितप्रज्ञता तक पहुंचना, यही है जीवन का सत्यार्थ। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की विचारणा 'परस्परोपग्रहो जीवानाम्' अर्थात् परस्पर एक दूसरे का उपकार, इसी संकल्पना से साकार हो सकती है। जीवन के इस सत्यार्थ के पहले ज़रुरी है कि हमें अपनी तमाम स्वार्थी वृत्तियों का मलाल हो।

लेकिन आज की नास्तिक वैज्ञानिकता ने तमाम चरित्रनिर्माण के स्मारकों को पोंगापंथी कहकर, हमें उससे विमुख कर दिया है। जिसके फलस्वरूप जन्मी मैक्डोनाल्ड संस्कृति हमें 'विश करो-डिश करो' की शिक्षा दे रही है। इस दौर में संतुष्टि का भाव कहा खोजा जा सकता है जहाँ अगाध तृष्णा को बढ़ाने के जतन किये जा रहे हैं, और बेतहाशा इच्छाएं अपने फन फैला रही हैं। इन अंधी महत्वाकांक्षाओं से ही जन्मी है तमाम भौतिकवादिता और इस भौतिकवादिता के आभामंडल में ग्रस्त हो हमारा समाज, शिक्षाप्रणाली, साहित्य और सिनेमा भी महज संवेदनहीन मनुष्य का निर्माण कर रहे हैं। जहाँ सिर्फ हड़पने का भाव है देने का नहीं। जीवन का सत्यार्थ भारी बैंक बेलेंस, आलीशान बंगला, गाड़ी और झूठा रुतबा बनकर रह गया है। इन सब चीज़ों को पाकर हमें लगता है कि हमारा विस्तार हो रहा है पर असल में यह मानवीयता के सिकुड़ने का प्रतीक है।

जीवन का सत्यार्थ, अपने व्यवहार से प्राणीमात्र को सुकून देने में हैं...विषमताओं को दूर कर एक वर्गविहीन आदर्श समाज बनाने में हैै..खुद को पर्यावरणोन्मुखी बनाने में है...'मैं' का भाव ख़त्म कर 'हम' का भाव जगाने में है और इस हम में संपूर्ण बृह्माण्ड को ही समेट लेने में हैं। जीवन का सत्यार्थ नोबेल या इस जैसे दूसरे पुरुस्कारों को पा लेने में नहीं, जीवन का सत्यार्थ समस्त आधि-व्याधि और उपाधियों से परे खुद को समझ लेने में है। वास्तव में देखा जाये तो आज सत्यार्थ को नोबेल की जरूरत नहीं, नोबेल को खुद सत्यार्थ प्राप्ति के जतन करना चाहिये...................

Saturday, September 20, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : नौवी किस्त

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(ज़िंदगी के घरोंदे में मौजूदा दौर के घुटन भरे कमरों में राहत की हवा को महसूस करने के लिये, रूह की दीवार में लगे यादों के झरोखों को खोल अपने अतीत के नज़ारों से ठंडक को पाने के जतन कर रहा हूं और बस इसलिये पच्चीसी स्वांतसुखाय और स्वप्रेरणार्थ ही मुख्यता से लिखी जा रही है। लेकिन उन लोगो के लिये भी इसका महत्व कुछ कम नहीं है जिनके प्रेम की छाया में मैं कुछ सुकुन पा लेता हूँ और जिनके अतीत की झांकियां मेरे गुजश्ता दौर से मेल खाती हैं, जो इस पच्चीसी में खुद को पाते हैं। औपचारिकता को किनारे रख पच्चीसी के घटनाक्रम को आगे बढ़ाता हूँ...अन्यथा बातें तो यूंही चलती रहेंगी।)

गतांक से आगे-

ज़िंदगी जवानी की दहलीज पे दस्तक देेने के लिये खासी उत्सुक हो रही थी...पर अब तक जवां नहीं हुई थी। लेकिन यकीन मानिये सबसे ज्यादा नटखट अहसास जवां होने के तनिक पहले ही दिल में पैदा होते हैं। अंग्रेजी और संस्कृत साहित्य से बैचलर डिग्री कर रहा था तो शेक्सपियर, मारलो, कीट्स, शैली और वर्ड्सवर्थ जैसे कवियों का रोमांटिज्म सिर चढ़ रहा था तो दूसरी तरफ कालिदास, माघ और भास जैसे कवियों का साहित्य मन को और मनचला बना रहा था। प्रेम, दरअसल उम्र के पड़ाव की एक बेहद नैसर्गिक क्रिया होती है जब सहज पैदा हुए जज़्बात अपना आसरा जहाँ-तहाँ तलाशते हैं। प्रेम, का कोई निश्चित रूप नहीं होता और ये अहसास जीवन में पूर्व अनूभूत भी नहीं होते तो अक्सर इन अहसासों की तलाश कई मर्तबा हमको भटका देती है और वर्तमान की नवसंस्कृति प्रायः प्रेम की खोज शारीरिक आकर्षण या संभोग में तलाशती नज़र आ रही है क्योंकि वर्तमान का साहित्य और सिनेमा दोनों ही मजबूरन उस तरफ हमें धकेल रहा है। हालांकि दोष साहित्य या सिनेमा का नहीं है क्योंकि सांस्कृतिक बदलाव को जो रूप हमें इन पर देखने को मिल रहा है वो समाज का ही सच है पर diffusion of innovation के सिद्धांत को समझते हुए बात करें तो यह ज़रूर कहा जा सकता है कि प्रेम के कुत्सित रूप को व्यापक बनाने में ये निमित्त ज़रूर हैं।

बहरहाल, मैं इक्कीसवी शताब्दी में भी कालिदास और मिल्टन, मारलो, धर्मवीर भारती जैसे साहित्यकारों को पड़ रहा था। इसलिये मुझमें विकसित हुआ रोमांटिज्म चेतन भगत, रविंद्र सिंह जैसे लेखकों के साहित्य में उद्धृत रोमांटिज्म से काफी अलग था और बस इसलिये दिल में प्रेम को पाने की भावनात्मक तड़प तो थी पर उसमें वासनात्मक पक्ष काफी गौढ़ था। नहीं था ऐसा मैं नहीं कह सकता क्योंकि प्रेम का वृक्ष मन-मस्तिष्क और देह के सामुहिक उपक्रमों के उपरांत ही पल्लवित होता है। मन इसमें भावनात्मकता का संचार करता है, मस्तिष्क इसे बौद्धिक बनाता है और देह के कारण ये होता है वासनात्मक। हार्मोनल चेंजेस तो थे पर भावनात्मक पक्ष मजबूत होने के कारण कभी अपनी मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं किया और इन सब वजहों से ही कई मर्तबा अपने दोस्तों के बीच मैं गये-गुजरे सिद्धांतों को मानने वाला दकियानूस इंसान भी कहलाया गया।

मन ने विचलित होने की पुरजोर कोशिश की। जैसा मैंने ऊपर बताया न कि इस उम्र के जज़्बात अपना आसरा तलाशते हैं। कालिदास की एक उक्ति है 'कामी सुतां पश्यति' अर्थात् कामी व्यक्ति हर तरफ अपने अनुकूल चीजें तलाशता है। तो अब सिनेमा और संगीत की ओर भी बेइंतहा दिल ललचा उठा और खालिश प्रेमकथाओं में डुबी हुई फ़िल्में दिल को रुचने लगी, ऐसा प्रायः हर युवा के साथ होता है। लेकिन अभी तक मैंने अठारहवे बसंत को पार नहीं किया था इसलिये जो इन फिल्मों और साहित्य से सीखकर मन की व्याख्या होती थी वो बहुत ही सतही और भटकाने वाली होती थी। वास्तव में कच्ची उम्र और अनुभवहीनता के कारण युवाओं में जो बगावती तेवर पैदा होते हैं उसमें बहुत बड़ा हाथ फ़िल्मों और हमउम्र साथियों का ही होता है क्योंकि नासमझी की ये व्याख्याएं हमें कई बार इतना नीचे गिरा देती हैं कि जीवन में उनसे उबर पाना ही बहुत मुश्किल हो जाता है। यही कारण है कि ऐसे में माँ-बाप का सख़्त संरक्षण और अनुभव बहुत आवश्यक होता है। लेकिन इस कठिनतम दौर में मैं अपने माँ-बाप से कोसों दूर बैठा था भटकने की संभावनाएं प्रबल थी। लेकिन मैं शुक्रगुजार हूँ उस दौर के अपने दोस्तों का जिनकी संगति और मार्गदर्शन ने मुझे अपनी हदों में बांधे रखा।

मेरे साथ एक चीज़ हमेशा रही कि बेहद कम उम्र में शिक्षा अर्जित करते हुए मैं आगे बढ़ रहा था इसलिये जो सहपाठी मुझे मिलते थे वे उम्र में काफी बड़े और अनुभवी होते थे और एक बहुत बड़ा कारण यह भी रहा कि उनकी संगति के कारण मुझमें हमेशा उम्र से पहले ही कई चीज़ों को लेकर परिपक्वता आती रही। हालांकि बचकानी प्रवृत्तियां भी कम नहीं थी पर बौद्धिक तौर पर समझ ज़रूर कुछ जल्दी विकसित हो ही रही थी। यहाँ मैं अपने कुछ ऐसे ही दोस्तों को याद ज़रूर करना चाहुंगा। जिनमें सबसे खास थे अमित, रोहन, विक्रांतजी, सन्मति, विवेक, निपुण, जीतेन्द्र, अभय अंकित। हालांकि ये लिस्ट बहुत लंबी हो सकती है क्योंकि मेरी समझ और सीख के कारण कई मित्र हैं पर जिनके नाम यहाँ मैंने लिये उन्होंने मेरी नादानियों और नासमझियों को सबसे ज्यादा झेला। मेरे अत्यंत उजड्ड और अहंकारी स्वभाव को सहा और मेरे लाख बुरे बर्ताव के बावजूद ये मेरे साथ जुड़े रहे। लेकिन मेरी उन आदतों को सहते हुए मुझे समझाते रहे और दिल से मेरी तरक्की के सहभागी बने रहे।

चुंकि मेरी हॉस्टल लाइफ अब अपने अंतिम पड़ाव में चल रही थी इसलिये सभी से याराना कुछ ज्यादा ही हो गया था क्योंकि हम जानते थे कि अब अलग हुए तो फिर यादों में ही मुलाकात होगी वरना ज़िंदगी की व्यस्तताओं में दोस्तों की प्राथमिकता रह ही कहाँ जाती है। दोस्ती बस एक कोरी रस्म ही बनकर रह जाती है और यही सोचते हुए हम हर एक दिन, हर एक पल को खुल कर जीना चाहते थे और हररोज़ कुछ न कुछ तिकड़मी और अनोखा करने की जुगत में लगे रहते। स्नातक के अंतिम वर्ष के छात्र होने के कारण हम सबसे सीनियर छात्र हुआ करते थे और विभिन्न सांस्कृतिक, साहित्यिक एवं अन्य दूसरी गतिविधियों को करवाने का जिम्मा हम पर ही हुआ करता था। उस वर्ष मुझे औऱ मेरे मित्र रोहन को इन सब आयोजनों का प्रमुख नियुक्त किया गया था तो अधिकार और जिम्मेदारी का प्रथम अहसास तभी महसूस हुआ था। इन अधिकारों और जिम्मेदारियों के आने की वजह से रुतबा भी बड़ा हुआ लगता था और हम अपने ही अहंकार में फूले घूमते थे।

जो भी था, सब बड़ा मजेदार था और अब यादों के इन झरोखों से कूदकर वापस उन्ही दिनों को पा लेने की आरजू दिल में पैदा होती है पर हमेशा निर्मम यथार्थ हमें वर्तमान में खींच लाता है। वो नादानियां, वो वेबकूफियां भले कितनी ही नासमझ क्युं न हों पर उनका यादों में किया स्मरण बड़ा सुकून देता है और आज हम भले ही रुतबा, पैसा और अथाह प्रतिष्ठा पालें पर वो गुजरे दौर की ठलुआई सा मजा कभी नहींं दे सकती। हम आज तरक्की के जेट पर सवार हो भले देश-दुनिया की सैर कर आयें पर ये सब उस दौर की उस आवारगी के आनंद को छू भी नहीं सकती, जब हम दोस्तों के साथ नंगे पैर सड़कों पर टहला करते थे और सिटी बस में खड़े-खड़े धक्के खाया करते थे। वो दौर एक बार फिर अच्छे से जीने का जी करता है क्योंकि उस दौर को अक्सर हम बड़े और कामयाब बनने की चाह में यूं ही ज़ाया कर देते हैं। सच, चीज़ों की कीमत उनके दूर चले जाने के बाद ही समझ आती है............................

ज़ारी................

Friday, September 12, 2014

इश्क़ तुम्हें हो जायेगा........


'इश्क़ तुम्हें हो जायेगा' ये महज मेरे पोस्ट का टाइटल नहीं बल्कि ये अनुलता राज नायर जी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तक का शीर्षक भी है। दरअसल, गर ये किताब न होती तो इस पोस्ट का जन्म ही नहीं होता। इसलिये इस पोस्ट का जन्म उन जज़्बातों के चलते हुआ है जो अनुजी की इस किताब को पढ़ने के बाद पैदा हुए हैं। आगे कुछ लिखने से पहले मैं बता देना चाहता हूँ कि इस पोस्ट को पुस्तक की समीक्षा न समझा जाये...क्युंकि साहित्यिक कसौटी के परे एक काव्यसंग्रह का जो मूल काम होता है वो ये पुस्तक बखूब करती है। जी हाँ जज़्बातों को जिस ढ़ंग से उद्वेलित होना चाहिये वो इस पुस्तक के हर इक वरक् को पलटते हुए महसूस किये जा सकते हैं और हर नज़्म रूह की तह में उतरती हुई खुद से इश्क़ करने को मजबूर करती है। 

यूं तो अनुजी से इस ब्लॉग के सायबर संजाल के चलते पहले से ही आत्मीय रिश्ता रहा है और उनकी लेखनी का मैं खासा कायल रहा हूँ औऱ उनकी लिखी रचनाओं की कई पंक्तियों को चुराकर मैंने अपने मस्तिष्क की डायरी मे उकेर रखी हैं और कुछ रचनाएं अंतस की बरनी में रखी-रखी आचार-मुरब्बे में कन्वर्ट हो चुकी है जिनका मूल तो याद नहीं पर उनके अर्थ पूरी संजीदगी से अपना रस देते हैं। मसलन ऐसी ही इक रचना है-

स्नेह की मृगतृष्णा
कभी मिटती नहीं
रिश्तों का मायाजाल
कभी सुलझता नहीं
तो मत रखो कोई रिश्ता मुझसे
मत बुलाओ मुझे किसी नाम से
प्रेम का होना ही काफी नहीं है क्या?

इस रचना का ज़िक्र यूं तो पुस्तक में नहीं है पर मेरी रुहानी अलमारी में बाकायदा कैद है। मुझे नहीं पता कि अनुजी ने इन जज़्बातों को खुद कितना महसूस किया है पर उनके लिखे हर एक हर्फ उस हर इंसान के अहसासों को बयां करते हैं जिसने एक बार भी गर सच्चा इश्क़ किया हो। तो इस तरह ये कविता भले निकली अनुजी की कलम से हों पर ये उनकी तरफ से हर आशिक़ के जज़्बातों का प्रतिनिधित्व मात्र हैं। अनुजी की पुस्तक के पेज नं 93 पे लिखी प्रेम कविता का भाव कुछ ऐसा ही हैं जहाँ वे कहती हैं-


निरर्थक है लिखा जाना
प्रेम कविताओं का
कि जो लिखते हैं
उन्होंने भोगा नहीं होता प्रेम
और जो भोगते हैं
उन्हें व्यर्थ लगता है
उसे यूं 
व्यक्त करना....

अनुजी की रचनाओं में जितना कल्पनाओं का आसमान समाया हुआ है उतना ही इनमें यथार्थ का धरातल भी है और वे प्रेम के उन्माद, प्रेम के विरह, प्रेम का पागलपन, मिलन और जुदाई सब कुछ बड़ी संजीदगी से और सौंदर्य के साथ बयां करती हैं। एक बानगी देखिये-

प्रेम का एक पल
छिपा लेता है अपने पीछे
दर्द के कई-कई बरस
कुछ लम्हों की उम्र ज्यादा होती है, बरसों से।

और कुछ इसी तरह...

यदि प्रेम एक संख्या होती
तो निश्चित ही 
विषम संख्या होगी
इसे बांटा नहीं जा सकता कभी
दो बराबर हिस्सों में।

अनुजी अपने इस काव्य संग्रह की शुरुआत में कहती हैं कि 'पढ़ना मुझे तन्हाईयों में कि इश्क़ तुम्हें हो जायेगा' पर इस काव्य संग्रह के पढ़ते वक़्त मैं बड़े असमंजस में रहा कि आखिर तन्हाई कहाँ से लाऊं क्योंकि इन कविताओं से उपजे जज़्बातों ने इस कदर कोलाहल मचाया कि सारी तन्हाई मानो कहीं फना हो गई। लेकिन फिर भी ये कविताएं खुद से इश्क़ करने पे मजबूर कर देती हैं। जो इंसान अभी इश्क़ में है उसे तो इन रचनाओं में अपना आज नज़र आयेगा ही पर जो कभी इश्क़ में था वो भी अपने अतीत को इन रचनाओं के सहारे जियेगा और जो न अभी इश्क़  में है और न ही कभी इश्क़ में था वो भी ऐसे इश्क़ को पाने के लिये उत्कंठित हो जायेगा और यदि उत्कंठित नहीं हुआ तो इन रचनाओं से ही इश्क़ फरमा बैठेगा। इन्हीं सब वजहों से ये काव्यसंग्रह अपने नाम को सार्थक करता है। और प्रेम के अर्थ को कुछ इस तरह तलाशती है-

मैं प्रेम में हूं

इसका सीधा अर्थ है
मैं नहीं हूं
कहीं और...

प्रेम पंख देता है
प्रेमी पतंग हो जाते हैंं
और जब ये नहीं रहता
तब लड़ जाते हैं पेंच
कट जाती हैं पतंगे
आपस में ही उलझकर

मैं प्रेम में हूं
इसके कई अर्थ हैं
और सभी निरर्थक।

कविताएं तो बहुत है और समझ नहीं आ रहा कि किस किसका ज़िक्र करुं...पर बेहतर होगा कि मेरी इस पोस्ट से कुछ भी आकलन करने के बजाय आप खुद इसका जायका लें। यकीन मानिये यदि आपकी रूह की जमीन पर थोड़ी सी भी नमी है तो ये आपके अंदर जज़्बातों के कई कई कमल खिलाने का माद्दा रखती है औऱ कौमार्य की दहलीज पे पहुंचे युवाओं के लिये तो ये तकिये के नीचे रखकर सोने वाली पुस्तक है। इन रचनाओं की चासनी में जब अपने जज़्बातों को भीगा हुआ महसूस करेंगे तो रस, निश्चित ही तनिक बड़ जायेगा और इश्क़ तुम्हें हो जायेगा।

ऐसा नहीं कि
जन्म नहीं लेती
इच्छाएं अब मन में
बस उन्हें मार डालना सीख लिया है मैंने
शुक्रिया, ऐ मोहब्बत।

और एक अंतिम रचना याद कर विराम लेता हूँ...बाकी आप खुद इस पुस्तक को पढ़े तो अच्छा होगा और न ही अनुजी का कुछ परिचय देना चाहुँगा। वे मेरे शहर भोपाल की हैं इस कारण आत्मीयता कुछ विशेष है शेष परिचय के लिये उनकी रचनाएं ही काफी हैं। पोस्ट के आखिर में पुस्तक क्रय करने हेतु लिंक प्रोवाइड की गई है। पोस्ट की शुरुआत में भी टाइटल के साथ लिंक संलग्न है-

मैंने बोया था उस रोज
कुछ
बहुत गहरे, मिट्टी में
तुम्हारे प्रेम का बीज समझकर
और सींचा था अपने प्रेम से
जतन से पाला था 
देखो
उग आई है एक नागफनी
कहो, तुम्हें कुछ कहना है?

(पुस्तक क्रय हेतु लिंक- इश्क़ तुम्हें हो जायेगा)

Thursday, August 14, 2014

हम कितने आज़ाद....?

वाक़या कुछ यूं है कि ऑफिस से लौटते वक्त एक आठ-दस साल का बच्चा हाथों में तिरंगा लिये उसे बेंचने मेरे पास आकर रुका। बमुश्किल तीस-पैंतीस सेकेंड के लिये ट्रेफिक सिग्नल पर उस वक्त खड़े हुए मैं बड़े असमंजस में था कि झंडा लिया जाये या नहीं...पर मेरी कार के फ्रंट में चिपकाने के लिये उस तिरंगे की कीमत जो उस बच्चे ने मुझे तकरीबन बीस रुपये बताई थी काफी ज्यादा लगी और मैं उसका पंद्रह रुपये मूल्य लगाकर आगे बढ़ गया। फिर सोचा कि यार पांच रुपये की ही तो बात थी...उस तिरंगे को अपनी गाड़ी पे लगाकर मैं अपने देशभक्त होने का प्रमाण तो दे ही सकता था..और उस बच्चे को मिले उन पैसों से उसे एक वक्त का भोजन मिल जाता। लेकिन इन छद्म संवेदनशील जज़्बातों ने बड़ी देर से मेरी रूह पर दस्तक दी।

बात सिर्फ मेरी या किसी एक व्यक्ति की नहीं हैं..ऐसी सतही संवेदनाएं मुझ जैसे सैंकड़ो के मन में रहती होंगी। बात है उस सड़सठ सालों से चली आ रही तथाकथित आजाद व्यवस्था की जिसके चलते आज भी वो बच्चे जिन्हें बस्ता टांगे स्कूल जाना चाहिये वो फुटपाथों या चौराहों पर कुछ ऐसे ही तिरंगा, अखबार या कुछ ऐसी ही दूसरी चीज़ें बेंचते नज़र आ रहे हैं। सवाल उठता है उन दर्जनभर पंचवर्षीय योजनाओं पर जो आज भी प्रत्येक भारतीय की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और भोजन सुनिश्चित नहीं कर पा रहीं हैं। सवाल है उन तमाम संसदीय और न्यायालयीन नियमों-अधिनियमों से, जिसके चलते संविधान की प्रस्तावना में वर्णित सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय आम आदमी से कोसों दूर है और यही वजह है कि शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकारों में शुमार किये जाने के बावजूद तिरंगा, फुटपाथ पर घूम रहे बच्चों के महज़ हाथों में लहलहा रहा है जबकि उस तिरंगे को उन बच्चों के ज़हन का हिस्सा बनना था। जो कि सिर्फ शिक्षा से संभव है।

ये एक वाक़या तो महज़ एक मिशाल है...आजाद भारत की गुलाम तस्वीर का ज़िक्र कर पाना बहुत मुश्किल है। कहने को समाजवाद का चोगा ओड़ी, हमारी व्यवस्था में जितनी आर्थिक खाई देखी जा सकती है उतनी शायद ही किसी दूसरी विकासशील अर्थव्यवस्था में होगी। इस आर्थिक खाई का आलम कुछ ऐसा है कि देश का एक वर्ग अमेरिका, यूके, जापान के तमाम विकास को बौना साबित कर रहा है तो दूसरी ओर एक विशाल वर्ग ऐसा भी कालीन के नीचे पसरा पड़ा है जिसकी हालत सोमालिया, इथोपिया, कांगो सरीखे अफ्रीके देशों से गयी बीती है। एक वर्ग ऐसा है जो किसी मल्टीप्लेक्स में बड़े आराम से साढ़े तीन सौ का टिकट ले तीन घंटे का इंटरटेनमेंट खरीद रहा है तो उसी मल्टीप्लेक्स के बाहर खड़ी एक औरत अपनी गोद में टांगे उस बच्चे के लिये एक वक्त के भोजन के लिये साढ़े तीन रुपये की गुहार कर रही है।

ऐसे सैंकड़ो दृश्यों का ज़िक्र किया जा सकता है पर उन सबको बताना मेरा मक़सद नहीं। मैं सिर्फ लाचार भारत की इस भौतिक गुलामी की बात नहीं करना चाहता बल्कि समृद्ध इंडिया की उस मानसिक गुलामी को भी बयांं करना चाहता हूँ जिसके चलते ही इस भौतिक परतंत्रता का आलम फैला हुआ है। जी हाँ समृद्ध इंडिया! ऑलीशान गाड़ियों में घूमता, पॉश कालोनियों में करोड़ो-अरबों के बंगलों में रहने वाला, ब्रांडेड कपड़े और ज्वेलरी अपने बदन पे चढ़ाने वाला, लाखों के टूर पैकेज ले सिंगापुर-स्विटज़रलैण्ड घूमने वाला वही समृद्ध इंडिया जिसके अन्याय और सबकुछ हड़प लेने की हवसी प्रवृत्ति का ही नतीजा है लाचार भारत। इस इंडिया ने अपनी तमाम समृद्धि उन झूठी कसमों के ज़रिये हासिल की हैं जिन कसमों में ये लाचार भारत की सूरत बदलने की बात करते हैं। जी हाँ कभी नेता बनकर, कभी कोई प्रशासनिक अधिकारी बनकर, कभी डॉक्टर, इंजीनियर या उद्योगपति बनकर ये तमाम व्हाइट कॉलर लोग देश के हालात बदलने के लिये ही तो निकले थे पर इनकी स्वार्थि वृत्तियों और बस खुद को संवारने की चाहत ने आज गरीबी रेखा के नीचे लगभग 70 करोड़ लोगों को धकेल दिया है और जो इस रेखा से ऊपर रहने वाला मध्यमवर्ग है उसकी हालत भी कोई बहुत सम्मानीय नहीं है। परिस्थितियों के थपेड़े उसे भी पंगु ही बनाये हुये हैं।

इसे मानसिक गुलामी नहीं तो और क्या कहेंगे जहाँ प्रतिभा और पैसे का उपयोग बस खुद के उत्थान के लिये ही किया जाता हो...जहाँ पर्यावरण को बेइंतहा नुकसान अपने पैसे कमाने के साधनों को और पुख़्ता करने के लिये किया जाता हो..जहाँ रस्मों-रिवाज़ों के नाम पर धर्मस्थलों, मंदिर-मस्ज़िदों में करोड़ो चढ़ाया जाता हो लेकिन एक जीते-जागते इंसान की बेहतरी के लिये कोई उपक्रम नहीं है। डॉक्टर, इंजीनियर या व्यवसायी बन हर युवा अपने देश के हालात बदलने की दिशा में योगदान देने के बजाय विदेशों में मोटे पैकेज की नौकरी की चाहत पालता है। अपने बहुत थोड़े से जीवन को हर तरह से सिर्फ धन का गिरवी रखना क्या मानसिक दिवालियापन नहीं है। देश के उत्थान की बातें जिस दिन हमारी जुबानी मंशा न रहकर, ज़हन की आरजू बन जायेगी सही मायने में उस ही दिन हम आजाद होंगे। नहीं तो मुझ जैसे ही तमाम भारतीय पंद्रह रुपये का  कोई तिरंगा खरीद अपने घर या लाखों की कार पर चस्पा कर खुद की देशभक्ति को प्रमाणित करते रहेंगे और अपनी आज़ादी का जश्न युंही चलता रहेगा। या फिर व्हाट्सएप्प और फेसबुक की प्रोफाइल पिक्चर को तीन रंगों से रोशन कर देंगे..पर ज़हन उस तिरंगे के असल मायनों को कभी साकार नहीं कर पायेगा।

खैर...उम्मीद है हालात बदलेंगे, उम्मीद है हम आजाद होंगे..रूह से भी और ज़िस्म से भी। पर उसके लिये हर भारतीय को एक पत्थर तो तबीयत से उछालना ही होगा..एक दीपक तो शिद्दत से जलाना ही होगा। वो दिन जरूर आयेगा जब उस उछाले हुए पत्थर की चोट गुलामी के शीशों को तोड़ेगी और उस दीपक से सालों की तमस मिटेगी। पर तब तक........................................

चलो बाहर चलते हैं आजादी का जश्न मनाया जा रहा है.....और हम भी कुछ नारे लगाते हैं, हम भी कुछ गीत गुनगुनाते हैं.......जनगणमन अधिनायक जय है, भारत भाग्य विधाता।

Sunday, August 3, 2014

एक बदसूरत लड़की का ख़त

(ये पोस्ट मेरी एक कहानी "वो बदसूरत लड़की" का एक हिस्सा है..जिसमें उस लड़की के रुहानी हालातों को बयाँ करने की कोशिश की है जो जमाने के तथाकथित सौंदर्य के पैमानों पर खरी नहीं उतरती...और समाज में सौंदर्य के लिये लालायित लोगों को देख, जो टीस उसके मन में पैदा होती है उसे अपने लफ्ज़ों में लपेट अपनी माँ को भेजने की कोशिश करती है। हालांकि एक पुरुष होते हुए किसी नारी के मन को समझ पाना आसान नहीं है लेकिन फिर भी मैंने एक नादान कोशिश ज़रूर की है-)

माँ..अब बस तुम्हारा नाम जुवां पर लाकर और आँखें बंद कर तुम्हारी तस्वीर देखकर ही मुझे सुकून मिलता है। वरना इस दुनिया के रवैये ने तो वो सारी खुशियां मुझसे छीन ली हैं जो खुशियां एक जवां लड़की को उसकी हसरतों के पूरा होने से मिलती हैं क्योंकि मेरी सूरत किसी भी तरह की उन ख्वाहिशों को पालने की इज़ाजत नहीं देती..जो ख्वाहिशें एक जवां लड़की की होनी चाहिये...और अब तो मैं जवां भी नहीं रही, उनतीस साल की लड़की भला कहाँ जवां मानी जाती है। एक नारी के सौंदर्य की एक्सपायरी डेट तो तय कर रखी है न इस दुनिया ने।

माँ..वैसे आपसे मैं ये सब क्यूं बोलू..अब तो आप भी ये समझ चुकी हो कि मैं एक बदसूरत लड़की हूँ...यदि सुंदर होती तो अब तक घर में थोड़ी बैठी रहती। अब ये बात आप और पापा मुझसे कहें या नहीं पर सच तो यही है न..जो दुनिया ने आपको बताया है। हाँ मैं मानती हूँ कि पापा के लिये मैं आज भी किसी परी से कम नहीं और इसलिये मेरी शादी के लिये क्या कुछ नहीं किया उन्होंने...पर अब मेरी वजह से उनके माथे पर पड़ने वाली सलवटें नहीं देखी जाती। वो ये मान क्युं नहीं लेते कि मेरे लिये कोई राजकुमार नहीं आयेगा...उनकी बेटी ऐसे किसी अरमान को पूरा नहीं कर सकती जो एक लड़की का पिता देखा करता है। मुझे पता है माँ जब दो महीने पहले हमारे पड़ोस वाली वो सुनीता चाची की बेटी, जो मुझसे उम्र में लगभग छह साल छोटी है उसका ब्याह हुआ तो आपको कैसा लगा होगा..और वो नटखट सी पिंकी, जिसे हम बचपन में अपने घर में खिलाया करते थे वो भी तो दुबई जाकर सैटल हो गई है न...एक एक कर मेरी सब सहेलियां और वो लड़कियां भी जो मुझे दीदी-दीदी कहकर बुलाती थी सभी तो शादी करके चली गई। हर शादी को देख पापा अपनी बेटी के लिये भी किसी ऐसे ही राजकुमार के सपने संजोते थे पर माँ यहाँ तो सिर्फ चमड़ी की कीमत है...और मुझे वो नहीं मिली है।

बचपन में जब टीवी पर वो फेयर एंड लवली और विको टरमरिक क्रीम का एड देखती थी तो दिल में हर बार उम्मीद का संचार होता था पर वो सब झूठे हैं मां..मैंने सब कुछ किया पर मेरा ये काला रंंग जाता ही नहीं है। लड़कियों का रंग गोरा होना इतना ज़रूरी क्युं है मां? एक बात और बताना है आपको..वो जब कॉलेज में मेरी सहेलियां श्रद्धा और सपना अपने-अपने ब्वायफ्रेंड के साथ घूमती थी न तो मेरा भी मन होता था कि मुझे भी कोई ऐसे चाहे, फोन करे, मेरी फिक्र करे, मुझे घुमाये और आपसे छुप-छुप के मैं भी किसी से प्यार करूं...पर ऐसा कभी न हुआ मेरे साथ। मेरे साथ पढ़ने वाले लड़कों ने सहानुभूति तो दिखाई मुझपे, पर साथ कोई नहीं रहा। और माँ पता है न आपको वो श्रद्धा और सपना कभी पढ़ने में भी अच्छी नहींं थी और वो अपने ब्वायफ्रेंड से झूठ बोल-बोलकर धोखा भी देती थी..लेकिन फिर भी लड़के उनको ही पसंद करते थे। मैं पढ़ने में तेज थी और झूठ बोलना, किसी का दिल दुखाना तो आपने सिखाया ही नहीं है मुझे, फिर भी कभी किसी ने पसंद नहीं किया। हाँ सब लड़के एक्साम के टाइम पे मेरी हेल्प लेने ज़रूर आते थे..और थैंक्स भी बोलते थे पर मुझे किसी ने प्यार के काबिल नहीं समझा। लड़की की सूरत के अलावा क्या कोई और चीज़ मायने नहीं रखती?

और ये भी तो आपको पता ही है न कि कॉलेज टॉप करने के बाद भी मुझे नौकरी ढूंढने में कितनी परेशानी झेलना पड़ी। और वो हरमीत अंकल की जस्सी जिसका हरबार किसी न किसी सब्जेक्ट में बैक लगता था आज वो पता नहीं कैसे मुम्बई की एक कंपनी की सीईओ बन गई। जबकि मेरे काम से मेरी सूरत का कोई लेना देना नहीं था..मैंने न कोई फिल्म हीरोईन बनने का सोचा, न किसी टीवी का एंकर..जहाँ खूबसूरती मायने रखती है पर फिर भी ऐसा क्यूं? और आज भी कई लड़कियां जो इस कंपनी में इंटर्न करने आती है वो भी पता नहीं कैसे कुछ दिनों में ही मुझसे सीनियर बन जाती हैं और मैं छह साल से इस कंपनी का हिस्सा होते हुए भी उसी जगह पे किसी तरह टिकी हुई हूँ। लड़कियों की सूरत उन क्षेत्रों में भी इतनी ज़रूरी हो गई है जहाँ सूरत का कोई लेना देना ही नहीं है।

माँ आपको पता है जब हम लोग आज से आठ साल पहले वो शाहिद कपूर की 'विवाह' फ़िल्म देखने गये थे..तब मैं सोचती थी कि कोई ऐसा मेरी ज़िंदगी में भी आयेगा जो मुझे मेरे जज़्बातों के लिये चाहेगा न कि सूरत के लिये। पर ऐसा कुछ सच्चाई में नहीं होता। मेरे जीवन का सबसे सुनहरा दौर बस यूं ही गुज़र गया। मुझे समझ नहीं आता मेरे सुंदर न होने में मेरा क्या दोष...इंसान पैदा होने के बाद अपनी मेहनत से जिस काबिलियत और सद्गुणों से खुद को विकसित कर सकता है वो सब तो मैंने किया न..पर सूरत पे तो मेरा वश नहीं चल सकता। और जब भगवान को मुझे ऐसा बदसूरत बनाना ही था तो मेरे जज़्बातों को भी धुंधला कर देते...उन सारी तमन्नाओं को भी बेरंग कर देते..जो एक लड़की में होती हैै। लेकिन नहीं उन्होंने सिर्फ लड़कियों वाली तथाकथित खूबसूरती मुझे नहीं दी पर हर अहसास तो मुझमें भी वही हैं।

अब मैं थक चुकी हूँ माँ...अब मैं और आप लोगों को परेशान नहीं कर सकती...बस इसलिये मैंने फैंसला कर लिया है...ये सब ख़त्म करने का। अरे न..न..आप गलत सोच रही हैं इतना घबराने की ज़रूरत नहीं है आप लोगों के संस्कार मुझे कभी कोई गलत कदम नहीं उठाने देंगे..और खुद को ख़त्म करने का तो मैं सोच भी नहीं सकती। अब क़त्ल होगा उन जज़्बातों का जो एक लड़की को सौंदर्य की चाहत के अलावा और कुछ  देखने नहीं  देते...अब क़त्ल होगा उस चाहत का जिसके चलते लड़की अपना वजूद किसी मर्द के संग होने में तलाशती है। मेरा अस्तित्व खुद से है और अब इस चमड़ी में अपना अस्तित्व तलाशने के बजाय विचारों के उस अनंत आकाश में खुद की हस्ती खोजूंगी...जो इंसान की लौकिक ही नहीं पारलौकिक खूबसूरती को बेहतर बनाती है। माँ! मुझे अब कोई ग़म नहीं अपने ऐसे होने पे..और न किसी से कोई शिकायत है बल्कि मुझे फ़क्र है आप लोगों के दिये उन संस्कारों पे जो औरत को बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता प्रदान करते हैं। और चर्म के मिथ्या उपासक इस समाज से भी मुझे कोई शिकायत नहीं क्योंकि गर मैं इनकी सुंदरता के मायनों पे खरी उतरती तो कभी अपनी वास्तविक सुंदरता को न समझ पाती।

अच्छा है मेरी चमड़ी, गीदड़ों की हवस का शिकार नहीं होगी..और दया, सत्य और वात्सल्य की सौरभ से खुद भी महकूंगी और दुनिया में हालातों की मार झेल रहे हज़ारों को महकाउंगी..और हाँ ये सब बात मैं किसी कुंठा मैं बयाँ नहीं कर रही बल्कि लंबी सोच के बाद हासिल हुए निष्कर्ष का परिणाम हैं मेरे ये विचार। लेकिन अब तक आप लोगों की हसरतों के लिये खुद को खामोश रखा था। मेरी खूबसूरती का पैमाना मैं खुद तय करुंगी, ये दुनिया नहीं। मेरे सौंदर्य पे मांस का लोथड़ा देखने वाला ये जमाना मोहर नहीं लगायेगा...ये पैमाना तो इतिहास तय करेगा कि कौनसी खूबसूरती चिरजीवंत है।

हाँ, माँ! जैसा पापा को लगता है वही सत्य है कि मैं परी हूँ। मेरा बदन ही मेरा वतन नहीं है..और न कोई चित्रकार ही मेरी तस्वीर बना सकता क्योंकि चित्रकारों ने भी जिस्म के परे कब देखा है औरत को। औरत का सच्चा सौंदर्य जिस दिन देख लिया न इन चित्रकारों ने उस रोज़ पूरी चित्रकला ही परिवर्तित हो जायेगी....और मैं तो वैसे भी विश्वसुंदरी हूँ। मेरी खूबसूरती को कैनवास पे उकेर सके, न ऐसी नज़र है कोई और न  ऐसा कोई रंग.............................

Thursday, July 24, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : आठवीं किस्त

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(कलम की रेलगाड़ी पे बैठ यादों के सफ़र पे निकले मैंने अपने अतीत के नज़ारों को एक बार फिर जीने की कोशिश की...पर अब भी बहुत कुछ है जो आगे इस सफ़र में आयेगा। अतीत में झांकना कई मर्तबा बड़ा प्रेरक होता है तो कई बार ये आंखें नम भी कर देता है। गुजरे दौर का वो वक्त जिसमें हम रोये थे उसे सोचकर हंसी आती है और जिन लम्हों में हम हंसे थे उन्हें सोचकर रोना आता है पर दोनों ही तरह के लम्हों को याद कर अधूरापन तो सालता ही है क्योंकि ये कसक हमेशा बनी होती है कि अब फिर हम उन लम्हों को नहीं जी पायेंगे। जो बीत गया सो बीत गया...लेकिन यादों और किस्सागोई के जरिये अतीत के पुराने पड़ चुके पन्नों पर से धूल ज़रूर झाड़ी जा सकती है। लेकिन इस ताजगी के लिये एक सच्चे हमदर्द, हमसफ़र की तलाश होती है और उसका मिलना ही शायद सबसे मुश्किल है..और इस मुश्किल घड़ी में कलम ही सच्ची मित्र बनकर सामने आती है और आज के इस सायबर युग में उस मित्र का काम कर रहा है ये चिट्ठाजगत..बस इसीलिये अपनी यादों के इडियट् बॉक्स से कुछ चिट्ठियां निकाल यहां बिखेर रहा हूँ.... )

गतांक से आगे-

दोस्तों का नया हुजूम जुड़ रहा था और पुराने दोस्तों की दिल के आंगन से धीरे-धीरे विदाई हो रही थी। हालांकि विदा हुए कुछ दरख़्त कई मर्तबा रूह में  ऐसे चिपक जाते हैं कि ताउम्र उनकी कचोट हृदय को उद्वेलित करती रहती है। लेकिन उस अर्धपरिपक्व उम्र का कोेई पुराना दरख़्त मेरी रुहानी दहलीज पर न टिक सका। दरअसल  ये मानव स्वभाव है कि 'नज़रों से दूर तो दिल से दूर'। नयी-नयी नज़दिकिया हर बार प्राथमिकताएं बदल देती हैं और ऐसा ही कुछ मेरे साथ था। अपने इस आशियाने के जिन साथियों से ट्युनिंग बैठना थी वो बैठ गई थी और जिनसे नहीं बैठना थी उनसे अनचाहे ही दूरी बनी हुई थी। मेरे बेहद जिद्दी और अहंकारी स्वभाव के कारण दोस्ती कम दुश्मनी ज्यादा होती थी। उस स्वभाव के कुछ छींटे आज भी कायम है और अपनी कमी जानते हुए भी खुद को सुधार पाना बड़ा मुश्किल होता है। बुद्धि, हालातों को समझ सब कुछ सामान्य कर देना चाहती है पर अहंकार चीज़ों को जटिल करता जाता है। इससे पता चलता है कि समस्त ज्ञान और विवेक के लिये अहंकार, रोष और क्रोध जैसे विषाक्त जज़्बात कितने घातक हैं। मुझे अच्छे से याद है कि मेरी कक्षा के कुल 35 विद्यार्थियों में से 16 छात्रों से मैं एक ही समय पर दुश्मनी पाले बैठा था और प्रायः इन सबसे ही मेरी बात नहीं होती थी। कुछ दूरियां तो ऐसी थी कि उस परिसर में पांच साल तक पड़ने के बावजूद मैंने उन लोगों से कभी बात नहीं की। वक्त बीतने के साथ हम ये भूल जाते हैं कि हमने किस वजह से बैर पाला था पर उस बैर से बड़ी हमारेे बीच की दूरी बन जाती है...गलतियों की खाई को भरना बहुत आसान है पर दूरियों की खाई गहराती ही जाती है।

कक्षा बारहवीं बोर्ड परीक्षा होने के वजह से हमें उस हॉस्टल में कुछ विशेष रियायतें मिला करती थी। लेकिन उन आजादियों को हम प्रॉडक्टिव काम करने के बजाय फिजूल के कामों में ज्यादा खर्च करते थे। जैसे धार्मिक कक्षाओं, पूजा-प्रार्थना से हमें छुट्टी दी जाती तो हम शॉपिंग, खेल-कूद या सोने में अपना वक्त ज़ाया करते, बस से हमें कॉलेज के लिये भेजा जाता तो किसी सिनेमाहॉल में फ़िल्में देखने चले जाते। तब ये सब करने में बहुत मजा आता था पर आज सोचते हैं तो लगता है कि उस वक्त का कुछ बेहतर उपयोग किया जा सकता था पर जीवन की कड़वी सच्चाई यही है कि सारी समझदारी वक्त बीतने के बाद ही आती है। ज़िंदगी के उस दौर में गुटबाजी का भी सुरूर छाया रहता था और अपना एक दल बनाकर खुद को तीसमारखां साबित करने की जुगत सवार रहती और उस गुटबाजी में खूब राजनीति होती और दूसरों को नीचा और खुद को ऊंचा दिखाने की कोशिश करते। तत्कालीन स्कूल या हॉस्टल में होने वाली प्रतियोगिताओं में अव्वल आने के लिये साम-दाम-दंड-भेद सबका सहारा लेते और अपनी लकीर लंबी करने के लिये प्रायः दूसरों की लकीर मिटाने से भी मैंने गुरेज़ नहीं किया। प्रतिस्पर्धाएं हमें आगे बढ़ाने के लिये होती है लेकिन हमें पता ही नहीं चलता कि चारित्रिक तौर पर हम कई बार बहुत पीछे चले जाते हैैैै क्योंकि प्रतिस्पर्धा के साथ राजनीति और कूटनीति भी सहज व्यक्तित्व का हिस्सा बनती है और जीवन में राजनीति का प्रवेश होने के बाद नैतिकता बहुत दूर चली जाती है।

प्रतिस्पर्धा का असली चरम क्रिकेट के मैदान पर नज़र आता था। जिसके लिय की जाने वाली तैयारियां और हमारे द्वारा बनाई जाने वाली रणनीतियां कुछ ऐसी हुआ करती थी मानो भारतीय टीम का ओलंपिक में प्रतिनिधित्व करना है। हर वर्ष दिसंबर-जनवरी में हॉस्टल में खेल-कूद प्रतियोगिताओं का आयोजन होता..मुझे याद नहीं आता कि उस समय क्रिकेट टूर्नामेंट जीतने पर हासिल हुई प्रसन्नता जैसी खुशी कभी और मिली हो। 31 दिसंबर 2003 को क्रिकेट कप जीतने के जज़्बात आज भी चेहरे पे मुस्कान और गौरव का संचार कर देते हैं। यकीनन वो  कोई बहुत बड़ा अचीवमेंट नहीं था, जीवन में उसके बाद कई उपलब्धियां आयी पर कोई भी उपलब्धि उस अदनी सी सफलता जैसी खुशी नहीं दे पाई।  अपने हॉस्टल की साहित्यिक-सांस्कृतिक प्रतियोगिताओं में भी अब कुछ-कुछ रुतबा कायम होता जा रहा था जिससे आत्मविश्वास का संचार भी होने लगा था और जब आत्मविश्वास बढ़ता है तो सब अच्छा लगने लगता है। उस साल बारहवीं की परीक्षा में भी अच्छे खासे प्रतिशत से पास हुआ था तो जिस हॉस्टल की दीवारें पहले काटने दौड़ा करती थी वहीं अब अपने घर से भी प्यारी लगने लगी। उन दोस्तों से अब जज़्बाती गांठ जुड़ चुकी थी। बहुत कुछ सीखते हुए जिंदगी बढ़ रही थी तो बहुत कुछ चूक जाने का मलाल आज भी बना हुआ है। वैसे हम चाहे कितना कुछ भी क्युं न हासिल कर लें..जिंदगी के साथ कुछ 'काश' तो जुड़े ही रहते हैं।

हॉस्टल में सीनियर हो जाने का भी गजब का आनंद रहा करता था और जुनियरों के सामने शेखी बघारने में भी बहुत मजा आता था। इस प्रवृत्ति से मैं भी बहुत अच्छे से ग्रस्त था..और कई झूठी-सच्ची बातों के सहारे खुद को महान् बताने का कोई मौका नहीं छोड़ता था। भाषण, वाद-विवाद जैसी प्रतियोगिताओं में तब अच्छा खासा नाम हो गया था तो दूसरों को ज्ञान देने के बहाने भी मिल गये थे। उम्र के नाजुक दौर में अहंकार बहुत जल्दी दस्तक देता है और मैं तो वैसे ही जरा सी तारीफों से बढ़प्पन के भाव से ग्रस्त हो जाता था..तो जब भी तारीफें होती तो खुद को महान् और दूसरों को तुच्छ देखने की एक बेहद घटिया प्रवृ्त्ति का आविर्भाव अंतस में हो गया था। यदि उम्र बढ़ने के बावजूद भी हम इस प्रवृत्ति से घिरे हुए हैं तो समझ लीजिये हम बड़े हुए ही नहीं है। जीवन में आये कई उतार-चढ़ावों ने कमसकम दूसरों को हीनता से देखने का भाव को तो ख़त्म कर ही दिया। हाँ तारीफों के चलते आने वाला अहंकार का भाव आज भी बहुत हद तक बना हुआ है..इसलिये हमेशा लोगों की तारीफों से दूर भागने की कोशिश करता हूँ ताकि यथार्थ के नजदीक रह सकूं।

तकरीबन उसी साल मतलब उम्र के सोलहवें वर्ष में एक बड़ी धार्मिक सभा में प्रवचन करने का पहली बार मौका मिला था। जो कि हमारे उस हॉस्टल की परंपरा का हिस्सा होता था और हर छात्र उस स्वर्णिम अवसर में अपना सर्वस्व देने की कोशिश करता था। मुझे जब ये अवसर मिला तो लंबी तैयारी के बाद जब मैंने उस सभा में धूम मचाई तो लोगों की तारीफों ने एक बार फिर अभिमान को शिखर पर पहुंचा दिया। इसी तरह की छुटमुट उपलब्धियां इकट्ठी होती हुई नाम तो बड़ा कर रही थी पर दृष्टिकोण में ऊंचाई नहीं आयी थी और संकीर्ण मानसिकता की कई परतें अब भी चढ़ी हुई थी। जिन्हें आगे चलकर धीरे-धीरे ज्ञानार्जन से ही दूर किया जा सका। पूर्वाग्रह और दुराग्रह तो आज भी होगा और वो जाते-जाते ही जाता है क्योंकि सीखना ताउम्र जारी रहता है..लेकिन जज़्बाती और शैक्षिक परिवर्तन का वो एक मोड़ था जिस पर सबसे ज्यादा सीख भी मिली और परिपक्वता भी आई। उसी वर्ष पहली बार बिना किसी गार्जियन के देश के कई बड़े शहरों को घूमने का मौका मिला..जब शिविरों और संगोष्ठियों के लिये हमें वक्ता के तौर पर बाहर भेजा जाता और सफ़र से ज्यादा सीख देने वाली और कोई चीज़ नहीं हो सकती। दिल्ली, शिमला, पूना जैसे कई छोटे-बड़े शहरों को अकेले या दोस्तों के साथ घूमा...मजा भी बहुत आया, डर भी दूर हुआ और स्वावलंबी होने के क्रम मे कुछ सोपान और चढ़े। सबकुछ बड़ा वंडरफुल था..अपनी हॉस्टल लाइफ का विस्तृत वर्णन मैंने एक अन्य ब्लॉग पर स्मारक रोमांस और पिंकिश डे इन पिंक सिटी नामक श्रंख्ला में कर चुका हूँ इसलिये यहाँ ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा।

बहरहाल, जीवन का सोलहवां बसंत पार हो रहा था और अब कुछ नटखट और नादान अहसासों का भी ज़िंदगी में प्रवेश हो रहा था। समझदारी के साथ अय्याशी की चाहत भी बढ़ रही थी। एक तरफ संस्कार थे तो दूसरी तरफ मनचले मन की कश्मकस...दोनों का खूब संघर्ष हुआ और इस संघर्ष के कारण जिंदगी के अगले हिस्से मजेदार और जीवंत बने। रुकता हूँ अभी..उन पलों के साथ फिर लौटूंगा.................

Friday, July 11, 2014

मानव पूंजी का निकास और लड़खड़ाती भारतीय अर्थव्यवस्था

देश की नई सरकार का पहला बजट हाल ही में जारी हुआ है। कई बड़े-बडे़ सपने और दूरगामी लक्ष्यों को पूरा करना इस बजट का ध्येय है। शिक्षास्वास्थ्य और रोजगार के लिये सुदृढ़ अवसंरचना निर्माण के वायदे हैं तो कहीं न कहीं देश के युवाओं में राष्ट्रवाद की भावना जागृत करने के लिये कई मूल्यपरक बेहतर काम करने की पहल भी प्रदर्शित की गई है। लेकिन बावजूद इसके हिन्दुस्तानी युवा या जिसे मैंने अपनी इस पोस्ट के शीर्षक में मानव पूंजी कहकर संबोधित किया है वो यूरोपसिंगापुरदुबई और अमेरिका के सपने आँखों में संजोये हुए महज़ खुद के विकास को प्राथमिकता देता है और हिन्दुस्तानी अर्थव्यवस्था और तमाम राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था को गरियाने में खुद को गौरवान्वित महसूस करता है। 

उन्नीसवीं सदी के अंत में दादाभाई नैरोजी ने ड्रेन ऑफ वेल्थ (धन का निकास) सिद्धांत प्रतिपादित कर देश को ये बताने की कोशिश की थी कि किस तरह देश का अमूल्य खजाना विभिन्न माध्यमों के जरिये ब्रिेटेन  जा रहा है। अब बीसवीं शताब्दी के अंत या इक्कीसवीं सदी की समस्या ड्रेन ऑफ ह्युमन वेल्थ की निकासी है। लाखों की तादाद में आईआईटी, आईआईएम और एम्स जैसे संस्थानों से शिक्षा प्राप्त होनहार युवा अपने करियर को नई ऊंचाई देने के लिये विदेश पलायन कर रहे हैं और इससे उनका योगदान देश और अर्थव्यवस्था के विकास पर उचित ढंग से नहीं हो पा रहा है। देश को आज चिकित्सा, शिक्षा, अभियांत्रिकी, प्रबंधन जैसे हर क्षेत्र में मानव पूंजी की बेहद आवश्यकता है किंतु युवाओं की स्वार्थपरक वृत्तियां उन्हें अपने देश की बजाय दूसरे देशों में काम करने को बाध्य कर रही हैं। निश्चित ही कई मायनों में बाहर कार्यरत भारतीयों के कारण देश के अंदर पैसा भी आता है पर वो अपने देश में रहकर ग्रास रूट लेवल पर काम करने की तुलना में कम कार्यकारी है और देश की खोखली पड़ चुकी अर्थव्यवस्था की मजबूती के लिये उन युवाओं की ज़रूरत देश में रहकर ज़मीनी स्तर पर काम करने की ज्यादा है।

आज सरकार युवाओं की प्राथमिक और बुनियादी उच्च शिक्षा को गुणवत्तापरक बनाने के लिये अनेकों जतन कर रही है पर वही युवा सरकार से समुद्रपारीय शिक्षा हेतु छात्रवृत्ति लेकर विदेश जाते हैं औऱ फिर कभी लौटकर नहीं आते। एक अध्ययन के अनुसार एम्स से साढ़े पाँच वर्ष की एमबीबीएस पढाई कर 53 फीसदी चिकित्सक स्टडी लीव के नाम पर विदेश जाते हैं और फिर वापस नहीं आते। जबकि एम्स संस्थान में शिक्षा के लिये सरकार एक विद्यार्थी पर करोड़ो का खर्च करती है। वहीं यदि देश की बात की जाये तो वर्तमान में हमारे यहाँ डेढ़ लाख उपकेन्द्रों पर एक भी चिकित्सक नहीं है और हम अपनी मानव पूंजी का धड़ल्ले से निकास होते हुए देख रहे हैं। यही हालत दूसरे संस्थानों की और अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्रकों की भी है। 

आज सरकार शिक्षा और स्वास्थ्य पर जो बेहिसाब खर्च कर रही है उसका लक्ष्य एक कुशल मानव पूंजी का निर्माण करना है और इन आधारभूत खर्चों के माध्यम से मानव की श्रम उत्पादकता में वृद्धि करना है। अकेले शिक्षा पर सरकार जीडीपी का लगभग 6 प्रतिशत हिस्सा खर्च करती है। लेकिन सरकार का ये सारा निवेश उस समय बेकार चला जाता है जब निजी स्वार्थों के लिये ये युवा अपनी इस उत्पादकता का प्रयोग अपने देश के बजाय अन्य देशों में करते हैं। यकीनन इससे वे अपनी लाइफ को लग्जरी सुविधाओं से संपोषित करते हैं किंत इसका कोई सहभागी उपयोग अपने देश की आवाम के लिये नहीं हो पाता। इन्फोसिस के संस्थापक नारायणमूर्ति का एक महत्वपूर्ण कथन याद आ रहा है, वे कहते हैं- 'प्रतिभा और पैसे का सर्वोत्तम उपयोग यही है कि वो दूसरों के काम आये' लेकिन बाहर गयी हुई मानव पूंजी की न तो प्रतिभा से देश लाभान्वित हो पाता है और न ही पैसे से।

इस सबके अलावा सबसे बड़ी परेशानी ये है कि इन पलायन किये हुए युवाओं में अपने देश के प्रति हीनता का भाव भी आ जाता है और अपने देश की प्रणाली को ये बड़े ही दरिद्रता के भाव से देखते हैं जिसके प्रति इन्हें सहानुभूति तो होती है पर इसकी बेहतरी के लिये सहभागिता निभाने पर जोर नहीं होता। मैं यहां डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम का एक वक्तव्य उल्लिखित करना चाहूंगा- "हम अमेरिका जाकर उनकी प्रशंसा करते हैं और उनके सम्मान में क्या-क्या कहते हैं और जब न्यूयार्क असुरक्षित हो जाता है तो हम लंदन भागते हैं। जब इंग्लैण्ड में बेरोजगारी की स्थिति पैदा होती है तो हम अगली फ्लाइट से खाड़ी देश पहूंच जाते हैं। जब खाड़ी में युद्ध छिड़ता है तब हम भारत सरकार से खुद को वहां से निकालने की गुहार लगाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति देश को गाली देने व दुर्व्यवहार करने के लिये मुक्त है पर कोई भी इस व्यवस्था को पूर्णता प्रदान करने के बारे में नहीं सोचता। हमारी अंतरात्मा धन की गिरवी हो गयी है"। इस कथन में युवाओं की संपूर्ण सोच को रेखांकित किया गया है।

जितनी आत्मीयता और आदर हम अन्य देशों के कानूनों और व्यवस्थाओं के प्रति दिखाते हैं उतना यदि हम अपने देश के प्रति दिखाये तो बात ही अलग हो सकती है। मुंबई के पूर्व निगमायुक्त श्री टिनाइकार ने एक बार कहा था कि 'धनी व्यक्ति अपने कुत्तों के साथ सड़को पर घूमने निकलते हैं उनके कुत्ते सड़कों पर जगह-जगह मलत्याग देते हैं। दुूबारा वही व्यक्ति फिर सड़कों पर आते हैं और अधिकारियों तथा कर्मचारियों को उनकी तथाकथित अक्षमता के लिये गाली देते हैं। अमेरिका में कुत्ता मालिकों को फुटपाथ पर खुद ही कुत्ते का मल साफ करना पड़ता है। जापान में भी ऐसा ही है। पर क्या भारत में भारतीय नागरिक ऐसा करेंगे? "वाशिंगटन में 55 मील प्रतिघंटा से अधिक गति पर कार ड्राइव करने पर आपको यातायात पुलिस को यह कहने की हिम्मत नहीं होगी कि 'तुम्हें पता है कि मैं अमूक नेता या अधिकारी का बेटा हूं।' पैसा लो और भागो"। 

दरअसल, खराबी हमारे जिन्स में ही आ चुकी है यही वजह है कि हम वर्षों से चली आ रही अपनी छद्म स्वार्थपकर वृत्तियों के चलते पूर्णतः सद्भावना और जनहितपरक सोच से शून्य हो चुके हैं। सिस्टम को गाली देना..और खुद को पदपैसा और प्रतिष्ठा से लवरेज़ करके हम महात्मा होना चाहते हैं पर वैश्विक संस्कृति में महात्मा होने के लिये संग्रहवृत्ति नहीं बल्कि त्यागवृत्ति वाञ्छित है...महज मरने से कोई शहीद नहीं हो जाता, आपकी मौत की वजह शहादत को तय करती है। महानता का पैमाना भी कुछ-कुछ ऐसा ही है..............

Thursday, July 3, 2014

बंजारे को घर दिलाने की कोशिश : एक विलेन

सरपट दौड़ती ज़िंदगी में मोहब्बत के कारण ही नये पेंच आते हैं...कभी मोहब्बत हो जाने से तो कभी मोहब्बत की डोर टूट जाने से, जीवन के मायने ही बदल जाते हैं। हर मर्तबा साहित्यकार या फिल्मकारों द्वारा प्रेम को मंजिल साबित करने के जतन किये जाते हैं पर मोहब्बत हमेशा रास्ता ही बनी रहती है जिसकी कोई मंजिल नहीं होती..और असल में मोहब्बत की खूबसूरती ही इस बात में है कि ये मंजिल नहीं, महज़ रास्ता है। रास्तों की खूबसूरती हमेशा मंजिल से ज्यादा होती है लेकिन हम किसी अव्यक्त मंजिल की तलाश में रास्तों का मजा भी नहीं ले पाते।

मोहित सूरी निर्देशित फिल्म 'एक विलेन' भी नायकनुमा विलेन को प्रेम के जरिये मंजिल दिलाने की कोशिश करती है। जिसे फिल्म के बहुचर्चित गाने 'मुझे कोई यूं मिला है जैसे बंजारे को घर' के जरिये बयां भी किया गया है। लेकिन फिर भी मोहित सूरी अपनी तथाकथित सुखद अहसास वाली एंडिंग करने के बावजूद बंजारे को घर नहीं दिला पाते..क्योंकि प्रेम में गंतव्य का प्रावधान ही नहीं होता। प्रेम को मासूमियत और दीवानगी को दिखाने का मोहित सूरी का अपना ही एक पैटर्न है जो 'एक विलेन' में भी बखूब नज़र आता है। मोहित का नायक पारंपरिक शिष्टाचार और नैतिकता से युक्त नहीं होता और न ही उसमें मानवीय सभ्यता का समावेश देखने को मिलता है लेकिन फिर भी वो फिल्म के कथानक में पूरे सिस्टम और सभ्य समाज के बीच सबसे ज्यादा दर्शकों की सहानुभूति जुटाता है। यही वजह है कि वो विलेन होते हुए भी नायक है क्योंकि वो प्यार करता है और हमने हिन्दी सिनेमा की शुरुआत से ही प्यार करने का जिम्मा नायक को सौंप रखा है...किसी और में प्यार के लिये दीवानगी हो, ये हमें रास नही आता।

'एक विलेन' में दरअसल एक नहीं बल्कि दो विलेन हैं।  दोनों हत्याएं करते हैं, दोनों ही अपनी-अपनी नायिकाओं से बेइंतहा प्यार करते हैं लेकिन दर्शक का जुड़ान सिर्फ एक के साथ होता है और सिस्टम के हाथों कुंठा झेलने वाला और अनायास ही जिस किसी को मार देने वाला काम्प्लेक्सिटी से घिरा दूसरा विलेन (रितेश देशमुख) दर्शकों की हमदर्दी नहीं जुटा पाता..क्योंकि उसके हिंसक रवैये की वजह तार्किक नहीं है जबकि पहले विलेन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) का हिंसक होना सतर्क और उद्देश्यपूर्ण बताया गया है। शायद इसीलिये वो विलेन होते हुए भी अनाधिकारिक तौर पर इस फिल्म का हीरो है। 

मोहित सूरी ने हत्या और हिंसा के परे इस फिल्म में जो प्रेम कहानी बताई है वो बड़ी रुमानियत और मासूमियत को संजोये हुए है और फिल्म की असली यूएसपी भी वही है। प्रेम को प्रकृति से जोड़ते हुए जिन नाजुक लम्हों को मोहित ने संजोया है वो उनकी तरह का पहला सिनेमाई एक्सपेरिमेंट है...और मौजूदा दौर में पर्यावरणविद् जिन क्लाइमेटिक चेंजेस को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं उन चीज़ों को ही इस फिल्म में खूबसूरती से प्रेम के साथ लिंक किया गया है। सावन की पहली बारिश में मोर का नाचना, तितलियों के साथ अठखेलियां करना, समंदर के नीचे की दुनिया, मछलियों का संसार, मूंगे की चट्टान,  हवा के साथ बहने के दृश्यों का प्रेम के साथ समायोजन बड़ा सुंदर नज़र आता है..और ये दृश्य ही प्रेम का प्रकृतिकरण और प्रकृति का प्रेमीकरण  करते प्रतीत होते हैं। जो मानवीय जज़्बातों को ग्रास रूट लेवल का बनाते हैं और प्रेम की सबसे बड़ी सच्चाई को बयां करते हैं।

बहरहाल, मोहित सूरी इस फ़िल्म की सफलता से स्टार निर्देशकों की जमात में शामिल हो गये हैं और उन्होंने भट्ट कैम्प के बाहर भी अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज कराई है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिये ये फिल्म उनके करियर को नये परवाज़ देने वाली साबित होगी..तो श्रद्धा कपूर को आशिकी टू के बाद इससे बेहतर अवसर नहीं मिल सकता था और इस अवसर को उन्होंने बखूबी भुनाया भी है। मोहित सूरी की फ़िल्मों के संगीत के विषय में कुछ समीक्षा करना गुस्ताख़ी होगी क्योंकि संगीत की उनसे ज्यादा परख मौजूदा दौर के कुछ ही फिल्मकारों में देखने को मिलती है..और सबसे बड़ी बात उनकी फ़िल्मों के संगीत की ये है कि मोहित की फ़िल्मों में स्थापित संगीतकारों की बजाय नये संगीतकारों को अवसर दिया जाता है।

खैर, कुछ कमियों के बावजूद ग्रे-शेड में गुजरते धवल जज़्बातों की महीन प्रस्तुति को देखना है तो ये एक बेहतरीन अनुभव हो सकता है। वैसे भी दीवानगी की हद से गुजर चुके लोग भले ही समृद्धि के शिखर पे पहुंच जायें पर उन्हें वहीं बेखुदी की गलियां भाती है और क़ातिल की तरह हर आशिक उन्हीं गलियों में बार-बार लौटना चाहता है जहाँ उसने आशिकी की थी..................

Friday, June 20, 2014

कसक

(ये पोस्ट मेरी लिखी एक कहानी "कसक" का एक अंश है..जो मुझे बेहद पसंद है। हाल ही में ये कथा महिला पाठकों पर आधारित पत्रिका 'संगिनी' में प्रकाशित हुई। कहानी का ये हिस्सा कथा के नायक- आरव और नायिका-पूनम के बीच हुए उस संवाद पर आधारित है जब वे एक-दूसरे से बिछड़ने के तकरीबन आठ साल बाद मिलते हैं....)

.........उस पूरे विशाल सभागृह में जब साथियों को अवार्ड के लिये बुलाया जाता तो शोर मच जाता। कॉलेज के कन्वोकेशन के लिये आयोजित उस पूरे माहौल में यूँ तो बहुत शोर था..पर आरव के ज़हन में गहन सन्नाटा पसरा हुआ था और वो अपने मोबाईल पर आये पूनम के उस मैसेज के बारे में ही सोच रहा था जिसमें उसने आरव से बस एक बार मिलने की गुज़ारिश की थी। मानो सालों पहले बंद कर दी गई किसी किताब के पन्ने हवा का झोंका आने से फिर पलट रहे हों और इस झोंके के कारण आरव अनचाहे ही यादों के सफ़र पर निकल गया...जहाँ चारों तरफ बस बेखुदी और दीवानेपन की बयार लहलहाया करती थी। अपनी इस कसमकस को दूर करने के लिये आरव ने पूनम से मिलना ही मुनासिब समझा...और शाम को सूरज ढलने से ठीक पहले वो तय किये स्थान पर पहुंच गया..जहाँ से नीचे देखने पर शहर के कदमों में पसरा विशाल तालाब अपनी लहरों से अठखेलियां कर रहा था और ऊपर देखने पर था अनंत नीरव आकाश...और इन दोनों के बीच असंख्य जज़्बात लिये खामोश खड़े पूनम और आरव..........

बड़ी देर से माहौल में फैली चुप्पी को तोड़ते हुए आखिर पूनम ने कहा-
पूनमः- कैसे हो?
            आरव ने अपनी आँखों को ऊपर उठाकर बड़ी ही उपेक्षित और घृणित निगाहों से पूनम को देखा।
पूनमः- (कुछ झेंपते हुए..एक मर्तबा फिर) घर में सब कैसे है?
           आरव ने फिर कुछ अजीब से मूँह बनाते हुए गहरी सांसे भरी।
 पूनमः- कुछ तो बोलो...
आरवः- (आँखें तररते हुए और बड़े ही सख़्त लहज़े में) क्या बोलूं? मैं कैसा हूँ..तुम कैसी हो...इन सब बातों में रक्खा क्या है या इन बातों को जानने, न जानने से किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है...जल्दी अपनी बात ख़त्म करो और मुझे यहाँ से जाने दो।
पूनमः- मुुझसे इतनी नफ़रत क्युं है तुम्हें?
आरवः- नफरत? तुमसे क्युं नफरत होगी मुझे..जिसका मेरी ज़िंदगी में कोई अस्तित्व ही नहीं उसके लिये कैसी नफ़रत या कैसी मोहब्बत। मैं तुम्हारे लिये और तुम मेरे लिये तो कब की मर चुकी हो...
       शब्दों का बेहद कटु अस्त्र छोड़ा था आरव ने पूनम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी अब..फिर भी कुछ देर की खामोशी के बाद उसने बड़े हिचकते हुए कुछ कहा क्योंकि वो बहुत सारी अधूरी बातें आज साफ करना चाहती थी।
पूनमः- तुम ऐसा बर्ताव क्युं कर रहे हो..जब हम साथ थे तो याद है न तुम क्या कहते थे कि हम....
आरवः- (पूनम की बात ख़त्म होने से पहले ही बात काटते हुए आरव ने कहा) जब हम साथ थे...(एक कुटिल मुस्कान उसके चेहरे पे तैर गई) साथ थे तब तो तुमने भी क्या-क्या कहा था पूनम...मुझे याद कराने से अच्छा है कि तुम याद कर लो और वैसे भी क्या होने वाला है अब इन सब बातों में..अब तो तुम्हारा अपना परिवार है..बच्चे हैं वहाँ अपना ध्यान लगाओ न...क्युं सूख चुके ज़ख्मों की पपड़ियां उखाड़ रही हो?
पूनमः- तुम्हारे सूखे होंगे..पर मेरे दिल में तो आज भी कसक बाकी है...कहने को सबकुछ है मेरे पास पर फिर भी एक अधूरापन हमेशा सताता है मुझे।
आरवः- कसक! तुम क्या जानो कसक क्या होती है (फिर कुटिल मुस्कान के साथ)
पूनमः- सच आरव! हर रोज़ तुम्हें याद करती हूँ...
आरवः- और मैं हर रोज़ तुम्हें भुलाने की कोशिश...
पूनमः- मैं अपनी ज़िंदगी के उन्हीं पलों को पाना चाहती हूँ जब तुम मेरे साथ थे..
आरवः- और मैं ज़िंदगी के उन्हीं पलों को अपने अतीत से मिटाना चाहता हूँ, जब तुम मेरे साथ थी...
पूनमः- ऐसा क्युं कह रहे हो आरव...तुम्हारा प्यार तो कभी हासिल करने का मोहताज़ नहीं था...
आरवः- हाँ बिल्कुल! और मुझे तुम्हारे न मिलने को लेकर कोई कसक भी नहीं है..मुझे कसक है उन दोगुले जज़्बातों के लिये जो तुमने मेरे सामने दिखाये..मुझे कसक है तुम्हारे दोहरे रवैये के कारण..मुझे शिकायत है तुम्हारी उन लफ्फाज़ी भरी बातों से जो अनायास ही मेरे अहसासों को मचलने पर मजबूर करती थी और मुझे दुनिया से बगावत के लिये उकसाती थी..मुझे शिकायत है तुम्हारी उस सोच से जो मुझे सिर्फ तुम्हारे खालीपन को भरने का ज़रिया समझती थी..जो एकसाथ दो-दो नावों पे सवारी करने का ख़याल दिल में पालती थी..तुम्हारा झूठ और कई बार तुम्हारी खामोशी...न जाने कितनी चीज़ें है जिसके चलते मुझे शिकायत है..मुझे कभी कोई शिकायत और कसक तुम्हारे बिछड़ने से पैदा हुए कड़वे यथार्थ से नहीं मुझे हमेशा से सिर्फ तुम्हारे स्वार्थी, तो कभी बेवकूफ तो कभी बेशर्म लहज़े के कारण ही रही है और अब तो मैंने इस कसक को भी खुद से दूर कर फेंका है इसलिय इन बातों को न ही करो तो बेहतर है.....
       (एक मर्तबा फिर गहन खामोशी..पर तब भी दिल के अंदर हज़ारों जज़्बात चीख रहे थे)

पूनमः- तुम नहीं समझोगे कि मैंने क्या खोया है..हर रोज़ इन आँखों से आँसू बहे हैं...
आरवः- हाँ, आँसू बहाना लाज़मी भी है क्युंकि तुमने सच में बहुत कुछ खोया है पूनम! मैं कभी नहीं रोयाा क्युंकि मुझे पता है मैंने कुछ नहीं खोया पर तुमने खोया है...मुझसे तो वो इंसान दूर हुआ जो कभी मेरा होना ही नहीं चाहता था पर तुमने उसे खोया है जो हमेशा तुम्हारा बनके रहना चाहता था।
पूनमः- एक लड़की के हालात और उसकी मजबूरियों को तुम नहीं समझ सकते...कभी तुम मेरी जगह आके तो सोचने की कोशिश करो।
आरवः- यदि मैं तुम्हारी जगह आके सोचने लगूँगा तो मेरी जगह आके कौन सोचेगा..मैंने प्यार किया था पूनम और प्यार सारी समझदारी ख़त्म होने के बाद ही परवान चढ़ता है..मैं क्युं कुछ समझूं, तुमने तो समझ लिया न सब..और अपनी उस समझ से ही तो तुम्हें ये खूबसूरत ज़िंदगी मिली है..(ताने मारने के अंदाज़ में आरव ने कहा)
पूनमः- तुम्हारी कितनी गलत फीलिंग है मेरे लिये पर मैंने हमेशा तुम्हारी बेहतरी की दुआ की है..तुम्हारे हर अचीवमेंट पे मुझे तुमसे ज्यादा खुशी मिली है आरव...
आरवः- अचीवमेंट! (खींझते हुए आरव बोला) किसे अचीवमेंट कहती हो तुम? यही कि मेरी दो पुस्तकें छप गई हैं या ये अचीवमेंट है कि मैं आज एक मोटी तनख्वाह वाली रुतबेदार नौकरी कर रहा हूँ...या फिर देश की पत्र-पत्रिकाओं में एक नामी स्तंभकार के तौर पे मेरे लेख पढ़े जाते हैं..या फिर बंगला, गाड़ी या बैंक बैलेंस..क्या है तुम्हारी नज़र में अचीवमेंटय़? जिससे इंसान के अहंकार की पुष्टि होती है बस वही सबसे बड़ी उपलब्धि होती है पूनम! और मेरा अहंकार तो तुम थी उस अहंकार के टूटने के बाद ऐसी कौनसी चीज़ है जो मुझे अचीवमेंट लगेगी..आज जो कुछ भी मेरे पास है वो बस एक बोझ है कोई उपलब्धि नहीं। जिसे मैं  भोगता नहीं बल्कि भुगतता हूँ।
पूनमः- हम्म्म...फिर भी तुम्हारे पास ऐसी हजारों चीज़ें हैं जो कहीं न कहीं तुम्हारे खालीपन को भर देती है पर मेरे पास तो बस अथाह अकेलापन है जो किसी को नज़र नहीं आता...
आरवः- आज जो मेरे पास है मैंने इसकी तमन्ना कभी नहीं की थी...मैं एक बहुत साधारण सी खुशनुमा ज़िंदगी बिताना चाहता था..एक बेहद मामुली इंसान बनके...पर तुम्हारे जाने के बाद मिली ये हज़ारों चीज़ें बस मेरे सुकून में खलल डालती है और न चाहते हुए भी आज मैं इनमें इतना उलझ गया हूँ कि अब पूरे जहाँ में इस उलझन से निकलने की गुंजाइश नज़र नहीं आती..और ये सारी उलझनें, जिसे दुनिया कामयाबी कहती है तुम्हारे जाने के बाद ही शुरु हुई थी...खैर, पता नहीं क्युं अब ये सब बातें मैं तुमसे कर रहा हूँ...
पूनमः- नहीं, कह लो आरव..कम से कम इससे ही तुम्हारी भड़ास कुछ कम हो जाये...
आरवः- हाँ सही कहती हो...मैं चाहे कुछ भी क्युं न कह लूँ पर तुमपे किसी बात का क्या फर्क पड़ने वाला है...शब्दों की अहमियत तुम्हें कब समझ आती है तुम्हारे लिये तो बातें बस बातें ही हैं न...भगवान ने मूँह दिया है तो बस बक दो कुछ भी..और वही तो तुमने हमेशा किया है और सबकी बातों को भी बस ऐसे ही सुना..हैं न?
पूनमः- सोचा था...कुछ अच्छी बातें करके अपने गुज़रे वक्त में से कुछ खुशनुमा पलों को चुरा लाउंगी तुम्हारे साथ..पर मुझे नहीं पता था कि मेरी उम्मीद से कई ज्यादा नफ़रत भरी है तुम्हारे दिल में मेरे लिये...
(बड़े ही अजीब लहज़े में एक बार फिर आरव ने अपना सिर हिलाया..मानो पूनम की बातें उसके लिये कोरी गप्प की तरह हो)
पूनमः- लेकिन मुझे खुशी है कि मुझे किसी ने कभी, कुछ पलों के लिये ही सही..पूरी शिद्दत से चाहा..और इसके लिये मैं खुद को हमेशा खुशकिस्मत समझूंगी...
आरवः- हाँ...समझ सकती हो...पर याद रखना मैंने तुम्हें इतना चाहा इस कारण तुम कोई बहुत खास हस्ती नहीं हो जाती..न तो तुम ही स्पेशल हो और न ही मैं...स्पेशल है मेरे वो जज़्बात जिनका क़त्ल कर तुमने आगे का रास्ता अख़्तियार किया..औऱ एक बाद याद रखना कि तुम्हारी जगह कोई और भी होता तो उससे भी मैं ऐसी ही मोहब्बत करता...
पूनमः- (कुछ-कुछ हकलाते हुएआरव..तुम्हारे और मेरे जज़्बातों में बस इतना फ्फर्क है कि तुम्हें अपने अहसासों को लफ्ज़ों में पिरोना आता है और मेरे जज़्बात दिल में कुलाटी मारकर ही दम तोड़ देते हैं....तुम कह सकते हो पर मैं............................
                 और अपनी आदत के अनुसार एक बार फिर पूनम नम आँखें लिये अपने आँसूओं को रोकने की नाकाम कोशिश करने लगी..पर फिर भी पूनम की बांयी आँख से निकली दो आँसू की बूंदें उसके गालों को छूते हूए ज़मीन पर गिर गई...कभी आरव इन आँसूओं को गालों पे आने से पहले ही अपने हाथों में या होंठो पे झेल लेता था पर अब वो निष्ठुर, निर्दयी बना बस एकटक पूनम को निहारता रहा........वक्त के साथ कितना कुछ बदल जाता है।

              दुनिया में मोहब्बत के जज़्बात सबसे अजीब है जिनके सही या ग़लत का फैसला करने वाली कोई अदालत जमाने में मौजूद नहीं है...हर मर्तबा इन जज़्बातों का क़त्ल करने वाला गुनहगार बेनेफिट ऑफ डाउट्स के कारण छूट जाता है और इसके बाद बाहरी दुनिया का हर इंसान अपनी-अपनी नज़ीर और अपने-अपने बयान पेश कर प्रेम को लेकर अपना नज़रिया तय करता है....और प्रेम के पाक जज़्बात भरी महफिलों में बस हंसी के शिगूफे बनकर रह जाते हैं.....................