सरपट दौड़ती ज़िंदगी में मोहब्बत के कारण ही नये पेंच आते हैं...कभी मोहब्बत हो जाने से तो कभी मोहब्बत की डोर टूट जाने से, जीवन के मायने ही बदल जाते हैं। हर मर्तबा साहित्यकार या फिल्मकारों द्वारा प्रेम को मंजिल साबित करने के जतन किये जाते हैं पर मोहब्बत हमेशा रास्ता ही बनी रहती है जिसकी कोई मंजिल नहीं होती..और असल में मोहब्बत की खूबसूरती ही इस बात में है कि ये मंजिल नहीं, महज़ रास्ता है। रास्तों की खूबसूरती हमेशा मंजिल से ज्यादा होती है लेकिन हम किसी अव्यक्त मंजिल की तलाश में रास्तों का मजा भी नहीं ले पाते।
मोहित सूरी निर्देशित फिल्म 'एक विलेन' भी नायकनुमा विलेन को प्रेम के जरिये मंजिल दिलाने की कोशिश करती है। जिसे फिल्म के बहुचर्चित गाने 'मुझे कोई यूं मिला है जैसे बंजारे को घर' के जरिये बयां भी किया गया है। लेकिन फिर भी मोहित सूरी अपनी तथाकथित सुखद अहसास वाली एंडिंग करने के बावजूद बंजारे को घर नहीं दिला पाते..क्योंकि प्रेम में गंतव्य का प्रावधान ही नहीं होता। प्रेम को मासूमियत और दीवानगी को दिखाने का मोहित सूरी का अपना ही एक पैटर्न है जो 'एक विलेन' में भी बखूब नज़र आता है। मोहित का नायक पारंपरिक शिष्टाचार और नैतिकता से युक्त नहीं होता और न ही उसमें मानवीय सभ्यता का समावेश देखने को मिलता है लेकिन फिर भी वो फिल्म के कथानक में पूरे सिस्टम और सभ्य समाज के बीच सबसे ज्यादा दर्शकों की सहानुभूति जुटाता है। यही वजह है कि वो विलेन होते हुए भी नायक है क्योंकि वो प्यार करता है और हमने हिन्दी सिनेमा की शुरुआत से ही प्यार करने का जिम्मा नायक को सौंप रखा है...किसी और में प्यार के लिये दीवानगी हो, ये हमें रास नही आता।
'एक विलेन' में दरअसल एक नहीं बल्कि दो विलेन हैं। दोनों हत्याएं करते हैं, दोनों ही अपनी-अपनी नायिकाओं से बेइंतहा प्यार करते हैं लेकिन दर्शक का जुड़ान सिर्फ एक के साथ होता है और सिस्टम के हाथों कुंठा झेलने वाला और अनायास ही जिस किसी को मार देने वाला काम्प्लेक्सिटी से घिरा दूसरा विलेन (रितेश देशमुख) दर्शकों की हमदर्दी नहीं जुटा पाता..क्योंकि उसके हिंसक रवैये की वजह तार्किक नहीं है जबकि पहले विलेन (सिद्धार्थ मल्होत्रा) का हिंसक होना सतर्क और उद्देश्यपूर्ण बताया गया है। शायद इसीलिये वो विलेन होते हुए भी अनाधिकारिक तौर पर इस फिल्म का हीरो है।
मोहित सूरी ने हत्या और हिंसा के परे इस फिल्म में जो प्रेम कहानी बताई है वो बड़ी रुमानियत और मासूमियत को संजोये हुए है और फिल्म की असली यूएसपी भी वही है। प्रेम को प्रकृति से जोड़ते हुए जिन नाजुक लम्हों को मोहित ने संजोया है वो उनकी तरह का पहला सिनेमाई एक्सपेरिमेंट है...और मौजूदा दौर में पर्यावरणविद् जिन क्लाइमेटिक चेंजेस को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं उन चीज़ों को ही इस फिल्म में खूबसूरती से प्रेम के साथ लिंक किया गया है। सावन की पहली बारिश में मोर का नाचना, तितलियों के साथ अठखेलियां करना, समंदर के नीचे की दुनिया, मछलियों का संसार, मूंगे की चट्टान, हवा के साथ बहने के दृश्यों का प्रेम के साथ समायोजन बड़ा सुंदर नज़र आता है..और ये दृश्य ही प्रेम का प्रकृतिकरण और प्रकृति का प्रेमीकरण करते प्रतीत होते हैं। जो मानवीय जज़्बातों को ग्रास रूट लेवल का बनाते हैं और प्रेम की सबसे बड़ी सच्चाई को बयां करते हैं।
बहरहाल, मोहित सूरी इस फ़िल्म की सफलता से स्टार निर्देशकों की जमात में शामिल हो गये हैं और उन्होंने भट्ट कैम्प के बाहर भी अपनी पुख्ता मौजूदगी दर्ज कराई है। सिद्धार्थ मल्होत्रा के लिये ये फिल्म उनके करियर को नये परवाज़ देने वाली साबित होगी..तो श्रद्धा कपूर को आशिकी टू के बाद इससे बेहतर अवसर नहीं मिल सकता था और इस अवसर को उन्होंने बखूबी भुनाया भी है। मोहित सूरी की फ़िल्मों के संगीत के विषय में कुछ समीक्षा करना गुस्ताख़ी होगी क्योंकि संगीत की उनसे ज्यादा परख मौजूदा दौर के कुछ ही फिल्मकारों में देखने को मिलती है..और सबसे बड़ी बात उनकी फ़िल्मों के संगीत की ये है कि मोहित की फ़िल्मों में स्थापित संगीतकारों की बजाय नये संगीतकारों को अवसर दिया जाता है।
खैर, कुछ कमियों के बावजूद ग्रे-शेड में गुजरते धवल जज़्बातों की महीन प्रस्तुति को देखना है तो ये एक बेहतरीन अनुभव हो सकता है। वैसे भी दीवानगी की हद से गुजर चुके लोग भले ही समृद्धि के शिखर पे पहुंच जायें पर उन्हें वहीं बेखुदी की गलियां भाती है और क़ातिल की तरह हर आशिक उन्हीं गलियों में बार-बार लौटना चाहता है जहाँ उसने आशिकी की थी..................
30 जून को एक विलेन देखी। निसंदेह फिल्म समीक्षा शत प्रतिशत सत्य एवं सटीक है। …।
ReplyDeleteएक विलेन' की बढ़िया समीक्षा पढ़कर लगा फिल्म देख ली। .
ReplyDeleteबहुत बढ़िया प्रस्तुति
बढ़िया समीक्षा...
ReplyDeleteआपकी समीक्षा का ढंग...मैं तो वैसे भी आप की लेखनी का कायल हूँ ..बेहतरीन |
ReplyDeleteस्वस्थ रहें|( मैं कविता रावत जी की टिप्पणी पूर्ण समर्थन करता हूँ )
चलचित्र इतना जानदार हो या न हो, देखे बिना नहीं कहा जा सकता, पर आपकी चलचित्रात्मक समीक्षा ने चलचित्र का बहुत ही संभावी अनुभव कराया है। बहुत बढ़िया।
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