(टीचर्स डे के विशेष उपलक्ष्य में प्रस्तुत, भारतीय सिनेमा में अध्यापक की बदलती छवि को बयाँ करती प्रस्तुति-)
“यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान..सीस दिये जो गुरु मिलै, तो भी सस्ता जान” साहित्य में गुरु के सम्मान की
परंपरा तो तबसे है जबसे इंसान ने सभ्यता का चोगा ओड़ा है।
अपना सिर कटाने पर भी एक सच्चा अध्यापक का मिलना बड़ा
सस्ता सौदा माना गया है। वक्त की बदलती करवटों में गुरु के रूप में भी आमूलचूल
परिवर्तन आये पर एक शिक्षक की अहमियत हर काल और हर क्षेत्र में जस की तस बनी रही। गुरु-चेले
की इस अमिट-सनातन परंपरा पे हर भाषा के साहित्य में काफी पन्ने काले किये गये..और
जब सिनेमा का इस भौतिक जगत में आविर्भाव हुआ तो वो भला इस पावन परंपरा से कैसे
अछूता रह सकता था।
यूं
तो अध्यापक के मायने समझाने के लिये हमने भारत में चुंबकीय व्यक्तित्व के धनी,
दूसरे राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस को चुना..किंतु सही अर्थों में
अध्यापक की विभिन्न छवियों से हमारा परिचय कराया हिन्दी सिनेमा ने। आजादी के बाद
पचास के दशक को हिन्दी सिनेमा का स्वर्णिम काल माना जाता है..इसी दौर में
प्रदर्शित सत्येन बोस द्वारा निर्देशित जागृति फिल्म समाज के सामने अध्यापक
के बदले स्वरूप को प्रदर्शित कर रही थी। इस फिल्म में अभि भट्टाचार्य द्वारा
निभाया गया अध्यापक का किरदार सिनेमा के इतिहास में मील का पत्थर माना जाता
है..जहां वो एक अमीर बाप की बिगड़ी औलाद को गैरपरंपरागत शिक्षा पद्धत्ति से जीवन
मूल्यों का ज्ञान कराते हैं। यही वो फिल्म थी जिसमें गुरु-शिष्य के संवादों के
ज़रिये बच्चों को प्रेरणा देने वाले दो महान् गीतों का समावेश किया था..’आओ बच्चों तुम्हें दिखाये झांकी हिन्दुस्तान की’ और “हम लाये हैं तूफान से कश्ती
निकाल के इस देश को रखना मेरे बच्चों संभाल के’ आज भी ये गीत देश की आजादी के जयघोष माने जाते हैं।
बाद
में कई फिल्में ऐसी भी आई जिनमें अशोक कुमार, जगदीप, असरानी जैसे अभिनेताओं ने
अध्यापक के रूप में चरित्र भूमिकाएं की। यूँ तो ये कहानी के नायक के समानांतर नहीं
थे पर इन फिल्मों में नायक के जीवन पे अध्यापक का प्रभाव बेहतर ढंग से परिलक्षित
हुआ। इस कड़ी में बड़ा परिवर्तन आया राजकपूर की मेरा नाम जोकर से..जिसमें
अध्यापक और छात्र के रिश्तों ने एक अलग ही लिबास अख्तियार किया। कौमार्य के अगले
दौर में कदम रखता छात्र अपनी अध्यापिका के प्रेमपाश में ही पढ़ जाता है। एक
अध्यापक के भावनात्मक पक्ष का इस फिल्म में बखूब प्रदर्शन किया गया है। गुलजार
द्वारा निर्देशित परिचय और किताब भी ऐसी ही फिल्में हैं जिनमें
अध्यापक और विद्यार्थियों के रिश्तों का ताना-बाना समझा जा सकता है। माँ-बाप के
बिना नाजुक उम्र में पैदा होने वाले बगाबती तेवरों से एक अध्यापक कैसे जूझता है
इसका बेहतरीन चित्रांकन गुलजार की इन फिल्मों में किया गया है। विनोद खन्ना द्वारा
इम्तिहान में निभाये गये एक आदर्शवादी प्रोफेसर के किरदार को भला कौन भूल
सकता है...जहाँ अपने जीवन मूल्यों और सकारात्मक दृष्टिकोण की छाप वो अपने छात्रों
पे छोड़ता है। इस फिल्म का गीत ‘रुक जाना नहीं तू कहीं हार
के’ आज भी जनमानस के लवों पे जिंदा है।
इसी तरह फिल्म गुड्डी का क्लासरूम में फिल्माया गया वो गीत भी आँखों के
सामने बरबस ही आ जाता है जिसमें जया भादुड़ी अपने खिलंदड़ अंदाज में ‘हमको मन की शक्ति देना, मन विजय करे’ गाती नज़र आती हैं।
हिन्दी
सिनेमा के पहले सुपरस्टार राजेश खन्ना ने भी सुनहरे परदे पे अपने रोमांटिज्म के
परे एक अध्यापक के किरदार को खूबसूरती से जिया है। उनकी फिल्म रोटी और मास्टरजी
में हम ये झलक देख सकते हैं। जहाँ ये बखूब देखा जा सकता है कि किस तरह अपने
छात्रों की प्रताड़नाओं का शिकार एक अध्यापक को होना पड़ता है। सिनेमा में अध्यापक
की यात्रा की बात करें और इसमें सदी के महानायक अमिताभ बच्चन का नाम न आये ऐसा
नहीं हो सकता। भला कौन भूल सकता है फिल्म चुपके-चुपके के उस अंग्रेजी के
अध्यापक को, जिसे हालातों के नाटकीय बदलावों के चलते वनस्पति विज्ञान पढ़ाने की
जिम्मेदारी सौंप दी जाती है और वो अपने बेहतरीन अध्यापन कौशल से अपनी इस
जिम्मेदारी का निर्वहन करता है। बच्चन जी के अध्यापन की ये श्रंख्ला कस्मे-वादे
से होती हुई मोहब्बतें, ब्लैक और फिर आरक्षण तक देखी गई। मोहब्बतें
में दो पीढ़ियों के अध्यापकों के वैचारिक अंतर्द्वंद को देखा जा सकता है..तो ब्लैक
का अध्यापक अपनी मूक-बधिर छात्रा को जीने लायक बनाने के लिये अपना सारा जीवन
न्यौछावर कर देता है। वहीं आरक्षण के डाक्टर प्रभाकर आनंद समस्त
व्यवसायिकता से परे अध्यापन को अपना धर्म मानकर इसे साकार करते हैं।
मुख्य
धारा के परे भी समय-समय पे ऐसी फिल्में बनती रही हैं जिनमें शिक्षक की महत्ता को
देखा जा सकता है। महेश भट्ट द्वारा निर्देशित सारांश और सर इस कड़ी
की दो प्रमुख फिल्में हैं..जहाँ सारांश में एक रिटायर्ड गाँधीवादी अध्यापक
की देश के पॉलिटिकल सिस्टम के खिलाफ लड़ाई को दर्शाया गया है जिसमें वो अपने
मूल्यों से समझौता किये बगेर व्यवस्था के विरुद्ध लड़ता है। तो वहीं फिल्म सर
का अध्यापक अपनी हकलाहट से पीड़ित छात्रा को उसका खोया आत्मविश्वास वापस लाने में
मदद करता है। राजकुमार अभिनीत बुलंदी भी एक महत्वपूर्ण फिल्म हैं जिसमें कि
एक अध्यापक अपने शिक्षण कौशल से छात्रों को अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिये
प्रेरित करता है। इसके अलावा राज बब्बर अभिनीत आज की आवाज भी कुछ ऐसे ही
कथ्य को दिखाने वाली है इसमें भी एक अध्यापक अपने ज्ञान का प्रयोग भ्रष्ट व्यवस्था
के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने के लिये करता है।
आज
के इस हाईटेक युग में अध्यापक भी हाईटेक हो गये हैं और गुरु के अंदाज भी परिवर्तित
हुए हैं। अब कुर्ता-पायजामा पहने, झोला टांगे अध्यापक नज़र नहीं आते और न ही वे
प्राचीन ग्रंथों और साहित्यों का पारंपरिक ज्ञान देते देखे जाते..पर उनकी अहमियत
आज भी वैसी ही है जैसी कि सालों पहले थी। कुछ-कुछ होता है कि मिस ब्रिगेंजा
अपने छात्रों को प्यार और दोस्ती का फर्क समझाती नज़र आती हैं तो मैं हूँ न
की ग्लैमरर्स सुष्मिता सेन क्लासरूम में ही मॉडलिंग करती प्रतीत होती हैं। इसी तरह
बात यदि स्टूडेंट ऑफ द ईयर के प्रिंसिपल की करें तो वो भी पुरानी मान्यताओं
से कोसों दूर एक आधुनिक ख़यालात वाला व्यक्ति है जिसके लिये मनोरंजन, जीवन के
किताबी मूल्यों से कई बढ़कर है।
अध्यापक
की ये महत्ता सिर्फ क्लासरूम में ही जाया नहीं होती, उनका महत्व जीवन के दूसरे
हिस्सों में भी महसूस किया जा सकता है। मसलन इकब़ाल फिल्म के नसरुद्दीन शाह
द्वारा अभिनीत उस कोच के किरदार को क्या किसी अध्यापक से कम माना जायेगा जो अपने
ज्ञान का प्रयोग एक गूंगे-बहरे युवक को अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेटर बनाने में करता
है। इसी तरह चक दे इंडिया का कोच कबीर ख़ान भला किसे याद नहीं आयेगा जो
आपसी गुटों में लड़-भिड़ रही लड़कियों में टीम भावना विकसित कर उन्हें हॉकी का
विश्वकप जितवाता है। भाग मिल्खा भाग में कोच का किरदार निभा रहे पवन
मल्होत्रा का ज़िक्र करना भी आवश्यक है क्योंकि वही एक ऐसा शख्स था जिसे मिल्खा की
काबलियत पे शुरुआत से यकीन रहता है।
बदलाव
के इस दौर में कुछ परंपराएं जस की तस हैं और शिक्षक के सम्मान में भी आज कोई बदलाव
नहीं आया है। दो दूनी चार के मध्यम वर्गीय अध्यापक ने अपने जीवन में बहुत
ज्यादा पैसा नहीं कमाया पर सम्मान उसे भरसक मिला है। स्वदेश फिल्म की वेल
एजुकेटेड उस अध्यापिका का स्मरण करना भी ज़रूरी है जो अपने ज्ञान का प्रयोग पैसा
कमाने के लिये न कर, उस गाँव के बच्चों को शिक्षित करने में करती हैं जहाँ उसका
जन्म हुआ है। तारे जमीं पर में आमिर ख़ान द्वारा निभाया गया निकुम सर का किरदार
कैसे भूला जा सकता है जिसमें वह डिस्लेक्सिया से पीड़ित अपने छात्र को जिंदगी की
मुख्यधारा में लाते हैं और माता-पिता को परवरिश का पाठ पढ़ाते हैं।
अपने पारंपरिक मूल्यों के चलते अध्यापक की तानाशाही छवि
को भी सिनेमा ने प्रदर्शित किया है। जिसे हम मुन्नाभाई एमबीबीएस के डीन और थ्री
इडियट्स के प्रोफेसर वीरु सह्स्त्रबुद्धे में देख सकते हैं। जो अपनी पुरातन
सोच के जरिये ही सफलता के प्रतिमान स्थापित करने की बात कहते हैं..लेकिन वे भी बाद
में तार्किकता के सहारे अपनी पुरातन मान्यताएं बदलने पे मजबूर हो जाते हैं और बदलाव
को स्वीकार करते हैं। बहुलता में तो सिनेमा अध्यापक की जीवटता और महत्ता को दिखाता
ही नज़र आया है...और इसने गुरु के प्रतिमान उसी रूप में कायम रखें हैं जैसे कि
भारतीय संस्कृति में माने जाते हैं। भिन्न-भिन्न फिल्मों में भले एक शिक्षक को
दर्शाने वाले स्वर अलग हों किंतु सिनेमा की सदाबहार धुन आज भी भारतीय साहित्य के
सुर से सुर मिलाती हैं और वो सुर बस यही है कि-‘गुरु गोबिंद दोऊ खड़े, का के लागूं पाय। बलिहारी
गुरु आपनै, गोबिंद
दियो बताय॥‘
मिलते गुरु कौशिक सरिस, बनते "लक्ष्मण" राम ।
ReplyDeleteरावण-वध सम्भव तभी, खुशियाँ मिलें तमाम ॥
बेहद सुंदर पंक्तियाँ रविकर जी..
Deleteधन्यवाद प्रतिक्रिया के लिये।।।
सच कहा ... आज भी ज्यादातर सिनेमा में अध्यापक की एक अच्छी छवि ह नज़र आती है ...
ReplyDeleteजी बिल्कुल जी नासवा जी..
Deleteधन्यवाद प्रतिक्रिया के लिये।।।
bahut khub ankur, aapne ek sath itni sari sunder smrityaan jaga di. teacher ka best role nisandeh abhi bhattacharya, bulandi ke rajkumar aur tare zameen par ke aamir mujhe lage hain.
ReplyDeleteआपकी पसंद एकदम सटीक हैं..और शुक्रिया इस प्रतिक्रिया के लिये।।।
Deleteअच्छा और नवीन विश्लेषण।
ReplyDeleteधन्यवाद विकेश जी।।।
Deleteरोचक विषय का अच्छा विश्लेषण
ReplyDeleteशुक्रिया प्रवीणजी...
Deleteआपको भी शुभकामनाएं...
ReplyDeleteअच्छा और नवीन विश्लेषण।
ReplyDeleteशुक्रिया आपका...
Deleteशिक्षको की भूमिका जो फिल्मो के विकास क्रम में है शायद वास्तिक स्थिति भी एक जैसी है …। सुन्दर विश्लेषण
ReplyDeleteबिल्कुल सही कहा कौशल जी।।।
DeleteWow I loved the title of your blog :)
ReplyDeletethanks for visiting me Ankur and giving me the opportunity to land here..
awesome space you have and I'm so glad to see someone from Bhopal in blogosphere :)
there's something special about this profession. Despite deterioration in quality teachers there are always those few who are just changing the lives of many.
hope to see you more !!
thanks for such beautyful words...I am so glad to have this heartily comment of yours...thanks for visiting.
Deleteवाह
ReplyDeleteलाज़वाब है।
खूबसूरत शोध आपका।
बहुत धन्यवाद आपका अभिषेक जी।।।
Deleteरोचक आलेख
ReplyDeleteधन्यवाद अनिता जी।।।
Deletenice dedication for " teacher's Day"
ReplyDeletethank you very much :)
Deletenice dedication for " teacher's Day"
ReplyDeletethank you very much :)
Deleteअच्छा और रोचक विश्लेषण प्रस्तुति !!
ReplyDeleteधन्यवाद रंजना जी।।।
Deleteअति सुन्दर .. सच! अच्छी कलम चलती है आपकी..
ReplyDeleteधन्यवाद अमृताजी...
Deletebht umdaa sir aapka jawab nhi
ReplyDeletethanks akshay :)
Deleteबहुत ही सराहनीय व्याख्या है किसी आदर्श शिक्षक के रूप में सर्वप्रथम माँ के दर्शन होते है जो हमें जीवन की पहली शिक्षा देती है और फिर हमारे शिक्षक गण | सच में इस दुनिया के सारे क़र्ज़ चुकाए जा सकते है परन्तु शिक्षक का दिया हुआ ज्ञान अमूल्य है ………………………… इस उम्दा लेख के लिए धन्यवाद अंकुर भाई………………
ReplyDeleteअर्पित भाई बहुत-बहुत धन्यवाद...
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