Saturday, December 20, 2014

इक बूंद भी उसने न पी पर 'पीके' वो कहलाया था : टिंगा-टिंगा, नंगा-पुंगा दोस्त

वैश्विक परिदृष्य में इन दिनों पाकिस्तान में हुई आतंकवादी वारदात की ख़बर ताजी है..भारत में धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद आये दिन गरमाती रहती है, लव जेहाद जैसे मुद्दें बहस का विषय बने हैं, इसी तरह पाखंड-झूठ-दिखावा और स्वार्थ जैसी दुर्दांत वृत्तियां दुनिया को एक समुचित संतुलन से दूर रखे हुई हैं। इन्ही वजहों से कोई सब कुछ होते हुए भी अगाध तृष्णा के चलते दुखी है तो कोई अभावों के चलते पीड़ित। कोई न मिले हुए को हासिल करना चाहता है तो कोई मिले हुए को गंवाना नहीं चाहता....और इन हालातों में जो मनोभाव व्यक्तित्व का हिस्सा बनता है वो है डर और लालच। फिर इन्हीं मनोभावों से जन्म लेती है धर्म की तथाकथित परिभाषाएं, तथाकथित ईश्वर के रूप और पश्चात ईश्वर एवं धर्म के नाम पर असंख्य आडंवर...अनंत सरहदें।

पीके। आमिर ख़ान अभिनीत और राजकुमार हीरानी निर्देशित एक बेहतरीन फ़िल्म। इन दो लोगों का फ़िल्म से जुड़ा होने ही इसके सार्थक और मनोरंजक होने की गारंटी देती है। हीरानी ने अपनी पिछली फ़िल्मों की तरह इस बार भी अपने कद को और ऊंचा करने का ही काम किया है..या यूं कहें की उनके मन में समाज की दोहरी वृत्तियों को लेकर बेइंतहा छटपटाहट है जो किस्तों में बाहर आ रही है। 'पीके' भी मुन्नाभाई और थ्री इडियट्स की श्रंख्ला को ही आगे बढ़ाती है। हीरानी के नायक सभ्य-सुसंस्कृत समाज के प्रतिनिधि नहीं होते..ये तो गुंडे-मवाली, इडियट्स और दूसरे ग्रह के पियक्कड़ किस्म के नमूने होते हैं जो सभ्य समाज की तमाम संस्कृति की बखैया उधेड़ते हैं। 'पीके' भी कुछ ऐसी ही है। धर्म,  धर्मायतनों और धार्मिकों की सच्चाई बयां करने वाली। ईश्वर के नाम पर चल रहीं सैंकड़ों दुकानों और उनके ठेकेदारों की असल नस्ल का परिचय देने वाली। भगवान के नाम पर इंसान से उसका हक छीनने वालों को उनकी गिरेबान में झांकने पर मजबूर करने वाली।

धर्म, इंसान को नैतिक बनाने के लिये था...ईश्वर, इंसान को अभिमानी बनने से रोकने के लिये था लेकिन अब इस धर्म के नाम पर ही नैतिकता का चीरहरण और इंसान का अभिमान पुष्ट हो रहा है। 'पीके' में कई ज्वलंत सवाल उठाते हुए एक बात कही गई है कि हम उस भगवान को माने जिसकी वजह से हमारी हस्ती, हमारे आचार-विचार और व्यवहार हैं न कि उस ईश्वर को अपनी आस्था का केन्द्र बनाये जिसे हमने अपने-अपने पक्ष पोषण के लिये पैदा किया है। आज धर्म और ईश्वर के नाम पर व्यवसाय हो रहा है, राजनीति हो रही है, बंटवारा हो रहा है, विवाद, लड़ाई-झगड़े और असीम हिंसा हो रही हैं लेकिन धर्म के नाम पर कहीं धर्म नहीं हो रहा। बेशक, हमें धार्मिक होना चाहिये...लेकिन पंथों में बंटे किसी एक ईश्वर का पिछलग्गु होकर नहीं, बल्कि संपूर्ण मानवता या कहें कि समस्त वसूधा को अपने प्रेम में समेटते हुए धार्मिक होना चाहिये। धर्म अपने अस्तित्व का बोध कराने के लिये था लेकिन उस धर्म की प्राप्ति के जतन आज खुद की और कई बार दूसरों की भी हस्ती मिटाकर किये जा रहे हैं। 

हीरानी ने अपनी पिछली फ़िल्मों लगे रहो मुन्नाभाई और थ्री इडियट्स की तरह इस फ़िल्म में भी अपना सिग्नेचर मार्क छोडा है। जैसे उन फ़िल्मों को देखने के बाद गेट वेल सून और ऑल इज वेल जैसे मंत्र ज़हन में छूट जाते हैं वैसे ही 'पीके' देखने के बाद 'राँग नंबर' दिल में चस्पा हो जायेगा..इस राँग नंबर के जरिये निर्देशक ईश्वर को पाने के उन तमाम जतनों पर सवाल उठाता है जिसके चलते देश-दुनिया में धर्म का व्यापार चल रहा है। मसलन फ़िल्म में कुछ ऐसे ही एक गीत के बोल हैं- "दुनिया नशे में टल्ली थी यह होश में उसे लाया था, थर्रा दे जो पूरी धरती को, वो सवाल उसने उठाया था...टिंगा-टिंगा-नंगा-पुंगा दोस्त"

'पीके' समझदारों के बीच भटका है और उसकी सबसे बड़ी मुश्किल इन समझदारों को ही समझना है। तन पर पहने जाने वाले भांत-भांत के वस्त्राभूषण की तरह लोगों ने अपने व्यक्तित्व पर भी असंख्य प्रकार के आवरण डाल रखे हैं और व्यक्तित्व की इन परतों में असल इंसान कौन है यही समझ पाना सबसे जटिल काम है। ज़मीन पर जो इंसान पैदा हुआ था वो ऐसा कतई नहीं था बल्कि जमाने ने समाजीकरण की प्रक्रिया करते हुए इस इंसान को गढ़ा है। जो अत्यंत छली है, असंतुष्ट है, स्वार्थी है और झूठा है और यदि इसने जैसे को तैसा कहना सीख लिया तो यह दुनिया इस पर मूर्ख होने का तमगा ठोंकते देर नहीं करेगी। डिप्लोमेटिक और प्रेक्टिकल होना ही आज की ज़रूरत है और ऐसा बन जाने पर मानवीयता और प्रेम का अक्स आपके व्यक्तित्व में बना रहे ऐसा हो पाना नितांत दुर्लभ है।

पीके में प्रेम कथा भी है...और बड़ी संजीदगी से निर्देशक ने बताया है कि प्रेम सिर्फ सन्निकटता का मोहताज होता है, मात्र सहृदयता का आकांक्षी होता है..इसके अलावा कोई शर्त उसपे नहीं लगाई जा सकती। लेकिन मौजूदा दौर के प्रेम में धर्म, जाति, वर्ग, देश जैसी न जाने कितनी बंदिशें है...धर्म के नाम पर बनाये गये तमाम रिवाज़ परतंत्र बनाये रखने के लिये हैं...प्रेम, स्वतंत्रता का हिमायती है इसलिये प्रेम पर भी धर्म की लकीरों से ही सबसे ज्यादा सरहदें बनाई जाती हैं। आश्चर्य होता है इस छोटे से जीवन और इस तनिक सी दुनिया में जाने कैसे इतनी सरहदें इस इंसान ने बना रखी हैं? 'पीके' का नायक दूसरी दुनिया के इंसान से प्यार कर बैठता है उसकी वजह सिर्फ सहृदयता है समानता कतई नहीं। 

बहरहाल, ज्यादा कुछ कहकर फ़िल्म का चिट्ठा इस पोस्ट में बयां नहीं करना चाहता..और ऐसा मैं कर भी नहीं सकता क्योंकि फ़िल्म के अर्थ बेहद गहरे हैं। एक शब्द में कहें तो ये बेमिसाल है। जिसका जल्द से जल्द थियेटर में जाकर मजा उठाया जाना चाहिये। आमिर खान के करियर में ऐसे अनेक नगीने हैं जो उन्हें दूसरे अभिनेताओं से अलग करते हैं यह फ़िल्म उनका कद समकालीन अभिनेताओं से और भी ऊपर ले जाने वाली है और 'हैप्पी न्यू ईयर' जैसे हादसे रचने वालों को तो ये प्रेरणा देने वाली है। फ़िल्म में कई जगह आमिर का अभिनय बदन में अनायास ही झुनझुनी पैदा कर देता है। खुद को कैसे किरदार में ढाला जाता है यह कोई आमिर से सीखे..नवोदित अभिनेताओं के लिये तो वे एक युनिवर्सिटी बन गये हैं।

विधु विनोद चोपड़ा भी बधाई के पात्र हैं जो इन सार्थक फ़िल्मों पर शिद्दत से काम करते हैं और वर्षों में भले एक फ़िल्म देते हैं लेकिन गुणवत्ता से समझौता नहीं करते। राजकुमार हीरानी के बारे में जो भी कहे वो कम है..संभवतः वे अपने दौर के इकलौते फ़िल्मकार हैं जो विषय की गंभीरता और मनोरंजन दोनों में से किसी को भी अपनी फ़िल्म में कमजोर नहीं पड़ने देते। अन्यथा, विषय के कारण मनोरंजन गौढ़ हो जाता है या मनोरंजन के कारण विषय..पर हीरानी अपवाद है। संगीत आनन्द देने वाला है..और हीरानी की दूसरी फ़िल्मों की तरह सांदर्भिक भी। अनुष्का में ताजगी है..और फिल्म देखने के बाद उनका अभिनय भी याद रखा जायेगा। दूसरे कलाकारों के लिये ज्यादा स्पेस नहीं है...पर जितना है उसमें वे अपने रोल से न्याय करते हैं। कुल मिलाकर कंप्लीट पैकेज। जो कमियां हैं भी तो उन्हें इग्नोर करना ही समझदारी है।

और ज्यादा क्या कहूँ...कुछ दिनों बाद आप खुद देख लीजियेगा कि ये 'पीके' किस तरह लोगों के दिलो-दिमाग पर छाने वाला है...यदि आप अब तक इस नायाब सिनेमा के दीदार से दूर हैं तो शीघ्रता करें..हो सकता है ये नंगा-पुंगा दोस्त पूर्वाग्रहों में भटके आपके दृष्टिकोण को भी सही दिशा दे दे..............

7 comments:

  1. पीके चाहे जैसी भी हो या जिस सांसारिक विभाजन के परिणामस्‍वरूप बनने के लिए प्रेरित हुई हो, पर आपकी समीक्षा बहुत सधी हुई अौर गहन है।

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  2. धर्मांधता से उबरने सा सन्देश बहुत अच्छा है. मुझे यह फिल्म हिरानी की थ्री इडियट्स या मुन्नाभाई से थोड़ी कम लगी. वजह लगी कहानी की संवेदनशीलता. लेकिन पीके की सबसे बड़ी उपलब्धि मुझे यही लगी कि एक ऐसे विषय को जिसपर दुनिया ९० फीसदी से ऊपर लोग विश्वास नहीं करते, रोचकता का पुट लगाकर पेश किया है. बहरहाल आपकी समीक्षा सधी है. निश्चय ही जो देखने जाएंगे अपने उन्हें अपने पैसे की पूरी कीमत वापस मिल जाने वाली है.

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  3. गहन समीक्षा ... देखनी तो है ही ये फिल्म अब उतावलापन आ गया है देखने के लिए ... इनकी फिल्में हमेशा सन्देश देती हुयी होती हैं ...

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  4. देखना पडेगी।

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  5. aapke rochak aalekh ko padhne ke baad dekhenge hum bhi....pk...

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  6. बहुत सुन्दर समीक्षा...पिक्चर तो देखनी ही है...

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  7. बेहतरीन फ़िल्म है, भारतीय मानसिक पंगु हो गए हैं, धार्मिक कम उन्मादी अधिक दिखते हैं। सटीक समीक्षा

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