Tuesday, December 16, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : दसवी किस्त


(शुरुआती नौ किस्तों में जीवन के प्रारंभिक अठारह वर्षों की दास्तां सुना चुका हूँ, अब तक की ज़िंदगी के अनुभव बहुत ज्यादा हैपनिंग तो नहीं रहे पर जैसे भी रहे उनमें सिखाने का माद्दा बहुत था। अपने परिवार से निकलकर जिस हॉस्टल में स्नातक किया वहाँ भी माहौल काफी कुछ सुरक्षित ही था और लगभग एक जैसे वर्ग, संस्कृति और प्रकृति वाले लोगों के साथ रहा। अपने हॉस्टल लाइफ का विवरण एक अन्य ब्लॉग पर स्मारक रोमांस और Pinkish Day in Pinkcity नाम से लिखी पोस्ट में कर चुका हूं। इसलिये यहाँ ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा, सीधे आगे की किस्सागोई शुरु करता हूँ। चुंकि पहले कह चुका हूँ मेरी प्रथम पच्चीसी स्वांतसुखाय ही लिखी जा रही है इसलिये किसी से भी जबरदस्ती इसमें प्रवेश करने का आग्रह नहीं करुंगा। अपनी रुचि और समय के अनुकूल ही इसमें प्रविष्ट हों।)

गतांक से आगे....

ज़िंदगी उस वक्त सबसे ज्यादा कठिन हो जाती है..जब सीधे चल रहे रास्तों के बाद अचानक कोई मोड़ आता है। जब फैसले लेेने की घड़ी आती है। जब हमें ऐसे चौराहों पर छोड़ दिया जाता है जहां रास्तों का पता बताने वाले बोर्ड  नहीं लगे होते। लेकिन आप जहाँ हो वहाँ आप रह नहीं सकते और आगे बढ़ने को लेकर निरंतर संशय की स्थिति बनी रहती है। ज़िंदगी हर हाल में फैसले की दरकार कर रही होती है और ऐसे चौराहों से जीवन में पहली बार मुलाकात हो रही थी। हालांकि हाई स्कूल या हायर सेकेंडरी के बाद इस तरह की परिस्थितियां बनती हैं जब फैसला करना होता है लेकिन तब हमारे ज्ञान और विवेक की बजाय माँ-बाप के लिये गये फैसलों की अहमियत ज्यादा होती है। पर स्नातक की परीक्षा करने के बाद पूर्णतः स्वंय की समझ और हिम्मत से ही चुनाव करना पड़ता है। जयपुर के टोडरमल स्मारक में पांच साल पूरे करने के बाद अब फैसले की घड़ी थी, बदलाव की घड़ी थी और बदलाव हमेशा आपको विचलित करता है।

उस परिसर में रहते हुए कभी सोचा नहीं था कि इक दिन इसे छोड़कर किसी और तलाश में निकलना होगा।  दोस्तों का साथ, फुरसत के लम्हे और ऐशो-आराम की घड़ियां अब इतिहास बनने जा रही थी। संघर्ष का सफ़र शुरु हो रहा था। इसलिये मन बड़ा बेचैन था और इन बेचैनियों के दौर में ही आपको अपने सफ़र का अगला रास्ता तय करना होता है। यदि अच्छी किस्मत, हौंसला और हिम्मत न हो तो इस दौर में लिये गये फैसले पूरी ज़िंदगी को ही अंधेरों के भंवर में धकेल सकते हैं। इसलिये जिम्मेदारी ज्यादा थी। जो छूट रहा था उसका ग़म था, जो हो रहा था वो बहुत तनावपूर्ण था और जो हासिल करना है वो बहुत ही कन्फ्युसिंग था। ऐसी मानसिक स्थिति के बीच मैंने ग्लैमर की चकाचौंध में मुग्ध होकर मीडिया को अपना करियर बनाने का मन बनाया। अपने हॉस्टल में मैं स्टार माना जाता था, अच्छा वक्ता, तार्किक दक्षता वाला और कुछ हद तक बुद्धिमान भी समझा जाता था...पर उस छोटे से दायरे में मैं कूपमंडूक ही था और खुद को मिली तनिक सी प्रशंसा में उन्मादी हो रहा था। उस उन्माद ने ही मुझमें ये आत्मविश्वास भरा था कि मैं मीडिया में भी स्टार बन सकता हूँ। लेकिन जैसे ही उस छोटे से कूँए से निकल कर दुनिया के समंदर में पहुंचा तो अपने अदने से कद का ज्ञान हुआ और पता चला कि मियां! यहाँ तो तुमसे कई बेहतर बल्लम खाँ पहले से ही अपनी मंजिल को पाने के लिये संघर्ष कर रहे हैं।

बहरहाल, टोडरमल स्मारक के छूटने के साथ ही अब एक नया शहर और नया सफ़र मुझे मिल चुका था। भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय में दाखिला लेने जा रहा था और इस युनिवर्सिटी के सामान्य से इंट्रेंस एक्साम ने ही मुझे अपनी गिरेबान में झांकने का अवसर प्रदान कर दिया और ये पता चल गया कि अपने इस झूठे आत्मविश्वास को जितने जल्दी खुद से बाहर किया जा सके उतना बेहतर है क्योंकि ये आत्मविश्वास नहीं अहंकार है और अहंकार के साथ कभी कुछ सीखा नहीं जा सकता। विनम्रता से ही ज्ञान प्राप्त करने की पात्रता प्रगट होती है और विनम्रता ही ज्ञान या शिक्षा का परिणाम होना चाहिये। इंट्रेस टेस्ट में मेरा सिलेक्शन नहीं हुआ और मध्यप्रदेश का होने के कारण स्टेट कोटे के कारण वेटिंग लिस्ट में भी अंतिम स्थान मिला था। बाद में किस्मत और थोड़ी मिन्नतों के बाद जैसे-तैसे उस युनिवर्सिटी में पढ़ने का अवसर मिला। इससे पहले के कुछ दिन बेहद कठिन और किंकर्तव्यविमूढ़ कर देने वाले थे।

6 अगस्त 2007, युनिवर्सिटी में अपनी पहली क्लास अटेंड करने पहुंचा। सब कुछ अलग और नया था। अब तक जो पढ़ा था उसका रत्तीभर भी यहाँ काम नहीं आना था, और जो यहाँ की ज़रूरत थी उसका तनिक भी ज्ञान नहीं था। जो साथी मेरे साथ थे उनमें से कोई दिल्ली विश्विद्यालय, इलाहबाद विश्वविद्यालय और फर्ग्युसन इंस्टीट्युट जैसे देश के नामी-गिरामी शिक्षा संस्थानों से अध्ययन करके मेरे साथ बैठे थे। जिनकी देश-दुनिया के गहनतम मुद्दों पर होने वाली चर्चा मेरे लिये किसी दूसरे ग्रह की बात लगती थी। संस्कृत, अंग्रेजी साहित्य और दर्शनशास्त्र के अध्ययन करने से मैं संस्कारी और चरित्रवान तो था पर बुद्धिमान कतई नहीं। अभी तक सिर्फ ब्वायस् हॉस्टल और कॉलेज में पढ़ाई की थी तो कन्याओं के सानिध्य से ही डर लगता था। लेकिन अब माहौल बदल गया था और ज़िंदगी ओवर फ्रेंक होने की डिमांड कर रही थी। फ्रेंक और बोल्ड होना ज़रुरी तो था पर ये सब रातों-रात तो हो नहीं सकता था। इसलिये अपनी क्लास पढ़कर तुरंत घर भाग लेता। दो-चार ऐसे लोगों से दोस्ती ज़रूर हो गई थी जो मेरी ही तरह अपने अस्तित्व की तलाश कर रहे थे। तब लड़कियों से दूर भागने का कारण मैं लोगों को ये बताता कि मैंं इन सब चीज़ों में अपना टायम वेस्ट नहीं करना चाहता पर सच्चाई यह थी कि मुझमें न तो हिम्मत थी और न लड़कियों से बात करने का हुनर। अन्यथा दिल तो बहुत करता..कि मेरी भी इन सबसे यारी हो, मैं भी मस्तमौला बन यहां-वहाँ घूमो, मैं भी किसी से प्यार करूं और जीभर के अपना समय बरबाद करूं।

लगभग इसी तरह अपना पहला सेमेस्टर गुजार दिया और जयपुर को छोड़े लगभग साल भर हो जाने के बाद भी आये दिन पुराने साथियों और गुजरे दिनों की यादें परेशान करती। वक्त बदल चुका था पर मैं नहीं बदल पा रहा था। अपने पहले सेमेस्टर में कुछ अच्छा हुआ तो वो बस यही कि प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया द्वारा आयोजित एक वाद-विवाद प्रतियोगिता के लिये मेरा चयन युनिवर्सिटी से हुआ और दिल्ली के एक बड़े मंच पर युनिवर्सिटी का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला। जिससे अपनी कक्षा के लोगों के बीच कुछ गुमनामी जरूर कम हुई पर तेजी से बन रहे छोटे-छोटे ग्रुप में से किसी भी ग्रुप का सदस्य मैं नहीं बन सका और लड़कियों से दोस्ती अब तक महरूम ही थी। आज सोचता हूँ तो लगता है एक बेहद मूर्खतापूर्ण ख्वाहिश के लिये मैंने कई-कई घंटे फिजूल की हरकतों और विचारों में ज़ाया किये। एक 25-30 लोगों की कक्षा का खेमों में बंटना अपने-आप में बुरा है जिससे हमारे संबंधों और सोच का दायरा भी सिकुड़कर बेहद छोटा हो जाता है और इस तरह छोटे से दायरे में सिमट जाने से सीखने की संभावनाएं भी कम होती है क्योंकि अधिकतम का सानिध्य हमें ज्यादा समझ प्रदान करता है। लेकिन उम्र के उस दौर में यह सब चीज़ें समझ नहीं आती, हम किसी मजबूत और रुतबेदार ग्रुप का सदस्य बनना चाहते हैं और खेमों में बंटकर कब हम स्वार्थी और ओछी प्रवृत्तियां करने लगते हैं पता ही नहीं चलता। खुद को सुपीरियर दिखाने की चाहत में कई दिखावे और झूठे शिगूफे भी हमारे व्यक्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं।

खैर, किसी ग्रुप्स का सदस्य न होने का दर्द था तो खुशनसीबी भी थी कि ग्रुपिंग में बरबाद होने वाले समय से बचा रहा जिससे कि इस सेमेस्टर में कई किताबें पढ़ी, फ़िल्में देखी जिससे अपने साथियों के बीच का मेरा पिछड़ापन कुछ कम ज़रूर हुआ। पर समझ का दायरा सिर्फ किताबों तक ही सीमित था, ज़िंदगी की समझ तो गलतियां करने और ठोकर खाने से ही बढ़ती है। इस सेमेस्टर के अंत तक पहुंचते-पहुंचते ज़िंदगी के कई अहंकार और टूटे। जिसके चलते जीवन की महत्ता का आंशिक अहसास हुआ। उन घटनाओं के ज़िक्र के चलते ये किस्त काफी लंबी हो जायेगी, बस इसी विस्तार भय से अभी यहीं रुकना मुनासिब समझता हूँ..पर शायद ज़िंदगी की असली 'साढ़े साती' की शुरुआत अब होने वाली थी। जीवन की क्षणभंगुरता और लम्हों की अहमियत क्या होती है यह समझ आ रहा था..सेहत, समय और संबंधों की कद्र बताने वाली घटनाएं घटना शुरु हो रही थी....उन तमाम घटनाओं के साथ जल्द लौदूंगा..क्योंकि मेरी पच्चीसी का असल सार तो उन घटनाओं में ही है........................

1 comment:

  1. वाकई। आपने बहुत कुछ बहुत ही बेहतर एवं श्रेष्‍ठ तरीके से बताया है। बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति।

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इस ब्लॉग पे पड़ी हुई किसी सामग्री ने आपके जज़्बातों या विचारों के सुकून में कुछ ख़लल डाली हो या उन्हें अनावश्यक मचलने पर मजबूर किया हो तो मुझे उससे वाकिफ़ ज़रूर करायें...मुझसे सहमत या असहमत होने का आपको पूरा हक़ है.....आपकी प्रतिक्रियाएं मेरे लिए ऑक्सीजन की तरह हैं-