Tuesday, January 26, 2016

एक झलक जेल की.....

जेलों को लेकर लोगों की अक्सर नकारात्मक धारणा होती है..आईये हम आपको दिखाते हैं जेल की एक दूसरी तस्वीर जो आपको जेल के देखने के नजरिये में निश्चित ही बदलाव लायेगी। डीडी न्यूज में प्रसारित मेरी इस रिपोर्ट को आपसे साझा कर रहा हूं..देखिय एक झलक।



Saturday, January 23, 2016

पैसे और प्रतिभा का सर्वोत्तम उपयोग...कि वो दूसरों के काम आये : एयरलिफ्ट

इन्फोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक में एक बेहद सुंदर बात कही है कि 'इस पूरे विश्व में आप अपने पैसे और हुनर का उपयोग दूसरों की मदद करने से बेहतर किसी दूसरी जगह नहीं कर सकते।' यदि आप दूसरों के मुकाबले ज्यादा भाग्यशाली है तथा पद, प्रतिष्ठा, पैसे और प्रतिभा में दूसरों से आगे हैं तो ये सब आपको सिर्फ और सिर्फ ऐसे उन तमाम लोगों के काम आने के लिये मिले हैं जो अपेक्षाकृत आपसे कम किस्मतवाले और कम संसाधन संपन्न है। सामर्थ्य होने के बाद प्राप्त जिम्मेदारी और सेवा की अनुभूति क्या होती है ये जानना है तो एयरलिफ्ट देखिये। 1990 में इराक और कुवैत युद्ध के दौरान हुए दुनिया के सबसे बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन पर आधारित इस फिल्म में यकीनन कई काल्पनिक घटनाओं और पात्रों का समावेश किया है लेकिन जिस उद्देश्य और कथ्य को लेकर ये फिल्म आगे बढ़ती है वो सिनेमा माध्यम की सार्थकता और सशक्तता को अभिव्यक्त करती है।

हम अपने घरों में बैठ जब कभी भी सरकार द्वारा चलाये गये ऐसे रेस्क्यु ऑपरेशन के बारे में पढ़ते हैं या संकट में घिरे प्रवासी भारतीयों की खबरें टीवी पर देखते हैं तो कभी भी उन हालातों की गंभीरता को महसूस नहीं कर पाते लेकिन निर्देशक  राजा कृष्ण मेनन ने जिस संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म के दृश्यों को पिरोया है और उनमें जिस तरह से सिनेमाई बिम्बों का प्रयोग किया है वो हमें इन हालातों में फंसे होने का सा अहसास कराते हैं। एक तरह से देखा जाये तो यथार्थपरक घटनाओं पर बनी फिल्मों में ज्यादा नाटकीयता भरने की संभावना निर्देशक के पास नहीं होती...क्योंकि इन फिल्मों का क्लाइमेक्स पहले से जाहिर होता है। ऐसे में कॉन्फ्लिक्ट और रिसोल्युशन को दिखाने के लिये नूतन बिम्बों का इस्तेमाल ही निर्देशकीय कौशल को दिखाता है। फिल्म के अाखिरी मिनटों में प्रस्तुत दृश्य में जब रेस्क्यु कैंप के बाहर निर्धारित भारतीय प्रतिनिधि द्वारा भारतीय तिरंगे को लहराया जाता है तो यह दृश्य दर्शकों में चरम आवेश और राष्ट्रभावना का संचार करता है...इस दृश्य को ही क्लाइमेक्स और इसे ही फिल्म के कॉन्फ्लिक्ट का रिसोल्युशन निर्देशक ने बना दिया है। 

फिल्म में प्रस्तुत पात्र  रंजीत कात्याल सहित कई दूसरे लोगों के यथार्थ में होने पर निश्चित ही कई सवाल खड़े हो सकते हैं। यकीनन निर्देशक ने इन पात्रों को कल्पना की जमीं पर ही रूपांकित किया है और घटना के सिनेमाई प्रस्तुतिकरण के लिये इतनी आजादी हर निर्देशक के पास होती है लेकिन करीब 1 लाख 70 हजार लोगों को मुसीबत से निकालने वाले इतने बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन के दौरान असल में कोई  हीरो न रहा हो  ऐसा नहीं हो सकता। जरुरी नहीं कि वो रंजीत कात्याल जैसा कोई बिजनेसमेन हो या कोहली जैसा कोई सरकारी बाबू। लेकिन कोई न कोई इन जैसा जरूर रहा होगा जिसने बिना किसी सम्मान या पहचान की चाह के अपनी लायकात, पद या सामर्थ्य का उपयोग सेवा, समर्पण और हालातों से निपटने में किया होगा। 59 दिन तक 500 से ज्यादा फ्लाइट्स से लोगों के निकालने वाले इस मिशन में उन पायलट्स, एयर कमांडोस और उन फ्लाइट्स में सवार क्रू मेंबर की भूमिका को क्या कम कर आंका जा सकता है जो उन मुश्किल हालातों के बावजूद इस रेस्क्यु ऑपरेशन में शरीक़़ हुए थे। वास्तव में दूसरों के लिये कुछ कर गुजरने के भाव रखने वाले, ऐसे लोगों की वजह से ही ये दुनिया रहने लायक है।

निर्देशक राजा कृष्ण मोहन इस फिल्म के बाद ख्यात फिल्मकारों की श्रेणी में शुमार हो जायेंगे। इससे पहले  'बस यूं ही' और 'बारह आना' जैसी दो फिल्में ही उन्होंने बनाई है। लेकिन इस फिल्म के जरिये निर्माता निखिल आडवाणी और सह निर्माता अक्षय कुमार ने उन पर विश्वास जताकर अद्बुत काम किया है। फिल्म में कहीं भी बॉलीवुडनुमा अतिरेक नहीं है...न अनावश्यक संवाद ठुंसे गये हैं न हीं एक्शन दृश्य। ऐसी कहानियों में गीत-संगीत की जरुरत नहीं होती जैसा हमने 'बेबी' फिल्म में देखा था लेकिन इस फिल्म में गानों का प्रयोग कहीं भी फिल्म की गति को बाधा नहीं पहुंचाता और वे पार्श्व में घटना को आगे बढ़ाते ही प्रतीत होते हैं। युद्ध के दृश्यों को काफी जीवंतता के साथ फिल्माया गया है। अपना वतन, अपनी जमीं और अपने लोगों के बीच रहने का सुख क्या होता है इस महसूसियत को प्रस्तुत करने में निर्देशक ने स्क्रीन के हर हिस्से का इस्तेमाल किया है। गोया कि सिनेमेटोग्राफर ने स्क्रीनप्ले के अनुरूप पात्रों के ज़ेहन में उतरकर निर्देशकीय उद्देश्यों को परदे पर उतारा है। 

वहीं यदि अभिनय की बात की जाये तो ये अक्षय कुमार के सर्वोत्तम अभिनय में से एक है और इसे वे अपने करियर की श्रेष्ठ फिल्मों में सबसे ऊपर रखना पसंद करेंगे। अक्षय ने अपने करियर में बिना किसी बड़े बैनर से जुड़कर जो नाम स्थापित किया है वो काबिले तारीफ है। नये और कम प्रतिष्ठित फिल्मकारों के साथ काम करने की परंपरा को अक्षय ने 'एयरलिफ्ट' में भी निभाया है। यही वजह है कि पचास से भी कम सफलता प्रतिशत के बावजूद अक्षय इतने सालों बाद भी आज खुद को इंडस्ट्री में बनाये हुए हैं। अक्षय के अलावा अौर जो दूसरे कलाकार हैं उन्होंने भी अपने-अपने हिस्से के किरदार को पूरी ईमानदारी से अभिनीत किया है। बाकी कथानक को प्रगट करना इस पोस्ट का उद्देश्य नहीं है उसके लिये तो फिल्म को ही देखा जाना चाहिये।

लिजलिजी भावुकता, फूहड़ हास्य और अतार्किक अतिरेकपूर्ण एक्शन फिल्मी कचरे के परे संदेशपरक तथा संवेदनशील सिनेमा के शौकीन लोगों के लिये 'एयरलिफ्ट' एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जिसे सिर्फ देखे नहीं, पढ़े जाने की आवश्यकता है।

Tuesday, January 19, 2016

मेरी प्रथम पच्चीसी : तेरहवीं किस्त

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(पुनः लंबे विलंब के बाद अरसे पहले शुरु की अपने जीवन की इस श्रंख्ला के अगले पड़ाव को लिखने के लिये उद्धृत हूँ। जीवन की तथाकथित व्यस्तताएं हमसे उन्हीं चीज़ों से वक्त छीन लेती हैं जिन्हें हम वाकई करना चाहते हैं। लिखना और पढ़ना जीवन की सबसे जरुरी चीज़ें हैं मेरे लिये..यही मेरा मनोरंजन है और यही ताजगी का असल स्त्रोत किंतु महत्वाकांक्षा के नाम पर लोभी हो करियर के लिबास में दरअसल एक बोझा ढोना मजबूरी बन जाता है और फिर इस अर्थ संचय के लिये किये गये प्रयत्नों से हमारी रचनात्मक शक्ति क्षीण होती चली जाती है...बहरहाल इस दर्शन को पिलाना मेरा उद्देश्य नहीं है। सीधे आगे बढ़ता हूँ...जीवन के पहले पच्चीस बसंतों में से अब तक बीसवे वर्ष के पड़ाव तक पहुंच गया हूं...अब अगले वर्षों की दास्तां बताता हूँ... )

गतांक से आगे...

2008। मेरे लिये यही वो वर्ष था जिसने यौवन की दहलीज पर कदम रखते एक नवयुवा को हर वो अनुभव दिया जिसका स्वपन हर उन्मादी पुरुष अपने जीवनकाल में देखता है। हायर सेकेण्डरी उत्तीर्ण कर कॉलेज या युनिवर्सिटी में अध्ययन करने का आकांक्षी युवा ख़यालों में ऐसे ही किसी दौर को चाहता है..बस यूँ समझ लीजिये ये कौमार्य का ऐसा ही कोई दौर था। मौज या ऐश करने की सबकी भिन्न परिभाषाएं हो सकती हैं...उन परिभाषाओं के पैमानों पर मेरे ये अनुभव भी कम या ज्यादा रूप से कुछ-कुछ उसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं...लेकिन एक बात स्पष्ट कर दूं कि मेरे मौज की उत्तंग तरंगों ने कभी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया। मैं ये नहीं कहता कि इसमें सिर्फ मेरी इच्छाशक्ति या संस्कारों की प्रबलता थी बल्कि यूं कहिये इच्छाशक्ति के साथ मेरी किस्मत भी अच्छी थी जिसकी वजह से कभी मैंने अपने दायरे नहीं लांघे..और यही वजह है कि आज भी मैं पूरे गुरूर के साथ अपने चरित्र को निहार सकता हूँ। कॉलेज लाइफ के अनेक अनुभवों से गुजरने के बावजूद भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझे 'कॉलेज की हवा लग गई'।

खैर, महिला सहपाठियों से मित्रता बढ़ी, ग्रुप्स बने और घूमना-फिरना, पार्टी जैसे उन्मत्ता के कई रंग चढ़े। युनिवर्सिटी में हुए खेलों और कई अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार प्राप्त किये तो विद्यार्थियों के एक अलग एलीट ग्रुप में शामिल हुआ। विद्यार्थी जीवन में अक्सर वर्तने वाले अस्तित्व के संकट से मुक्त हुआ। खुद की पहचान पाई। सहपाठी और सहपाठिनों ने खुद से पहल कर मित्रता करना शुरु की। निगाहें, आसपास के दायरे में ही कोई हमसफर तलाशने लगीं। प्रेम के पल्लवन के अहसास जागे। इस उम्र में प्रेम के नाम पर किसी विपरीत लिंग के प्रति जो छटपटाहट होती है उसमें वास्तव मेंं शारीरिक परिवर्तन और एक कथित प्रेस्टीज का मुद्दा ही मुख्य होता है। या यूं कहें कि हमारे सिनेमा-साहित्य और समाज ने एक ऐसी परिपाटी का निर्माण किया है जिसमें कॉलेज और युनिवर्सिटी में बिताये जाने वाले लम्हों को 'प्रेम का काबा-काशी' साबित कर दिया है। किताबों में मुरझाये गुलाब के फूल, सिकुड़े से प्रेम पत्र और अब झटपट मोहब्बत के प्रतीक बने व्हाट्सएप्प-फेसबुक के मैसेज या ईमेल कॉलेज के आवश्यक पाठ्यक्रम का हिस्सा माने जाते हैं। बस इसी जरुरी पाठ्यक्रम के कुछ चैप्टर पढ़ने की उत्कंठा अपने हृदय में भी बसा करती थी और तलाशते थे किसी ऐसे कंधे को जिस पर सिर रखकर रोया जा सके या अपनी उपलब्धियों का गुमान उसकी निगाहों में देखा जा सके। 

जो सीरियसली वाली मोहब्बत या देवदासी फितूर होता है वो प्रेम के आगाज के वक्त नहीं होता। शुरु में तो अक्सर टाइमपास और प्रेस्टीज मजबूत करने की भावना ही प्रबल होती है किंतु आगाज़ चाहे जिस भी भावना से हो पर प्रेम जब परवान चढ़ता है तो क़त्ल करके ही दम लेता है...प्रेम का आगाज़ चाहे जैसा भी हो किंतु अंजाम कुछ भी नहीं। ये शुरु होकर सिर्फ रास्तों में ही रहता है...मंजिल पे पहुंचने का भ्रम तो हो सकता है पर मंजिल प्रेम में है ही नहीं और जिसे हमने मंजिल मान रखा है वहाँ दरअसल चाहे जो भी हो पर प्रेम कतई नहीं।

ऐसी ही किसी लालसा से हम भी तलाशा करते थे...अहसासों के सिलेबस में पूछे गये कुछ मनचले सवालों के नोट्स।  लेकिन वो कहते हैं न प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाये...बस तो ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ और चाहने से क्या होता है प्रेम का पुष्प जब पल्लवित होना हो तभी होता है आपके ढूंढे से इसकी ओर-छोर-कोर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। और जैसा कि मैं इस पच्चीसी की नौंवी किस्त में बता चुका हूँ कि कम उम्र में ही साहित्य की देशी और सांस्कृतिक परंपरा से रुबरु होने के कारण प्रेम का कोई कुत्सित रूप मुझे गंवारा नहीं था...मैं तो धर्मवीर भारती की नायिका सुधा, कालिदास की शकुंतला और शरदचंद्र की परिणीता को ही तलाशा करता था कॉलेज के गलियारों में। जो तब तो न मिल सकी...क्योंकि कालचक्र पर इस घटना का आविर्भाव तब तक न होना ही लिखा था...इसलिये प्रेम सरीके दिखने वाले छुटमुट सायों की छांव से दो-चार होकर वापस लौट आये...प्रेम की दास्तां सुनने के लिये अभी कुछ किस्तों का इंतजार और करना होगा।

कॉलेज का ये वर्ष यौवन के खुशनुमा अहसासों की वजहों से कुछ जल्द ही बीत रहा था...इसी वर्ष में कॉलेज का एजुकेशन ट्रिप गोवा, मुंबई, पुणे की यात्रा पर गया। एजुकेशन के नाम पर जाने वाले ये ट्रिप जिंदगी की सबसे खूबसूरत यात्राएं होती हैं। जिनमें तथाकथित महाविद्यालयीन शिक्षा के अतिरिक्त सब कुछ होता है...लेकिन ये बिना किताबी तालीम के भी जिंदगी के कई अहम् पाठ हमें सिखा देते हैं। अपनी इस यात्रा का वर्णन मैंने अपने इसी ब्लॉग पर लिखे जिंदगी का सफ़र और सफ़र में ज़िंदगी नामक पोस्ट में किया है...विस्ताररुचि वाले वहां  से पढ़ सकते हैं। इस यात्रा के सालों बाद अब भी कभी वे संस्मरण आंखों के सामने झूलते हैं तो उस दौर में वापस लौटने को जी चाहता है...उन्हीं रिश्तों, उन्हीं बचकाने अहसासों और उन यारों की महफिलों में होने वाली ऊटपटांग हरकतों का दीदार करने को जी चाहता है। लेकिन........ख़यालों में तो रिवर्स गियर हो सकता है पर ज़िंदगी में नहीं। 

बहरहाल, उन घटनाओं के साथ लौटूंगा जल्द....एक मर्तबा फिर अपनी यादों को रिवर्स कर। और चुराने की कोशिश करूंगा इसी वर्तमान में अतीत के गुजारे खट्टे-मीठे लम्हों को...अगली किस्त में। फिलहाल रुकता हूँ।

जारी....................

Wednesday, January 13, 2016

यादें-2015

वर्ष 2015 के मध्यप्रदेश के आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य पर दूरदर्शन के खास कार्यक्रम में चर्चा.....