Saturday, January 23, 2016

पैसे और प्रतिभा का सर्वोत्तम उपयोग...कि वो दूसरों के काम आये : एयरलिफ्ट

इन्फोसिस के संस्थापक एन. आर. नारायणमूर्ति ने अपनी पुस्तक में एक बेहद सुंदर बात कही है कि 'इस पूरे विश्व में आप अपने पैसे और हुनर का उपयोग दूसरों की मदद करने से बेहतर किसी दूसरी जगह नहीं कर सकते।' यदि आप दूसरों के मुकाबले ज्यादा भाग्यशाली है तथा पद, प्रतिष्ठा, पैसे और प्रतिभा में दूसरों से आगे हैं तो ये सब आपको सिर्फ और सिर्फ ऐसे उन तमाम लोगों के काम आने के लिये मिले हैं जो अपेक्षाकृत आपसे कम किस्मतवाले और कम संसाधन संपन्न है। सामर्थ्य होने के बाद प्राप्त जिम्मेदारी और सेवा की अनुभूति क्या होती है ये जानना है तो एयरलिफ्ट देखिये। 1990 में इराक और कुवैत युद्ध के दौरान हुए दुनिया के सबसे बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन पर आधारित इस फिल्म में यकीनन कई काल्पनिक घटनाओं और पात्रों का समावेश किया है लेकिन जिस उद्देश्य और कथ्य को लेकर ये फिल्म आगे बढ़ती है वो सिनेमा माध्यम की सार्थकता और सशक्तता को अभिव्यक्त करती है।

हम अपने घरों में बैठ जब कभी भी सरकार द्वारा चलाये गये ऐसे रेस्क्यु ऑपरेशन के बारे में पढ़ते हैं या संकट में घिरे प्रवासी भारतीयों की खबरें टीवी पर देखते हैं तो कभी भी उन हालातों की गंभीरता को महसूस नहीं कर पाते लेकिन निर्देशक  राजा कृष्ण मेनन ने जिस संजीदगी और संवेदनशीलता के साथ इस फिल्म के दृश्यों को पिरोया है और उनमें जिस तरह से सिनेमाई बिम्बों का प्रयोग किया है वो हमें इन हालातों में फंसे होने का सा अहसास कराते हैं। एक तरह से देखा जाये तो यथार्थपरक घटनाओं पर बनी फिल्मों में ज्यादा नाटकीयता भरने की संभावना निर्देशक के पास नहीं होती...क्योंकि इन फिल्मों का क्लाइमेक्स पहले से जाहिर होता है। ऐसे में कॉन्फ्लिक्ट और रिसोल्युशन को दिखाने के लिये नूतन बिम्बों का इस्तेमाल ही निर्देशकीय कौशल को दिखाता है। फिल्म के अाखिरी मिनटों में प्रस्तुत दृश्य में जब रेस्क्यु कैंप के बाहर निर्धारित भारतीय प्रतिनिधि द्वारा भारतीय तिरंगे को लहराया जाता है तो यह दृश्य दर्शकों में चरम आवेश और राष्ट्रभावना का संचार करता है...इस दृश्य को ही क्लाइमेक्स और इसे ही फिल्म के कॉन्फ्लिक्ट का रिसोल्युशन निर्देशक ने बना दिया है। 

फिल्म में प्रस्तुत पात्र  रंजीत कात्याल सहित कई दूसरे लोगों के यथार्थ में होने पर निश्चित ही कई सवाल खड़े हो सकते हैं। यकीनन निर्देशक ने इन पात्रों को कल्पना की जमीं पर ही रूपांकित किया है और घटना के सिनेमाई प्रस्तुतिकरण के लिये इतनी आजादी हर निर्देशक के पास होती है लेकिन करीब 1 लाख 70 हजार लोगों को मुसीबत से निकालने वाले इतने बड़े रेस्क्यु ऑपरेशन के दौरान असल में कोई  हीरो न रहा हो  ऐसा नहीं हो सकता। जरुरी नहीं कि वो रंजीत कात्याल जैसा कोई बिजनेसमेन हो या कोहली जैसा कोई सरकारी बाबू। लेकिन कोई न कोई इन जैसा जरूर रहा होगा जिसने बिना किसी सम्मान या पहचान की चाह के अपनी लायकात, पद या सामर्थ्य का उपयोग सेवा, समर्पण और हालातों से निपटने में किया होगा। 59 दिन तक 500 से ज्यादा फ्लाइट्स से लोगों के निकालने वाले इस मिशन में उन पायलट्स, एयर कमांडोस और उन फ्लाइट्स में सवार क्रू मेंबर की भूमिका को क्या कम कर आंका जा सकता है जो उन मुश्किल हालातों के बावजूद इस रेस्क्यु ऑपरेशन में शरीक़़ हुए थे। वास्तव में दूसरों के लिये कुछ कर गुजरने के भाव रखने वाले, ऐसे लोगों की वजह से ही ये दुनिया रहने लायक है।

निर्देशक राजा कृष्ण मोहन इस फिल्म के बाद ख्यात फिल्मकारों की श्रेणी में शुमार हो जायेंगे। इससे पहले  'बस यूं ही' और 'बारह आना' जैसी दो फिल्में ही उन्होंने बनाई है। लेकिन इस फिल्म के जरिये निर्माता निखिल आडवाणी और सह निर्माता अक्षय कुमार ने उन पर विश्वास जताकर अद्बुत काम किया है। फिल्म में कहीं भी बॉलीवुडनुमा अतिरेक नहीं है...न अनावश्यक संवाद ठुंसे गये हैं न हीं एक्शन दृश्य। ऐसी कहानियों में गीत-संगीत की जरुरत नहीं होती जैसा हमने 'बेबी' फिल्म में देखा था लेकिन इस फिल्म में गानों का प्रयोग कहीं भी फिल्म की गति को बाधा नहीं पहुंचाता और वे पार्श्व में घटना को आगे बढ़ाते ही प्रतीत होते हैं। युद्ध के दृश्यों को काफी जीवंतता के साथ फिल्माया गया है। अपना वतन, अपनी जमीं और अपने लोगों के बीच रहने का सुख क्या होता है इस महसूसियत को प्रस्तुत करने में निर्देशक ने स्क्रीन के हर हिस्से का इस्तेमाल किया है। गोया कि सिनेमेटोग्राफर ने स्क्रीनप्ले के अनुरूप पात्रों के ज़ेहन में उतरकर निर्देशकीय उद्देश्यों को परदे पर उतारा है। 

वहीं यदि अभिनय की बात की जाये तो ये अक्षय कुमार के सर्वोत्तम अभिनय में से एक है और इसे वे अपने करियर की श्रेष्ठ फिल्मों में सबसे ऊपर रखना पसंद करेंगे। अक्षय ने अपने करियर में बिना किसी बड़े बैनर से जुड़कर जो नाम स्थापित किया है वो काबिले तारीफ है। नये और कम प्रतिष्ठित फिल्मकारों के साथ काम करने की परंपरा को अक्षय ने 'एयरलिफ्ट' में भी निभाया है। यही वजह है कि पचास से भी कम सफलता प्रतिशत के बावजूद अक्षय इतने सालों बाद भी आज खुद को इंडस्ट्री में बनाये हुए हैं। अक्षय के अलावा अौर जो दूसरे कलाकार हैं उन्होंने भी अपने-अपने हिस्से के किरदार को पूरी ईमानदारी से अभिनीत किया है। बाकी कथानक को प्रगट करना इस पोस्ट का उद्देश्य नहीं है उसके लिये तो फिल्म को ही देखा जाना चाहिये।

लिजलिजी भावुकता, फूहड़ हास्य और अतार्किक अतिरेकपूर्ण एक्शन फिल्मी कचरे के परे संदेशपरक तथा संवेदनशील सिनेमा के शौकीन लोगों के लिये 'एयरलिफ्ट' एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। जिसे सिर्फ देखे नहीं, पढ़े जाने की आवश्यकता है।

5 comments:

  1. बहुत बढ़िया और खूबसूरत लहज़े में जानकारी उपलब्ध कराने के लिए शुक्रिया और शुभकामनायें आपको लिखते रहें !

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  2. बहुत ही सुंदर समीक्षा की है। वाकई अक्षय ने अपनी अपेक्षित सफलता को पीछे कर सबके साथ सामंजस्‍य और नए-नए लोगों को मौके देने के काम भी किए हैं। क्‍या मेरी मेल आईडी vikesh34@gmail.com पर आपका मोबाइल नं- मिल जाएगा मुझे ?

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  3. लाजवाब समीक्षा है अंकुर जी ... लगता है एक बार देखनी होगी ... जल्दी ही समय मिकालता हूँ ...

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