Thursday, February 12, 2015

हर 16 मई की एक 10 फरवरी होती है...

पोस्ट के शीर्षक में व्यक्त पंक्ति मेरे मित्र संभव निराला की फेसबुक वॉल से उठाया गया है..दिल्ली चुनाव के नतीज़ों के बाद व्यक्त की गई यह एक असल आम आदमी की अभिव्यक्ति है जो जीत की बधाई देने के साथ एक चेतावनी भी देती है। जो पंक्ति देखने में बेहद छोटी नज़र आती है पर बड़े गंभीर अर्थ लिये हुए है। अकल्पनीय, ऐतिहासिक, अद्भुत, अद्वितीय, अप्रतिम और ऐसी न जाने कितनी उपमाओं से दिल्ली चुनाव के नतीज़ों को बयाँ किया जा रहा है। भारत जैसे बहुदलीय राजनीति वाले लोकतंत्र में किसी पार्टी द्वारा यदि पिन्चयानवे प्रतिशत सीटों पर कब्ज़ा कर लिया जाये तो उसे निश्चित ही अद्भुत कहा जायेगा...और वो भी एक ऐसी पार्टी जिसे आये हुए जुमां-जुमां हफ्ता भर भी नहीं हुआ है। जी हाँ करीब सत्तर वर्ष पुराने लोकतंत्र में साल-दो साल पहले आई पार्टी का अस्तित्व इससे ज्यादा तो नहीं माना जा सकता। 

10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने अरविंद केजरीवाल को महानायक बना दिया। जो इंसान कुछ वक्त पहले तक भगोड़ा, धरनेबाज और इस तरह के कईयों शब्दवाणों से विभूषित किया जा रहा था। 10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने सफलता के रथ पर सवार सूरमाओं के सिंहासन को हिला दिया। 10 फरवरी। जिसने 16 मई की ऐतिहासिक विजय को बौना साबित कर दिया। 16 मई के जो हीरो थे, 10 फरवरी को वहीं उपहास के पात्र हो गये। लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद जिन्हें अगले कुछ दशकों तक के लिये अपराजेय की तरह देखा जा रहा था..सारे देश में जिन्हें कोई चुनौती देता नहीं दिख रहा था..जो पूरे देश के अघोषित छत्रप बन गये थे। लेकिन इन सारे भ्रमों को 10 फरवरी ने तोड़ दिया। दरअसल, ये हार किसी दल, व्यक्ति या विचारधारा की नहीं है बल्कि ये अहंकार की हार है, एक अहंकार जो जनमानस की भावनाओं को संपूर्णतः समझ लेने का दंभ भरता था..और कुछ इसी तरह ये जीत अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी या उनके प्रचंड प्रचार की नहीं है बल्कि ये एक उम्मीद की जीत है..ये उस विकल्प की जीत है जिसे चुनकर जनता सोचती है कि शायद अब हालात बदलेंगे। यह चरम सांप्रदायिक माहौल में धर्मनिरपेक्षता की जीत है..शाइनिंग इंडिया के सपने दिखाकर पुंजीवाद का पोषण करने वालों के समक्ष यह समाजवाद की जीत है।

लेकिन कहानी अब ख़त्म नहीं होती, शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल सो नहीं सकते। जनता ने उन्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया है..अब तो उन पर अड़ंगे लगाने के लिये एक मजबूत विपक्ष तक मौजूद नहीं है..गठबंधन की मजबूरी नहीं है..तो क्या अब दिल्ली की तस्वीर बदलेगी? क्या अब दिल्ली में कालीन के नीचे का मटमैलापन दूर होगा? झुग्गियों की गंदगी, सड़कों पर अतिक्रमण, अनियंत्रित यातायात, बड़ती महंगाई, महिलाओं की असुरक्षा, बेरोजगारी और अपराध जैसी सैंकड़ो समस्याएं क्या अब दिल्ली का अतीत बनेंगी? यदि ऐसा हुआ तभी 10 फरवरी ऐतिहासिक हो सकती है अन्यथा याद रखें इस 10 फरवरी को 16 मई बनते देर नहीं लगेगी। अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो बात कही थी उसे अंतर्सात भी करें कि जैसे जनता ने भाजपा-कांग्रेस का अहंकार तोड़ा है..काम न करने की स्थिति में वैसा ही आम आदमी पार्टी के साथ भी हो सकता है। मीडिया जिन्हें आज सिर-आंखों पे बिठा रहा है उन्हें रसातल में पहुंचाने में भी मीडिया को देर नहीं लगती।

अहंकार..चाहे किसी का भी क्यों न हो, टूटता ज़रूर है और इसकी बानगी अरविंद केजरीवाल लोकसभा चुनावों के दौरान देख चुके होंगे..जब दिल्ली में महज 28  सीट जीतने के बाद कुछ ऐसी ही कल्पना उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिये भी की और अति उत्साह में खुद को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा कर दिया। जनता हमेशा सजग ही रहती है..वो सगी किसी की नहीं होती। वो ख़ामोशी से किसी के नकारा शासन को सहती है पर जहाँ उसे मौका मिलता है वो किसी भी नेता या दल को उसकी औकात दिखा देती है। अरविंद केजरीवाल याद रखें..दिल्ली, कोई देश की प्रतिनिधि नहीं है..इस छोटे से राज्य(वो भी अपूर्ण) की जीत से उत्साहित हों पर इसे समस्त देश का जनाधार न मान बैठे। आप अच्छा करें जनता आपको उसका ज़रूर ईनाम देगी..पर किसी भी तरह के दिखावे और झूठ के सहारे लोगों को छलने की कोशिश न करें। याद रखें हिन्दुस्तान में ऊपर चढ़ने का ग्राफ जितना तेज है उससे कहीं तेज नीचे गिरने का ग्राफ है।

यकीनन, आम आदमी पार्टी दूसरे किसी दल की तुलना में एक ऐसा दल है जो तेजी से देश के पटल पर छाया है पर उसका कारण यह है कि लोगों ने इस दल में 'आम आदमी' को देखा न की 'पार्टी' को। इस जीत के बाद 'आप' से यह उम्मीद की जायेगी कि इस दल के कार्यकर्ता भी शिवसेना और बजरंगदल की तरह के न बन जाये। ये खुद बुद्धि-विवेक से काम करें..पर अपनी बुद्धिमत्ता के चक्कर में जनता को मूर्ख न समझे, क्योंकि जनता हमेशा चतुर होती है वो हमेशा सच्चाई को चुनती है भले वो सच्चाई उसे तात्कालिक ही  क्युं न नज़र आये और बाद में वो सच उसे धोखा ही क्युं न दे दे। लेकिन जनता की प्राथमिकता एक सच्चा देशवासी ही है जो वास्तविक अर्थों में जनसेवा करना चाहता हो। देश की गुलामी के दौर में यह जनता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थी, राष्ट्रीय आपातकाल के दौर में यह जनसंघ के साथ थी..पिछले वर्ष घोर भ्रष्टाचार और सुप्त शासन के खिलाफ इसने भाजपा को समर्थन दिया और अब दिल्ली में इसने 'आप' के सिर ताज पहनाया। लेकिन जब भी, जो भी दल अपने दायित्वों से हट स्वार्थी वृत्तियों का पोषक हुआ और पद-पैसा या प्रतिष्ठा को तवज्जों दी तो जनता ने खुद उससे सिंहासन खाली करने का शंखनाद किया।

यह जीत दायित्वों का अगाध बोझ देने वाली है..कर्तव्यों से विमुख हो निर्भार करने वाली नहीं। बहुमत के कारण अधिकार ज़रूर मिले हैं पर जनकल्याण के लिये। सत्ता आने पर ये न सोचे कि ताकत 'आप'के पास है लोकतंत्र में ताकत हमेशा 'तुम'के पास ही होती है..ये तुम या तू शब्द से संबोधित की जाने वाली उपेक्षित जनता ही है जो 'आप' का निर्माण करती है। 

Sunday, February 8, 2015

हंसी-खुशी का है राज़ फ़िल्लम, फुल्ली फिल्लम है सांस भी : शमिताभ

हिन्दुस्तान..एक ऐसा देश जो अपनी रग़ों में हुल्लड़याई का पूरा समंदर लिये घूमता है। जिसके अतीत की तमाम इबारतें अपने ज़हन में अनंत कथा-कहानियां समेटे बैठी हैं। किस्सागोई जिस देश का प्रमुख शग़ल है और दादी-नानी की कहानियां जहाँ लोगों के लिये प्राथमिक विश्वविद्यालय। इस देश में मेले हैं, मदारी हैं, सपेरे हैं, नाच-गाना-नौटंकी है और ये देश कला की ऐसी अनेक विधाओं, अनेक रंगों को अपने में समेटे है। इन सब चीज़ों के कारण कभी ये उपहास का केन्द्र बनता है तो कभी इस कला-संस्कृति की वजह से ये देश अपना सिर फ़क्र से ऊंचा करता है। चाहे डांस, ड्रामा जैसी परफार्मिंग आर्ट हो या पेन्टिंग, डिजाइनिंग जैसी नान-परफार्मिंग आर्ट, हमारे देश में हर कला को लेकर पागलपन है और ऐसे में इन तमाम आर्ट्स को अपने में समाने वाले सिनेमा की बात की जाये तो दीवानगी अपने चरम पर होती है।

शमिताभ। तकरीबन सौ सालों से इस देश के लोगों के मनोरंजन और पागलपन का पर्याय बन चुके भारतीय सिनेमा के प्रति आदरांजलि की तरह प्रस्तुत की गई है। लेकिन हमारे सिनेमा के महिमामंडन करने के साथ ही साथ ये फ़िल्म ऐसी कई शिकायतों को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करती है..जो अरसे से हर सिने प्रेमी के दिल में उठता चली आ रहे हैं। मसलन,  भारतीय फ़िल्म उद्योग को बॉलीवुड कहना...फ़िल्मों में व्याप्त प्लेगिआरिज़्म पर चुटकी लेना..कुछ ऐसे ही इस इण्डस्ट्री के झूठ और दिखावे की चकाचौंध को प्रस्तुत करना। निर्देशक आर. बाल्की की ये महज़ तीसरी फ़िल्म है लेकिन अपनी पिछली दो फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी वे सिनेमाई खूबसूरती के चरम पर नज़र आते हैं।

मनोरंजक कथानक और बेहतरीन प्रस्तुति के बीच फ़िल्म में कई सारे अर्थ भी छुपे हुए हैं..फ़िल्म के संवाद बाल्की की पिछली फ़िल्मों की तरह नयापन और विट (हास्य पैदा करने की कला) लिये हुए हैं। संवादअदायगी होती तो बड़ी गंभीरता से हैं पर दर्शक द्वारा ग्रहण होने के बाद ज़बरदस्त गुदगुदी पैदा करते हैं। ये संवाद हंसाने के लिये किसी तरह की लफ्फाज़ी का सहारा नहीं लेते..बल्कि इन्हें कहने और समझने के लिये खास विद्वत्ता की दरकार होती है। बाल्की द्वारा प्रस्तुत कॉमेडी उन तमाम निर्माता-निर्देशकों के मूंह पर तमाचा है जो कहते हैं कि आज के दौर में हास्य सिर्फ अश्लीलता की गलियों से होकर ही आ सकता है।

फ़िल्म की महानता में बाल्की के निर्देशकीय कौशल के साथ साथ अमिताभ, धनुष और अक्षरा की एक्टिंग का भी अहम् योगदान है। अमिताभ अपने अभिनय और ताजगी से ये संशय पैदा कर रहे हैं कि वे अब 72 वर्ष के हो गये हैं। इस उम्र में वे बिना सुर छोड़े बेहतरीन गाना भी गाते हैं और लगता है कि इस साल बेस्ट सिंगर के कई सारे अवार्ड वे अपने खाते में न जोड़ लें। वहीं धनुष के लिये ये किरदार किसी चुनौती से कम नहीं था। एक मूक व्यक्ति का अभिनय, जो किसी भी बोलने वाले व्यक्ति से ज्यादा वाचाल लगता है और बॉलीवुड के शिखर सितारे की आवाज पर उसी तरह के भाव लेकर लाना, उन्हें अभिनय के शीर्ष पर ले जाता है। फिल्मों के लिये गली-मोहल्लों में दिखने वाली एक आम आदमी की दीवानगी को धनुष ने बखूब प्रस्तुत किया है। अक्षरा की यह पहली फ़िल्म है पर हिन्दी और तमिल के सुपरसितारों के सामने वो कतई फीकी नज़र नहीं आती। उन्हें देखना उतना ही मोहक लगता है जितना अमिताभ या धनुष को।

'शमिताभ' दो के मेल का नाम है...और ये मिलकर सौ वर्ष पुराने सिनेमा के दो प्रमुख अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऑडियोविसुअल। जी हाँ इन दो चीज़ों के कारण ही सिनेमा खुद को जनमानस का प्रमुख मानसिक भोजन बना सका है। यदि एक भी कमतर हो तो सिनेमा कभी भी अपना समग्र प्रभाव नहीं स्थापित कर सकता। धनुष दृष्याभिव्यक्ति का प्रतीक है तो अमिताभ श्रव्याभिव्यक्ति के। जब दोनों अपने-अपने अहंकार में पागल हो खुद को श्रेष्ठ साबित करते हैं तो जनता द्वारा उन्हें नकार दिया जाता है। फ़िल्म एक बहुत बड़ी सीख देते हुए ख़त्म होती है कि  सफलता समग्र प्रयासों का प्रतिफल है। जहाँ व्यक्ति सबको भूलकर सिर्फ 'मैं' पर अड़ बैठता है बस वही पतन की वजह बन जाती है। व्यक्ति का सबसे बड़ा अभिमान, जीवन में एक न एक दिन ज़रुर टूटता है। अहंकार को हम जितने चरम पर ले जाते हैं उसके टूटने पर दर्द भी उतना गहरा होता है। फिल्म इण्डस्ट्री ने सफल व्यक्ति के लिये स्टार शब्द इजाद किया है उसका कारण यही है कि सितारे चाहे कितने ही चमक लें पर टूटते ज़रूर हैं।

बहरहाल, कहने को बहुत कुछ है पर कहने-सुनने से बेहतर है इसे फ़िल्म को देखा जाये...ये हंसायेगी-गुदगुदायेगी और रुलायेगी भी पर गहन दार्शनिकता को संजोये कई प्रतीक भी फ़िल्म में देखे जा सकते हैं। कई सालों पहले मैंने अपना ये ब्लॉग 'साला सब फ़िल्मी हैं' बनाया था..जिसके परिचय के तौर पर मैंने कहा था कि अब हर जज़्बात, हंसी-खुशी, संवेदनाएं फ़िल्मी सी हो गई हैं..बस इस बात को चरितार्थ होते ही फ़िल्म में देखा जा सकता है। फ़िल्मों में नया और कुछ हटकर देखने के हिमायती लोगों के लिये ये फ़िल्म एक बेहतरीन अनुभव साबित होगी। शमिताभ..बॉलीवुड को अपनी मौजूदा श्रेणी से कुछ सोपान और ऊपर ले जाने वाली फ़िल्मों में से एक है।