
कालिदास के प्रेम रस से सराबोर नाटको से लेकर शेक्सपीयर की अमर रोमांटिक कृतियों तक...मीरा की भक्ति से लेकर जायसी के विरह बारहमासों तक, गुरुदत्त की अमर कृति 'प्यासा' से लेकर संजय लीला भंसाली की 'गुजारिश' तक, शाहजहाँ के 'ताजमहल' से लेकर लन्दन के 'एलिनर क्रासेस' तक....ये धरती यदि किसी एक भाव से सर्वसामान्य होती है तो वो है-प्यार।
दुनिया भले प्यार से बनती नहीं लेकिन प्यार से चलती जरुर है। चाहत ही इन्सान को प्राणिजगत की तमाम कृतियों से अलग करती है। दिल की हरकतें ही इन्सान को कही ताकत देती है तो कही कमजोर करती हैं या कहे की इन्सान को इन्सान बनाये रखती है। इन्सान की जिन्दगी को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले भाव को ही आज तक इस तरह से परिभाषित नहीं किया जा सका जिसे एकमत से स्वीकार किया जा सके।
कोई इसके अपने ही वैज्ञानिक तथ्य प्रस्तुत करता है आक्सीटोसिन नामके हारमोंस को प्रेम होने का जिम्मेदार बताया जाता है। तो कोई इसके पीछे नेचुरल फिजिक्स को दोषी करार देता है....कही इसे आध्यात्मिकता से जोड़कर दार्शनिक रूप में प्रस्तुत किया जाता है...तो किसी के लिए ये मन की परतो में उत्पन्न अनेक परिणामो में से एक मनोविज्ञान माना जाता है। कभी ये महज साहित्य का वचन-व्यापर है तो कभी एक पागलपन...और आज की नवसंस्कृति में बढ़ रही युवा पीढ़ी के लिए महज उत्कृष्टतम मनोरंजन।
गोयाकि आत्मिक मनोभाव पर परतें चढ़ा दी गयी है...और उन परतों के अन्दर प्रेम भी पसीज रहा है। कभी ये जीने का मकसद है तो कभी मरने का कारण....और प्रेम में आकंठ लिप्त इन्सान जो भी कर गुजरे सब सही है। इस दशा में फैसले सारे सही होते हैं बस कुछ के नतीजे गलत निकल आते हैं। everything is fair in love n war के जुमले बोले जाते हैं। प्रेम में सफल इन्सान सातवे आसमान में होता है तो असफल रसातल में। और असफलता में जन्मी कुंठा निर्ममता को जन्म देती है तब इन्सान न खुद से प्यार करता है न उस शख्स से जिसके लिए कभी जान देने की बात करता था। इस दशा में वो युक्ति चरितार्थ होती है-''रिश्ते-नाते, प्यार-वफ़ा सब बातें हैं बातों का क्या..."
दरअसल प्रेम जीवन को पूर्णता देने वाला हो तो ठीक है...तबाही प्रेम का मकसद नहीं होना चाहिए। सापेक्ष प्रेम शाश्वत नहीं हो सकता..प्रेम में निरपेक्षता निरंतरता की वाहिनी होती है। आज की नवसंस्कृति में बढ़ रहे युवाओं के लिए प्रेम की पारलौकिकता समझाना दूसरे गृहों की बातों जैसा है। आज के सम्भोग केन्द्रित विश्व में प्रेम कालीन के नीचे तड़प रहा है। आज प्रेम आदर्श है और सेक्स नवयथार्थ। रोमांस आधुनिकता है और प्यार गुजरे ज़माने की बात।
जीवन का स्वर्णिम दौर मोहब्बत का सोपान होता है...उत्साह से इन्सान का चेहरा कुछ ऐसा खिल जाता है कि बिना सौन्दर्य प्रसाधनों के भी चमक दोगुनी हो जाती है। बकौल जयप्रकाश चौकसे इस दरमियाँ चेहरे पे इतना नूर जमा हो जाता है कि ठोड़ी पे कटोरी रखके सारा नूर समेट लेने को जी चाहता है। ''आजकल पांव जमीं पर नहीं पड़ते मेरे...
जैसी हालत होती है उल्फत बदल जाती है रंगत जुदा हो जाती है...ख्यालों में यही गुनगुनाहट होती है-"ख्याल अब अपना ज्यादा रखता हूँ, देखता हूँ मैं कैसा लगता हूँ...कुछ तो हुआ है, कुछ हो गया है"
चाहत कब कहाँ किससे हो जाये इस पे दिल का जोर नहीं चलता...दिल्लगी आशिकी तो है पर गुनाह नहीं। हाँ अपनी उस चाहत को पाने के जतन जरुर गुनाह करवा देते हैं...लेकिन प्रेम में हासिल करने कि मोह्ताजगी नहीं होती...बस एक साइलेंट केयरिंग होती है जिसमे दिल से बस दुआएं निकलती है। प्रेम खता नहीं, दुआ है और ''खता तो तब हो कि हम हाले दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं....
एक और जहाँ ये प्रेम उत्साह का संचार करता है तो दूसरी ओर इससे जन्मी तड़प भी कोई कम दर्द नहीं देती....एक ओर इंतजार बेचैनी बढ़ाता है तो दूसरी ओर वेवफाई का डर व्याकुल किये रखता है। वही आपकी मोहब्बत को आप तो समझते हैं पर उसे दुनिया को समझा पाना कठिन होता है...."ये इश्क नहीं आसाँ, बस इतना समझ लो..इक आग का दरिया है और डूब के जाना है"...नफरत की आग तो भस्म करती ही है पर इश्क की सुलगती चिंगारी भी कृष करने में कोई कसर नहीं छोडती....इसलिए इश्क कभी करियो न कहा जाता है...साथ ही ये भी कहते हैं कि "ये राग आग दहे सदा तातें समामृत सेइये"...समझाइशों की फेहरिस्त यही ख़त्म नहीं होती आगे कहते हैं-''छोड़ दे सारी दुनिया किसी के लिए ये मुनासिब नहीं आदमी के लिए...प्यार से भी बड़ी कई चीज हैं प्यार सब कुछ नहीं आदमी के लिए''
बहरहाल इस प्यार न अपने कई कलेवर बदले पर ये हर काल में कायम रहा...लेकिन आज के इस मशीनी युग में ये कुछ ज्यादा ही जख्मी हो गया है क्योंकि मशीनें दिल नहीं लगाती। हम २०५० के लिए सपने बुन रहे हैं...हमारी धरती इतनी बोझिल लगने लगी है कि मंगल और चाँद पे जीवन तलाश रहे हैं...पर २०५० कि कल्पना ही रोंगटे खड़े कर देती है...क्या पता २०५० में प्यार, इश्क, लव, चाहत, मोहब्बत जैसे शब्द डायनासोर कि प्रजातियों कि तरह विलुप्त तो नहीं हो जायेंगे......................
प्रेम पर गहरी रिसर्च की है सर.......... पोस्ट अच्छी लगी.........
ReplyDeleteप्रकाशित हो रहा है यह लेख...
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aaj pyar ko lekar jis trah ka mahoul bna hua hai uske madde nazar ..pyar ko lekar aapki ye chinta jaiyaj hai....lekin yakin janiye jab tak is duniya me aapke jaise log moujud hai pyar mohbbat ur ishq jhna me jinda rahega.......nice post...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शोधपरक आलेख ! युगों-युगों तक लोग इसे समझते ही रहेंगे।
ReplyDeleteअंकुर जी
ReplyDeleteआज आपका लेख सच में दिल पर असर कर गया ..अपने इतने बिस्तार और विवेचन के साथ विश्लेषण किया है जिसका कोई जबाब नहीं ...बहुत कुछ सीखने को मिला
ati sunder gahan chintan jo aapki mansa me prem/pyar ko le kar umad pad raha hai.jin khoja tin paia ghere pani paith.
ReplyDeletevastav me dar to he ki pyar ka kya hoga aane vale samaya me. par itna to jarur he ki sacha or pavitr pyar is duniya se kabhi bhi khatam nahi ho sakta. ho sakta he use samajne or samjhne vale kam ho jae par khatam to kabhi nahi ho sakte.
ReplyDeleteअंकुर जी,
ReplyDeleteआपने लेख में इतने विस्तार और विवेचन के साथ विश्लेषण किया है, जो लाजवाब है.
अच्छा लिखते हो यार .... !
ReplyDeleteलगता है अपने निशाँ छोड़ने में कामयाब रहोगे ! शुभकामनायें भाई !
कित्ती प्यारी और सुन्दर रचना...अच्छा लगा यहाँ आकर..बधाई.
ReplyDelete______________________________
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lagta hai prem mein P.hd. karne kamiraada hai aapka ...
ReplyDeleteबहुत ही अच्छा लिखा है आपने ...आभार ।
ReplyDeletesach me yeh lekh pdkar apne manobhavo ko rok nahi pa rha hu ............sach me prem ko kitne ache tarike se paribhasit kiya h apnne aisa lagta h jaise anubhav ki kalam se bat likhi gai ho...........mene prem to kiya h per aaj jana h ki vastbikta me prem h kya.............dhanyvad itna acha lekh likhne ke liye ...is lekh ke liye to apko "LOVE GURU"ki upadhi milni hi chahiye..........
ReplyDeleteमैं ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए पिछले कुछ महीनों से ब्लॉग पर नियमित रूप से नहीं आ सकी!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है आप्ने१ उम्दा प्रस्तुती!