Thursday, May 20, 2010

जब वक़्त का पहिया चलता है...


"वक़्त आता है वक़्त जाता है, वक़्त कभी न ठहर पाता है है...इस वक़्त को संभाल के रखिये क्योंकि वक़्त वेवक्त काम आता है।" किसी कवि के ये पंक्तियाँ हमारे सामने एक प्रश्न छोड़ जाती है कि आखिर कैसे वक़्त को संभाला जा सकता है।

वक़्त को थामने वाली भुजाओं का जन्म आज तक नहीं हुआ, इस चक्र को थामने वाला वीर अब तक पैदा नहीं हुआ। दरअसल वक़्त को संभालने का आशय ही यह है कि वक़्त के साथ हो जाना। आज तक सभी महापुरुष वक़्त को बदलकर नहीं उसके साथ चलकर महान हुए हैं।

ये वक़्त सर्वशक्तिमान है, सारी पृकृति की धारा बदलने वाला ये इन्सान इस वक़्त के हाथों ही मजबूर है। करोडो वर्षों से चली आ रही रेस में एकबार भी ये इन्सान इस वक़्त को पछाड़ नहीं पाया। दुनिया के रंगमंच पर इंसानी कठपुतलियों की डोर वक़्त के हाथ में है। इसलिए कहा है 'समय से पहले और भाग्य से अधिक किसी को कुछ नहीं मिलता।' इन्सान ने वक़्त की सारी गतिविधियाँ नहीं देखी पर वक़्त ने इन्सान की हर हलचल पर नज़र रखी है। जब इन्सान सो रहा होता है ये वक़्त तब भी चल रहा होता है।

किसी शायर की पंक्तियाँ है "बस एक गुजरने के सिवा इस वक़्त को आता क्या है" पर एक सच और है जो शायद इससे बड़ा है "वक़्त नहीं गुजरता हम उस पर से गुजर जाते हैं"। कहीं तो ये वक़्त पेचीदा गलियों सा है, कहीं ये अथाह छलछलाता समंदर। पर दोनों में समानता ये है कि गलियों की संकीर्णता और समंदर की व्यापकता में जटिलता एक सम है जिससे इन्सान पार नहीं पा पाता।

दरअसल ज्ञात-अज्ञात में या कहे प्रगट-अप्रगट में एक एक चीज उलझी पड़ी है दरअसल वह कुछ भी नहीं और सारी कवायद भी उसमें ही है और उसमें हम कुछ कर भी नहीं पाते। वह है हमारा वर्तमान जो प्रगट भूत और अप्रगट भविष्य के बीच में उलझा हुआ है। वास्तव में वह पल भर का है और 'यह वर्तमान है' इतना सोचते ही वह भूत बन जाता है। तो इन्सान का कर्म आखिर किस वर्तमान में होगा, इक पल के वर्तमान को पकड़ पाना आसान नहीं। आसान क्या, संभव नहीं।

ये एक ऐसा सच है जिसे कोई नहीं मानेगा क्योंकि हमने तो यही सुना है कि इन्सान अपनी तकदीर खुद बनाता है , इन्सान कि इच्छा शक्ति सृष्टि का निर्माण करती है, बगैरा-बगैरा। साया फिल्म के गीत का इक बोल है-" कोई तो है जिसके आगे है आदमी मजबूर, हर तरफ-हर जगह , हर कहीं पे है हाँ उसी का नूर"। जिसके आगे ये मजबूर है वो है वक़्त। वक़्त के दरिया में मज़बूरी इस कदर है कि लाख हाथ फडफड़ाने पर भी किनारा नहीं मिलता। सारी योजनायें बक्से में धरी रह जाती है, तमन्नाएँ दिल में ही कुलाटी मारते रह जाती है, होता वही है जो वक़्त को मंजूर होता है। एक बहुत बड़ा सच जो आइन्सटाइन ने जीवन के अंतिम समय में कहा था -"घटनाएँ घटती नहीं है वह पहले से विद्यमान है तथा मात्र कालचक्र पर देखी जाती है।

इस दुनिया की सफलता, तुम्हारा सुख सब वक़्त की देन है तथा तुम्हारा दुःख भी वक़्त की कृपा से है, दोनों में एक बात समान है दोनों सदा टिकते नहीं है। सबसे तेज़ गति से भागता हुआ होने पर भी वक़्त सा स्थिर इस दुनिया में कोई नहीं है। चलता हुआ कुम्हार का चका अपनी जगह पर स्थिर भी है, वैसा ही वक़्त है। शुन्य से शुरू हुई यात्रा शुन्य पर ही ख़त्म हो जाती है पुनः शुन्य से शुरू होने के लिए। इसलिए कहते हैं मृत्यु जीवन का अंत नहीं शुरुआत है।

खैर, इन्सान इस बात को मानने को तैयार नहीं, उसकी जिद है कि वो वक़्त को हराएगा। इसलिए लगा है वो नए-नए प्रयोगों में। इसकी हालत उस बच्चे से गयी बीती है जो चाँद से खेलने को मचल जाता है क्योंकि थाल में प्रतिबिंबित चाँद इसे संतुष्टि प्रदान नहीं कर रहा। इन्सान की इच्छाओं के अनुसार यदि सारी दुनिया चलने लगे तो सारी व्यवस्था गड़बड़ा जाएगी क्योंकि इंसानी इच्छाएं एक सामान नहीं है फिर किसकी कामनाएं पूरी हों?

जटिलताएं इतनी है कि उनमें सच कही दबा पड़ा है और हम उस सच का निर्णय नहीं कर पा रहे हैं। ताउम्र हम अपने दिल की अवधारणाएं बदलते रहते हैं। उन बदलती अवधारणाओं में कभी हमें सच नहीं मिलता। हमें वक़्त का सच भी मंजूर नहीं। भैया, वक़्त और इन्सान में उतना अंतर है जितना मंजूरी और मज़बूरी में............