Tuesday, December 1, 2015

ज़िंदगी के रंगमंच पे भरमाये जज़्बातों का 'तमाशा'

दिल ये संभल जाये, हर ग़म फिसल जाये और पलकें झपकते ही दिन ये निकल जाये...शायद यही और इतनी सी ही तो है जिंदगी की जद्दोज़हद। बेवश, लाचार और संघर्ष से लबरेज जिंदगी में चंद सुकूं के पल पाना और उन पलों की निरंतरता को बनाये रखना। क्यूं उड़े कोई पंछी गगन में गर उसे सब कुछ मिले अपने बनाये घरोंदे में...क्यूं दौड़े मरुस्थल में हिरण, गर मिल बैठे उसे अपनी ही जगह पे बेइंतहा नीर...आखिर क्यूं दौड़ाये कोई अपने कदम डगर-डगर, गर चैन मिल जाये उसे अपने ही आशियां में। आखिर कहां, किस डगर और किस नगर में मिलेगा हमारा अपना चैन। क्या बदलें, कहाँ ठहरें, किसे छोड़े और किसे अपनाये जिससे मिले हमारा-अपना चैन। इस अंधी खोज से ही पैदा हुए हैं सभी धर्म-दर्शन, काबा-काशी, बुद्ध-वीर, शिव-जीसस और खुदा। एक उधेड़बुन मिटाने के लिये हमने ये सब बनाये थे पर इनके कारण मेरी-तेरी-हमारी एक और उधेड़बुन शुरु हो गई...और इस तरह खोज में खोजने वाला ही खो गया। तमाशे के किरदार, तमाशा निभाते-निभाते अपना असल परिचय ही भूल गये।

इम्तियाज अली निर्देशित, रणबीर-दीपिका अभिनीत 'तमाशा' कुछ ऐसी ही दार्शनिक उधेड़बुन के पटल पर, भरमाये जज़्बातों वाले उलझे रिश्तों को सुलझाने की एक कहानी है। मसलन जो दिख रहा है वो नहीं है। इस सभ्यता और तथाकथित शिष्टाचार के मिलावटी-झूठे रंगों ने व्यक्ति के असल रंग को ही दबा दिया है। दिल में अधाह व्यग्रता और बेवशी की आग होने के बावजूद इंसां मुस्कुरा रहा है। जैसा ये मानव वाकई में चाहता है वैसा कोई नहीं जी रहा है बल्कि सबने अपना जीवन उस अनुरूप गढ़ लिया है जैसा ये जमाना चाहता है। समझौता, हर तरफ सिर्फ समझौता...अपने अहसासों में, रिश्तों में, करियर में, जीवन के हर कदम पे। इंसान का ये समझौता वो कॉम्प्रोमाइज या त्याग वाला समझौता नहीं है बल्कि ये 'क्या कहेंगे लोग' के डर और अपने मिथ्या प्रदर्शन की भावना के कारण मानवीय कमजोरी वाला समझौता है। इस कमजोरी के चलते हम किसी और की चंद झूठी तारीफों के लिये अपना एक जीवन यूंही तबाह कर देते हैं।

'तमाशा' में भी इम्तियाज की अन्य फ़िल्मों की तरह किरदार बहुत कन्फ्यूज हैं और उनका कन्फ्यूजन फिल्म के अंतिम फ्रेम तक पहुंचते-पहुंचते ही दूर होता है। फिल्म ने किस्सागोई की पुरानी परंपरा को एक मर्तबा फिर जीवित करने की कोशिश की है और कहानियों से इंसान के निर्माण को इम्तियाज ने बखूब बयान किया है। गोयाकि दुनिया की सारी कहानियां एक जैसी हैं बस परिस्थितियां बदली हैं। हीर-रांझा, सीरी-फरियाद, लैला मजनू, राम-सीता, राधा-कृष्ण सभी कहानियां एक जैसे अहसासों से जुड़ी हैं बस मिलन और विरह की वजह बदलती गई हैं। हम चाहें तो इन कहानियों में अपनी कहानी को खोज लें लेकिन उन कहानियों में अपनी ज़िंदगी का रिसोल्युशन या उपसंहार तलाशें तो वो कोरी मूर्खता होगी...हमारी कहानी का रिसोल्युशन हमारा दिल जानता है। बस उसे सभी तरह के भय, लालच या अहंकार से परे देखना जरुरी है। जो उसे देखकर, पहचानकर बस उसे ही चाहते हैं उन्हें वो जरूर मिलता है। जैसा कि इम्तियाज की 'जब वी मेट' में गीत (करीना कपूर) कहती है जो हम एक्चयुअल में चाहते हैं...रियल में, हमे वोही मिलता है"। गर कुछ नहीं मिला है तो हमारी चाहत में ऐब है, ठगी है।

इम्तियाज के पास हमारे समय की सबसे ईमानदार प्रेम कहानियां हैं और वह होना बड़ी बात नहीं है क्युंकि वे और भी बहुतों के पास हैं लेकिन बड़ी बात ये है कि इम्तियाज के पास उनका ईमानदार ट्रीटमेंट भी है। ज़िंदगी में जबरदस्ती का कोई काम ही नहीं है। इसके साथ खींचतान नहीं चल सकती। जो पसंद है वो पसंद है जो नहीं तो नहीं। कुछ भी अनावश्यक प्रयत्न पूर्वक नहीं कराया जा सकता क्योंकि जिन आदतों को हम प्रयत्नपूर्वक पालते हैं बाद में वही हमारा भाग्य बन जाती हैैं और हम उनके दास। इसलिये प्रयत्नों का प्रवाह सहज रुचि के अनुरूप बहने देना जरुरी है किंतु उन रुचियों पर बाहरी प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये। पसंद-नापसंद का भी नितांत नैसर्गिक रहना जरुरी है और इस सहजता के साथ इंसान जहाँ जायेगा वहाँ अपनी असल मंजिल पायेगा। तब वो मंजिल पे पहुंचने का मजा तो लेगा ही, सफर का मजा भी लेगा। बहरहाल, इम्तियाज के निर्देशकीय कौशल पर पहले भी ज़िंदगी के हाईवे पे जज़्बातों का ओवरटेक कराता फ़िल्मकार और प्यार का सुर और दर्द का राग : रॉकस्टार नामक पोस्ट में काफी कुछ कह चुका हूँ। इसलिये यहाँ रुकता हूं।

इस सबके परे 'तमाशा' एक दर्शनीय फ़िल्म है। इम्तियाज की कमजोर फ़िल्मों में भी उनके दार्शनिक दृष्टिकोण की झलक देखने मिलती है तथा वो बहुत ही विरले किसी और निर्देशक में नजर आती है। बेशक, ये फिल्म  प्रस्तुतिकरण के मामले में इम्तियाज की कुछ पिछली फिल्मों की तुलना में कमजोर है पर इसके सुर में कोई फर्क नहीं है। अभिनय के मामले में रणबीर, दीपिका ने कमाल किया है तथा चंद छोटे दृश्यों में नजर आये पीयुष मिश्रा फिल्म के असल प्राण है, कहना चाहिये कि इस तमाशे के सूत्रधार वही जान पड़ते हैं। लोकेशंस शानदार हैं और सिनेमेटोग्राफी कुछ ऐसी है मानो हमारे घरों की सुंदरता बढ़ाने वाली प्राकृतिक सौंदर्य से युक्त सीनरियों के सामने ही फिल्म के पात्रों को बिठाके कथा बुनी हो। संगीत के लिये ज्यादा स्पेस नहीं है लेकिन जो दो-तीन गाने हैं उनमें ए आर रहमान ने अपनी प्रतिभा का भलीभांति परिचय दिया है। 'तुम साथ हो' गीत में भी हम इम्तियाज की पिछली फिल्मों वाले 'तुमसे ही', 'तुम हो साथ मेरे', 'तू साथ है तो दिन रात है' जैसे गीतों वाली मधुरता देखने मिलती हैं।

फिल्म में इश्क के बिछोह से पैदा तड़प और मिलन के बाद की खुशी को गहरे तक ऑब्जर्व करके इम्तियाज ने दिखाया है। सोचा न था, जब वी मेट, लव आजकल, रॉकस्टार और हाईवे में जो कुछ कहना रह गया था उसे ही इम्तियाज ने आगे बढ़ाया है। इम्तियाज भी गजब के किस्सागो है जहाँ भले उनके पात्र बदल रहे हैं, रंगमंच और उसकी पृष्ठभूमि बदल रही है लेकिन कहानी एक ही है..पर उस एक जैसी कहानी में हर बार कुछ नयापन है...असल में यही तो कहानीकार की खूबी होती है।

Wednesday, November 25, 2015

ये हौसला कैसे झुके!!!


ज़िंदगी के अहसासों को डायरी में समेटना कईयों का शौक होता है और हममें से कई लोग अपने रोजमर्रा की घटनाओं, अनुभवों, खुशी और ग़म के पल को अल्फाजों में पिरो कुछ-कुछ राहत महसूस करते हैं। कागज़ों पे अहसासों को उकेरना भी किसी से बातें करने के समान ही होता है। लेकिन जब आपके कुछ अहसास ऐसे भी हों जिनकी अभिव्यक्ति दूसरोें की हौसला अफजाई में मदद कर सकें तो उन्हें सार्वजनिक करना एक उत्तम विचार ही कहा जायेगा।

जिंदगी के एक ऐसे ही कड़वे अनुभवों से दो-चार होने के बाद जब मैंनें उन्हें सिर्फ स्वांत-सुखाय और स्वप्रेरणार्थ डायरी में लिखा तो ये नहीं पता था कि ये पुस्तक की शक्ल लेगा। लेकिन जब ये विचार साकार हुआ और इसे लोगों ने सराहा तो मनोबल में अतीव ऊर्जा का संचार हुआ। मेरे अनुभवों की डायरी, जो लिखी तो किसी खास घटनाक्रम को लेकर है लेकिन इसका उद्देश्य संकुचित न हो अति विस्तृत है। इस डायरी को पुस्तक का रूप दिया है पंजाब के रिगी पब्लिकेशन ने और जुलाई में प्रकाशित होने के बाद से अब तक एक हजार से ज्यादा इसकी प्रतियां बिकना...अंतस में अतीव प्रसन्नता का संचार करने वाली खबर है।


सृजन, भले सराहना से पैदा न होता हो लेकिन प्रेरित जरूर होता है। अच्छा लगता है जब साहित्य के समंदर में हमारे सृजन के लघुतम प्रयासों के भी कुछ बिन्दु बिखरें और उन्हें लोग सराहें। 

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 YE HAUSLA KAISE JHUKE

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पुस्तक पर आपकी प्रतिक्रियाओं की प्रतीक्षा रहेगी।

Wednesday, October 21, 2015

इक्कीसवी सदी में आये परिवर्तन का प्रतीक थे सेहवाग...

सचिन, सौरव, राहुल, लक्ष्मण के बाद अब आखिरकार वीरेन्द्र सेहवाग ने भी क्रिकेट को अलविदा कह दिया और इस तरह अब मुझे ये पूरी तरह स्वीकार कर लेना चाहिये कि मेरे जीवन का एक पड़ाव पूरी तरह से गुजर चुका है और मैं जीवन की मध्यावधि में प्रविष्ट होते हुए अब अधेड़ उम्र की ओर बढ़ने के लिये तैयार हूँ। जिस तरह से हम आजादी के बाद वाले भारत को तीन भागों में बांटते हैं- आपातकाल के पहले का दौर, आपातकाल के बाद से उदारवाद के पहले तक का दौर और तीसरा उदारवाद आने के बाद वाला दौर। कुछ उसी तरह भारतीय क्रिकेट खास तौर से वनडे क्रिकेट को भी तीन भागों में बांट सकते हैं- उन्नीस सौ पिचहत्तर से उन्नीस सौ नब्बे तक, उन्नीस सौ नब्बे से वर्ष दो हजार तक का दौर और दो हजार के बाद से अब तक का दौर। 

पहले टेस्ट क्रिकेट की प्रवृ्त्ति ही क्रिकेट पर हावी थी, बाद में वनडे क्रिकेट का सुरूर लोगों पे छाया और अब टी-20 का दौर है। वर्तमान को हम विगत तीनों दौर का सम्मिश्रण कह सकते हैं जहाँ तीनों प्रवृत्तियां कम या ज्यादा रूप से सामानांतर प्रवाहित हो रही हैं। इन तीनों दौर के तीन स्तंभ हम मान सकते हैं-सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर और तीसरे के वीरेन्द्र सेहवाग को। सेहवाग नवसंस्कृति या न्यू एज्ड जनरेशन के प्रतिनिधि थे जिनकी शैली वर्तमान के युवाओं की प्रवृत्ति को बताने वाली थी। जहां कम समय में बहुत कुछ पाने या तेजी से अपने लक्ष्य तक पहुंचने की बेतावी विद्यमान है। भले इस पीढ़ी को बड़े-बुजुर्गों द्वारा आलोचनात्मक दृष्टि से देखा जाये किंतु ये अपनी धुन में मस्त तेजी से सफलता के नये कीर्तिमान स्थापित करने मे यकीन करता है और बने बनाये हर रिवाज-रीति-नीति और दर्शन से परे ये स्वयं का अपना ही अलग दर्शन विकसित करता है और उसको ही सही साबित करना इसका अंतिम लक्ष्य है। सेहवाग भी कुछ ऐसे ही थे।

यहां पूर्व की तहर सब्र नहीं था और जब हम सेहवाग को बल्लेबाजी करते हुए देखते थे तो यह मानना मुश्किल लगता था कि कभी सुनील गावस्कर ने साठ ओवर तक क्रीज़ पर रहते हुए महज छत्तीस रन बनाये होंंगे। सेहवाग और सेहवाग के समानांतर ही विकसित कई अन्य खिलाड़ियों की शैली का ही नतीजा था टी-20। उन्नीस सौ पिचहत्तर में भले वनडे क्रिकेट शुरु हो गया था किंतु लंबे अरसे तक उस पर टेस्ट का ही साया नजर आता रहा। बाद में सचिन तेंदुलकर, सईद अनवर, सनत जयसूर्या जैसे खिलाड़ियों के चलते वनडे ने अपना रोमांच अख्तियार किया और छह या सात की रनगति से बनने वाले स्कोर को देख इस खेल पर बल्लेबाजों का वर्चस्व नजर आने लगा। कालांतर में आठ और दस का रनरेट भी बौना नजर आने लगा तथा पचास ओवर के खेल में चार सौ रनों के लक्ष्य को भी पार होते देखा। ये सेहवागीय प्रवृत्ति का ही असर था जिन्होंने टेस्ट क्रिकेट को भी वनडे और फिर टी-20 सरीका बना डाला।

मुझे आज भी अच्छे से याद है कि जिस आस्ट्रेलिया के भारत दौरे पर लक्ष्मण ने ऐतिहासिक 281 रनों की पारी खेली थी उसी दौरे की वनडे सीरिज के पहले मैच में सेहवाग ने 58 रन और तीन विकेट का ऑलराउंडर प्रदर्शन करते हुए टीम इंडिया को जीत दिलाई थी। इस प्रदर्शन के बाद सेहवाग वनडे टीम में अपनी जगह पक्की कर चुके थे बाद मे उसी वर्ष श्रीलंका में हुई एक त्रिकोणीय श्रंख्ला में सचिन के स्थान पर संयोग से सेहवाग को ओपनिंग करने का मौका मिला और इस सीरिज में 67 गेंदों पर उनके धुंआधार शतक ने टीम इंडिया को नया मास्टर ब्ल़ॉस्टर दे दिया। इस सीरिज के बाद टीम दक्षिण अफ्रीका दौरे पर गई जहाँ सेहवाग को टेस्ट क्रिकेट में पदार्पण का अवसर मिला और उन्होंने यहां भी पहले टेस्ट में ही शतक बना टेस्ट टीम में भी अपनी दावेदारी मजबूत कर ली। इसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। बाद में एक अदद टेस्ट ओपनर के लिये तरस रही टीम इंडिया के लिये कप्तान गांगुली ने सेहवाग को बतौर सलामी बल्लेबाज उतार एक दाव खेला। उसके बाद की कहानी सबके सामने हैं। सेहवाग टीम इंडिया के कभी न भुलाये जा सकने वाले ओपनर बने। सेहवाग खेल रहे हों तो टेस्ट क्रिकेट भी अपने पूरे सबाव पर होता था। गावस्कर, अमरनाथ, तेंदुलकर, द्रविड़, लक्ष्मण जैसे महान् भारतीय टेस्ट बल्लेबाज जो नहीं कर पाये वो सेहवाग ने किया और दो बार तिहरे शतक के आंकड़े को पार किया। एक वनडे शैली के धाकड़ बल्लेबाज ने टेस्ट क्रिकेट में जो उपलब्धियां हासिल की उसने टेस्ट क्रिकेट की सारी परंपराओं को झुठला दिया और आज टेस्ट क्रिकेट में आये बदलाव में सेहवाग के योगदान को ही कम या ज्यादा रूप से मानना पड़ेगा।

सेहवाग टेस्ट में नंबर वन बनी टीम इंडिया के सदस्य रहे, 2003 की वर्ल्डकप उपविजेता, 2007 की टी-20 विजेता, 2011 की वनडे विश्वकप विजेता सहित सभी अहम् उपलब्धियों में सेहवाग टीम इंडिया के हिस्से थे और कई महत्वपूर्ण जीतों में टीम के सूत्रधार भी रहे। अपनी बल्लेबाजी से खेलप्रेमियों को अथाह खुशियां देने वाले सेहवाग के लिये न भूतो-न भविष्यति कहा जाये तो अतिश्योक्ति न होगी। बेशक उन जैसा धुंआधार कई खिलाड़ी खेलते हैं उनके रिकॉर्ड भी सेहवाग से बेहतर हो सकते हैं। लेकिन सेहवाग जैसा मस्तमौलापन, खिलंदड़ अंदाज वे कहाँ से लायेंगे। एक ऐसा खिलाड़ी जो भारतीय क्रिकेट में पहली बार तिहरा शतक मारने जा रहा है लेकिन फिर भी उसे इस ऐतिहासिक क्षण का हिस्सा बनने के लिये न सब्र करना गंवारा है और न ही किसी अतिरिक्त दबाव को अपने ऊपर हावी होने देना। उसे कीर्ति के शिखर पर विराजने के लिये सबसे आसान तरीका छक्का मारना ही नजर आता है और वो इस काम को बखूब अंजाम भी देता है। कोई माने या न माने किंतु ये बस सेहवाग के ही वश की बात थी।

कहते हैं मंजिल पे पहुंचकर तो सबको मजा आता है दम तो तब है जब सफर में भी मजा आये। सेहवाग उन लोगों में से थे जो सफर का भी बखूब लुत्फ़ उठाते थे..................

Sunday, September 6, 2015

मेरी प्रथम पच्चीसी : बारहवी किस्त

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(फिर एक लंबे विलंब के बाद पच्चीसी की कड़ियों को आगे बढ़ा रहा हू...जीवन के पहले पच्चीस बसंत की यह दास्तां शुरु किये दो वर्ष से ऊपर बीत गये। अब अट्ठाईसवे बसंद के गलियारे में प्रवेश कर चुका है लेकिन पच्चीसी की पूर्णता से अभी कोसों दूर हूँ। कोशिश रहेगी दास्तां जल्द समेटूं..और एक शुरु किये काम की जिम्मेदारी से जल्द निवृत्त हूँ।)


गतांक से आगे.....

मुसीबतें जब आती हैं तो भर-भरकर आती हैं। सीधी-सपाट ज़िंदगी में कई क्लाइमेक्स आके विचलित करने लगते हैं। हम किसी अज्ञात शक्ति से गुजारिश करते हैं, ऐ खुदा! बस भी करो..जिंदगी को बोरिंग बना दो। लगातार लगती ठोकरों के बाद जब सब कुछ सामान्य हो जाता है तब भी हम डरते रहते है और यही डर सताता रहता है कि पता नहीं ये खुशनुमा पल कब तक के हैं? अपने उस लघुतम एक्सीडेंट के ज़ख्म भरे भी नहीं थे कि एक और यातना मूंह बाये खड़ी थी। 2007 की नवंबर का अंतिम सप्ताह चल रहा था कि तभी पेट में किसी अनजान दर्द की तड़प उठ रही थी। लगा एसीडिटी टायप कुछ होगा और ऐसे ही किसी मर्ज की दवा-दारू करने में मशगूल था किंतु उन तमाम प्रयासों के बावजूद यातना तनिक भी कम नहीं हो रही थी..और जब दर्द अपनी सीमाएं लांघ चुका था तो अस्पताल जाना ही मुनासिब समझा।

घर से अस्पताल का रास्ता महज आधे घंटे का रहा होगा लेकिन एक-एक सेकंड की असहनीय पीड़ा जीना मुहाल कर रही थी। उस अस्पताल के मुख्यद्वार से पूर्व पड़ने वाले गतिअवरोधक पर जब गाड़ी ने स्पी़ड में जंप लिया तो यह वेदना मानो मौत का निमंत्रण थी। लगा मृत्यु पूर्व का अहसास ऐसा ही होता है...चेहरों के सामने अंधेरा पसर रहा था और मैं अपने पास खड़े पापा, भाई और अन्य परिजनों से गुहार लगा रहा था कि प्लीज इस बार बचा लो। तुच्छ सी प्रतीत होने वाली ज़िंदगी अमूल्य नजर आने लगती है। ज़िंदगी के सारे अच्छे और बुरे कर्म रेलगाड़ी की तरह सामने से गुजरने लगते हैं। सत्कार्यों को बारंबार दोहराने के और दुष्कृत्यों से तौबा करने के संकल्प हम झट से ले लेते हैं। इस वक्त पता चलता है कि दुनिया में टूटी और पीछे छूटी हर वस्तु को वैसा का वैसा पाया जा सकता है पर श्वांसों की डोर दोबारा मौका नहीं देती। ये महीन भी है और दुर्लभ भी। इस दर्दसंयुक्त चिंतनधारा के बीच सोनोग्राफी, सीटीस्केन जैसे टेस्ट भी जारी थे और पता लग गया था कि तन में पाया जाने वाला अपेंडेक्स नाम का अवशेषी अंग फट गया है। फटे अपेंडेक्स के जहर ने अंदरुनी मामला बिगा़ड़ रखा है इसलिये तुरंत ऑपरेशन की दरकार थी। चुंकि हॉस्पिटल में पहले से पहचान थी इसलिये बिना कागजी औपचारिकताओं के ऑपरेशन थियेटर में सीधे प्रविष्ट करा दिया। अगले कुछ घंटों में क्या हुआ पता नहीं।

तब लगा कि शरीर में विद्यमान एक अवशेषी अंग जब इतना कहर ढा सकता है तो अन्य जरुरी अंगों की विषम चाल क्या कर सकती है। कालांतर में यह राज भी खुले...किंतु हर समझ के लिये पीड़ा के सोपानों से गुजरना पड़ता है। सब कुछ समझ आना भी अच्छी बात नहीं..ज़िंदगी की कई तालीमों से हम अनजान ही बने रहे तो बेहतर है। बहरहाल जब होश आया तो पेट के उस हिस्से में दर्द तब भी विद्यमान था पर ये दर्द पहले की तरह अंदरुनी वजहों से नहीं बल्कि चीड़ा-फाड़ी के बाद उपजा ऑपरेशन का दर्द था। पहली मर्तबा इस तरह की सर्जरी के अनुभव से गुजरा था लिहाजा लगने लगा था कि अब सेकेंड हेंड पीस हो गया हूं पहले जैसी शक्तिसंपन्नत्ता अब न रहेगी।  पर तभी पता चला कि मेडिकल साइंस ने अब बहुत तरक्की कर ली है शल्य चिकित्सा इस क्षेत्र की बहुत आसान पद्धत्ति बन चुकी है और कुछ दिनों मे ही ज़िंदगी वापस पूर्ववत् मुख्यधारा में आ गई। तीन महीनों बाद ही मैंने युनिवर्सिटी में हुए एक क्रिकेट टूर्नामेंट में शिरकत कर अपना आत्मविश्वास वापस पाया। लेकिन तब सर्जरी के बाद अगले सात दिन उस हॉस्पिटल के आईसीयू का बैड नंबर नौ ही मेरा एकमात्र ठिकाना था। आहार-निहार सहित समस्त क्रियाएं बस यही तक सिमटी थी। विचारों की उधेड़बुन से तब बहुत कुछ सीखा। विराम का वक्त पहली बार विचार का वक्त बन रहा था।

खैर, दस दिन बाद हॉस्पिटल से घर आया। लगा कि बड़ी जंग जीत ली..सामने एमएससी के प्रथम सत्र की परीक्षा थी। बीते दस-पंद्रह दिन से जिंदगी से कट गया था इसलिये साथ वालों के साथ कदमताल मिलाने के लिये कुछ ज्यादा तेज दौड़ने की जरूरत थी और इसलिये अनजान प्रतिस्पर्धा के चलते बिना किसी को देखे पांच-सात दिन में ही बहुत कुछ पढ़ डाला। यह मेहनत कुछ ऐसी हुई जिसने दूसरों से कई कदम आगे निकाल दिया और पता चला कि जब प्रतिस्पर्धा करते हुए हम दूसरों को देखते हैं तो हम उस तेजी से नहीं बढ़ पाते जिस तेजी से हम सिर्फ खुद पे नजर रख किेये प्रयासों से बढ़ जाते हैं। आखिरकार एक्साम भी निपटे। और इस तरह तकलीफों के छुटमुट भंवर के बीच किसी तरह अपनी कश्ती को आगे बढ़ाया। 

कॉलेज के अगले सत्रों में कुंद पड़े जीवन को रफ्तार मिली। संकोच हवा हुआ, नये रिश्तों के द्वार खुले। ज़िंदगी में नये दोस्त आये जिन्होंने पुरानी यादों से छुटकारा दिलाया। मस्ती-मजाक और सेलीब्रेशन का दौर बढ़ गया। मैं भी इस नये जीवन में ढल गया और एक आम युवा की तरह उन्हीं अहसासों को जीने लगा जो इस उम्र का सच होते हैं। सतही संवेदना, जुनूनी सपने और अपरिपक्व ख़यालों के मिश्रण ने यादें तो बहुत दीं पर सीखने की संभावनाएं कम कर दीं। दोस्ती के उन्माद में चूर हो..बहुत कुछ पाया पर उससे कही ज्यादा बरबाद कर दिया। बेशक हम स्कूल-कॉलेज में उन्मादी जीवन बिता कई यादें संजो लेते हैं पर स्कूल-कॉलेज के असल मायनों से दूर चले जाते हैं। इस दौर से हमें यादें जरूर मिलती हैं पर उन यादों का कोई भविष्य नहीं होता। जीवन में संतुलन बहुत जरुरी है। उन्मादी जीवन से न ज्यादा निकटता हो और न ही दूरी। विद्यार्थी जीवन के हर रंग से हमारा वास्ता हो पर उन रंगों से इस वक्त की धवलता प्रभावित नहीं होना चाहिये।

जारी.................

Sunday, August 9, 2015

ये प्रेम है...प्रेम में बहुत बल है बबुआ!!!

नवाजुद्दीन सिद्दीकी अभिनीत और केतन मेहता निर्देशित 'माँझी-द माउंटेन मैन' रिलीज़ से पहले ही खासी चर्चा में है। दशरथ मांझी के जीवन पर बनी इस फिल्म के ट्रेलर को ही अब तक पैंतालीस लाख से ज्यादा यूट्यूब व्यु मिल चुके हैं। लिफाफे से ख़त का मजमूं मालूम होता है। नवाजुद्दीन सिद्दीकी की नायाब अदाकारी और कुशल निर्देशन को ट्रेलर से ही भांपा जा सकता है। संवादों से कथ्य की गहराई और कथा के परे दर्शन तक जाने के इशारों को भी समझा जा सकता है। बाइस साल का अथक परिश्रम या यूं कहें कि एक जीवन को ही निसार कर देना...एक ऐसे लक्ष्य के लिये जिसे जमाना महज बौराई बुद्धि से ज्यादा और कुछ नहीं मान सकता। गर इस बेसिर-पैर के से दिखने वाले लक्ष्य को चुनने की प्रेरणा का न पता हो तो यकीनन इसे पागलपन ही कहा जायेगा। लेकिन 'पहाड़ तोड़ने' की सदियों पुरानी और असंभव मानी जाने वाली कहावत को सच करने वाले दशरथ मांझी की इस कथा के पीछे भी वही मनोभाव है..जो कांटों पे चलने की, जमाने से लड़ने की, समंदर में जा डूबने की या शिखर फतह करने की प्रेरणा देता है।

प्रेम। प्रताड़ित होकर कई मर्तबा मुरझाया सा दिख सकता है...आवेश और दीवानगी का शिकार हो कई बार भटका सा भी दिख सकता है..या फिर तथाकथित उसूल और रीति-रिवाज़ों के नाम पे ठगा सा नजर आ सकता है। यकीनन ये बुद्धिमानी से कोसों दूर एक ऐसा भावानात्मक ज्वर है जो खुद के साथ-साथ कई दूसरों को भी जला देता है पर इन सब विषमताओं और कमियों के बावजूद ये पूरी मुस्तैदी से दुनिया में अपनी मौजूदगी दर्ज कराता रहा है, करा रहा है और कराता रहेगा। प्रेम की दीवानगी में ही इसकी खूबसूरती है। इससे उपजा पागलपन ही क्रांति को जन्म देता है और उस क्रांति की बयार में ही परिवर्तन की फसल लहलहाती है।

'मांझी' फिल्म के ट्रेलर में भी एक संवाद सुनने को मिल रहा है..जब पार्श्व से ये पूछती आवाज आती है कि ये पहाड़ तोड़ने की ताकत कहाँ से लाते हो..जिस पर दशरथ का किरदार निभा रहे नवाज़ का उत्तर होता है- 'ये प्रेम है...प्रेम में बहूत बल है बबुआ।' यकीन मानिये जिस रोज़ इस जहाँ से प्रेमानुभूतियां समाप्त हो जायेंगी बस ये जहाँ भी थम जायेगा। प्रेम के आसरे और आधार भले हर किसी के लिये जुदा-जुदा हों पर प्रेम का होना ज़रुरी है। आवश्यक नहीं कि ये किसी स्त्री के आधार से जन्मा पारंपरिक मोहपाश के माफिक ही हो..इसके केंद्र में कई दूसरी वजहें भी हो सकती हैं लेकिन इच्छाशक्ति, जीवटता और हौसले का संचार प्रेम से ही होता है। जो हमें पहाड़ तोड़ने, समंदर लांघने, हलाहल पीने या सितारे तोड़ने तक का साहस देता है। 

जगत में साहस का संचार भी प्रेम से ही मुमकिन है। क्रोध, व्यग्रता या रोष से बल प्रदर्शित नहीं होता, बल-वीर्य और साहस का वास भी प्रेम में ही है। प्रेम पर अड़ंगे लगाने के पीछे समाज की मंशा मनुष्य को कमजोर बनाये रखना है क्योंकि प्रेम चली आ रही प्रथाओं, रीति-रिवाज़ों और समाज की तथाकथित संस्कृति को आंख मूंद कर स्वीकार नहीं करता। प्रेम, प्रश्न करता है और उन सवालों से पोंगापंथी की तमाम इमारतें बिखर जाती हैं और तर्क के नींव पर विचारों का नवीन महल सृजित होता है।

'मांझी-द माउंटेन मैन' को देखना भी रोचक होगा क्योंकि इस साहस, धैर्य और सतत प्रयासों की बानगी पेश करने वाली असल कथा के पीछे भी प्रेम है। गोयाकि एक अति कोमल भाव, कठोर से कठोर और कठिन से कठिन काम को करा देने का माद्दा रखता है। ये महज एक संयोग है कि अपनी हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ''ये हौसला कैसे झुके'' में भी मैंने एक बिन्दु लिखा है 'प्रेम ही बनता है हौसले की वजह'। जीवन में बाधाओं को चीरकर छोटे या बड़े चाहे किसी भी लक्ष्य तक पहुंचे व्यक्ति को देखा जाये उसके पार्श्व में प्रेम ही प्रेरणा का कारण होता है। दशरथ मांझी की कथा प्रसिद्ध है इसलिये हम उन्हें जानते हैं...पर कई छोटी-बड़ी सैंकड़ों मिसाल पेश करने वाली सुप्त कथाएं भी प्रेम से ही पल्लवित और सुरभित होती आई हैं किंतु प्रेम से शून्य हृदय इस बात को नहीं समझ सकता।

Sunday, June 14, 2015

खूबसूरत बाग में सूखे पत्तों की अहमियत : हमारी अधूरी कहानी

आवारगी, बंजारगी, दीवानगी...ये वो लफ़्ज हैं जो कई मर्तबा समझदारी से ज्यादा मजा देते हैं। समझ हमेशा समझौतों के लिये उकसाती है और दिल हमेशा बने-बनाये नियमों के परे खुले गगन में उड़ने को प्रेरित करता है। दिल की इस स्वच्छंद चाल को बांधने के लिये हमने अनेक परंपराएं, रिवाज़, दायरे और सरहदें खड़ी की है और जीवन को किसी न किसी तरह गुलाम बनाये रखने के ही जतन किये हैं। धर्म, सभ्यता, संस्कार जैसे लफ़्जों से कई मर्तबा हम अपनी पोंगापंथी की ही पैरवी करते नज़र आते हैं और ये सब व्यक्ति को बेहतर बनाने के बजाय उसे दकियानूस ही बनाये रखते हैं हम पढ़-लिखकर भी मूर्ख बने रहते हैं। तथाकथित रीति-नीतियों के नाम पर जकड़े रहते हैं किन्हीं अमूर्त बंधनों में।

और फिर यकायक कौंधती है दिल में प्रेम की बिजली और टूट जाती हैं सरहदें..मिटने लगती हैं सारी परंपरायें..कांप उठती है सभ्यता...दी जाने लगती हैं दलीलें प्रेम का गला घोंटने, कभी समाजों की तो कभी रिवाजो की। प्रेम स्वाभाविक तौर पर आजादी का हिमायती है...स्त्री की आजादी प्रेम में ही छुपी है। प्रेम पर बंदिश लगाकर समाज ने आधी आबादी को दबाये रखने के ही जतन किये हैं। गर स्त्री प्रेम करने लगी तो वो आजाद हो जायेगी, बन जायेगी सशक्त और अपनी सहज शक्तिसंपन्नता से गिरा देगी पौरुष के तमाम रेतीले महल। तो अच्छा है रोक लिया जाये...चाहे जैसे भी उसे प्रेम करने से।

हमारी अधूरी कहानी। दीवानगी और आवारगी की ऐसी ही एक प्रेम कहानी है। जो हर कहानी की तरह अधूरी रहकर भी पूरी है। प्रेम का अधूरापन ही उसकी पूर्णता है। प्रेम, वही है जो मंजिल पर नहीं पहुंचा क्योंकि प्रेम का कोई गंतव्य होता ही नहीं है। मंजिल, ठहराव का नाम है और जहाँ ठहराव है वहां प्रेम दम तोड़ देता है। प्रेम की गति, निरंतर बना रहने वाला प्रवाह ही उसका जीवन है। इश्क़ रास्तों में ही बसर करता है जब भी वो कहीं पहुंच जाता है बस वहीं ये ख़त्म हो जाता है। संपूर्णता एक भ्रम है और इस भ्रम में ही प्रेम का जीवन। 

प्रेम की यही चिरंतन कमी इसकी  खूबसूरती है। ये खिले गुलाबों में नहीं मुरझाये पत्तों में बसता है लेकिन वहां बसकर भी ये उन पत्तों में महक बिखेर देता है। जब कोई प्रेम में होता है तो सब अच्छा लगता है। खुद को लुटाकर भी हम खुद को पा जाते हैं। प्रेम करने को जीवन की कमी समझा जाता है लेकिन इसी कमी से जीवन पूरा होता है। हाँ ये दर्द देता है, आंसू देता है पर आंसूओं और ग़म से ही जीवन बनता है। बड़ा बदनसीब है वो शख़्स जिसने कभी दर्द को महसूस नहीं कया और बड़ी सूखी हैं वो आंखें जो कभी आंसूओं से नम नहीं हुई।

लेकिन कमी भला किसे पसंद है और हम अपनी सारी बुद्धिमत्ता से एक ऐसा जीवन रचना चाहते हैं जिसमें सिर्फ समृद्धि हो, खुशी हो। हम ऐसा बाग चाहते हैं जहाँ हर तरफ बस खिले फूल हों कोई कांटे नहीं, कोई सूखा पत्ता नहीं। पर एक बाग तभी अपनी सहज प्रकृति के साथ जीवित रह सकता है जिसमें खिले फूलों के साथ राह में बिखरे सूखे पत्ते भी पड़े हों। कमियां, अधूरापन इनसे ही खूबसूरती बनती है बेदाग चीज़ कभी खूबसूरत नहीं होती। दरअसल, जीवन की सबसे बड़ी कमी ही ये है कि हम दुनिया में कोई ऐसी चीज़ तलाशते हैं जिसमें कोई कमी न हो।

मोहित सूरी की ये बेहतरीन फ़िल्म प्रेम की दबी पड़ी कई परतों को उधेड़ती है। कई अहसासों को टटोलती है और साथ ही सभ्य समाज से इस पर बंदिशें लगाने के विरोध में कई सवाल भी करती है। फ़िल्म का कथ्य यहाँ प्रकट करना मेरा उद्देश्य नहीं क्योंकि उसके लिये फ़िल्म को देखा जाये वो ही बेहतर है। यहाँ तो बस फ़िल्म को देख मेरे मन में उठे जज़्बातों को बयां करने की कोशिश की है। 

महेश भट्ट का संग पा मोहित अपनी इस कृति में प्रेम की गहराई को छूते हैं। महेश भट्ट और शगुफ्ता रफीक़ की कलम फ़िल्म की असल जान है और फ़िल्म के संवाद असल अभिनेता। जिन्हें निभाते हुए विद्या बालन और इमरान हाशमी भी अपने करियर का उत्कृष्ट अभिनय करते नजर आते हैं। मोहित की पिछली फ़िल्म आशिकी टू और एक विलेन की लिजलिजी और अतार्किक भावुकता से फिल्म बहुत दूर है। मोहित की बजाय महेश भट्ट का असर फिल्म पर साफ परिलक्षित होता है। संगीत, मोहित की बाकी फ़िल्मों की तरह उनकी प्रतिष्ठा के अनुरूप है। कई दृश्य लंबे और धीमे होने से उबाऊ लगते हैं पर यह कमियां फ़िल्म के कथ्य और उद्देश्य के आगे नजरअंदाज करने लायक है। 

बहरहाल, दिमाग से फ़िल्म देखने की जरुरत नहीं है और न ही प्रेम की देखी-पढ़ी-समझी-सुनी परिभाषाओं के अनुसार पूर्वागृही होते हुए ये फिल्म देखें। बस, महसूस किये उन अहसासों को समेट फिल्म देखिये जिनके साथ कभी आपने प्रेम किया हो या कर रहे हों। यकीन मानिये समझदारी और संपन्नत्ता से परे आप खुद को पागलपन और आवारगी के साथ ही खुशनसीब समझेंगे।

Tuesday, June 9, 2015

समाज के दो भिन्न ध्रुवों पर खड़ी नारियों का प्रतीक : तनुजा और कुसुम

'तनु वेड्स मनु रिटर्न्स' हिन्दी सिनेमा के बेहतरीन दस्तावेजों में शुमार हो रही है। फिल्म में बला की ताजगी है कि टीवी पे नजर आने वाली इसकी क्षणिकाएं बारंबार देखे जाने पर भी आपका मन मोह लेती हैं। कहना चाहिये कि ऐसी फ़िल्में बनाई नहीं जाती बल्कि बन जाती हैं। जिन्हें देखते समय जो आनंद हम महसूस करते हैं वो तो अपनी जगह है पर देखे जाने के लंबे समय बाद ये कुछ ज्यादा ही रस देती हैं। हरियाणवी कुसुम का किरदार सिनेमा के स्वर्णिम इतिहास में निश्चित ही जगह लेगा। गोयाकि किरदार ने कलाकार को गौढ़ कर दिया है और दत्तो के किरदार से तनुजा के पराजय वाले दृश्य को देख कंगना रानौत शायद खुद भूल जायेंगी कि इन दोनों भूमिकाओँ में वे स्वयं अभिनय कर रही हैं।


बहरहाल, हास्य और मनोरंजन के परे भी इस फ़िल्म में कई संगीन अर्थ है। जिनकी हर कोई अपने हिसाब से व्याख्या कर सकता है। फिलहाल यहाँ तनुजा और कुसुम के जरिये भारतीय समाज मेंं नारी दृष्टिकोण के दो भिन्न पक्षों पर मंथन करने को जी चाह रहा है।  तनुजा और कुसुम (दत्तो) महज दो महिलाएं ही नहीं बल्कि दो संस्कृतियां हैं। समाज के दो विरुद्ध ध्रुव हैं। दो अलग सोच हैं जिन पर समाज ने नारी के तमाम Do's & Don'ts तय कर रखे हैं।

तनुजा जहाँ उन तमाम नारियों की प्रतिनिधि है जो भले अपने अरमानों को पंख देती हैं लेकिन दृष्टिकोण के अभाव में जो रास्ता चुनती हैं वो नारीत्व की संजीदगी को उससे कोसों दूर कर देती है। वो आजादख़याल वाली होके भी जिस्म की नुमाइश ही करती नज़र आती है और गाहे-बगाहे खुद को एक वस्तु के तौर पर ही प्रस्तुत करती है। अपने बौद्धिक-भावनात्मक अस्तित्व के परे उसे अपने तन का ही गुरूर है, छद्म आधुनिकता के कलेवर में लिपटी वो मेकअप-ड्रेसिंग और बाहरी आडंबर को ही सब कुछ मान बैठी है और चर्म के मिथ्या उपासक  इस पितृसत्तात्मक समाज में वो अपने ज़िंदा माँस के लोथड़े से जिस्म के भूखे गीदड़ो को लुभाती है। इसके लिये कभी-कभी उसे प्रेम का लॉलीपॉप कुछ पुरुषों द्वारा पकड़ा दिया जाता है। ये वो महिला है जिसकी यूएसपी ब्वॉयफ्रेंड की संख्या से बढ़ती है और फ्लर्टिंग के मार्केट में कमर्शियल डिमांड में इजाफा होता है।

तनु समाज की उस सोच का भी प्रतीक है जो औरत के सेटलमेंट को शादी, हसबेंड, बच्चों तक सीमित मानती हैं। जहाँ उसके बदन को ही उसका वतन माना जाता है। जहाँ खूबसूरती सबसे बड़ा वरदान और समाज द्वारा निर्धारित बदसूरती के मापदण्ड सबसे बड़ा अभिशाप है। जिस समाज का उच्च शिक्षित वर्ग भी आईएएस, डॉक्टर, इंजीनियर या फिर कोई एनआरआई बनने की तमन्ना महज इसलिये पालता है कि इससे उसका विवाह किसी दैहिक सौंदर्य संयुक्त महिला से हो जायेगा और वर्ग-बिरादरी में उसकी मिथ्या प्रतिष्ठा में कुछ स्टार और चस्पा हो जायेंगे। इस सोच से पुरुष अपनी भौतिक उपलब्धियों से मनचाही महिला पाता रहेगा और किसी पद-पैसे-प्रतिष्ठा वाले पुरुष की प्राप्ति को ही महिला की उपलब्धि समझा जायेगा। जिस समाज में महिला का अपना कोई वजूद नहीं, वो पिता-पति और आखिर में पुत्र से ही अपना अस्तित्व गढ़ेगी, यही उसका सौभाग्य माना जायेगा और इसे ही उसके संस्कार कहकर महिमामंडित किया जायेगा।

दूसरी ओर एक देहाती कुसुम का किरदार है। अपने अरमानों को पंख यह भी देती है लेकिन इसकी कोशिश किसी के साये तले अपना वजूद तलाशने की नहीं, बल्कि खुद की पहचान स्थापित करने की है। ये प्रेम को इसलिये नकारती है कि उसकी इस आशिक़ी की नज़ीर कई दूसरी महिलाओं को खुले गगन में उड़ने से रोक सकती हैं और उसका प्रेम सैंकड़ो आजाद ख़याल महिलाओं के चरित्र पर लांछन लगा सकता है। ये वो महिला है जो प्रेम के लिये समाज की रुढ़िवादी सोच के सामने सीना ताने खड़ी हो जाती है और सांत्वना स्वरूप मिली लिजलिजी प्रेम की भावनाओं को ठुकरा भी देती है। फिल्म के आखिर में कुसुम का खुद को एथलेटिक्स बताते हुए कहना कि या तो उसे फर्स्ट आना पसंद है या हार जाना, पर खैरात में मिली सांत्वना की वो कतई आकांक्षी नहीं। यह सोच ही उसे शक्तिस्वरूपा बनाती है। ये वो लड़की है जो आंसू भी बहाती है और ज़रूरत पड़ने पर लोगों के कबूतर भी उड़ाती है। 

ये उस नारी का प्रतीक है जो तथाकथित मॉडर्न नहीं है पर इसे निभाना भी आता है और ज़रूरत पड़ने पर मिटाना भी। ये जोड़ना भी जानती है और तोड़ना भी। जो खुद को सहेज सकती है, बच्चे पाल सकती है और मौका आने पर घर भी चला सकती है। कुसुम छोटे शहरों और देश के गांवों में पल रही उन दबी आकांक्षाओं का प्रतीक है जिनका दहकता लावा रस्म ओ रिवाज़ की कालिख से ठंडा नहीं पड़ता। जिसके सपने छत पर सूख रहे उन कपड़ो की तरह नहीं है जो शाम होते-होते उतार लिये जाते हैं। शादी-बच्चे, घर-परिवार इसके हौसले को पस्त नहीं करते। ये भले एक तरफ पत्नी है, माँ है पर दूसरी तरफ कोई स्पोर्ट्स वूमन, डॉक्टर, साइंटिस्ट, इंडस्ट्रिलिस्ट, आईएएस, आईपीएस या किसी संस्था-संगठन की प्रधान भी है। इसकी निगाहों में दोहरा पैनापन है जो सिर्फ दिल ही नहीं चुरातीं बल्कि अब डराती भी हैं।

तनु वेड्स मनु, पीकू, क्वीन, मैरीकॉम, कहानी जैसी पिछले कुछ वर्षों में आई फ़िल्मों ने महिला के जिस बदले स्वरूप को मुखर किया है वो काबिलेतारीफ है। अब हमारे सिनेमा की नायिका पेड़ों के ईर्द-गिर्द आशिकी फरमाने या गुंडों के बीच असहाय घिरे होने पर नायक को अपनी मर्दानगी दिखाने का मौका देने के लिये ही नहीं है बल्कि अब इसने ब्युटी पार्लर के साथ-साथ जिम जाना भी शुरु कर दिया है। इसके पास जादूई क्लिप है जिससे ये बाल भी बांधती है और दूसरों के सिर भी खोलती है। क्लासरूम के अंदर, किताबों के बीच अब यह लव लेटर ही एक्सचेंज नहीं करती बल्कि उनके जरिये इसने नेवी, एयरफोर्स जैसे पुरुष वर्चस्व वाले क्षेत्रों में दस्तक दे दी है। हाँ कुछ पोंगापंथी, धर्मभीरुता, परंपरा और रुढ़िवाद के मेघ अब भी हैं जो इस प्रभातमा की आभा को खुलकर सामने नहीं आने दे रहे...पर क्षितिज के किसी कोने पर ये निरंतर रोशनी बिखेर रही है। आधी आबादी का सच यही है...वो नहीं, जिसे तुमने बंधनों में जकड़ रखा है।

Monday, May 25, 2015

सार्थक मनोरंजन की वेदी पे फूटी सृजन की कोपल : तनु वेड्स मनु रिटर्न्स

बॉक्स ऑफिस आनंद एल. राय की बेहतरीन रचनाधर्मिता से गुलजार है। 'तनु वेड्स मनु' अपने पिछले संस्करण से ज्यादा ताजगी, नयापन और सार्थकता के साथ वापस लौटी है। मनोरंजन के गलियारे में सार्थक हास्य धूम मचा रहा है। विवाह और प्रेम की उधेड़बुन हास्य की चासनी में प्रस्तुत है साथ ही ये फिल्म बातों बातों में समाज से कई ज्वलंत प्रश्न भी कर लेती है और हिन्दुस्तान के कई राज्यों और कई समाजों में रची-पची पितृसत्तात्मक सोच पर बड़े प्यार से तमाचा मारती है।


आनंद राय ने कथा को अपने प्रस्तावित उद्देश्य तक ले जाने के लिये इस बार तनु के साथ दत्तो का भी साथ लिया है और दोनों ही किरदारो में कंगना के अभिनय ने एकतरफा साम्राज्य किया है। 'क्वीन' के बाद अब 'तनु वेड्स मनु' ने कंगना को चोटी पर विराजी समकालीन अभिनेत्रियों की श्रेणी में ला खड़ा किया है और कई मामलों में वे मौजूदा दौर की अभिनेत्रियों से भी ऊपर पहुंच गई हैं। कंगना के अभिनय कौशल के लिये अलग लेख की दरकार है फिलहाल बात को निर्देशक आनंद एल राय और तनु वेड्स मनु तक सीमित रखते हैं। 

आनंद राय की फ़िल्में मनोरंजन की तीव्र आग्रही हैं लेकिन मनोरंजन के चलते कभी सार्थक विमर्श गौढ़ नहीं होता। मसलन, रांझणा जैसी विशुद्ध मनोरंजक फ़िल्म प्रेम, धर्म और राजनीति की परतों को उधेड़ते हुए, उनके बीच पल रहे सुप्त मानवीय अहसासों और प्रवृत्तियों को बाहर लाती है लेकिन इस प्रयास के बीच यह कहीं भी गंभीर नहीं होती। आनंद का सिनेमा किसी भी तरह के भारी भरकम संवादों का सहारा लिये बिना गहरी बात कहता है और ऐसा ही तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में देखा जा सकता है। 

आनंद की नायिका अल्हड़ होती है, वो नियमों को तोड़ती है और भारतीय समाज में प्रस्तुत पारंपरिक महिला की छवि को तोड़ते हुए वो करती है जो वह करना चाहती है। लेकिन बावजूद इसके प्रेम की संजीदगी उसी शिद्दत से महसूस करती है जैसी किसी भी दूसरी महिला के हृदय में होती है। प्रेम को लेकर वो कन्फ्यूस होती है पर तमाम संशयात्मक विचारों के बावजूद उसके मन का मोर वहीं जाकर आसरा पाता है जिसे उसने अपना सर्वस्व सौंपा है। वो बेवफा हो सकती है पर बदचलन नहीं। पर समाज महिला की तात्कालिक परिस्थितियों से पैदा बेवफाई को उसके चरित्र से जोड़ देता है और उसे कुल्टा, कुलच्छिनी जैसे सैंकड़ो दुर्नामों से संबोधित किया जाता है।

तनु वेड्स मनु या रांझणा जैसी फिल्मों की सफलता की अहम् वजह इनका मिट्टी से जुड़ा होना है। ये कहानियां किसी कल्पनालोक के आदर्श गगन में विचरण नहीं करती बल्कि हमारे आसपास के यथार्थ को ही प्रस्तुत करती हैं। प्रसिद्ध फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे इस बारे में कहते हैं 'हर देश का विशुद्ध देशज सिनेमा ही सार्थक होता है और आनंद राय, तिग्मांशु धुलिया, सुजॉय घोष और अजय बहल जैसे फिल्मकारों के सक्रिय रहते हॉलीवुड का अश्वमेघ भारत में कभी सफल नहीं होगा। सारी तकनीकी चकाचौंध हरियाणवी कुसुम से पराजित होगी। एक करोड़ चौंतीस लाख अप्रवासी भारतीय लोगों की डॉलर ताकत के कारण भारतीय शिक्षा के पाठ्यक्रम में पश्चिम की भौंडी नकल प्रस्तुत है। इसी कारण हमारा युवा दर्शक फास्ट और फ्युरियस हो गया है और स्वयं को एवेन्जर मान बैठा है।' पश्चिमी मीडिया और शिक्षा के प्रभाव के चलते देश में सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की स्थिति है। यही वजह है कि पिज्जा और वर्गर की उपासक इस संस्कृति के मन में रोटी के प्रति उपेक्षाभाव है। हॉलीवुड फ़िल्मों की दीवानगी जता हम खुद को मॉडर्न साबित करना चाह रहे हैं।

फिल्म में ठेठ हरियाणवी कुसुम अपनी वाक्पटुता से अति वाचाल तनुजा का भी मूंह बंद कर देती है और बताती है कि शक्ति का संचार सिर्फ विलायती परिवेश के संपर्क से ही पैदा नहीं होता, हम जड़ों से जुड़े रहकर भी असीम सामर्थ्यवान हो सकते हैं। भारतीय नारी अनादि से अपनी माटी से जुड़ी रहकर ही शक्तिस्वरूपा है यह तो विदेशी प्रभाव है  जिसके कारण वह कॉकरोच देख किसी पुरुष को आवाज देती है। कुसुम आंसू बहाती है और ज़रूरत पड़ने पर कनपटी पे हाथ भी चलाती है। पर आंसू बहाते हुए वो कतई कमजोर नहीं होती और हाथ चलाते वक्त वो असंवेदनशील नहीं होती। आंसू और संवेदनशीलता मजबूती का प्रतीक हैं, कमजोरी तो अपने जज़्बात छुपाने और गुस्सा दिखाने से बयां होती है। मनु को तनु से मिलाते वक्त कुसुम खुद को एथलेटिक्स बताते हुए भीख में मिली सांत्वना लेने से इंकार करती है लेकिन अपने प्रेम के न मिल पाने के कारण छुपकर आंसू भी बहाती है। निर्देशक का प्रस्तुतिकरण कुछ ऐसा है कि इन दोनों ही प्रकरणों में कुसुम की मजबूती ही प्रदर्शित होती है कमजोरी नहीं।

आनंद की पिछली फिल्में रांझणा और तनु वेड्स मनु (प्रथम) तो कहीं-कहीं कमजोर होती हुई भी प्रतीत होती थीं पर तनु वेड्स मनु रिटर्न्स में ऐसा नहीं है। माधवन का अभिनय संजीदा है और किरदार के अनुरूप यही उनसे दरकार थी। संवादों से ज्यादा उन्हें अपने चेहरे से अभिनय करना था लेकिन इस बीच कहीं भी अति नाटकीय होने की गुंजाईश नहीं थी। ऐसे में कंगना के धमाकेदार दोहरे अभिनय के बीच खुद को समन्वयित रखने के लिये माधवन् का काम निश्चित ही प्रशंसनीय है। इसके अलावा लोंग-इलायची की तरह माइंड-फ्रेशनर के रूप में प्रयुक्त अन्य चरित्र अभिनेताओं का तो कहना ही क्या। इस फिल्म में जितना कंगना और माधवन को याद रखा जायेगा उतना ही पप्पी बने दीपक डोबरियाल, राजा अवस्थी के रूप में जिमी शेरगिल और अन्य किरदारों में स्वरा भासकर और जीशान अयूब को भी याद किया जायेगा।

बहरहाल, फिल्म को समझने  और इसके संबंध में अपनी धारणा बनाने के लिये इस लेख का सहारा कतई न लें क्योंकि यह लेख तो फिर भी बहुत जटिल हो सकता है जबकि फिल्म तो बेहद हल्के-फुल्के अंदाज में आपका मनोरंजन करती है।

Saturday, April 11, 2015

मेरी प्रथम पच्चीसी : ग्यारहवी किस्त


(ज़िंदगी की तथाकथित व्यस्तताएं और ज़रुरी काम हमसे हमारी सृजनधर्मिता छीन लेते हैं। हम अंदर ही अंदर छटपटाते रहते हैं पर अपनी रचनात्मक शक्ति के प्रयोग को किसी न किसी वजह से टालते रहते हैं और सच्चाई यही है कि रचनात्मकता से बढ़कर सुख और किसी में नहीं। ऐसी ही कुछ व्यस्तताओं के चलते ब्लॉग लेखन में विलंब होता रहता है और अपने इस सृजनधर्म से दूर जाकर कसमसाहट भी होती है। बहरहाल लंबे वक्त बाद जीवन के प्रथम पच्चीस वर्षों का यह यात्रा वृत्तांत पुनः आगे बढ़ा रहा हूँ। विलंब होने से अहसासों का रेशा भी टूटता है जिसका फर्क लेखन पर भी प्रतिबिंवित होता है इस तरह के श्रंख्लाबद्ध लेखन के लिये निरंतरता आवश्यक होती है पर चाहते हुए भी कभी आलस तो कभी दूसरी वजहों से इस निरंतरता को बनाये रखना मुश्किल हो जाता है। खैर, औपचारिक बातों को विराम देते हुए पच्चीसी को आगे बढ़ाता हूँ। )

गतांक से आगे....

जीवन में जिस दौर से हम गुजर रहे होते हैं, हमें उसकी कद्र कभी नहीं आती और हम बरहमिश अतीत के गलियारों में ही डोलते रहते हैं...और इस प्रवृत्ति के चलते वर्तमान के सुख से वंचित रहते हुए स्वर्णिम वर्तमान को भी अतीत बन जाने देते हैं पश्चात इस खिन्नता से परेशान रहते हैं कि काश! तब हमने ये किया होता, काश! तब हमने वो किया होता। जीवन के प्रारंभिक उन्नीस वर्षों के गुजरने और स्नातक पर्यंत का अध्ययन पूर्ण करने के बाद जब स्नातकोत्तर की शिक्षा अर्जित करने भोपाल आया तो अपने अध्ययन का तकरीबन पूरा प्रथम सत्र गुजरे हुए लम्हों की यादों में ही बिता दिया। इस कारण नये रिश्तों और नये अहसासों को पनपने का ज्यादा अवसर ही नहीं मिला। अपने अतीत को वर्तमान से बेहतर बताते-बताते तत्कालीन दौर को कोसता रहा और वक्त को रेत के मानिंद अपनी मुट्ठी से फिसलने दिया। 

चीज़ें बहुत सामान्य ढंग से घट रही थीं। यूँ समझिये कि न कुछ बहुत बेहतरीन था और न ही कुछ बेहद बदतर। छोटी-छोटी चीज़ें खुशी देती थी और छोटी-छोटी समस्याएं ही पहाड़ सरीकी दिखती थी। सतही अहसास और बचकाने सपने दिल में हिलोरे लेते थे। जो कि उस उम्र का सच होते हैं। ज़रा सी तारीफ आसमानी अहंकार की वजह बन जाती थी और तनिक सी उपेक्षा रातों की नींद छीन लेती थी। समझ कम थी पर जानकारी शनैः शनैः बढ़ रही थी और समझ के बगैर जानकारी का बढ़ना कभी सुख का कारण नहीं होता। 

समझ, हमेशा विपदाओं और असफलताओं से ही मिलती हैं। गलतियां ही अनुभवी बनाती हैं। जब लाचारियों के कारण कुछ करने का रास्ता नज़र नहीं आता तो हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं और तभी हमें विराम का वक्त मिलता है ये विराम का वक्त अनायास ही विचार का वक्त बन जाता है। जिस कारण स्वतः समझ विकसित होने का माहौल निर्मित हो जाता है। प्रथमदृष्टया मुसीबतें बेहद विचलित करने वाली लगती हैं पर कालांतर में यही परिपक्वता का संचार करती हैं। मेरी ज़िंदगी में ऐसी ही विपदाओं का दौर शुरु हो रहा था जिस कारण क्षणिक उपलब्धियों और आधारहीन ख़याली घोड़ों पर लगाम लगी। जीवन की लंबाई के परे, इसकी गहराई को जानने के अवसर मिले। विराम का वक्त आया और यह अपने साथ विचार का वक्त लाया। यह सिलसिला शुरु तो 2007 में हुआ था पर थमा अब भी नहीं है।

नवंबर 2007 में अपने गृहग्राम से लौटते वक्त एक सड़क दुर्घटना का शिकार हुआ। हादसा इतना बड़ा नहीं था कि हॉस्पिटल में भर्ती होना पड़े और इतना छोटा भी नहीं था कि तुरंत चलने-फिरने लगे। इसलिये प्राथमिक उपचार के बाद आठ दस दिन विश्राम करना था...यूं कहिये अनचाहा विराम का वक्त..और बेवजह के विचार का वक्त। घटनाएं भले छोटी ही क्युं न हों पर जब वे घटती हैं तो यह ज़रुर लगता है कि अब तो हो गया काम-तमाम और हम एक अदृश्य शक्ति से ज़िंदगी की भीख मांगने लगते हैं। तमाम दुष्कृत्यों को न करने और सुकृत्यों को करने के तात्कालिक संकल्प लेते हैं पर वक्त बीतने के साथ एवं हालात सुधरते ही वे सारे संकल्प फ़ना हो जाते हैं। ज़िंदगी फिर स्वच्छंद हो जाती है। एक्सीडेंट हुआ तो अपने गाड़ी चलाने की रफ़्तार पे तो नियंत्रण पाया ही साथ ही ख़याली उड़ान पर भी लगाम लगी। तात्कालिक ही सही ज़िंदगी की क्षणभंगुरता का भान हुआ। मसान वैराग्य का जन्म और सुप्त चैतन्यता झंकृत हुई।

अपनी इस घटना के चलते कुछ लोगों की पुरातन और अंधश्रद्धा के दर्शन भी हुए। दरअसल, जिस जगह यह सड़क हादसा हुआ था उससे कुछ दुरी पहले एक धार्मिक आयतन पड़ता है जिसे लेकर मान्यता है कि वहां मत्था न टेका तो जीवन में बुरा होना निश्चित है। उस धार्मिक स्थल पर आपकी मान्यता हो या न हो लेकिन उस स्थान से गुजरते वक्त कमसकम गाड़ी का हॉर्न ज़रूर बजा देना चाहिये। पर मेरी नज़र में यह तमाम धारणायें धार्मिकता की पर्याय नहीं बल्कि पोंगापंथी ही हैं। मुझे याद नहीं कि मैंने वहां हॉर्न बजाया था या नहीं लेकिन यह ज़रूर बताना चाहूंगा कि यदि याद होता तब भी मैं वहां यह फिजूल की क्रिया नहीं करने वाला था। ऐसा कहकर मैं किसी धार्मिक आस्था और आयतन का तिरस्कार नहीं कर रहा हूँ पर स्वयं की श्रद्धा के बगैर, चाहे जहाँ महज डर या लालच के मत्था टेकने को नीतिगत आस्था के विरुद्ध ज़रूर बताना चाह रहा हूँ। ऐसी आस्थान मूल्यविहीन तो है ही साथ में इंसान के तार्किक और विवेकवान होने पर भी एक सवाल है। दुनिया का कोई ईश्वर इतना हल्के दर्जे का नहीं हो सकता जो खुद को नमन न करने वालों के साथ बुरा कर अपनी छद्मवृत्ति का परिचय दे। ईश्वरत्व का वास साम्यता के साथ ही हो सकता है। राग-द्वेष संयुक्त होना, पक्षपाती होना और दुनिया को अपने आगे झुकाने की वृत्ति रखना..ये तमाम चीज़ें ईश्वरत्व की पर्याय कतई नहीं है। लेकिन मुझे हिदायतें देने वाले तो दे ही रहे थे। अफसोस इस बात का है कि मेरे संग घटी उस घटना से मेरे श्रद्धान में तो शिथिलता नहीं आई पर कई दूसरे लोग इसे देखकर ज़रूर अंधश्रद्धानी बन गये। डर एवं लालच, सदैव और सर्वथा एक बहुत बड़ी विसंगति ही हैं और इन विसंगतियों के आधार से जो पैदा होगा...वो चाहे जो भी क्युं न हो पर धर्म कतई नहीं हो सकता।

खैर, इस हालात से उबरने में ज्यादा वक्त नहीं लगा...पर यह सुकून महज तीन-चार दिन का ही था क्युंकि कुछ दिनों बाद ही एक दूसरी विपदा बड़ी सज-धज के दर पे दस्तक देने जा रही थी। जीवन के सफ़र में एक और गतिअवरोधक आ चुका था...जिसकी चर्चा अगली किस्त में, फिलहाल रुकता हूँ। लेकिन हाँ चलते-चलते एक बात और कि गतिअवरोधक, जीवन सफर में हमारी रफ़्तार को धीमा भले कर दें लेकिन हर रास्ते और सुरक्षित सफ़र के लिये इनका होना बहुत ज़रुरी है।

जारी.....................

Thursday, March 26, 2015

ज़ेहन में चस्पा कुछ रोज़...

कुछ तिथियां, बढ़ती ज़िंदगी के साथ आगे चलने से इंकार कर देती हैं और वो वहीं चिपकी रहना चाहती हैं जहाँ वो असल में जन्मी थी। 26 मार्च। एक ऐसी ही तिथि है जो मेरे ज़ेहन में कील की तरह ठुकी हैं भले तारीखें, कैलेण्डर की तरह बदल रही हैं। वैसे आज के संदर्भ में देखा जाये तो ये भारत के वर्ल्डकप सेमीफायनल में हारने के कारण पूरे देश के लिये मायूसी की तिथि है लेकिन मैं इस मायूसी के दरमियाँ खुद को एक साल पहले के उस रोज़ से ज्यादा जुड़ा पा रहा हूँ जहाँ कुछ अनजाने रिश्तों से अथाह अपनापन, प्यार और कद्र पाई थी। जहाँ लोगों के दिलों में मौजूद बेइंतहां खामोश मोहब्बत के दीदार किये थे और जाना था कि आप का होना सिर्फ आपके लिये नहीं कई और लोगों के लिये भी बहुत मायने रखता है। अपने वजूद के मायने पता चले थे और कुछ-कुछ अहम् की अनुभूति भी हुई थी। उस रोज़ को गुज़रे एक साल हो गया... इस बात पर यकीन नहीं होता क्योंकि सभी से रुहानी जुगलबंदी अब भी बेहद मजबूत है।

दरअसल, आज ही के दिन ठीक 1 वर्ष पहले अपने छात्रों और पूर्व कर्मक्षेत्र से मुझे विदाई मिली थी और वो विदाई कुछ ऐसी थी जिसके बाद मैं खुद को उस परिसर और उस परिसर के लोगों को खुद के ज्यादा करीब महसूस करने लगा था। उस रोज़ पता चला कि आपकी कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत भले ही तत्काल अपना परिणाम प्रस्तुत न करे लेकिन देर-सबेर वो कई दिलों में इज़्जत और मोहब्बत बन अठखेलियां करती है। इसकी बानगी को मैं लफ़्जों से ज्यादा बयां नहीं कर सकता। इसलिये इस पोस्ट के साथ दो वीडियो प्रस्तुत कर रहा हूँ जिन्हें देख शायद आप मेरे जज़्बातों को ज्यादा अच्छे से समझ सकेंगे।

और अपने उन तमाम विद्यार्थियों और चाहने वालों से कहना चाहता हूँ कि जो मायने मेरे लिये, उनके दिल में हैं उतने या उससे कुछ ज्यादा ही वे सब मेरे लिये अहमियत रखते हैं। हो सकता है कभी ज़रुरत पढ़ने पर मैं किसी विशेष परिस्थिति में उनके काम न आ सकूं लेकिन तहे दिल से उनकी हर मुश्किल को आसान ज़रुर करना चाहूँगा और अपनी क्षमताओं के अंतिम सिरे तक से उन तमाम लोगों की प्रगति में सहभागी होना चाहूँगा।


साथ ही इन वीडियोस के रूप में दो नायाब तोहफे देने के लिये सभी विद्यार्थियों का शुक्रिया अदा करता हूँ...जिनकी बदौलत आप सबकी अमूल्य यादों का नज़राना हर वक़्त मेरे साथ हैं। पुनः शुक्रिया। अनायास ही एक गीत की पंक्ति याद आ रही है...''अकेला चला था मैं...न आया अकेला, मेरे संग-संग आया तेरी यादों का मेला..मेरे संग-संग आया तुम सबकी यादों का मेला।"
Miss You All :)

Thursday, February 12, 2015

हर 16 मई की एक 10 फरवरी होती है...

पोस्ट के शीर्षक में व्यक्त पंक्ति मेरे मित्र संभव निराला की फेसबुक वॉल से उठाया गया है..दिल्ली चुनाव के नतीज़ों के बाद व्यक्त की गई यह एक असल आम आदमी की अभिव्यक्ति है जो जीत की बधाई देने के साथ एक चेतावनी भी देती है। जो पंक्ति देखने में बेहद छोटी नज़र आती है पर बड़े गंभीर अर्थ लिये हुए है। अकल्पनीय, ऐतिहासिक, अद्भुत, अद्वितीय, अप्रतिम और ऐसी न जाने कितनी उपमाओं से दिल्ली चुनाव के नतीज़ों को बयाँ किया जा रहा है। भारत जैसे बहुदलीय राजनीति वाले लोकतंत्र में किसी पार्टी द्वारा यदि पिन्चयानवे प्रतिशत सीटों पर कब्ज़ा कर लिया जाये तो उसे निश्चित ही अद्भुत कहा जायेगा...और वो भी एक ऐसी पार्टी जिसे आये हुए जुमां-जुमां हफ्ता भर भी नहीं हुआ है। जी हाँ करीब सत्तर वर्ष पुराने लोकतंत्र में साल-दो साल पहले आई पार्टी का अस्तित्व इससे ज्यादा तो नहीं माना जा सकता। 

10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने अरविंद केजरीवाल को महानायक बना दिया। जो इंसान कुछ वक्त पहले तक भगोड़ा, धरनेबाज और इस तरह के कईयों शब्दवाणों से विभूषित किया जा रहा था। 10 फरवरी। एक ऐसी तिथि जिसने सफलता के रथ पर सवार सूरमाओं के सिंहासन को हिला दिया। 10 फरवरी। जिसने 16 मई की ऐतिहासिक विजय को बौना साबित कर दिया। 16 मई के जो हीरो थे, 10 फरवरी को वहीं उपहास के पात्र हो गये। लोकसभा चुनावों में मिली जीत के बाद जिन्हें अगले कुछ दशकों तक के लिये अपराजेय की तरह देखा जा रहा था..सारे देश में जिन्हें कोई चुनौती देता नहीं दिख रहा था..जो पूरे देश के अघोषित छत्रप बन गये थे। लेकिन इन सारे भ्रमों को 10 फरवरी ने तोड़ दिया। दरअसल, ये हार किसी दल, व्यक्ति या विचारधारा की नहीं है बल्कि ये अहंकार की हार है, एक अहंकार जो जनमानस की भावनाओं को संपूर्णतः समझ लेने का दंभ भरता था..और कुछ इसी तरह ये जीत अरविंद केजरीवाल, आम आदमी पार्टी या उनके प्रचंड प्रचार की नहीं है बल्कि ये एक उम्मीद की जीत है..ये उस विकल्प की जीत है जिसे चुनकर जनता सोचती है कि शायद अब हालात बदलेंगे। यह चरम सांप्रदायिक माहौल में धर्मनिरपेक्षता की जीत है..शाइनिंग इंडिया के सपने दिखाकर पुंजीवाद का पोषण करने वालों के समक्ष यह समाजवाद की जीत है।

लेकिन कहानी अब ख़त्म नहीं होती, शपथ लेने के बाद अरविंद केजरीवाल सो नहीं सकते। जनता ने उन्हें अपना सर्वस्व सौंप दिया है..अब तो उन पर अड़ंगे लगाने के लिये एक मजबूत विपक्ष तक मौजूद नहीं है..गठबंधन की मजबूरी नहीं है..तो क्या अब दिल्ली की तस्वीर बदलेगी? क्या अब दिल्ली में कालीन के नीचे का मटमैलापन दूर होगा? झुग्गियों की गंदगी, सड़कों पर अतिक्रमण, अनियंत्रित यातायात, बड़ती महंगाई, महिलाओं की असुरक्षा, बेरोजगारी और अपराध जैसी सैंकड़ो समस्याएं क्या अब दिल्ली का अतीत बनेंगी? यदि ऐसा हुआ तभी 10 फरवरी ऐतिहासिक हो सकती है अन्यथा याद रखें इस 10 फरवरी को 16 मई बनते देर नहीं लगेगी। अरविंद केजरीवाल ने जीत के बाद अपने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए जो बात कही थी उसे अंतर्सात भी करें कि जैसे जनता ने भाजपा-कांग्रेस का अहंकार तोड़ा है..काम न करने की स्थिति में वैसा ही आम आदमी पार्टी के साथ भी हो सकता है। मीडिया जिन्हें आज सिर-आंखों पे बिठा रहा है उन्हें रसातल में पहुंचाने में भी मीडिया को देर नहीं लगती।

अहंकार..चाहे किसी का भी क्यों न हो, टूटता ज़रूर है और इसकी बानगी अरविंद केजरीवाल लोकसभा चुनावों के दौरान देख चुके होंगे..जब दिल्ली में महज 28  सीट जीतने के बाद कुछ ऐसी ही कल्पना उन्होंने लोकसभा चुनाव के लिये भी की और अति उत्साह में खुद को नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा कर दिया। जनता हमेशा सजग ही रहती है..वो सगी किसी की नहीं होती। वो ख़ामोशी से किसी के नकारा शासन को सहती है पर जहाँ उसे मौका मिलता है वो किसी भी नेता या दल को उसकी औकात दिखा देती है। अरविंद केजरीवाल याद रखें..दिल्ली, कोई देश की प्रतिनिधि नहीं है..इस छोटे से राज्य(वो भी अपूर्ण) की जीत से उत्साहित हों पर इसे समस्त देश का जनाधार न मान बैठे। आप अच्छा करें जनता आपको उसका ज़रूर ईनाम देगी..पर किसी भी तरह के दिखावे और झूठ के सहारे लोगों को छलने की कोशिश न करें। याद रखें हिन्दुस्तान में ऊपर चढ़ने का ग्राफ जितना तेज है उससे कहीं तेज नीचे गिरने का ग्राफ है।

यकीनन, आम आदमी पार्टी दूसरे किसी दल की तुलना में एक ऐसा दल है जो तेजी से देश के पटल पर छाया है पर उसका कारण यह है कि लोगों ने इस दल में 'आम आदमी' को देखा न की 'पार्टी' को। इस जीत के बाद 'आप' से यह उम्मीद की जायेगी कि इस दल के कार्यकर्ता भी शिवसेना और बजरंगदल की तरह के न बन जाये। ये खुद बुद्धि-विवेक से काम करें..पर अपनी बुद्धिमत्ता के चक्कर में जनता को मूर्ख न समझे, क्योंकि जनता हमेशा चतुर होती है वो हमेशा सच्चाई को चुनती है भले वो सच्चाई उसे तात्कालिक ही  क्युं न नज़र आये और बाद में वो सच उसे धोखा ही क्युं न दे दे। लेकिन जनता की प्राथमिकता एक सच्चा देशवासी ही है जो वास्तविक अर्थों में जनसेवा करना चाहता हो। देश की गुलामी के दौर में यह जनता भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ थी, राष्ट्रीय आपातकाल के दौर में यह जनसंघ के साथ थी..पिछले वर्ष घोर भ्रष्टाचार और सुप्त शासन के खिलाफ इसने भाजपा को समर्थन दिया और अब दिल्ली में इसने 'आप' के सिर ताज पहनाया। लेकिन जब भी, जो भी दल अपने दायित्वों से हट स्वार्थी वृत्तियों का पोषक हुआ और पद-पैसा या प्रतिष्ठा को तवज्जों दी तो जनता ने खुद उससे सिंहासन खाली करने का शंखनाद किया।

यह जीत दायित्वों का अगाध बोझ देने वाली है..कर्तव्यों से विमुख हो निर्भार करने वाली नहीं। बहुमत के कारण अधिकार ज़रूर मिले हैं पर जनकल्याण के लिये। सत्ता आने पर ये न सोचे कि ताकत 'आप'के पास है लोकतंत्र में ताकत हमेशा 'तुम'के पास ही होती है..ये तुम या तू शब्द से संबोधित की जाने वाली उपेक्षित जनता ही है जो 'आप' का निर्माण करती है। 

Sunday, February 8, 2015

हंसी-खुशी का है राज़ फ़िल्लम, फुल्ली फिल्लम है सांस भी : शमिताभ

हिन्दुस्तान..एक ऐसा देश जो अपनी रग़ों में हुल्लड़याई का पूरा समंदर लिये घूमता है। जिसके अतीत की तमाम इबारतें अपने ज़हन में अनंत कथा-कहानियां समेटे बैठी हैं। किस्सागोई जिस देश का प्रमुख शग़ल है और दादी-नानी की कहानियां जहाँ लोगों के लिये प्राथमिक विश्वविद्यालय। इस देश में मेले हैं, मदारी हैं, सपेरे हैं, नाच-गाना-नौटंकी है और ये देश कला की ऐसी अनेक विधाओं, अनेक रंगों को अपने में समेटे है। इन सब चीज़ों के कारण कभी ये उपहास का केन्द्र बनता है तो कभी इस कला-संस्कृति की वजह से ये देश अपना सिर फ़क्र से ऊंचा करता है। चाहे डांस, ड्रामा जैसी परफार्मिंग आर्ट हो या पेन्टिंग, डिजाइनिंग जैसी नान-परफार्मिंग आर्ट, हमारे देश में हर कला को लेकर पागलपन है और ऐसे में इन तमाम आर्ट्स को अपने में समाने वाले सिनेमा की बात की जाये तो दीवानगी अपने चरम पर होती है।

शमिताभ। तकरीबन सौ सालों से इस देश के लोगों के मनोरंजन और पागलपन का पर्याय बन चुके भारतीय सिनेमा के प्रति आदरांजलि की तरह प्रस्तुत की गई है। लेकिन हमारे सिनेमा के महिमामंडन करने के साथ ही साथ ये फ़िल्म ऐसी कई शिकायतों को बड़ी बेबाकी से प्रस्तुत करती है..जो अरसे से हर सिने प्रेमी के दिल में उठता चली आ रहे हैं। मसलन,  भारतीय फ़िल्म उद्योग को बॉलीवुड कहना...फ़िल्मों में व्याप्त प्लेगिआरिज़्म पर चुटकी लेना..कुछ ऐसे ही इस इण्डस्ट्री के झूठ और दिखावे की चकाचौंध को प्रस्तुत करना। निर्देशक आर. बाल्की की ये महज़ तीसरी फ़िल्म है लेकिन अपनी पिछली दो फ़िल्मों की तरह इस फ़िल्म में भी वे सिनेमाई खूबसूरती के चरम पर नज़र आते हैं।

मनोरंजक कथानक और बेहतरीन प्रस्तुति के बीच फ़िल्म में कई सारे अर्थ भी छुपे हुए हैं..फ़िल्म के संवाद बाल्की की पिछली फ़िल्मों की तरह नयापन और विट (हास्य पैदा करने की कला) लिये हुए हैं। संवादअदायगी होती तो बड़ी गंभीरता से हैं पर दर्शक द्वारा ग्रहण होने के बाद ज़बरदस्त गुदगुदी पैदा करते हैं। ये संवाद हंसाने के लिये किसी तरह की लफ्फाज़ी का सहारा नहीं लेते..बल्कि इन्हें कहने और समझने के लिये खास विद्वत्ता की दरकार होती है। बाल्की द्वारा प्रस्तुत कॉमेडी उन तमाम निर्माता-निर्देशकों के मूंह पर तमाचा है जो कहते हैं कि आज के दौर में हास्य सिर्फ अश्लीलता की गलियों से होकर ही आ सकता है।

फ़िल्म की महानता में बाल्की के निर्देशकीय कौशल के साथ साथ अमिताभ, धनुष और अक्षरा की एक्टिंग का भी अहम् योगदान है। अमिताभ अपने अभिनय और ताजगी से ये संशय पैदा कर रहे हैं कि वे अब 72 वर्ष के हो गये हैं। इस उम्र में वे बिना सुर छोड़े बेहतरीन गाना भी गाते हैं और लगता है कि इस साल बेस्ट सिंगर के कई सारे अवार्ड वे अपने खाते में न जोड़ लें। वहीं धनुष के लिये ये किरदार किसी चुनौती से कम नहीं था। एक मूक व्यक्ति का अभिनय, जो किसी भी बोलने वाले व्यक्ति से ज्यादा वाचाल लगता है और बॉलीवुड के शिखर सितारे की आवाज पर उसी तरह के भाव लेकर लाना, उन्हें अभिनय के शीर्ष पर ले जाता है। फिल्मों के लिये गली-मोहल्लों में दिखने वाली एक आम आदमी की दीवानगी को धनुष ने बखूब प्रस्तुत किया है। अक्षरा की यह पहली फ़िल्म है पर हिन्दी और तमिल के सुपरसितारों के सामने वो कतई फीकी नज़र नहीं आती। उन्हें देखना उतना ही मोहक लगता है जितना अमिताभ या धनुष को।

'शमिताभ' दो के मेल का नाम है...और ये मिलकर सौ वर्ष पुराने सिनेमा के दो प्रमुख अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। ऑडियोविसुअल। जी हाँ इन दो चीज़ों के कारण ही सिनेमा खुद को जनमानस का प्रमुख मानसिक भोजन बना सका है। यदि एक भी कमतर हो तो सिनेमा कभी भी अपना समग्र प्रभाव नहीं स्थापित कर सकता। धनुष दृष्याभिव्यक्ति का प्रतीक है तो अमिताभ श्रव्याभिव्यक्ति के। जब दोनों अपने-अपने अहंकार में पागल हो खुद को श्रेष्ठ साबित करते हैं तो जनता द्वारा उन्हें नकार दिया जाता है। फ़िल्म एक बहुत बड़ी सीख देते हुए ख़त्म होती है कि  सफलता समग्र प्रयासों का प्रतिफल है। जहाँ व्यक्ति सबको भूलकर सिर्फ 'मैं' पर अड़ बैठता है बस वही पतन की वजह बन जाती है। व्यक्ति का सबसे बड़ा अभिमान, जीवन में एक न एक दिन ज़रुर टूटता है। अहंकार को हम जितने चरम पर ले जाते हैं उसके टूटने पर दर्द भी उतना गहरा होता है। फिल्म इण्डस्ट्री ने सफल व्यक्ति के लिये स्टार शब्द इजाद किया है उसका कारण यही है कि सितारे चाहे कितने ही चमक लें पर टूटते ज़रूर हैं।

बहरहाल, कहने को बहुत कुछ है पर कहने-सुनने से बेहतर है इसे फ़िल्म को देखा जाये...ये हंसायेगी-गुदगुदायेगी और रुलायेगी भी पर गहन दार्शनिकता को संजोये कई प्रतीक भी फ़िल्म में देखे जा सकते हैं। कई सालों पहले मैंने अपना ये ब्लॉग 'साला सब फ़िल्मी हैं' बनाया था..जिसके परिचय के तौर पर मैंने कहा था कि अब हर जज़्बात, हंसी-खुशी, संवेदनाएं फ़िल्मी सी हो गई हैं..बस इस बात को चरितार्थ होते ही फ़िल्म में देखा जा सकता है। फ़िल्मों में नया और कुछ हटकर देखने के हिमायती लोगों के लिये ये फ़िल्म एक बेहतरीन अनुभव साबित होगी। शमिताभ..बॉलीवुड को अपनी मौजूदा श्रेणी से कुछ सोपान और ऊपर ले जाने वाली फ़िल्मों में से एक है।

Wednesday, January 7, 2015

2015 क्रिकेट विश्वकप और टीम इंडिया की संभावनाओं का संसार

आज से ठीक चार साल पहले करीब इसी वक्त अपने ब्लॉग पर एक पोस्ट लिखी थी 2011 क्रिकेट विश्वकप और टीम इंडिया की संभावनाओं का संसार और तब लगाये गये अनुमान लगभग पूरी तरह से ठीक निशाने पर लगे भी थे। तब भी वर्ल्डकप को कुछ रोज़ ही शेष बचे थे और टीम इंडिया चुनी जा चुकी थी अब भी वही स्थिति है...लेकिन हालात पूरी तरह से जुदा। टीम का तत्कालीन प्रदर्शन और 2011 विश्वकप के लिये चुने गये खिलाड़ियों की सूची, सिर्फ मुझे ही नहीं बल्कि हर क्रिकेट प्रेमी और इस खेल के जानकार को ये अहसास दिला रही थी कि इस टीम में अट्ठाईस साल बाद विश्वकप के सूखे को दूर करने का माद्दा है..पर वही चीज़ यदि 2015 के लिये सोची जाये तो ऐसा कतई नहीं लगता कि टीम अपना ताज़ बचा पायेगी।

2011 की टीम में अनुभव और ताजगी का जोरदार सम्मिश्रण था और टीम के 8 खिलाड़ी पहले भी विश्वकप जैसे बड़े आयोजन में शरीक़ हो चुके थे पर अब टीम के पास सिर्फ 4 खिलाड़ी ही ऐसे हैं जो विश्वकप खेलने का अनुभव रखते हैं। उस टीम के पास सचिन तेंदुलकर के रूप में जबरदस्त प्रेरणास्त्रोत और क्रिकेट का अद्वितीय ग्रंथ था पर अब ऐसा कोई भी नज़र नहीं आता। उस वक्त की टीम विश्वकप में उतरने से पहले शानदार जोश और विश्वास से लवरेज़ थी और कई बड़ी टीमों को पटखनी देकर विश्वकप में उतर रही थी पर इस टीम के साथ पिछले कुछ सालों में कई बड़ी टीमों से हारने के कारण हताशा और डर व्याप्त है। तब टीम टेस्ट में नंबर 1 और वनडे में नंबर दो थी पर ये टीम वनडे रेकिंग में तो नंबर दो पर व्याप्त है पर टेस्ट में छठे नंबर पर जा चुकी है और वनडे में रैंक अच्छी होने की वजह पिछला रिकॉर्ड और घरेलु मैदानों पर हासिल की हई जीत हैं..लेकिन अब विश्वकप के लिये घरेलु ज़मीन नहीं मिलने वाली और न ही होगी 2011 की तरह मैदान पर सपोर्ट करने वाले दर्शकों की बड़ी तादात। सबकुछ बदल चुका है और सब कुछ मुश्किल है और बची कुची कसर टीम के चयन ने पूरी कर दी।

टीम के पास युवाशक्ति तो है पर अनुभव के मामले में ये शून्य सी ही नज़र आ रही है। यही वजह है कि तब हमारे पास छटवे-सातवे क्रम तक ऐसी बैटिंग लाइनअप थी जो ऊपरी क्रम के लड़खड़ाने के बावजूद मैच बचाने का माद्दा रखती थी पर ये टीम शुरुआती बल्लेबाज़ों के बिखरने के बाद खुद को संभाल पाने में सक्षम नज़र नहीं आती। 2011 की टीम का हर प्लेयर अपने दम पर मैच जिताने का दम रखता था और धोनी ने सब खिलाड़ियों का प्रयोग भी कुछ इसी अंदाज में किया था, मसलन क्वार्टर फायनल और सेमीफायनल में रैना को मैदान में उतारा जो कि लीग मैचों में बेंच पर ही बैठे रहे और इन दो मैचों में मैच विनर साबित हुए। कुछ इसी तरह अश्विन और पीयुष चावला का चतुराई भरा प्रयोग करना संभव हो सका था लेकिन अब बैंच स्ट्रेंथ में कतई दम नहीं दिखता। वहीं कोहली और धोनी के अलावा ऐसा कोई नाम नहीं है जिसके प्रदर्शन में निरंतरता हो और जिसपे आंख मूंद कर विश्वास किया जा सके। यकीनन रोहित शर्मा, शिखर धवन, रैना, रहाणे सभी में हुनर कूट-कूट कर भरा है पर अहम् मौकों पर इन सबका बिखरना जगजाहिर है।

अब यदि गेंदबाज़ी की बात करें तो इस मामले में टीम सर्वाधिक पिछड़ी नज़र आ रही हैं। आस्ट्रेलिया की विकेट भारतीय उपमहाद्वीप की तुलना में काफी अलग है जिसमें एक दिन के मैचों में पिच से टर्न की उम्मीद करना बेमानी होगी और बस इसलिये भारतीय गेंदबाजी की सबसे बड़ी ताकत स्पिन अटैक बुहत कारगार साबित होगा, ऐसा नहीं कहा जा सकता...इसके परे यदि पेस अटैक को देखा जाये तो निश्चित ही शमी, भुवनेश्वर क्षमतावान है पर ये दोनों अभी ज़हीर खान की तरह विश्वास नहीं जगाते..वहीं दूसरा पक्ष ये भी है कि ईशांत और भुवनेश्वर ये दो अहम् बॉलर चोट से जूझ रहे हैं वर्ल्डकप तक ये पूरी तरह मैच फिट रहें और थके हुए न लगे, ये कहना खासा मुश्किल है। 

इसके अलावा यदि पिछले वर्ल्ड कप की तुलना में इस टीम की सबसे बड़ी कमी की बात करें तो वो है युवराज़ सिंह का न होना...मैं यह नहीं कह रहा कि युवराज को ही टीम में लेके आओ लेकिन वर्ल्डकप जीतने के लिये एक सशक्त ऑलराउंडर का होना सख़्त ज़रुरी है वो युवराज के अलावा चाहे जो भी क्युं न हो..लेकिन ऐसा ऑलराउंडर मौजूदा भारतीय टीम में तो कोई नहीं हैं..हो सकता है इस वर्ल्ड कप के बाद कोई ऐसा चेहरा उभर कर सामने आ जाये..पर अब तक के रिकॉर्ड को देखते हुए ऐसा खिलाड़ी जो गेंद और बल्ले से समान क्षमता रखते हुए मैच का निर्णय अपने पक्ष में कर दे, वो टीम में नहीं दिखता। पिछले विश्वकपों को यदि देखें तो हम समझ सकते हैं कि वर्ल्डकप जीतने में ऑलराउंडर की क्या भूमिका होती है..1983 में कपिल देव, 1992 में इमरान ख़ान, 1996 में सनत जयसूर्या और फिर 2011 में युवराज सिंह ये कुछ ऐसे नाम हैं जिन्होंने अपनी दोहरी भूमिका के ज़रिये ही टीम को जीत दिलाने में मदद की..पर 2015 में ऑलराउंडर के रूप में चुने गये खिलाड़ी अक्षर पटेल और स्टूअर्ट बिन्नी को कुल मिलाकर अभी पंद्रह मैचों का भी अनुभव नहीं है जबकि रविंद्र जड़ेजा की फिटनेस पर कई सवाल है और यदि वे फिट होते भी तो उन पर युवराज की तरह यकीन तो कतई नहीं किया जा सकता। भले युवराज सिंह ने 2014 के टी-ट्वेंटी विश्वकप फायनल में एक विलेन की भूमिका निभाई थी पर मैं अब भी उन्हें ही इस टीम में देखना चाहता हूं और विश्वकप शुरु होने के अंतिम समय तक यह चाहूंगा कि चाहे जो भी वजह क्यूं न बने लेकिन युवराज इस टीम का हिस्सा हो जायें।

हालांकि कई नकारात्मक बातें इस टीम के बारे में कर चुका हूँ लेकिन एक अहम् तथ्य यह भी बताना चाहता हूं कि 2007 में हुए पहले टी-ट्वेंटी विश्वकप में चुनी गई टीम से भी कोई विश्वकप जिताने की अपेक्षा नहीं कर रहा था..वो टीम भी अनुभवी नहीं थी आज जो कई बड़े नाम नज़र आ रहे हैं तब तक वे युवा और नौसिखिया ही कहलाते थे। लेकिन तब टीम ने विश्वकप जीत सबको चौंका दिया था। इस बार भी हम कुछ ऐसा ही चाहेंगे और उम्मीद करेंगे कि टीम के यह खिलाड़ी न सिर्फ मुझे बल्कि इस टीम की आलोचना कर रहे हर इक शख़्स को ग़लत साबित करें..और देश को फिर इक बार झूमने का अवसर प्रदान करें। एक ऐसी जीत, जिसकी खुशी में हिन्दुु-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई, अमीर-गरीब, गुजराती-पंजाबी-मराठी जैसे तमाम भेद ख़त्म हो जाते हैं और हम बस एक भारतीय होने की पहचान के साथ अनियंत्रित जश्न में डूब जाते हैं। 

बहरहाल, उम्मीद तो होगी कि 2015 में हो रहे इस महान क्रिकेट संग्राम के ख़त्म होने पर हमें 2011 क्रिकेट विश्वकप के बाद वाली खुशी फिर इक बार मिले..और देश को शायद यह मिल भी सकती है पर मेरे लिये तो हमेशा वही विश्वकप सबसे यादगार रहेगा क्युंकि उस विश्वकप से अपनी राष्ट्रवादी भावनाओं के साथ कुछ रुहानी जज़्बात भी जुड़े हुए हैं..जो अब संभवतः नहीं मिल सकते। जज़्बाती तौर पर देखूं तो मैं 2011 के विश्वकप को लेकर थोड़ा पूर्वाग्रही ज़रूर हो रहा हूँ पर इस बार भी उस जैसे जश्न में डूबने की दिली तमन्ना बरकरार है.......