Sunday, September 6, 2015

मेरी प्रथम पच्चीसी : बारहवी किस्त

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(फिर एक लंबे विलंब के बाद पच्चीसी की कड़ियों को आगे बढ़ा रहा हू...जीवन के पहले पच्चीस बसंत की यह दास्तां शुरु किये दो वर्ष से ऊपर बीत गये। अब अट्ठाईसवे बसंद के गलियारे में प्रवेश कर चुका है लेकिन पच्चीसी की पूर्णता से अभी कोसों दूर हूँ। कोशिश रहेगी दास्तां जल्द समेटूं..और एक शुरु किये काम की जिम्मेदारी से जल्द निवृत्त हूँ।)


गतांक से आगे.....

मुसीबतें जब आती हैं तो भर-भरकर आती हैं। सीधी-सपाट ज़िंदगी में कई क्लाइमेक्स आके विचलित करने लगते हैं। हम किसी अज्ञात शक्ति से गुजारिश करते हैं, ऐ खुदा! बस भी करो..जिंदगी को बोरिंग बना दो। लगातार लगती ठोकरों के बाद जब सब कुछ सामान्य हो जाता है तब भी हम डरते रहते है और यही डर सताता रहता है कि पता नहीं ये खुशनुमा पल कब तक के हैं? अपने उस लघुतम एक्सीडेंट के ज़ख्म भरे भी नहीं थे कि एक और यातना मूंह बाये खड़ी थी। 2007 की नवंबर का अंतिम सप्ताह चल रहा था कि तभी पेट में किसी अनजान दर्द की तड़प उठ रही थी। लगा एसीडिटी टायप कुछ होगा और ऐसे ही किसी मर्ज की दवा-दारू करने में मशगूल था किंतु उन तमाम प्रयासों के बावजूद यातना तनिक भी कम नहीं हो रही थी..और जब दर्द अपनी सीमाएं लांघ चुका था तो अस्पताल जाना ही मुनासिब समझा।

घर से अस्पताल का रास्ता महज आधे घंटे का रहा होगा लेकिन एक-एक सेकंड की असहनीय पीड़ा जीना मुहाल कर रही थी। उस अस्पताल के मुख्यद्वार से पूर्व पड़ने वाले गतिअवरोधक पर जब गाड़ी ने स्पी़ड में जंप लिया तो यह वेदना मानो मौत का निमंत्रण थी। लगा मृत्यु पूर्व का अहसास ऐसा ही होता है...चेहरों के सामने अंधेरा पसर रहा था और मैं अपने पास खड़े पापा, भाई और अन्य परिजनों से गुहार लगा रहा था कि प्लीज इस बार बचा लो। तुच्छ सी प्रतीत होने वाली ज़िंदगी अमूल्य नजर आने लगती है। ज़िंदगी के सारे अच्छे और बुरे कर्म रेलगाड़ी की तरह सामने से गुजरने लगते हैं। सत्कार्यों को बारंबार दोहराने के और दुष्कृत्यों से तौबा करने के संकल्प हम झट से ले लेते हैं। इस वक्त पता चलता है कि दुनिया में टूटी और पीछे छूटी हर वस्तु को वैसा का वैसा पाया जा सकता है पर श्वांसों की डोर दोबारा मौका नहीं देती। ये महीन भी है और दुर्लभ भी। इस दर्दसंयुक्त चिंतनधारा के बीच सोनोग्राफी, सीटीस्केन जैसे टेस्ट भी जारी थे और पता लग गया था कि तन में पाया जाने वाला अपेंडेक्स नाम का अवशेषी अंग फट गया है। फटे अपेंडेक्स के जहर ने अंदरुनी मामला बिगा़ड़ रखा है इसलिये तुरंत ऑपरेशन की दरकार थी। चुंकि हॉस्पिटल में पहले से पहचान थी इसलिये बिना कागजी औपचारिकताओं के ऑपरेशन थियेटर में सीधे प्रविष्ट करा दिया। अगले कुछ घंटों में क्या हुआ पता नहीं।

तब लगा कि शरीर में विद्यमान एक अवशेषी अंग जब इतना कहर ढा सकता है तो अन्य जरुरी अंगों की विषम चाल क्या कर सकती है। कालांतर में यह राज भी खुले...किंतु हर समझ के लिये पीड़ा के सोपानों से गुजरना पड़ता है। सब कुछ समझ आना भी अच्छी बात नहीं..ज़िंदगी की कई तालीमों से हम अनजान ही बने रहे तो बेहतर है। बहरहाल जब होश आया तो पेट के उस हिस्से में दर्द तब भी विद्यमान था पर ये दर्द पहले की तरह अंदरुनी वजहों से नहीं बल्कि चीड़ा-फाड़ी के बाद उपजा ऑपरेशन का दर्द था। पहली मर्तबा इस तरह की सर्जरी के अनुभव से गुजरा था लिहाजा लगने लगा था कि अब सेकेंड हेंड पीस हो गया हूं पहले जैसी शक्तिसंपन्नत्ता अब न रहेगी।  पर तभी पता चला कि मेडिकल साइंस ने अब बहुत तरक्की कर ली है शल्य चिकित्सा इस क्षेत्र की बहुत आसान पद्धत्ति बन चुकी है और कुछ दिनों मे ही ज़िंदगी वापस पूर्ववत् मुख्यधारा में आ गई। तीन महीनों बाद ही मैंने युनिवर्सिटी में हुए एक क्रिकेट टूर्नामेंट में शिरकत कर अपना आत्मविश्वास वापस पाया। लेकिन तब सर्जरी के बाद अगले सात दिन उस हॉस्पिटल के आईसीयू का बैड नंबर नौ ही मेरा एकमात्र ठिकाना था। आहार-निहार सहित समस्त क्रियाएं बस यही तक सिमटी थी। विचारों की उधेड़बुन से तब बहुत कुछ सीखा। विराम का वक्त पहली बार विचार का वक्त बन रहा था।

खैर, दस दिन बाद हॉस्पिटल से घर आया। लगा कि बड़ी जंग जीत ली..सामने एमएससी के प्रथम सत्र की परीक्षा थी। बीते दस-पंद्रह दिन से जिंदगी से कट गया था इसलिये साथ वालों के साथ कदमताल मिलाने के लिये कुछ ज्यादा तेज दौड़ने की जरूरत थी और इसलिये अनजान प्रतिस्पर्धा के चलते बिना किसी को देखे पांच-सात दिन में ही बहुत कुछ पढ़ डाला। यह मेहनत कुछ ऐसी हुई जिसने दूसरों से कई कदम आगे निकाल दिया और पता चला कि जब प्रतिस्पर्धा करते हुए हम दूसरों को देखते हैं तो हम उस तेजी से नहीं बढ़ पाते जिस तेजी से हम सिर्फ खुद पे नजर रख किेये प्रयासों से बढ़ जाते हैं। आखिरकार एक्साम भी निपटे। और इस तरह तकलीफों के छुटमुट भंवर के बीच किसी तरह अपनी कश्ती को आगे बढ़ाया। 

कॉलेज के अगले सत्रों में कुंद पड़े जीवन को रफ्तार मिली। संकोच हवा हुआ, नये रिश्तों के द्वार खुले। ज़िंदगी में नये दोस्त आये जिन्होंने पुरानी यादों से छुटकारा दिलाया। मस्ती-मजाक और सेलीब्रेशन का दौर बढ़ गया। मैं भी इस नये जीवन में ढल गया और एक आम युवा की तरह उन्हीं अहसासों को जीने लगा जो इस उम्र का सच होते हैं। सतही संवेदना, जुनूनी सपने और अपरिपक्व ख़यालों के मिश्रण ने यादें तो बहुत दीं पर सीखने की संभावनाएं कम कर दीं। दोस्ती के उन्माद में चूर हो..बहुत कुछ पाया पर उससे कही ज्यादा बरबाद कर दिया। बेशक हम स्कूल-कॉलेज में उन्मादी जीवन बिता कई यादें संजो लेते हैं पर स्कूल-कॉलेज के असल मायनों से दूर चले जाते हैं। इस दौर से हमें यादें जरूर मिलती हैं पर उन यादों का कोई भविष्य नहीं होता। जीवन में संतुलन बहुत जरुरी है। उन्मादी जीवन से न ज्यादा निकटता हो और न ही दूरी। विद्यार्थी जीवन के हर रंग से हमारा वास्ता हो पर उन रंगों से इस वक्त की धवलता प्रभावित नहीं होना चाहिये।

जारी.................