Friday, June 20, 2014

कसक

(ये पोस्ट मेरी लिखी एक कहानी "कसक" का एक अंश है..जो मुझे बेहद पसंद है। हाल ही में ये कथा महिला पाठकों पर आधारित पत्रिका 'संगिनी' में प्रकाशित हुई। कहानी का ये हिस्सा कथा के नायक- आरव और नायिका-पूनम के बीच हुए उस संवाद पर आधारित है जब वे एक-दूसरे से बिछड़ने के तकरीबन आठ साल बाद मिलते हैं....)

.........उस पूरे विशाल सभागृह में जब साथियों को अवार्ड के लिये बुलाया जाता तो शोर मच जाता। कॉलेज के कन्वोकेशन के लिये आयोजित उस पूरे माहौल में यूँ तो बहुत शोर था..पर आरव के ज़हन में गहन सन्नाटा पसरा हुआ था और वो अपने मोबाईल पर आये पूनम के उस मैसेज के बारे में ही सोच रहा था जिसमें उसने आरव से बस एक बार मिलने की गुज़ारिश की थी। मानो सालों पहले बंद कर दी गई किसी किताब के पन्ने हवा का झोंका आने से फिर पलट रहे हों और इस झोंके के कारण आरव अनचाहे ही यादों के सफ़र पर निकल गया...जहाँ चारों तरफ बस बेखुदी और दीवानेपन की बयार लहलहाया करती थी। अपनी इस कसमकस को दूर करने के लिये आरव ने पूनम से मिलना ही मुनासिब समझा...और शाम को सूरज ढलने से ठीक पहले वो तय किये स्थान पर पहुंच गया..जहाँ से नीचे देखने पर शहर के कदमों में पसरा विशाल तालाब अपनी लहरों से अठखेलियां कर रहा था और ऊपर देखने पर था अनंत नीरव आकाश...और इन दोनों के बीच असंख्य जज़्बात लिये खामोश खड़े पूनम और आरव..........

बड़ी देर से माहौल में फैली चुप्पी को तोड़ते हुए आखिर पूनम ने कहा-
पूनमः- कैसे हो?
            आरव ने अपनी आँखों को ऊपर उठाकर बड़ी ही उपेक्षित और घृणित निगाहों से पूनम को देखा।
पूनमः- (कुछ झेंपते हुए..एक मर्तबा फिर) घर में सब कैसे है?
           आरव ने फिर कुछ अजीब से मूँह बनाते हुए गहरी सांसे भरी।
 पूनमः- कुछ तो बोलो...
आरवः- (आँखें तररते हुए और बड़े ही सख़्त लहज़े में) क्या बोलूं? मैं कैसा हूँ..तुम कैसी हो...इन सब बातों में रक्खा क्या है या इन बातों को जानने, न जानने से किसी को क्या फर्क पड़ने वाला है...जल्दी अपनी बात ख़त्म करो और मुझे यहाँ से जाने दो।
पूनमः- मुुझसे इतनी नफ़रत क्युं है तुम्हें?
आरवः- नफरत? तुमसे क्युं नफरत होगी मुझे..जिसका मेरी ज़िंदगी में कोई अस्तित्व ही नहीं उसके लिये कैसी नफ़रत या कैसी मोहब्बत। मैं तुम्हारे लिये और तुम मेरे लिये तो कब की मर चुकी हो...
       शब्दों का बेहद कटु अस्त्र छोड़ा था आरव ने पूनम कुछ बोलने की स्थिति में नहीं थी अब..फिर भी कुछ देर की खामोशी के बाद उसने बड़े हिचकते हुए कुछ कहा क्योंकि वो बहुत सारी अधूरी बातें आज साफ करना चाहती थी।
पूनमः- तुम ऐसा बर्ताव क्युं कर रहे हो..जब हम साथ थे तो याद है न तुम क्या कहते थे कि हम....
आरवः- (पूनम की बात ख़त्म होने से पहले ही बात काटते हुए आरव ने कहा) जब हम साथ थे...(एक कुटिल मुस्कान उसके चेहरे पे तैर गई) साथ थे तब तो तुमने भी क्या-क्या कहा था पूनम...मुझे याद कराने से अच्छा है कि तुम याद कर लो और वैसे भी क्या होने वाला है अब इन सब बातों में..अब तो तुम्हारा अपना परिवार है..बच्चे हैं वहाँ अपना ध्यान लगाओ न...क्युं सूख चुके ज़ख्मों की पपड़ियां उखाड़ रही हो?
पूनमः- तुम्हारे सूखे होंगे..पर मेरे दिल में तो आज भी कसक बाकी है...कहने को सबकुछ है मेरे पास पर फिर भी एक अधूरापन हमेशा सताता है मुझे।
आरवः- कसक! तुम क्या जानो कसक क्या होती है (फिर कुटिल मुस्कान के साथ)
पूनमः- सच आरव! हर रोज़ तुम्हें याद करती हूँ...
आरवः- और मैं हर रोज़ तुम्हें भुलाने की कोशिश...
पूनमः- मैं अपनी ज़िंदगी के उन्हीं पलों को पाना चाहती हूँ जब तुम मेरे साथ थे..
आरवः- और मैं ज़िंदगी के उन्हीं पलों को अपने अतीत से मिटाना चाहता हूँ, जब तुम मेरे साथ थी...
पूनमः- ऐसा क्युं कह रहे हो आरव...तुम्हारा प्यार तो कभी हासिल करने का मोहताज़ नहीं था...
आरवः- हाँ बिल्कुल! और मुझे तुम्हारे न मिलने को लेकर कोई कसक भी नहीं है..मुझे कसक है उन दोगुले जज़्बातों के लिये जो तुमने मेरे सामने दिखाये..मुझे कसक है तुम्हारे दोहरे रवैये के कारण..मुझे शिकायत है तुम्हारी उन लफ्फाज़ी भरी बातों से जो अनायास ही मेरे अहसासों को मचलने पर मजबूर करती थी और मुझे दुनिया से बगावत के लिये उकसाती थी..मुझे शिकायत है तुम्हारी उस सोच से जो मुझे सिर्फ तुम्हारे खालीपन को भरने का ज़रिया समझती थी..जो एकसाथ दो-दो नावों पे सवारी करने का ख़याल दिल में पालती थी..तुम्हारा झूठ और कई बार तुम्हारी खामोशी...न जाने कितनी चीज़ें है जिसके चलते मुझे शिकायत है..मुझे कभी कोई शिकायत और कसक तुम्हारे बिछड़ने से पैदा हुए कड़वे यथार्थ से नहीं मुझे हमेशा से सिर्फ तुम्हारे स्वार्थी, तो कभी बेवकूफ तो कभी बेशर्म लहज़े के कारण ही रही है और अब तो मैंने इस कसक को भी खुद से दूर कर फेंका है इसलिय इन बातों को न ही करो तो बेहतर है.....
       (एक मर्तबा फिर गहन खामोशी..पर तब भी दिल के अंदर हज़ारों जज़्बात चीख रहे थे)

पूनमः- तुम नहीं समझोगे कि मैंने क्या खोया है..हर रोज़ इन आँखों से आँसू बहे हैं...
आरवः- हाँ, आँसू बहाना लाज़मी भी है क्युंकि तुमने सच में बहुत कुछ खोया है पूनम! मैं कभी नहीं रोयाा क्युंकि मुझे पता है मैंने कुछ नहीं खोया पर तुमने खोया है...मुझसे तो वो इंसान दूर हुआ जो कभी मेरा होना ही नहीं चाहता था पर तुमने उसे खोया है जो हमेशा तुम्हारा बनके रहना चाहता था।
पूनमः- एक लड़की के हालात और उसकी मजबूरियों को तुम नहीं समझ सकते...कभी तुम मेरी जगह आके तो सोचने की कोशिश करो।
आरवः- यदि मैं तुम्हारी जगह आके सोचने लगूँगा तो मेरी जगह आके कौन सोचेगा..मैंने प्यार किया था पूनम और प्यार सारी समझदारी ख़त्म होने के बाद ही परवान चढ़ता है..मैं क्युं कुछ समझूं, तुमने तो समझ लिया न सब..और अपनी उस समझ से ही तो तुम्हें ये खूबसूरत ज़िंदगी मिली है..(ताने मारने के अंदाज़ में आरव ने कहा)
पूनमः- तुम्हारी कितनी गलत फीलिंग है मेरे लिये पर मैंने हमेशा तुम्हारी बेहतरी की दुआ की है..तुम्हारे हर अचीवमेंट पे मुझे तुमसे ज्यादा खुशी मिली है आरव...
आरवः- अचीवमेंट! (खींझते हुए आरव बोला) किसे अचीवमेंट कहती हो तुम? यही कि मेरी दो पुस्तकें छप गई हैं या ये अचीवमेंट है कि मैं आज एक मोटी तनख्वाह वाली रुतबेदार नौकरी कर रहा हूँ...या फिर देश की पत्र-पत्रिकाओं में एक नामी स्तंभकार के तौर पे मेरे लेख पढ़े जाते हैं..या फिर बंगला, गाड़ी या बैंक बैलेंस..क्या है तुम्हारी नज़र में अचीवमेंटय़? जिससे इंसान के अहंकार की पुष्टि होती है बस वही सबसे बड़ी उपलब्धि होती है पूनम! और मेरा अहंकार तो तुम थी उस अहंकार के टूटने के बाद ऐसी कौनसी चीज़ है जो मुझे अचीवमेंट लगेगी..आज जो कुछ भी मेरे पास है वो बस एक बोझ है कोई उपलब्धि नहीं। जिसे मैं  भोगता नहीं बल्कि भुगतता हूँ।
पूनमः- हम्म्म...फिर भी तुम्हारे पास ऐसी हजारों चीज़ें हैं जो कहीं न कहीं तुम्हारे खालीपन को भर देती है पर मेरे पास तो बस अथाह अकेलापन है जो किसी को नज़र नहीं आता...
आरवः- आज जो मेरे पास है मैंने इसकी तमन्ना कभी नहीं की थी...मैं एक बहुत साधारण सी खुशनुमा ज़िंदगी बिताना चाहता था..एक बेहद मामुली इंसान बनके...पर तुम्हारे जाने के बाद मिली ये हज़ारों चीज़ें बस मेरे सुकून में खलल डालती है और न चाहते हुए भी आज मैं इनमें इतना उलझ गया हूँ कि अब पूरे जहाँ में इस उलझन से निकलने की गुंजाइश नज़र नहीं आती..और ये सारी उलझनें, जिसे दुनिया कामयाबी कहती है तुम्हारे जाने के बाद ही शुरु हुई थी...खैर, पता नहीं क्युं अब ये सब बातें मैं तुमसे कर रहा हूँ...
पूनमः- नहीं, कह लो आरव..कम से कम इससे ही तुम्हारी भड़ास कुछ कम हो जाये...
आरवः- हाँ सही कहती हो...मैं चाहे कुछ भी क्युं न कह लूँ पर तुमपे किसी बात का क्या फर्क पड़ने वाला है...शब्दों की अहमियत तुम्हें कब समझ आती है तुम्हारे लिये तो बातें बस बातें ही हैं न...भगवान ने मूँह दिया है तो बस बक दो कुछ भी..और वही तो तुमने हमेशा किया है और सबकी बातों को भी बस ऐसे ही सुना..हैं न?
पूनमः- सोचा था...कुछ अच्छी बातें करके अपने गुज़रे वक्त में से कुछ खुशनुमा पलों को चुरा लाउंगी तुम्हारे साथ..पर मुझे नहीं पता था कि मेरी उम्मीद से कई ज्यादा नफ़रत भरी है तुम्हारे दिल में मेरे लिये...
(बड़े ही अजीब लहज़े में एक बार फिर आरव ने अपना सिर हिलाया..मानो पूनम की बातें उसके लिये कोरी गप्प की तरह हो)
पूनमः- लेकिन मुझे खुशी है कि मुझे किसी ने कभी, कुछ पलों के लिये ही सही..पूरी शिद्दत से चाहा..और इसके लिये मैं खुद को हमेशा खुशकिस्मत समझूंगी...
आरवः- हाँ...समझ सकती हो...पर याद रखना मैंने तुम्हें इतना चाहा इस कारण तुम कोई बहुत खास हस्ती नहीं हो जाती..न तो तुम ही स्पेशल हो और न ही मैं...स्पेशल है मेरे वो जज़्बात जिनका क़त्ल कर तुमने आगे का रास्ता अख़्तियार किया..औऱ एक बाद याद रखना कि तुम्हारी जगह कोई और भी होता तो उससे भी मैं ऐसी ही मोहब्बत करता...
पूनमः- (कुछ-कुछ हकलाते हुएआरव..तुम्हारे और मेरे जज़्बातों में बस इतना फ्फर्क है कि तुम्हें अपने अहसासों को लफ्ज़ों में पिरोना आता है और मेरे जज़्बात दिल में कुलाटी मारकर ही दम तोड़ देते हैं....तुम कह सकते हो पर मैं............................
                 और अपनी आदत के अनुसार एक बार फिर पूनम नम आँखें लिये अपने आँसूओं को रोकने की नाकाम कोशिश करने लगी..पर फिर भी पूनम की बांयी आँख से निकली दो आँसू की बूंदें उसके गालों को छूते हूए ज़मीन पर गिर गई...कभी आरव इन आँसूओं को गालों पे आने से पहले ही अपने हाथों में या होंठो पे झेल लेता था पर अब वो निष्ठुर, निर्दयी बना बस एकटक पूनम को निहारता रहा........वक्त के साथ कितना कुछ बदल जाता है।

              दुनिया में मोहब्बत के जज़्बात सबसे अजीब है जिनके सही या ग़लत का फैसला करने वाली कोई अदालत जमाने में मौजूद नहीं है...हर मर्तबा इन जज़्बातों का क़त्ल करने वाला गुनहगार बेनेफिट ऑफ डाउट्स के कारण छूट जाता है और इसके बाद बाहरी दुनिया का हर इंसान अपनी-अपनी नज़ीर और अपने-अपने बयान पेश कर प्रेम को लेकर अपना नज़रिया तय करता है....और प्रेम के पाक जज़्बात भरी महफिलों में बस हंसी के शिगूफे बनकर रह जाते हैं.....................

Monday, June 16, 2014

मेरी प्रथम पच्चीसी : सातवीं किस्त


(स्वांतसुखाय लिखा जा रहा मेरी ज़िंदगी का ये संस्मरण अब तक आधे रास्ते में भी नहीं पहुंच पाया है..क्योंकि अपने गुजश्ता दौर की जुगाली कर उसे सम्यक् तौर पे पेश करने के लिये एक खास तरह के मूड़ की दरकार होती है जो हमेशा नहीं रह पाता..यही वजह है कि तकरीबन एक साल से मेरी प्रथम पच्चीसी के प्रारंभिक 13-14 वर्षों को ही बयां कर पाया हूँ..बहरहाल, ज़िंदगी के अब कुछ खुशनुमा पलों से बाकिफ़ कराना है तो चलिये चलते है अतीत के उस दौर में-जिस वर्ष नेटवेस्ट ट्राफी जीत युवराज और कैफ हीरो बने थे, जब अक्षरधाम और संसद पे हुए आतंकी हमले ने देश को दहलाया था, जिस वर्ष डॉक्टर एपीजे अब्दुल कलाम की राष्ट्रपति पद के लिये ताजपोशी हुई थी..जी हाँ सन्-2002)

अपना घर-आंगन छोड़ एक बार फिर अपनी पुस्तैनी गलियों से दूर जा रहा था..दिल में तनिक भी ख्वाहिश नहीं थी उस अंगने को युं छोड़ आगे बढ़ जाने की..पर दुनिया के निर्मम यथार्थ और किसी अनजाने तथाकथित भविष्य को संवारने मां-बाप के जतन भी जारी थे और वो मुझे उस गाँव की मिट्टी से दूर गुलाबीनगरी की धरा पर पटक आना चाहते थे। ताकि मुझमें भी संस्कारों का संचार हो सके, मैं भी कोई ख्यातलब्ध हस्ती बन सकुं, जहाँ मेरे हुनर को तराशा जाये और इस काबिल बनाये जा सके कि इस फानी दुनिया में खुद के बल पे अपने अस्तित्व को टिकाये रख सकूँ। पर उस नादान बचपन की कहाँ इतनी आरजू होती है कि बड़े होकर अफसरी का लिबास मिले, लाखों-करोड़ों की संपत्ति जुटाई जाये, देश-दुनिया में अपनी शोहरत कमाई जाये। तब तो बस क्रिकेट का कोई दस-ग्यारह रुपये का मैच रखकर उसे जीत लेते थे तो लगता था कि हमसे बड़ा शहंशाह कोई नहीं है, कभी स्कूल के चार दोस्त अपने बड़बोलेपन की तारीफें कर देते तो लगता दुनिया की सारी शोहरत अपने ही कदमों में हैं..घर आयी कोई मौसी या बुआ 10-5 रुपये नेग के बतौर दे जाती तो लगता अपना लाखों का बैंक बेलेंस हो गया है पर ये नादानी थी..हम वो नहीं समझते जो हमारे बड़े समझते हैं। लेकिन एक बात है कि नादानी की ये खुशियां हमें कभी समझदारी से हासिल नहीं हो सकती..क्योंकि नादानी स्वप्न दिखाती है और समझदारी यथार्थ से रुबरू कराती है और सपनों का सौंदर्य यथार्थ से कई गुना खूबसूरत होता है।

खैर, रोते-गाते और जोर-जबरदस्ती के सहारे मेरी मम्मी और मामा ने मुझे अपने उस गांव से दूर कर ही दिया..2002 की 4 अगस्त को मैंने पहली मर्तबा जयपुर की जमीं पर कदम रखा। पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट। जी हाँ यही वो आसरा था जहाँ अगले पाँच सालों के लिये मेरा डेरा जमने जा रहा था..दरअसल जिस्मानी तौर पर तो मेरा इस संस्थान से साथ सिर्फ 5 सालों के लिये जुड़ा पर रुहानी स्तर पे मेरा पूरा जीवन ही इस संस्थान का गुलाम हो गया। मेरे इस वाक्य से इतना तो समझ आ ही गया हो गया कि इस संस्थान की मेरे जीवन में क्या अहमियत रही है..भले ही पहले बहुत न-नुकर की यहाँ आने के लिये पर एक बार यहाँ जमा तो फिर हमेशा के ही लिये इसका हो गया। कहने को तो ये एक जैन संस्था है..पर यहाँ से मुझे मानवता और सांस्कृतिक मूल्यों के ऐसे पाठ सीखने मिले जिसने ज़िंदगी की बाकी राह खुद ब खुद आसान कर दी। मेरे इस वाक्य से ये न समझना कि यहाँ पढ़ लेने के बाद मेरी ज़िंदगी में विपदायें आना बंद हो गई..विपत्तिेयें तो भरसक आयी और आज भी आती हैं पर अब कोई विपत्ति मुझे चित नहीं कर पाती..हां मैं विचलित ज़रूर होता हूँ और गिरता भी हूँ पर इस संस्थान से मिली शिक्षा मुझे फिर खड़े होकर तेज चलने की प्रेरणा दे देती है।

बहरहाल, मैं जयपुर आ चुका था...और लगभग चार दिन बीत जाने के बाद भी मेरा तनिक भी मन यहाँ रुकने का नहीं था..मेरे इस रवैये से मम्मी और मामा को खासे मानसिक त्रास से गुजरना पड़ रहा था। कई लोगों के समझाने के बाद भी दिल अब भी उन्हीं गांव के खेल मैदानों और अपने घर के सामने वाले बरामदे में लगा हुआ था..पर कहना चाहिये कि मेरी होनहार अच्छी थी जो लाख न चाहते हुए भी मेरी मानसिक स्थिति वहाँ रहने के अनुकूल बनी..और इसके लिये मैं दो व्यक्तियों के योगदान को ज़रूर स्मरण करना चाहूंगा-एक मेरे क्लासमेट अमितजी को और दूसरे हमारे संस्थान के तत्कालीन अधीक्षक धर्मेंद्र शास्त्री को..जिनकी हिदायतों ने तब न जाने मुझपे क्या असर किया कि बंदा उन दीवारों में खुद को बांधने के लिये तैयार हो सका।

मैं जयपुर में रुक चुका था..शुरु-शुरु में सब अजीब था। दोस्त कोई था नहीं और जो साथी थे वो मेेरे देहाती लहजे को लेके मजाक भी उड़ाया करते थे और पता लग रहा था कि यार भले अपन अपने गांव के बल्लम खां हैं पर इस भीड़ में अपनी शख्सियत गंगुतेली से गई बीती है। उस संस्थान में कई प्रतियोगिताएं और स्पर्धाएं  होती जिनमें भाग लेने को बहुत जी चाहता पर कभी हिम्मत नहीं जुटा पाता और कभी हिम्मत जुटा के उनमें हिस्सा लिया भी तो अपने आत्मविश्वास की कमतरी का बहुत जुर्माना भरना पड़ा..जी हाँ जिल्लत झेलनी पड़ी जिससे मरे-कुचे आत्मविश्वास की और बारह बज गई। अपना कोई अस्तित्व ही नहीं था उन शुरुआती दिनों में..इसलिये अपनी हस्ती को बनाये रखने के लिये कुछ हुनरमंद और गुंडा टायप दोस्तों की मंडली में दरबारी कवि होने का काम करने लगे..दरबारी कवि बोले तो उनकी चमचागिरि करने लगे। ताकि किसी न किसी तरह पहचान बनी रहे।

जिस-तिस प्रकार उन हालातों से सामंजस्य बिठा रहे थे..और जमके मस्तियों के संंग गलबाहियां कर रहे थे। जयपुर के सारे हॉटस्पॉट चंद महीनों में ही घूम लिये उसका कारण ये था कि मन में ये सोच बन गई थी कि बस एक साल पढकर यहाँ से कलटी मार लेना है..ऐशो-आराम की कोई सुविधा नहीं थी, अनुशासित जीवन शैली, समय की सख़्त पाबंदियां और विलासिता रहित दिनचर्या। इन हालातों में भला नादान दिल कहाँ चैन पा सकता है और इसलिये मैं भाग जाना चाहता था। हालत ये थी कि कभी टीवी पे क्रिकेट मैच आ रहा हो तो बाजार की किसी दुकान पे या किसी होटल में रखी टीवी पे जमीन पर बैठ के उस क्रिकेट मैच का लुत्फ़ लिया क्योंकि टीवी, मोबाइल, इंटरनेट जैसे साधन उस माहौल में और तब के वक्त में हमें नहीं हासिल थे। बहुत सारी चीज़ों में आत्मनिर्भरता भी आ रही थी। अपने बैंक संबंधी, स्कूल-कॉलेज संबंधी सभी काम खुद सेे करना, खुद कपड़े धोना, अकेले सफ़र करना ऐसी कई चीज़ें उस नन्ही उम्र में सीख रहे थे जिससे खुद में जिम्मेदारी का अहसास भी हो रहा था। अबसे पहले तक इन सब कामों को करने के लिये मम्मी-पापा पे आश्रित थे। लेकिन ये आत्मनिर्भरता अंदर ही अंदर एक स्वतंत्र व्यक्तित्व को ग़ढ़ रही थी। ये तब तो हमें बढ़ा कष्टकर जान पड़ता पर आज जब उसे देखते हैं तो मां-बाप और किस्मत को शुक्रिया अदा करने को जी चाहता है।

हमें नया आकार देते हुए समय का पहिया अपनी गति से चल रहा था..और हम उस माहौल को एडजस्ट भी करने लगे थे और उस एडजस्ट करने में कहीँ संस्थान के नियमों से रिश्ता जोड़ लिया था तो कुछ नियमों को तोड़ दिया था। मुझे अच्छे से याद है जब हमने 2003 का वर्ल्ड कप देखने के लिये उस संस्थान में गैरकानूनी ढंग से एक छोटा टीवी खरीदकर रखा था क्योंकि दक्षिण अफ्रीका में हुए उस वर्ल्डकप के अधिकांश मैच देर रात तक चलने वाले थे और तब हॉस्टल के बाहर जाकर कहीं टीवी देख पाना तो संभव नहीं था न। नियमों की सख्ती के बीच कोई अपने मन का काम कर लेने का मजा ही कुछ और है..पर हाँ ये ज़रूर है कि मैंने वहाँ रहते हुए भले कितने ही नियम तोड़े पर कभी खुद को अनैतिक नहीं होने दिया..मेरी स्वच्छंदता ने कभी उद्दंडता का रूप  अख्तियार नहीं किया.. इसका कारण मेरे परिवार और माँ-बाप के संस्कार ही हैं जिनकी बदौलत नियमों को भी नियमों के दायरे में रहते हुए तोड़ा। ज़िंदगी बढ़ रही थी और मेरे अंदर एक नयी शख्सियत अपना रूप गढ़ रही थी...घटनाएं तो कई हैं जिन्होंने मुझे आकार दिया पर सबका ज़िक्र न संभव है और न ही रोचक। इसलिये ठहरते हैं पर अगली किस्त में कुछ नयी घटनाओं और नये जज़्बातों के साथ फिर हाज़िर होता हूँ..........................

ज़ारी.........