हिंदी सिनेमा ने २०१० के विदाई के साथ ही एक दशक को विदा कह दिया। २०११ के साथ एक नया दशक नयी उम्मीदों के साथ सामने हैं...पिछले दशक ने न्यू-एज्ड सिनेमा के रूप में हमें एक नए तरह के सिनेमा से मुखातिब कराया और अब एक बार फिर कुछ ऐसे ही नयेपन की आस है...और इस आस को २०११ के पहले माह में रिलीज फिल्मों ने और अधिक बढ़ा दिया है...बात 'नो वन किल्ड जेसिका' और 'धोबी घाट' की करना है.......
पहले तो बता दूँ कि कैसे ये फ़िल्में सिनेमाई परंपरा को तोड़ती है...दोनों फ़िल्में मार-धाड, रोमांटिक सीन, गीत-संगीत, इश्क-मोहब्बत या शीला-मुन्नी-चुलबुल पांडे टायप के मसालों से रहित हैं...न पूरा यथार्थ है जिससे ये वृत्तचित्र सिनेमा नहीं है और नाही पूरी कल्पना है जिससे ये खालिश व्यावसायिक सिनेमा भी नहीं रह जाता। ये यथार्थ के रोल में कल्पना का क्रीम डालकर तैयार किया ऐसा क्रीमरोल है जो असल मानवीय स्थिति-परिस्थिति, जज्बातों के करीब जान पड़ता है। सिनेमा देखने वाला सारा दर्शक वर्ग इस पर मुग्ध नहीं होगा, इसका लक्षित दर्शक वर्ग सीमित है।
'नो वन किल्ड जेसिका' एक यथार्थपरक घटना पर निर्मित एक बेहतरीन दस्ताबेज बन गया है। जिसे देख दर्शक जेसिका के मर्डर से खुद को जोड़ उस घटना के लिए आक्रोशित होता है। उसे सिस्टम के आगे पिसते आम आदमी की घुटन महसूस होती है...और दिल में इस व्यवस्था के खिलाफ हुंकार भरने की कुलबुलाहट होती है। फिल्म देखते वक़्त उसका खून भी खोलता है पर थियेटर के बाहर आकर उसे असल का बोध होता है कि इस बड़े से तंत्र में वह एक पुर्जा भर है। निर्देशक राजकुमार गुप्ता का सधा हुआ निर्देशन एक सीन भी मिस करने से रोकता है...और फिल्म के आगे बढ़ते जाने के साथ दर्शक भी अपनी सीट पे आगे की ओर खिंचा चला जाता है। रही सही कमी रानी मुखर्जी और विद्या बालन के दमदार अभिनय से पूरी हो जाती है।
ठीक इसी तरह का नयापन 'धोबीघाट' में है...नयेपन की आस तो हालाँकि तब से ही थी जब से इसके साथ आमिर का नाम जुड़ा था। लेकिन आमिर को पसंद करने वाले विशाल दर्शक वर्ग में से एक हिस्से को निराशा मिली जो दर्शक वर्ग गजनी और फ़ना वाले आमिर को चाहता हैं। एकलठाठिया सिनेमा का हुल्लड़, मनमौजी दर्शक भी खुद को ठगा हुआ महसूस करेगा... क्योंकि ये फिल्म न हसाती है, न उकसाती है, न नचाती है ये तो बस बताती है और क्या बताती है ये भी दर्शक को अपनी बौद्धिक क्षमताओं के अनुसार तय करना होगा। दरअसल ये एक ऐसी पेंटिंग है जो किसी के लिए सिर्फ रंगों का धब्बा है तो किसी के लिए इसमें आशावादी छवियाँ उभरती हैं तो किसी के लिए निराशावादी। इसे पसंद करने वाला मल्टीप्लेक्स सिनेमा का, नजरदार दर्शक होगा...ये फिल्म एक ऐसा आर्ट है जिसमे सिनेमाई ट्रेंड्स शामिल है।
प्रतीक बब्बर और मोनिका डोंगरा के बेमिसाल अभिनय का सुरूर सर चढ़कर बोलता है। यहाँ फिल्म समीक्षक दीपक असीम की बात याद करना चाहूँगा कि "जितना अभिनय कैटरीना कैफ अपनी १०० फिल्मों में नहीं कर पाएंगी उतना अभिनय मोनिका ने एक-२ फ्रेम में किया है"। इन दो कलाकारों का नाम लेकर मैं आमिर खान की महिमा कम नहीं कर रहा..दरअसल आमिर की क्षमताओं से हम परिचित हैं और उनसे तो बेहतरी की उम्मीद होती ही है...मैं बस ये बताना चाहता हूँ कि आमिर से प्रतीक, मोनिका और कृति मल्होत्रा उन्नीस साबित नहीं हुए और आमिर ने भी उनके रोल पर अतिक्रमण की कोशिश नहीं की... और इन सब अदाकारों के बीच सबसे खूबसूरती से अभिनय करती नजर आई है-मुंबई नगरिया। ऐसा लगता है मुंबई की मोनो एक्टिंग पर कोई पीछे से वाइस आवर दे रहा हो। कुछ दृश्य तो लाजवाब बन पड़े हैं। फिल्म में इंटरवल नहीं है क्योंकि मध्यांतर के होने से जज्बातों का वो रेशा टूट जाता जिसे ये फिल्म होले-होले करीने से बुन रही थी। फिल्म देखने के बाद स्तब्ध से हो जाते हैं समझ से परे होता है क्या सोचे, क्या बोले, क्या प्रतिक्रिया दे?
इन दोनों फिल्मों ने भारतीय सिनेमा के रुख को भले बदला न हो पर एक हल्का सा पेंच जरुर दिया है। मैं ये नहीं कहूँगा की इन फिल्मों में कोई कमियां नहीं हैं...वे हैं पर उद्देश्यों की महानता में कमियों को नजरंदाज कर देना चाहिए...और आज के दौर में जहाँ 'गुजारिश' जैसा सार्थक सिनेमा फ्लॉप होता है और चुलबुल पांडे की अतार्किक दबंगई चलती है वहां 'धोबी घाट' और 'जेसिका' का बनाया जाना तारीफेकाबिल है।
बहरहाल, ये तो साल की शुरुआत भर है हमें उम्मीद है कि आने वाले समय में कुछ और नगीने हमारे सामने होंगे...जो सिनेमा की दशा और दिशा दोनों के निर्धारण में सहायक साबित होंगे। हमें मलाल शीला और मुन्नी से नहीं..नाही हम दबंग, हाउसफुल और तीसमारखां से चिढ़ते है...ये सारी फ़िल्में बने और खूब फले-फूले...लेकिन गोलमाल और तीसमारखां में भरे सिनेमाहाल देखने के बाद 'अ वेडनेसडे', 'आमिर' और 'धोबीघाट' जैसी फिल्मों में खाली सीटें देखना खलता जरुर है......
सिनेमा जगत हमेशा से ही व्यावसायिक रहा है... और कौन नहीं कहेगा की लागत तो निकल ही आए, फ़िर चाहे वो किसी भी व्यवसाय में हो...
ReplyDeleteरही इन दो फिल्मों की बात... तो आज के दर्शक बदलाव चाहते हैं... वो ऊब चुके हैं उन्हीं कहानियों से... सो बदलाव और रहा है...
पहले से अब तक का सिनेमा कितना बदल चुका है...
तो तैयारी कीजिये... अभी तो शुरुआत है...
रानी और विद्या, दोनों ही मंझे हुए कलाकार हैं... उन्हें फेम पाने के लिए छोटे कपड़ों या ढेर सारे मेक-अप की जरूरत नहीं है... और आमिर तो हमेशा से ही कुछ नया दिखने में विश्वास रखते हैं और इस फिल्म से हमें किरण जी का भी फ्लेवर मिल गया...
no one killed jessica th i saw! i liked it.
ReplyDeletehaven't seen dhobi ghat as yet. looking forward to see it now!
अच्छी प्रस्तुती बेहतरीन विश्लेषण
ReplyDeleteअंकुर मैं तुम्हे इस बात की कितनी बधाई दूं और कितनी तारीफ करूं। समझ नहीं आ रहा। दरअसल तुमने दो फिल्मों को केंद्र में रखकर पूरे सौ साल के सिनेमाई कल्चर और दर्शकों की जज्बातों तक को बखूबी उतारा है। वास्तव में तुम्हारी इस प्रतिभा से मैं बिल्कुल ही अनवाकिफ रहा हूं। आज पहली बार तुम्हारी सोच के पंख लगे घोड़ों की आसमानी सैर का अनुभव हुआ। विचार शक्ति दुनिया की सबसे बड़ी ताकत है, जो अंकुर जैन में कूट-कूट कर भरी पाता हूं। तुम्हारी लेखन प्रतिभा और चीजों को कहने की शैली की मैं मुक्त कंट से प्रशंसा करता हूं। मस्तिष्क के ओने-कोने तक पहुंचना आसाना काम नहीं होता। आमतौर पर दो तरह की धाराएं होती हैं, जो पढ़ते रहते हैं, वे अध्यापक और अच्छे एकडमीशियन बन जाते हैं, लेकिन जो पढक़र कुछ सोचते भी हैं, और वैसा नहीं जो बारिश के बेजा पानी से मवेशियों के पैरों से बने गोहे में घुसकर सोचा जाता है। वे हर पल नया प्रयोग अनुभव, कुछ करके देखने का साहस और वो सब भी आजमाते हैं, जो उन्हें आजमाने से परंपराएं रोकती हैं। वे सफलता के निर्धारित मार्ग से न जाकर असफलता के कंटीले रास्तों से सफलता की नितनई ऊंचाइयां तय करते हैं। प्रिय अंकुर एक बार फिर तुम्हारी लेखनी की मैं बहुत तारीफ और बहुत तारीफ करता हूं। और तारीफ में दो सौ का गुणा करके तुम्हारे विचारों और सोच की ऊंचाइयों की तारीफ मान लेना।
ReplyDeleteवरुण
bhai ankurji bahut bahut badhai aapke blog ka naam aur kam arthat lekh sabhi achchhe hai.aata rahunga
ReplyDelete@ barun sir- sir bahut-2 shukriya...aapki shubhkanaon ko 200 ka guna karke sweekar karta hun...
ReplyDelete&
thnx poojaji, rachnaji, sepoji, jaikrishnji.....
ankur bhai ..kya baat hai bahut khoob likh ahai bhai
ReplyDeleteटीवी पर ठगी का धंधा जोरों पर ........!
ReplyDeleteनई पोस्ट पर आपका स्वागत है
सिनेमा पर आपकी लेखनी की मै मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हूँ...
ReplyDeleteलिखते रहिये ... आपकी लेखनी ने मुझे फिल्मे देखने के लिए प्रेरित कर दिया है सर....
नहीं तो फिल्मो में मेरी इतनी रूचि पहले कभी नहीं थी.. यह तो जय प्रकाश चौकसे और आपका असर है अब फिल्म
सिनेमा पर आपकी लेखनी की मै मुक्त कंठ से प्रशंसा करता हूँ...
ReplyDeleteलिखते रहिये ... आपकी लेखनी ने मुझे फिल्मे देखने के लिए प्रेरित कर दिया है सर....
नहीं तो फिल्मो में मेरी इतनी रूचि पहले कभी नहीं थी.. यह तो जय प्रकाश चौकसे और आपका असर है अब फिल्म
फिल्मों पर आपका लेखन जबरदस्त है
ReplyDeleteबहुत सुन्दर लगी आपकी समीक्षात्मक पोस्ट
बधाई
आभार
जेसिका एक प्रभावी फिल्म है ... हर दृष्टि से ..पर सच कहूँ तो धोबी घाट ने मुझे बिल्कुल भी प्रभावित नही किया ...
ReplyDeleteमैं फ़िल्में देखता नहीं लेकिन आपकी समीक्षा निश्चित ही लाभदायक सिद्ध होती है ...आपका आभार अंकुर जी
ReplyDelete