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(पुनः लंबे विलंब के बाद अरसे पहले शुरु की अपने जीवन की इस श्रंख्ला के अगले पड़ाव को लिखने के लिये उद्धृत हूँ। जीवन की तथाकथित व्यस्तताएं हमसे उन्हीं चीज़ों से वक्त छीन लेती हैं जिन्हें हम वाकई करना चाहते हैं। लिखना और पढ़ना जीवन की सबसे जरुरी चीज़ें हैं मेरे लिये..यही मेरा मनोरंजन है और यही ताजगी का असल स्त्रोत किंतु महत्वाकांक्षा के नाम पर लोभी हो करियर के लिबास में दरअसल एक बोझा ढोना मजबूरी बन जाता है और फिर इस अर्थ संचय के लिये किये गये प्रयत्नों से हमारी रचनात्मक शक्ति क्षीण होती चली जाती है...बहरहाल इस दर्शन को पिलाना मेरा उद्देश्य नहीं है। सीधे आगे बढ़ता हूँ...जीवन के पहले पच्चीस बसंतों में से अब तक बीसवे वर्ष के पड़ाव तक पहुंच गया हूं...अब अगले वर्षों की दास्तां बताता हूँ... )
गतांक से आगे...
2008। मेरे लिये यही वो वर्ष था जिसने यौवन की दहलीज पर कदम रखते एक नवयुवा को हर वो अनुभव दिया जिसका स्वपन हर उन्मादी पुरुष अपने जीवनकाल में देखता है। हायर सेकेण्डरी उत्तीर्ण कर कॉलेज या युनिवर्सिटी में अध्ययन करने का आकांक्षी युवा ख़यालों में ऐसे ही किसी दौर को चाहता है..बस यूँ समझ लीजिये ये कौमार्य का ऐसा ही कोई दौर था। मौज या ऐश करने की सबकी भिन्न परिभाषाएं हो सकती हैं...उन परिभाषाओं के पैमानों पर मेरे ये अनुभव भी कम या ज्यादा रूप से कुछ-कुछ उसी श्रेणी में रखे जा सकते हैं...लेकिन एक बात स्पष्ट कर दूं कि मेरे मौज की उत्तंग तरंगों ने कभी अपनी सीमाओं का उल्लंघन नहीं किया। मैं ये नहीं कहता कि इसमें सिर्फ मेरी इच्छाशक्ति या संस्कारों की प्रबलता थी बल्कि यूं कहिये इच्छाशक्ति के साथ मेरी किस्मत भी अच्छी थी जिसकी वजह से कभी मैंने अपने दायरे नहीं लांघे..और यही वजह है कि आज भी मैं पूरे गुरूर के साथ अपने चरित्र को निहार सकता हूँ। कॉलेज लाइफ के अनेक अनुभवों से गुजरने के बावजूद भी यह नहीं कहा जा सकता कि मुझे 'कॉलेज की हवा लग गई'।
खैर, महिला सहपाठियों से मित्रता बढ़ी, ग्रुप्स बने और घूमना-फिरना, पार्टी जैसे उन्मत्ता के कई रंग चढ़े। युनिवर्सिटी में हुए खेलों और कई अन्य सांस्कृतिक गतिविधियों में पुरस्कार प्राप्त किये तो विद्यार्थियों के एक अलग एलीट ग्रुप में शामिल हुआ। विद्यार्थी जीवन में अक्सर वर्तने वाले अस्तित्व के संकट से मुक्त हुआ। खुद की पहचान पाई। सहपाठी और सहपाठिनों ने खुद से पहल कर मित्रता करना शुरु की। निगाहें, आसपास के दायरे में ही कोई हमसफर तलाशने लगीं। प्रेम के पल्लवन के अहसास जागे। इस उम्र में प्रेम के नाम पर किसी विपरीत लिंग के प्रति जो छटपटाहट होती है उसमें वास्तव मेंं शारीरिक परिवर्तन और एक कथित प्रेस्टीज का मुद्दा ही मुख्य होता है। या यूं कहें कि हमारे सिनेमा-साहित्य और समाज ने एक ऐसी परिपाटी का निर्माण किया है जिसमें कॉलेज और युनिवर्सिटी में बिताये जाने वाले लम्हों को 'प्रेम का काबा-काशी' साबित कर दिया है। किताबों में मुरझाये गुलाब के फूल, सिकुड़े से प्रेम पत्र और अब झटपट मोहब्बत के प्रतीक बने व्हाट्सएप्प-फेसबुक के मैसेज या ईमेल कॉलेज के आवश्यक पाठ्यक्रम का हिस्सा माने जाते हैं। बस इसी जरुरी पाठ्यक्रम के कुछ चैप्टर पढ़ने की उत्कंठा अपने हृदय में भी बसा करती थी और तलाशते थे किसी ऐसे कंधे को जिस पर सिर रखकर रोया जा सके या अपनी उपलब्धियों का गुमान उसकी निगाहों में देखा जा सके।
जो सीरियसली वाली मोहब्बत या देवदासी फितूर होता है वो प्रेम के आगाज के वक्त नहीं होता। शुरु में तो अक्सर टाइमपास और प्रेस्टीज मजबूत करने की भावना ही प्रबल होती है किंतु आगाज़ चाहे जिस भी भावना से हो पर प्रेम जब परवान चढ़ता है तो क़त्ल करके ही दम लेता है...प्रेम का आगाज़ चाहे जैसा भी हो किंतु अंजाम कुछ भी नहीं। ये शुरु होकर सिर्फ रास्तों में ही रहता है...मंजिल पे पहुंचने का भ्रम तो हो सकता है पर मंजिल प्रेम में है ही नहीं और जिसे हमने मंजिल मान रखा है वहाँ दरअसल चाहे जो भी हो पर प्रेम कतई नहीं।
ऐसी ही किसी लालसा से हम भी तलाशा करते थे...अहसासों के सिलेबस में पूछे गये कुछ मनचले सवालों के नोट्स। लेकिन वो कहते हैं न प्रेम न बाड़ी उपजे, प्रेम न हाट बिकाये...बस तो ऐसा ही कुछ हमारे साथ हुआ और चाहने से क्या होता है प्रेम का पुष्प जब पल्लवित होना हो तभी होता है आपके ढूंढे से इसकी ओर-छोर-कोर की प्राप्ति नहीं की जा सकती। और जैसा कि मैं इस पच्चीसी की नौंवी किस्त में बता चुका हूँ कि कम उम्र में ही साहित्य की देशी और सांस्कृतिक परंपरा से रुबरु होने के कारण प्रेम का कोई कुत्सित रूप मुझे गंवारा नहीं था...मैं तो धर्मवीर भारती की नायिका सुधा, कालिदास की शकुंतला और शरदचंद्र की परिणीता को ही तलाशा करता था कॉलेज के गलियारों में। जो तब तो न मिल सकी...क्योंकि कालचक्र पर इस घटना का आविर्भाव तब तक न होना ही लिखा था...इसलिये प्रेम सरीके दिखने वाले छुटमुट सायों की छांव से दो-चार होकर वापस लौट आये...प्रेम की दास्तां सुनने के लिये अभी कुछ किस्तों का इंतजार और करना होगा।
कॉलेज का ये वर्ष यौवन के खुशनुमा अहसासों की वजहों से कुछ जल्द ही बीत रहा था...इसी वर्ष में कॉलेज का एजुकेशन ट्रिप गोवा, मुंबई, पुणे की यात्रा पर गया। एजुकेशन के नाम पर जाने वाले ये ट्रिप जिंदगी की सबसे खूबसूरत यात्राएं होती हैं। जिनमें तथाकथित महाविद्यालयीन शिक्षा के अतिरिक्त सब कुछ होता है...लेकिन ये बिना किताबी तालीम के भी जिंदगी के कई अहम् पाठ हमें सिखा देते हैं। अपनी इस यात्रा का वर्णन मैंने अपने इसी ब्लॉग पर लिखे जिंदगी का सफ़र और सफ़र में ज़िंदगी नामक पोस्ट में किया है...विस्ताररुचि वाले वहां से पढ़ सकते हैं। इस यात्रा के सालों बाद अब भी कभी वे संस्मरण आंखों के सामने झूलते हैं तो उस दौर में वापस लौटने को जी चाहता है...उन्हीं रिश्तों, उन्हीं बचकाने अहसासों और उन यारों की महफिलों में होने वाली ऊटपटांग हरकतों का दीदार करने को जी चाहता है। लेकिन........ख़यालों में तो रिवर्स गियर हो सकता है पर ज़िंदगी में नहीं।
बहरहाल, उन घटनाओं के साथ लौटूंगा जल्द....एक मर्तबा फिर अपनी यादों को रिवर्स कर। और चुराने की कोशिश करूंगा इसी वर्तमान में अतीत के गुजारे खट्टे-मीठे लम्हों को...अगली किस्त में। फिलहाल रुकता हूँ।
जारी....................
कॉलेज के जीवन में एक हौसला ए जिन्दगी होता है, वही अनेक रूपों में प्रस्फुटित होता है।
ReplyDeleteएक अलग जीवन, एक अलग सोच जो केवल यादों में ही बाकी रह जाती है। कॉलेज जीवन की यादें ताज़ा करती प्रभावी प्रस्तुति।
ReplyDeleteएक अलग जीवन, एक अलग सोच जो केवल यादों में ही बाकी रह जाती है। कॉलेज जीवन की यादें ताज़ा करती प्रभावी प्रस्तुति।
ReplyDeletenice one..
ReplyDeletedunia shayri ki
best shayri forever
Two Line Shayri Hindi Kumar Vishwas shayri
very sad shayri Hindi love storys
Two Line Shayri Hindi sad shayri
Two Line Shayri Hindi love shayri
Two Line Shayri Hindi Kumar Vishwas shayri
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