Friday, July 5, 2013

मैं तो खुद को देख ही रहा हूं ना.....!!!!!

इन दिनों एक चार पहिया वाहन का विज्ञापन कुछ इस तरह से प्रस्तुत किया जा रहा है जिसमें वाहन चालक आधी रात को ड्राइविंग करते हुए सुनसान रोड पर भी लाल बत्ती देख गाड़ी को रोक देता है...इस पर उसके मित्र द्वारा ये कहने पर कि अरे! बढ़ा गाड़ी कोई नहीं देख रहा..तो वाहन चालक का उत्तर होता है मैं तो देख रहा हूँ न। विज्ञापन में प्रस्तुत ये रवैया नैतिकता की सर्वोत्कृष्ट आचार संहिता को प्रदर्शित करता है। यह महज़ उत्पाद बेचने का, वाहन निर्माता कंपनी का अपना तरीका होगा किंतु इस संपूर्ण विश्व में समस्त आचार-विचार-व्यवहार के मानक वास्तव में इस एक सोच से संभव हो सकते हैं और शायद जितनी भी मात्रा में ये आज साकार हो रहे हैं उसमें भी कहीं न कहीं यही सोच महत्वपूर्ण है।

प्रोफेसर जॉन सी.मेरिल ने पत्रकारिता की आचार संहिता बताते हुए तीन बातों का ज़िक्र अपनी पुस्तक में किया है जिसमें समस्त वो चीजें गर्भित हो जाती हैं जिससे नैतिक कृत्यों के मानक निर्धारित किये जा सकते हैं। उन्होंने तीन चीजें न करने को कहा है- पहली वे जो कानून और संविधान विरुद्ध हों, दूसरी वे जो समाज विरुद्द हों और तीसरी वे जिन्हें करने से हमारी अंतरात्मा मना करती हो। इन तीनों बिन्दुओं में तीसरा बिन्दु उन तमाम चीजों को गर्भित कर लेता है जो प्रथम दो बिन्दुओं में छूट जाती हैं..और इस तीसरे बिन्दु का दायरा बहुत बड़ा है। ये न सिर्फ पत्रकारिता की आचार संहिता हेतु महत्वपूर्ण हैं बल्कि जीवन की भी एक मानक आचार संहिता को निर्धारित करता है।

इस दुनिया में कुछ चीजें हैं जो एक अज्ञात शक्ति का काम करते हुए संपूर्ण विश्व को चला रही हैं मैं यहां अज्ञात शक्ति के ज़रिये किसी ईश्वर या ऐसी ही किसी पारलौकिक शक्ति की बात नहीं कर रहा हूं। यहां मैं बात कर रहा हूँ- मूल्यों की। जी हां..यद्यपि पूरे विश्व में हर देश और संस्कृति के मूल्य भिन्न-भिन्न हैं किंतु उनमें से कुछ मूल्य ऐसे हैं जो सर्वत्र सत्य है और हर जगह उन मूल्यों के आधार पर ही नियम-कानून, विधान आदि तय किये गये हैं.. जैसे सत्य, अहिंसा, ईमानदारी, त्याग, समर्पण, करुणा, परोपकार इत्यादि। ये कोई आज या कल तय किये गये मानक नहीं हैं और न ही किसी महापुरुष ने पैदा होकर इन्हें उद्धृत किया है। जिन्हें हम महापुरुष या ईश्वर तुल्य मानते हैं उन्होंने सिर्फ इन मूल्यों का उद्घाटन किया है न कि सृजन। इन्हें अपने जीवन में साकार कर लोगों को मानक जीवन की प्रेरणा दी है न कि लोगों पर इन्हें थोपा गया है। उन तमाम महापुरुषों ने भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर इन्हें अपनाया और परवर्ती जो भी लोग रहे हैं उन्होंने भी अपनी अंतरात्मा की आवाज पर ही इन्हें अपने जीवन का अंग बनाया..महापुरुषों की प्रेरणा उनके लिये एक शुरुआत हो सकती है पर मूल्यों की पराकाष्ठा उन्होंने स्वयं से ही प्राप्त की।

यही मूल्य वो अज्ञात शक्ति हैं जिस पर संपूर्ण मानव जाति की न्याय, समता, प्रतिष्ठा और अक्षुण्णता की लौ दैदीप्यमान है। भले सर्वत्र कितनी ही पापी और विकृत प्रवृत्ति व्याप्त हों पर ये मूल्य जस के तस बने हुए हैं दरअसल ये हमारी संस्कृति और समाज में कुछ ऐसे घुल गये हैं कि अपराध और विसंगतियों की भयंकर लहरें भी इन्हें ख़त्म नहीं कर पा रही।  कुत्सित प्रवृत्ति का व्यक्ति भी कोई अपराध करने के बाद भय औऱ ग्लानिभाव से ग्रस्त रहता है उसका कारण बस यही है कि कोई देखे न देखे वो खुद स्वयं को देख रहा है। लोग भले कितना ही ये क्यों न कहें कि कुछ अच्छा-बुरा नहीं होता पर एक सच ये भी है कि कुछ चीजें सिर्फ अच्छी ही होती है चाहे कोई भी क्षेत्र, कोई भी काल क्यों न हो...इसी तरह कुछ चीजें बुरी ही होती है हर क्षेत्र-हर काल में। सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है सिर्फ हमें सुनना ये है कि हम खुद अपने से क्या कह रहे हैं।

अक्सर मनुष्य के व्यक्तित्व का वो विकृत पक्ष जो उसे दुष्कृत्यों की तरफ उकसाता है, हावी होकर उसकी विचारशक्ति को क्षीण कर देता है और हममें उस पक्ष से लड़ने के लिये कोई दूसरा मजबूत विचार या विवेकशीलता नहीं होती। हम सिर्फ तात्कालिक परिणामों के फेर में आकर दूरगामी परिणामों को भूल जाते हैं और यही भूल, पाशविक कृत्यों की जननी साबित होती है। शिक्षा का महत्व वास्तव में यहीं समझ आता है कि हमारे पास वो विचारशक्ति किस हद तक विकसित हुई है जिसके बल पर हम अपने आप की आवाज को बेहतर ढंग से सुन पायें। आहार, भय, मैथुन, परिग्रह, लालच ये कुछ ऐसी पाशविक प्रवृत्तियां हैं जो हर इंसान में उसी तरह समानांतर रूप से व्याप्त होती हैं जिस तरह से सत्य, दया, करुणा, त्याग, परोपकार आदि सद्भावनाएं निवास करती हैं। हमारी शिक्षा, संस्कार और वातावरण;  इन दो विपरीत भावों में से कौन सा हम पर हावी होगा और कौन-सा नहीं, इस बात का निर्धारण करती हैं पर अंतिम निर्णय हमारी अंतरात्मा को ही लेना होता है। या तो उस अंतस की आवाज को सुन लिया जाता है या फिर हम खुद के आँखो और कानों को बंद कर अपनी दुष्कृत प्रवृत्ति को अंजाम दे देते हैं।

बहरहाल, बात एक विज्ञापन से शुरु हुई थी और इस पूरे लेख ने एक दार्शनिक उपदेश का रूप ले लिया, जो मेरा उद्देश्य कतई नहीं था। लेकिन ये हक़ीकत है कि हमारी अंतरात्मा की पहली आवाज हमेशा सही होती है पर हम उसे अनसुना-अनदेखा कर वो कर जाते हैं जो हमें नहीं करना चाहिए। मानसिक ऊहापोह और अनर्गल बौद्धिक व्यायाम, सिर्फ हमारे संशय को बड़ा बनाता है किसी योग्य निर्णय तक नहीं पहुंचा पाता। वैसे ये विज्ञापन और इस जैसे कई दूसरे विज्ञापन, जिनमें इसी तरह दार्शनिकता का उत्तम पुट रहता है...हमारे दिमाग पे सीधे स्ट्राइक करते है। न सिर्फ उस उत्पाद को खरीदने के लिये, बल्कि हमें हमारी जिम्मेदारी का ज्ञान कराने के लिये भी..जिन जिम्मेदारियों से हम अक्सर ये कहकर मूँह मोड़ लेते हैं कि अरे! कोई नहीं देख रहा....पर जनाब हर वक्त, हर जगह मैं तो खुद को देख ही रहा हूँ न...और खुद से किये गये किसी भी छल से, आखिर मैं कब दोषमुक्त हो पाउंगा......

23 comments:

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    1. धन्यवाद सुष्मा जी..

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  2. अक्सर मनुष्य के व्यक्तित्व का वो विकृत पक्ष जो उसे दुष्कृत्यों की तरफ उकसाता है, हावी होकर उसकी विचारशक्ति को क्षीण कर देता है और हममें उस पक्ष से लड़ने के लिये कोई दूसरा मजबूत विचार या विवेकशीलता नहीं होता............
    शिक्षा का महत्व वास्तव में यहीं समझ आता है कि हमारे पास वो विचारशक्ति किस हद तक विकसित हुई है जिसके बल पर हम अपने आप की आवाज को बेहतर ढंग से सुन पायें।.............आपका यह लेख उत्‍कृष्‍ट कोटि का है। बहुत ही मनोवैज्ञानिक विश्‍लेषण किया है आपने अपनी अन्‍तरआत्‍मा की सकारात्‍मक आवाज पर स्थिर रहने का। वाक्‍य-विन्‍यास, कथ्‍य-मर्म, पठनीयता आदि कारक इस आलेख को अविस्‍मरणीय बनाते हैं। बहुत अर्थवान व्‍याख्‍या.....शुभकामनाएं।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपके इस उत्साहवर्धन के लिये...

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  3. बहुत बढ़िया लेख शुभकानाएं................ मेरी एक विशेष रिक्वेस्ट टमाटर के विषय पर कोई व्यंग प्रेषित करो। बाबा चिंतित है आज कल ...................

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  4. बहुत बढ़िया लेख....
    आमतौर पर दार्शनिकता के लेक्चर पढना अच्छा नहीं लगता पर कभी कभी वास्तव में खुद को परखना/पहचानना ज़रूरी है...
    बधाई इस सार्थक लेखन के लिए !
    अनु

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    1. धन्यवाद अनुजी...

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  5. U've pen down ur thoughts very nicely. बहुत बढ़िया and thoughtful लेख. Thanks 4 sharing.

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  6. सही कहा अंतरात्मा से निकली पहली आवाज ही सही होती है हमें उसे इग्नोर नहीं करना चाहिए अच्छी आलेख !!

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    1. हमारी अंतरात्मा से बढ़कर कोई हमारा हितेशी नहीं हो सकता...धन्यवाद आपका।।।

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  7. दृष्टि और विचार-संपन्‍न गंभीर पोस्‍ट.

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    1. शुक्रिया आपके उत्साहवर्धन के लिये...

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  8. इस दुनिया में कुछ चीजें हैं जो एक अज्ञात शक्ति का काम करते हुए संपूर्ण विश्व को चला रही हैं
    .......बहुत बढ़िया लेख....शुभकामनाएं।

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    1. उस अज्ञातशक्ति को पहचान कर उसको जीवन में स्वीकार करना ही सबसे अहम् ध्येय होना चाहिये इस जीवन का...धन्यवाद आपकी प्रतिक्रिया के लिये।।।

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  9. सवार्धिक दुख स्वयं के न्यायक्षेत्र में पाते हैं हम।

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    1. सही कहा प्रवीणजी...

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  10. यह बात हर क्षेत्र में हर जगह प्रासंगिक है. विचारणीय आलेख.

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    1. धन्यवाद आपके इस उत्साहवर्धन के लिये...

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  11. विचार शक्ति को कई बार मेनेगेमेंट के सिद्धांत की तरह प्रयोग करने से आसानी हो जाती है ... फिर जितनी भी तरह के विचार आएं ...

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  12. bahot hi vicharottejak or prabhahi lekhan....

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    1. धन्यवाद आपका।।।

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  13. 21 year tak to mene anteratma ki awaj ko sunkr ansuna kiya isliye sayad life yesi ho gai but sir ane wali life ke liye bahut acha likha sir....... thanx

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